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वेदप्रचार की लगन ऐसी हो

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो

आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवाले एक निष्ठावान् आर्य विद्वान् थे। ‘प्रभुभक्त दयानन्द’ जैसी उज़म कृति उनकी ऋषिभक्ति व आस्तिज़्य भाव का एक सुन्दर उदाहरण है। अजमेर के कई पौराणिक

परिवार अपने यहाँ संस्कारों के अवसर पर आपको बुलाया करते थे। एक धनी पौराणिक परिवार में वे प्रायः आमन्त्रित किये जाते थे। उन्हें उस घर में चार आने दक्षिणा मिला करती थी। कुछ वर्षों के पश्चात् दक्षिणा चार से बढ़ाकर आठ आने कर दी गई।

एक बार उस घर में कोई संस्कार करवाकर आचार्य प्रवर लौटे तो पुत्रों श्री वेदरत्न, देवरत्न आदि ने पूछा-ज़्या दक्षिणा मिली? आचार्यजी ने कहा-आठ आना। बच्चों ने कहा-आप ऐसे घरों में जाते ही ज़्यों हैं? उन्हें ज़्या कमी है?

वैदिक धर्म का दीवाना आर्यसमाज का मूर्धन्य विद्वान् तपःपूत भद्रसेन बोला-चलो, वैदिकरीति से संस्कार हो जाता है अन्यथा वह पौराणिक पुरोहितों को बुलवालेंगे। जिन विभूतियों के हृदय में

ऋषि मिशन के लिए ऐसे सुन्दर भाव थे, उन्हीं की सतत साधना से वैदिक धर्म का प्रचार हुआ है और आगे भी उन्हीं का अनुसरण करने से कुछ बनेगा।