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संस्कृत और संस्कृति-विनाश के चार अध्याय

संस्कृत और संस्कृति-विनाश के चार अध्याय

– धर्मवीर

भारत के इतिहास में भारत के पतन का क्रम किसी युद्ध की पराजय से प्रारमभ नहीं होता। हमारे इतिहास में महाभारत, रामायण जैसे इतिहास हैं। इनमें भारत के पराजय की कहानी नहीं मिलती। बहुत सारे राजा और उनके मध्य चलने वाले युद्धों का क्रम कितना भी लमबा क्यों न रहा हो, इससे जनता पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं था। इस देश के धार्मिक स्थल इस देश की सीमा को निर्धारित करते थे। हिमालय में कैलाश-मानसरोवर तो दक्षिण में रामेश्वरम्। इस सीमा को तीर्थ यात्री ही चिह्नित करते थे। पश्चिम में हिंगलाज माता का मन्दिर या पूर्व में सागर की यात्रा, समस्त देश एक ही था। इसको जोड़ने वाला धर्म और धर्म को चलाने वाले शास्त्र ही देश का संचालन करते थे। शास्त्रों से शिक्षा आती थी और धर्म से व्यवहार।

इस देश के पतन की पटकथा राजनीति से प्रारमभ नहीं होती, धर्म और शिक्षा से प्रारमभ होती है। क्योंकि ये दोनों ही इस देश की जनता का संचालन करते थे। इनके नाश से ही इस देश का नाश हुआ। केवल राजनीति की हार से दबाया गया देश राजनीति से उठाया जा सकता है, परन्तु इस देश में मृत्यु समाज की हुई है, राजा की नहीं। समाज की मृत्यु में धर्माचार्य और शासन की सहमति रही है। इस मृत्यु का प्रभाव ये हुआ कि आकलन करने वालों का समाज में अभाव होता गया। मध्य में प्रयास हुए होंगे, परन्तु वे प्रयास इस देश की सामाजिक मृत्यु को नहीं टाल सके। पराधीनता के समय या उससे कुछ पूर्व कौटिल्य और शिवाजी जैसे लोगों ने समाज को जीवित करने का प्रयास किया, परन्तु वह थोड़ा और स्वल्प कालीन रहा। समाज की मृत्यु इसके अन्दर से देशाभिमान का भाव समाप्त होने के कारण हुई। समाज उदासीन निरपेक्षता की मनोदशा में चला गया, क्योंकि हमारी व्यवस्था ने उसे विचार-शून्य बना दिया था।

विचार शिक्षा और अनुभव से बनते हैं, हमने समाज को इनसे बध्यतापूर्वक वञ्चित् किया है। मनु सबको शिक्षा का अधिकार देते हैं। शिक्षा से समाज में मनुष्य का स्थान निर्धारित होता है। आज भी उच्च-शिक्षित लोग समाज में ऊँचा स्थान रखते हैं, ऊँचे पदों का समबन्ध उच्च-शिक्षा से ही होता है। पुराने भारतीय समाज में इस देश की वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक और शैक्षणिक स्तर को बताने वाली थी। ऐसी व्यवस्था को रोका नहीं जा सकता है, परन्तु इस देश के समाज-व्यवस्थापकों ने इसे रुकने के लिये बाध्य किया। मनु ने तो कहा है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विधाद्वैश्यात्तथैव च।

– मनु. 10/65

अर्थात् योग्यता के क्रम से कोई भी मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बनता था और उसका आधार थी शिक्षा। शिक्षा की स्वतन्त्रता ही मनुष्य को ऊँचा उठाने वाली होती है।

मनु की व्यवस्था समाज में दीर्घकाल तक चलती रही है, क्योंकि आपस्तब-धर्मसूत्रकार ने इस व्यवस्था को दोहराया है।

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।

अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।

– आपस्तब धर्मसूत्र-प्र. 2, प. 5, क. 11, सूत्र 10-11

यह जाति परिवर्तन जन्म के नहीं, गुणों के आधार पर ही समभव है। शिक्षा से समाज को वञ्चित करके ही इस व्यवस्था को अवरुद्ध किया जा सकता था। वास्तव में नियमपूर्वक बाध्यता का नियम किसने कब बनाया, यह कहना कठिन है, परन्तु गत शताबदियों में इस व्यवस्था का जिस कठोरता से पालन किया जाता रहा है, उससे इसके चलाने का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है।

समाज में स्त्री और शूद्रों को वेद पढ़ने के अधिकार से वञ्चित करने का उल्लेख महाभारत के बाद के साहित्य में अनेक स्थानों पर मिलता है। शंकराचार्य ने अपनी वेदान्त-दर्शन की व्याखया में स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन के केवल अनधिकार ही नहीं अपितु वेदाध्ययन पर दण्डित करने का भी उल्लेख किया है, यह कितनी विडमबना है कि हम किसी को विद्याध्ययन के लिये दण्डित करें।

दण्डित करने की मानसिकता का मूल महाभारत के गीता प्रसंग में सामाजिक पतन का कारण वर्णसंकरता को कहा है। महाभारत में युद्ध के परिणामस्वरूप समाज में उत्पन्न होने वाली वर्णसंकरता तथा उसके परिणामों का उल्लेख मिलता है-

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरोह्येषां लुप्तपिण्डोदक क्रियाः।।

उत्सन्नकुल धर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेनियतं वासो भवतीत्यनुसुश्रुम।।

वर्ण-संकरता सामाजिक मर्यादाओं के उच्छेद का कारण है। वेदाध्ययन का अनधिकार इसी परिस्थिति का परिणाम है। यह परिस्थिति कितने लमबे समय तक चली, इसका उदाहरण है समाज के अधिकांश लोगों का अशिक्षित रहना। विद्या को समाज से समाप्त होने में कितना समय लगा होगा कि आज उस विद्या का जानने वाला दुर्लभ हो गया? यह परिस्थिति समाज में अकस्मात् या एक दिन में तो उत्पन्न होने वाली नहीं है।

इस कार्य के परिणामस्वरूप समाज में जो परिस्थिति बनी, उसे हम अपने सामाजिक पतन का दूसरा अध्याय कह सकते हैं। इस समय वेदाध्ययन को प्रतिबन्धित करने के प्रयास को सफल बनाने के लिये जो कार्य किये गये, वे थे- वेद मन्त्रों के अर्थ अपने अनुकूल करना तथा शास्त्र ग्रन्थों में प्रक्षेप कर उन प्रक्षेपों के समर्थन में ग्रन्थ लिखना।

वेद, जो समाज के सर्वांगीण विकास की विद्या थी, उसे केवल यज्ञ के कर्मकाण्ड तक सीमित कर दिया तथा कर्मकाण्ड में पुण्य के नाम पर व्यभिचार और पशु-बलि को स्थापित कर दिया गया। इससे जिन लोगों को वेद नहीं पढ़ने दिया गया था, उनके मन में हिंसा के विरोध में ‘अतिविरोध-रूप अहिंसा’ का समाज में स्थान बनता गया। वेद-विरोधी प्रक्रिया दो विचारधाराओं में आगे बढ़ी, जैन-बौद्ध धर्म के रूप में इस देश में अहिंसा का अतिवादी रूप सामने आया तथा चार्वाक के माध्यम से वैदिकों ने भी तर्कहीन स्थापनाओं का खण्डन किया। वेद पर निरर्थकता के आक्षेप किये गये। यह कार्य निरुक्त-मीमांसा के समय में प्रारमभ हो गया था। आचार्य यास्क ने वेदों के अर्थज्ञान के लिये निरुक्त की अनिवार्यता को बताते हुये ‘‘निरर्थका हि मन्त्रा इति कौत्सः।’’ कहकर वेद मन्त्रों को निरर्थक मानने वाले लोगों का खण्डन किया। वेदाध्ययन पर प्रतिबन्ध के कारण वेदाध्ययन की परमपरा समाप्त होती गई और वेद के नाम पर ब्राह्मण वर्ग की मनमानी के विरोध में नास्तिक मतों का प्रारमभ होता चला गया। संस्कृत का लोप होने से लोकभाषा में जिन विचारकों ने समाज को उपदेश दिया, उनका समाज में प्रभाव बढ़ता गया। स्थानीय लोगों में विद्वानों के स्तर पर विरोध होने पर भी संस्कृत और वेद की परमपरा सर्वथा समाप्त नहीं हुई। राज्याश्रय और गुरु परमपरा से उसकी प्रतिष्ठा बनी रही।

जिस समय इस्लाम का भारत में प्रवेश हुआ और इस्लामी शासन का प्रारमभ हुआ, तब इस देश में इस्लामी भाषा का व्यवहार और शिक्षा का प्रारमभ हुआ। अरबी-फारसी पढ़ने की परमपरा समाज में चल पड़ी। अरबी-फारसी पढ़ने वाले को प्रतिष्ठा और राज्याश्रय के कारण प्रशासन में स्थान मिलने लगा और अरबी-फारसी अर्थकरी भाषा बन गई, परन्तु हिन्दू समाज में धार्मिक स्तर पर तथा विद्वत् समाज में संस्कृत का प्रचलन बना रहा। कर्मकाण्ड और विद्या की भाषा संस्कृत मानी जाती रही, जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन की भारत में स्थापना हुई, वैसे-वैसे प्रशासन की भाषा और राज्य की भाषा अंग्रेजी बनती गई। अंग्रेज सरकार ने अपने शासन को स्थायी बनाने के लिये शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाया। राजाराम मोहनराय के निर्देशन में अंग्रेजी शासन ने इस देश की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को घोषित किया।

अंग्रेजी शासन में मैकाले के विचार को सरकार ने स्वीकार कर संस्कृत पठन-पाठन की परमपरा को ध्वस्त करना प्रारमभ किया। गुरुकुल, पाठशाला, मन्दिर, गुरु परमपरा, इन सब प्रयासों को दण्डित कर नष्ट कर दिया। ऐसा करने के लिये शासन और शिक्षा का आश्रय लिया गया। इसके सथ संस्कृत-नाश का तीसरा अध्याय प्रारमभ होता है। इंग्लैण्ड के मार्गदर्शन में भारत को शत्रु देश मानते हुए, यहाँ के इतिहास, भाषा, संस्कृति का अध्ययन किया गया। जो कुछ भी इस देश में गौरवपूर्ण था या तो उसको नष्ट किया, छुपा दिया या विकृत करके प्रस्तुत किया तथा समाज में जो कोई भी दुर्बलता, बुराई दिखाई दी, उसे प्रमुख रूप से प्रकाशित करने का यत्न किया, जिससे शत्रु और पराधीन-देश का गौरव नष्ट हो और यहाँ के लोगों में आत्महीनता का भाव उत्पन्न हो सके। ईस्ट इण्डिया कपनी के समय भारत के लोगों को ईसाई बनाने का कार्य प्रारमभ हो गया था। सेना का अधिकारी कर्नल बोडम था, उसको अपने कार्यकाल में ऐसा अनुभव हुआ कि हिन्दू समाज में वेद के प्रति गहरी आस्था है। इसके चलते भारतीय लोगों को ईसाइयत की ओर आकृष्ट करना कठिन ही नहीं, असमभव है। अपने इस अनुभव के आधार पर वेद के इस महत्त्व को समाप्त करने के प्रयास के रूप में उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत में शोध के लिये चेयर की स्थापना के लिये अपना धन प्रदान किया और अपने नाम से चेयर की स्थापना कराई। इस चेयर के माध्यम से मैक्समूलर ने वेद भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किया तथा संस्कृत एवं वैदिक साहित्य के विषय में भी उसने बहुत सारा काम किया। इसके अतिरिक्त अनेक लोगों ने वैदिक साहित्य और वेद भाष्यों का अनुवाद किया। सभी के लिये तो नहीं कहा जा सकता कि उनका विचार अंग्रेजी सरकार से प्रेरित था, परन्तु अधिकांश लोगों का कार्य उसी साम्राज्यवादी सोच को लेकर क्रियाशील था।

भारत में संस्कृत पठन-पाठन की परमपरा समाप्त हो चली थी तथा अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने से अंग्रेजी में लिखे साहित्य और अनुवाद का बोलबाला हो गया। संस्कृत के मूल-ग्रन्थ विद्वानों के पठन-पाठन से दूर हो गये। अंग्रेजी प्रतिष्ठा और आजीविका दोनों की भाषा बन गई, अंग्रेज शासकों की योजना फलीभूत हो गई और संस्कृत व संस्कृति विनाश का तीसरा चरण सफल रहा।

वैदिक साहित्य और इतिहास के विद्वान् पं. भगवद्दत्त ने इस विषय में अपने शोध में लिखा है- मैं अनिच्छा से इस दुःखद निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जिसको आज वैज्ञानिक, वस्तुपरक और समीक्षात्मक शोध कहा जाता है, वह वस्तुतः उस मूलभूत एवं सूक्ष्म प्रभाव से दूषित है, जिसका उद्देश्य शैक्षणिक किञ्चिन्मात्र भी नहीं था।

-(भारतीय इतिहास की विकृतियांः कुछ कारण, पृ. 6)

जो कारण पाश्चात्य विद्वानों को सत्य कहने से रोकता है, वह कारण है- उनकी मानसिकता। इस मानसिकता की घोषणा 1654 में आयरलैण्ड के आर्क विशप अशर ने दृढ़ता से की कि- उसका प्राचीन धर्म-ग्रन्थ का अध्ययन सिद्ध कर चुका है कि सृष्टि की रचना ईसा पूर्व 4004 वर्ष पूर्व हुई। इस मान्यता के कारण इन पाश्चात्य लोगों में एक अहंकार ने जन्म ले लिया कि वे संसार की प्राचीनतम संस्कृति और धर्म हैं, जिसके कारण बाद में जो कुछ इनके सामने आया, उसको इन लोगों ने ईसा के आगे-पीछे समेटने का प्रयास किया। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. मोनियर विलियस ने कर्नल बोडन द्वारा स्थापित पीठ के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा था-

‘मुझे इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना है कि मैं बोडनपीठ का द्वितीय अधिकारी हूँ और इसके संस्थापक कर्नल बोडन ने अपनी वसीयत दि. 15 अगस्त 1811 में स्पष्ट रूप से निर्देश किया था कि उसके उदार दान का मुखय उद्देश्य है कि बाईबिल आदि धर्म-ग्रन्थों के संस्कृत अनुवाद को प्रोन्नत किया जाये, जिससे हमारे देशवासी भारतीय मूल के लोगों को ईसाई-धर्म में दीक्षित कराने में आगे बढ़ाने के लिये सक्षम बनें।’

– (संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी की भूमिका, पृ. 9/1899)

इस विचार को आधार बनाकर पाश्चात्य विद्वानों ने कार्य किया- रुडोल्फ राथ ने वेद-विषयक शोध-लेख में लिखा है- ‘वैदिक मन्त्रों का अनुवाद निरुक्त की अपेक्षा कहीं अच्छा जर्मन भाषा-विज्ञान की सहायता से किया जा सकता है।’

– (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल-1847)

इसी प्रकार डल्यू.डी. विदने ने लिखा- ‘वेदों का यथार्थ स्वरूप समझने के लिये एक मात्र जर्मन समप्रदाय के सिद्धान्त ठीक-ठीक मार्गदर्शन कर सकते हैं।’

– (अमेरिकन ओरियन्टल सोसाइटी प्रोसिडिंग- अक्टूबर 1867)

मैक्समूलर की वेद विषयक धारणा से उसकी वेद की दृष्टि पर प्रकाश पड़ता है-

‘‘वैदिक सूक्तों की बड़ी संखया अत्यन्त बालिश, अरुचिकर, निन और तुच्छ है।’’

– (चिप्स फ्राम जर्मन वर्कशाप, 2 संस्करण 1866, पृ. 27)

हमारे वर्तमान भारतीय विद्वान् मोनियर विलियस का गुणगान करते हैं, परन्तु उसके शबद क्या कहते हैं-

‘जब ब्राह्मणवाद के सुदृढ़ दुर्ग की दीवारें चारों ओर से घेर ली गई हैं, सुरंगे लगा दी गई हैं और अन्ततः ईसा के सैनिकों/पादरियों ने अन्तिम धावा बोल दिया है, अतः ईसाइयत की विजय असाधारण और पूर्ण होगी।’

– (मॉर्डन इण्डिया एण्ड दि इण्डियन्स, तृतीय संस्करण 1879, पृ. 26)

मोनियर विलियस का एक कथन उसके उद्देश्य को प्रकाशित करने के लिये पर्याप्त है-

‘बाइबिल यद्यपि सत्य दैव प्रकाशन है।’

– (द क्रिश्चियन इन्टेलिजेन्स कोलकाता, मार्च 1870, पृ. 79)

इसी समय के विद्वान् विन्टरनिज को शोपनहार की उपनिषद् की प्रशंसा इतनी बुरी लगी कि उसकी भावना इन शबदों में झलकती है- ‘तो भी मैं विश्वास करता हूँ कि वह उन्मत्त अतिशयोक्ति है’, जब शोपनहार कहता है- ‘उपनिषदों की शिक्षा मनुष्य के सर्वोच्च ज्ञान और बुद्धि के तल को दर्शाती है और उसमें लगभग अतिमानव अवधारणायें विद्यमान हैं, जिनके आविष्कर्ता कठिनाई से ही मनुष्य समझे जा सकते हैं।’

– (सम प्रालस ऑफ इन्डियन लिटरेचर कलकत्ता, पृ. 61/1925)

आगे वेद के विषय में वह लिखता है-

‘यह सत्य है कि इन सूक्तों के रचनाकार कदाचित् ही यहूदियों के धार्मिक काव्य की उच्च उड़ानों और गमभीर भावनाओं तक पहुँच पाते हैं।’

– (हिस्ट्री ऑफ इन्डियन लिट्रेचर, पृ. 79/1927)

इन विद्वानों के दुराग्रहपूर्ण विचारों के कारण भारतीय इतिहास और संस्कृति का मूल्यांकन समभव न हो पाया। भारतीय इतिहास की तिथियों और तथ्यों को विद्वानों के सामने नहीं लाया जा सका।

भारत में संस्कृत और संस्कृति के नाश का चौथा अध्याय भारत की स्वतन्त्रता के साथ प्रारमभ होता है। इसका प्रारमभ तभी हो जाता है जब यहाँ संविधान और संसद ने इस देश की भाषा के रूप में अंग्रेजी को स्वीकार कर लिया। दूसराइसमें भाषा के साथ पाश्चात्य विद्वानों के तथ्य और तर्क भी उस देश के इतिहास के भाग मान लिये गये। इस देश में आर्य-द्रविड कल्पना का इतिहास आज भी हमारे पाठ्यक्रम का विषय है। तीसरा पाश्चात्य विद्वानों की मिथ्या धारणाओं व पूर्वाग्रह पर आधारित विचारों को इतिहास के निर्णय के रूप में स्वीकार कर लिया गया। भारतीय इतिहास को सरकार पोषित विद्वानों ने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर विकृत कर लेखन किया तथा प्रगति के नाम पर सामयवादी लेखकों ने भारत विरोधी विचारों से प्रस्तुत किया। चौथा दलित और अल्पसंखयक के नाम पर उनके शोषण और उत्पीड़न के लिये मनुष्य के अपराध को शास्त्र और भाषा का अपराध बताकर प्रस्तुत किया गया। जैसे दलित नेता कान्ता चैलय्या ने मांग की- भारत में दलितों के शोषण के लिये संस्कृत भाषा जिममेदार है और हम इस देश से इसकी समाप्ति चाहते हैं। क्या हिटलर को अपराधी बताने के लिये जर्मन भाषा को उत्तरदायी माना जा सकता है? पाँचवा- शिक्षा के माध्यम  के रूप में इस देश में दो पद्धतियाँ प्रचलित की गईं, एक प्रान्तीय भाषा की और दूसरी अंग्रेजी भाषा की। प्रशासन और सरकार ने अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया तो परिणामस्वरूप अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ में संस्कृत दब गई। छठा सरकार की नीति संस्कृत को समाप्त करने की रही, धीरे-धीरे पाठ्यक्रम से संस्कृत समाप्त होती गई।

आज शॉन पोलक जिन विचारों की स्थापना करना चाहता है, उसका आधार अंग्रेजी ही है, उसका कहना है- संस्कृत शोध के योग्य भाषा ही नहीं है और संस्कृत में शोध करना है तो अंग्रेजी के बिना संस्कृत में शोध हो ही नहीं सकता। उसका प्रयास है- भारतीय साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद कर लेने के बाद भारतीय संस्कृत-हिन्दी भाषा में कुछ पढ़ने योग्य शेष नहीं होगा तथा संस्कृत का शोध करना अंग्रेजी के माध्यम से न केवल सरल होगा अपितु प्रामाणिक भी होगा। ऐसे लोगों का परिणाम होता है

अन्धेनैव नियमाना यथान्धाः।।

– धर्मवीर