तो सब पैदल ही चलेंगे

तो सब पैदल ही चलेंगे

अभी कुछ दिन पूर्व मुझे एक लेख मिला है। उसमें एक घटना पढ़कर मैं उछल पड़ा। महात्मा हंसराज, प्रिं0 दीवानचन्दजी, कानपुर तथा प्रिंसिपल साईंदासजी श्रीनगर गये। तभी वहाँ आर्यसमाज का उत्सव रखा गया। महात्मा हंसराजजी को उनके निवासस्थान से उत्सव के स्थान पर पहुँचाने के लिए डी0ए0वी0 कालेज के एक पुराने स्नातक अपना निजी टाँगा लेकर आये। वह स्नातक वहाँ मुंसिफ के पद पर थे।

महात्माजी और उनके साथी टाँगे में बैठ गये। मुंसिफ महाशय भी बैठ गये। आगे गये तो मार्ग में महाशय ताराचन्द जी भी मिल गये। वे भी उत्सव स्थल की ओर जा रहे थे। वे महाशयजी कौन थे, यह एकदम निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। उन्हीं ताराचन्दजी ने स्वयं आर्यगज़ट में यह घटना लिखी। मेरा विचार है कि यह ताराचन्द (स्वामी अमृतानन्दजी) ही थे। महात्माजी ने उन्हें भी टाँगे पर बैठने के लिए कहा। उन्होंने कहा-‘‘नहीं, मैं पैदल ही आ

जाऊँगा। आप चलिए।’’

टाँगे में केवल चार सवारी ही बैठ सकती थीं, ऐसा राजनियम था। इस पर महात्मा हंसराजजी ने कहा-‘‘तो हम सब पैदल ही चलेंगे।’’ यह कहकर वे उतर पड़े और यह देखकर साथी भी उतर

गये। तब मुंसिफ ने कहा ‘‘टाँगा ड्राईवर पैदल आ जाएगा। मैं टाँगे का ड्राईवर बनता हूँ।’’ ऐसे शिष्ट एवं विनम्र थे मुंसिफ महोदय और महात्मा हंसराजजी!

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