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*पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१२*

*पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१२*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-कार्तिक अय्यर
पाठकगण! सादर नमस्ते।पिछली पोस्ट में हमने दशरथ शीर्षक के पहले बिंदु का खंडन किया।अब आगे:-
*आक्षेप २* :-  किसी डॉ सोमसुद्रा बरेथियर का नाम लेकर लिखा है कि उनकी पुस्तक “कैकेयी की शुद्धता और दशरथ की नीचता” ने मौलिक कथा की कलई खोल दी।
*समीक्षा*:- *अंधी देवी के गंजे पुजारी!* जैसे आप वैसे आपके साक्षी! हमें किसी सोमसुद्रा के स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। हमारे लिये वाल्मीकीय रामायण ही काफी है।और उसके अनुसार दशरथ महाराज का चरित्र उत्तम था और कैकेयी ने मूर्खतापूर्ण वरदान मांगकर नीचता का परिचय दिया।जिसके लिये मात्र सुमंत्र,दशरथ,वसिष्ठ, अन्य नगर वासियों ने ही नहीं,अपितु उसके पुत्र भरत ने भी उसकी भर्त्सना की।इसके लिये अयोध्याकांड के सर्ग ७३ और ७४ का अवलोकन कीजिये।और अपने सोमसुद्रा साहब की पुस्तक को रोज़ शहद लगाकर चाटा करिये।
*आक्षेप ३* राजा दशरथ के उक्त प्रभाव से राम और उसकी मां कौसल्या अनभिज्ञ न थी।वृद्ध राजा ने राम को प्रकट रूप से बताया था कि राम राज्यतिलकोत्सव के समय कैकेयी के पुत्र भरत का अपने नाना के घर जाना शुभसंकेत है।(अध्याय १४)अयोध्या में बिना कभी वापस आये दस वर्ष के दीर्घकाल तक भरत का अपने नाना के यहां रहने का कोई आकस्मिक कारण नहीं था इत्यादि । मंथरा का उल्लेख करके लिखा है कि उसके अनुसार “दशरथ ने अपनी पूर्व निश्चित योजना द्वारा भरत को उसके नाना के यहां भेज दिया था। और कहा है कि इससे भरत अयोध्या के निवासियों की सहानुभूति पाने में असमर्थ हो गये थे। भारत की यह धारणा थी कि भारत का राज्याभिषेक के किस समय उसके नाना के यहां पठवा देने से मुझे (दशरथ को)लोगों से शत्रुता बढ़ जायेगी।
*समीक्षा* हद है! केवल सर्ग १४ लिखकर छोड़ दिया।न श्लोक लिखा न उसका अर्थ दिया।खैर! पहले इस पर चर्चा करते हैं कि राजा दशरथ ने भरत को जबरन उसके नाना के यहां भेजा था या वे अपनी इच्छा से अपने ननिहाल गये थे।देखिये:-
कस्यचित् अथ कालस्य राजा दशरधः सुतम् ॥१-७७-१५॥ भरतम् कैकेयी पुत्रम् अब्रवीत् रघुनंदन ।
अयम् केकय राजस्य पुत्रो वसति पुत्रक ॥१-७७-१६॥ त्वाम् नेतुम् आगतो वीरो युधाजित् मातुलः तव ।
श्रुत्वा दशरथस्य एतत् भरतः कैकेयि सुतः ॥१-७७-१७॥ गमनाय अभिचक्राम शत्रुघ्न सहितः तदा ।
आपृच्छ्य पितरम् शूरो रामम् च अक्लिष्ट कर्मणम् ॥१-७७-१८॥ मातॄः च अपि नरश्रेष्ट शत्रुघ्न सहितो ययौ ।
युधाजित् प्राप्य भरतम् स शत्रुघ्नम् प्रहर्षितः ॥१-७७-१९॥ स्व पुरम् प्रविवेशत् वीरः पिता तस्य तुतोष ह ।
गते च भरते रामो लक्ष्मणः च महाबलः ॥१-७७-२०॥ पितरम् देव संकाशम् पूजयामासतुः तदा ।
“कुछ काल के बाद रघुनंदन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा-।बेटा!ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार युधाजित तुम्हें लेने के लिये आये हैं *और कई दिनों से यहां ठहरे हुये हैं*।” *दशरथ जी की यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरत ने उस समय शत्रुघ्न के साथ मामा के यहां जाने का विचार किया।वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ,अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम तथा सभी माताओं से पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्न के साथ वहां से चल दिये।शत्रुघ्न सहित भरत को साथ लेकर वीर युधाजित् ने बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया,इससे उनके पिता को बड़ा संतोष हुआ।भरत के चले जाने के बाद महाबली श्रीराम और लक्ष्मण अपने देवेपम पिताजी की सेवा करने लगे।”
 इससे सिद्ध है कि भरत को जबरन दशरथ ने ननिहाल नहीं पठवाया।भरत के मामा युधाजित ही उनके लेने आये थे और कई दिनों तक उनसे मिलने के लिये रुके थे। वे १० वर्ष तक वहां रहें इससे आपको आपत्ति है? वे चाहे दस साल रहें या पूरा जीवन।
रहा सवाल कि “राजा ने क्यों कहा कि भरत इस नगर के बाहर अपने मामा के यहां निवास कर रहा है ,तब तक तुम्हारा अभिषेक मुझे उचित प्रतीत होता है। इसका उत्तर हैथे। अर्थात्:-
” यद्यपि भरत सदाचारी,धर्मात्मा,दयालु और जितेंद्रिय है तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता-ऐसा मेरा मत है।रघुनंदन!धर्मपरायण पुरुषों का भी मन विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादिसे संयुक्त हो जाता है।२६-२७।।”
तात्पर्य यह कि राजा पूरी राजसभा में रामराज्याभिषेक की घोषणा कर चुके थे।
अयोध्या कांड सर्ग २ श्लोक १०:-
सोऽहं विश्रममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते ।
सन्निकृष्टानिमान् सर्वाननुमान्य द्विजर्षभान् ॥२-२-१०॥
अर्थात्:-” यहां बैठे इम सभी श्रेष्ठ द्विजोंकी अनुमति लेकर प्रजाजनों के हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके मैं राजकार्य से विश्राम लेना चाहता हूं।”
 दशरथ चाहते थे कि श्रीराम का अभिषेक बिना किसी विघ्न-बाधा के हो। भरत यद्यपि धर्मात्मा और श्रीराम के अनुगामी थे तो भी राग-द्वेषादिसे मनुष्य का स्वभाव बदल जाता है।नहीं तो भरतमाता कैकेयी ही भरत को राजा बनाने का हठ कर सकती थी क्यों कि वह स्वार्थी और स्वयं को बुद्धिमान समझती थी-यह स्वयं भरत ने माना है।साथ ही,भरत का ननिहाल कैकयदेश बहुत दूर और दुर्गम स्थान पर था।वहां से उन्हें आने में ही काफी समय लग जाता और शुभ घड़ी निकल जाती।इक्ष्वाकुकुल की परंपरा थी चैत्रमास में ही राज्याभिषेक होता था क्योंकि चैत्रमास ही संसवत्सर का पहला दिन है और ऋतु के भी अनुकूल है।पुष्य नक्षत्र का योग भरत के आने तक टल जाता इसलिये राजा दशरथ ने यह बात कही।अन्यथा भरत को दूर रखने का कोई कारण न था।क्योंकि भरत भी मानते थे कि इक्ष्वाकुवंश की परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है।साथ ही भरत को राजगद्दी देने की प्रतिज्ञा भी झूठी और मिलावट है यह हम सिद्ध कर चुके हैं।
रहा प्रश्न मंथरा का,तो महाशय!मंथरा जैसी कपटबुद्धि स्त्री की बात आप जैसे लोग ही मान सकते हैं। मंथरा ने कहा था कि दशरथ ने जानबूझकर भरत को ननिहाल भेज दिया ताकि वो अयोध्या की जनता ही सहानुभूति न हासिल कर सके।महाशय!यदि भरत को राजगद्दी दी जानी थी और वे राज्य के अधिकारी थे,तो फिर उनको १० वर्ष तक ननिहाल में रहने की भला क्या आवश्यकता थी?उन्हें कुछ समय ननिहाल में बिताकर बाकी समय अयोध्या में रहकर जनता का विश्वास जीतना था।पर ऐसा नहीं हुआ।इससे पुनः सिद्ध होता है कि भरत के नाना को राजा दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया। सबसे बड़ी बात,भरत अपनी स्वेच्छा से ननिहाल गये थे।तब दशरथ पर आरोप लगाना कहां तक उचित है?अयोध्या की जनता,समस्त देशों के राजा और जनपद,मंत्रिमंडल सब चाहते थे कि श्रीराम राजा बने।मंथरा ने वो सारी बातें कैकेयी को भड़काने के लिये कहीं थीं।
और एक बात।भरत पहले से जानते थे कि दशरथ श्री राम का ही अभिषेक करेंगे,उनका नहीं।जब वे अयोध्या लौटे और महाराज के निधन का समाचार उन्हें मिला तब वे कहते हैं:-
अभिषेक्ष्यति रामम् तु राजा यज्ञम् नु यक्ष्यति ।
इति अहम् कृत सम्कल्पो हृष्टः यात्राम् अयासिषम् ॥२-७२-२७॥
“मैंने तो सोचा था कि महाराज श्रीरामजी का राज्याभिषेक करेंगे यह सोचकर मैंने हर्ष के साथ वहां से यात्रा आरंभ की थी।”
कैकयराज के वचन की बात यहां भी मिथ्या सिद्ध हुई।
यदि आप मंथरा की बात का प्रमाण मानते हैं तो क्या मंथरा द्वारा श्रीराम का गुणगान मानेंगे?-
“प्रत्यासन्नक्रमेणापि भरतस्तैव भामिनि ।
राज्यक्रमो विप्रकृष्टस्तयोस्तावत्कनीयसोः ॥२-८-७॥
विदुषः क्षत्रचारित्रे प्राज्ञस्य प्राप्तकारिणः ।८।।
(अयोध्या कांड सर्ग ७।७-८)
” उत्पत्ति के क्रम से श्रीराम के बाद ही भरत का राज्यपर अधिकार हो सकता है।लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे भाई हैं।श्रीराम समस्त शात्रों के ज्ञाता,विशेषतः क्षत्रियचरित्र के पंडित हैं और समयोचित कर्तव्य का पालन करने वाले हैं।”
यहां मंथरा स्वयं स्वीकार कर रही है कि श्रीराम ही ज्येष्ठ होने से राज्याधिकारी हैं। यदि कोई कैकयराज वाली प्रतिज्ञा होती तो कैकेयी ऐसा न कहती ।साथ ही वो श्रीराम के गुणों का उल्लेख भी करती है।क्या पेरियार साहब मंथरा की इस बात से सहमत होंगे?
अतः राजा दशरथ ने भरत को ननिहाल भेजकर कोई छल नहीं किया। वे बूढ़े हो जाने से अपना राज्य श्रीराम को देना चाहते थे।
*आक्षेप ४* एक दिन पूर्व ही दशरथ ने अगले दिन रामराज्याभिषेक की झूठी घोषणा करवा दी।
*समीक्षा*:- या बेईमानी तेरा आसरा!क्या इसी का नाम ईमानदारी है।
*पता नहीं यों झूठ बोल कैसे रह जाते हैं जिंदा।*
*ऐसे छल पर तो स्वयं छलों का बाप भी होगा शर्मिंदा।।*
महाराज दशरथ ने एक दिन पूर्व ही अगले दिन रामराज्याभिषेक की घोषणा पूरी राजसभा एवं श्रेष्ठ मंत्रियों के समक्ष की थी।सारे नगरवासी हर्षोल्लास के साथ अलगे दिन रामराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहे थे।सुमंत्र तो इतने लालायित थे कि रातभर सोये नहीं।राजा दशरथ ने श्रीराम और मां सीता को भी कुशा पर सोने तथा उपवास रखने का उपदेश दिया था।इतना सब होने के बाद भी राज्याभिषेक की घोषणा झूठी कैसे हो गई?हां,कैकेयी ने दो वरदान मांगकर रामजी का वनवास और भरत का राज्याभिषेक वह भी उन सामग्रियों से,जो रामाभिषेक के लिये रखीं थी का वरदान मांगकर अवश्य ही घोषणा का कबाड़ा कर दिया वरना सारी अयोध्या श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी कर चुकी थी।इसे झूठा कहना दिवालियापन है।बिना प्रमाण किये आक्षेप पर अधिक न लिखते हुये केवल एक प्रमाण देते हैं:-
इति प्रत्यर्च्य तान् राजा ब्राह्मणानिद मब्रवीत् ।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम् ॥२-३-३॥
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः ।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् ॥२-३-४॥
यतस्त्वया प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः ॥२-३-४०॥
तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि ।४१।।
(अयोध्या कांड सर्ग ३ )
 “राजासभा में उपस्थित सभी सभासदों की प्रत्यर्चना करके(ज्ञात हो कि इसके पूर्व के सर्ग में राजा दशरथ राजसभा में श्रीराम के राज्याभिषेक की चर्चा करते हैं और सभी श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये खुशी खुशी हामी भर देते हैं,इस विषय को आगे विस्तृत करेंगे) राजा दशरथ वामदेव,वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों से बोले-“यह चैत्रमास अत्यंत श्रेष्ठ और पुण्यदायक है।इसमें वन-उपवन पुष्पित हो जाते हैं।अतः इसी मास में श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये उपयुक्त है।
राजा दशरथ श्रीराम से कहते हैं-” हे राम!प्रजा तुम्हारे सारे गुणों के कारण तुमको राजा बनाना चाहती है।कल पुष्य नक्षत्र के समय तुम्हारा राज्याभिषेक होगा।”
इससे सिद्ध है कि अगले दिव राज्यतिलकोत्सव की घोषणा करना झूठ नहीं था।पूरी राजसभा,मंत्रियों और अयोध्यावासियों को इसका पता था और धूमधाम से राज्याभिषेक की तैयारी कर रही थी।
*आक्षेप ५* यद्यपि वसिष्ठ व अन्य गुरुजन भली भांति और स्पष्टतया जानते थे कि भरत राजगद्दी का उत्तराधिकारी है-तो भी चतुर,धूर्त व ठग लोग राम को गद्दी देने की मिथ्या हामी भर रहे थे।
*समीक्षा*:- वसिष्ठ आदि गुरुजन सत्यवादी,नीतिज्ञ एवं ज्ञानी थे।उनका चरित्र चित्रण हम पीछे कर चुके हैं।भरत राजगद्दी के अधिकारी नहीं थे और श्रीराम ज्येष्ठ पुत्र होने से सर्वथा राज्याधिकारी थे-यह बात महर्षि वसिष्ठ और सुमंत्र जानते थे।इसका प्रमाण बिंदु १ के उत्तर में दे चुके हैं।कोई भी मंत्री या ऋत्विक भरत के राज्याधिकारी होने की बात नहीं करता।सब यही कहते हैं कि श्रीराम ही राज्याधिकारी हैं।भरत को राजगद्दी वाले वचन का प्रक्षिप्त होना हम बिंदु १ में सिद्ध कर चुके हैं। वाह महाराज! धूर्त,ठग और जाने क्या क्या!बड़े मधुर शब्दों की अमृत वर्षा की है आपने।आपके दिये पुष्प हम आपकी ही झोली में डालते हैं।ऐसा प्रमाणहीन और निराधार बातें करते और गालियां देते आपको लज्जा नहीं आती!शोक है!
क्रमशः ।
पाठकगण! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
यहां तक हम पांचवे आक्षेप तक समीक्षा कर चुके हैं।अगले लेख में आगे के ६-९ बिंदुओं का खंडन करेंगे।
नमस्ते।
मर्यादा पुरुषोत्तम सियावर श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
।।ओ३म्।।

नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-११

*पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-११*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-कार्तिक अय्यर
ओ३म्
प्रिय पाठकगण! सादर नमस्ते।पिछली पोस्ट पर हमने महाराज दशरथ व उनके परिजनों एवं मंत्रिगणों का संक्षिप्त चरित्र चित्रण किया।इस पोस्ट में पेरियार साहब के *दशरथ* नाम से किये ३२ आक्षेपों की समीक्षा का क्रम आगे बढ़ाते हैं।पाठकगण आलोचनाओं को पढ़ें और आनंद ले।
*आक्षेप १* *कैकेई के ब्याह के पहले दशरथ ने उससे प्रतिज्ञा की थी कि उससे उत्पन्न पुत्र को अयोध्या की राजगद्दी दी जाएगी ।कुछ कथाओं में वर्णन किया गया है ब्याह के बाद दशरथ ने अपना राज्य के कई को सौंप दिया था और दशरथ उसका प्रतिनिधि मात्र बनकर शासन करता था।*
*समीक्षा*:- पेरियार साहब ने अपने इस प्रश्न का करके कोई श्लोक प्रमाण नहीं दिया आगे जिस प्रकार की रीति आपने अपना ही है कम से कम उस की तरह ही कोई झूठा पता लिख देते! खैर हम आप की समीक्षा करते हैं यह कहना कि “कैकई के ब्याह करने के पहले महाराज दशरथ ने कैकई राज से प्रतिज्ञा की थी कि कैकई से उत्पन्न संतान ही अयोध्या की राजगद्दी पर विराजमान होगी” यह बात रामायण में प्रक्षिप्त की गई है इस बात का प्रबल प्रमाण हम देते हैं । पहले निम्न हेतुओं पर प्रकाश डालते हैं:-
१. प्रथम तो इक्ष्वाकु कुल की परंपरा थी कि राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य सिंहासन पर बैठेगा महाराज दशरथ इस परंपरा के विरुद्ध केकई के पिता को ऐसा अन्यथा वचन नहीं दे सकते।
२. यदि मान लिया जाए कि महाराज दशरथ ने ऐसा कोई वचन दिया भी था तो राम जी के राज्याभिषेक के समय में यह बात मंथरा और कैकई को याद नहीं थी? मंथरा को तो यह कहना था कि हे कैकेई राजा अपना वचन भंग करके श्रीराम को राजा बना रहे हैं उनको वह वचन याद दिलाओ जो उन्होंने तुम्हारे पिता को विवाह के समय दिया था ,परंतु मंथरा ऐसा नहीं करती मंथरा कहती है कि राजा दशरथ ने तुमको जो दो वरदान दिए थे उनका प्रयोग करो। कैकेई उसकी बात को मान भी जाती है इससे यह सिद्ध है केकयराज को राजा दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया।
३. कैकई मंथरा के मुख से श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा सुनकर बहुत प्रसन्न हो जाती है और कहती है कि राम मुझे अपनी मां कौसल्यासे भी अधिक सम्मान देता है।यही नहीं वह कहती है कि राजा भरत बने या राम बने कोई भी बने उसके लिए दोनों समान हैं। यदि कोई प्रतिज्ञा राजा ने की होती तो कह कई खुश होने के बजाए गुस्से में आ जाती की राजा भरत को राजगद्दी देने की जगह श्री राम को दे रहे हैं।कैकेई मंथरा को खुश होकर अपने गले का एक बहूमूल्य हार भेंट भी करती है।
४.महाराज दशरथ जब सभी जनपदों के राजाओं की सभा में जब श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की तब सभी राजाओं और मंत्रियों ने महाराज का अनुमोदन किया तब किसी भी मंत्री या राजाने इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया इससे सिद्ध है कि किसी भी मंत्री,ऋत्विक या राजा को भारत को राजगद्दी देने का वचन के बारे में ज्ञान नहीं था ,और होगा भी कैसे जब ऐसा वचन दिया ही नहीं गया!
५. भारत के ननिहाल जाने और भारत और श्री राम के वन में मिलाप के प्रसंग में जब भारत श्री रामचंद्र जी को अयोध्या वापस लौटने का आग्रह करते हैं उसे समय श्रीराम ने वचन वाली कही थी। वह पूरा प्रकरण प्रक्षेपों से भरा है एक जगह जाबाल नामक ऋषि रामजी से नास्तिक कथन कहते हैं उत्तर में श्री राम आस्तिक मतका मंडन और नास्तिक मत का खंडन करते हैं,साथ ही बौद्ध तथा चार्वाक मत की निंदा भी करते हैं जबकि रामायण में कई बार यह आया है की उस समय कोई भी व्यक्ति नास्तिक या वेद विरोधी नहीं था और ना ही बौद्ध गया चार्वाक रामायण काल में थे। इससे यह सिद्ध है कि यह पूरा प्रकरण  का बौद्ध काल में किसी हिंदू पंडित ने नास्तिक मत की निंदा करने के लिए रामायण में प्रक्षिप्त किया है।
आगे इन बिंदुओं पर वाल्मीकि रामायण से प्रमाण लिखते हैं:-
*सुमंत्र ने कैकेयी से कहा*
यथावयो हि राज्यानि प्राप्नुवन्ति नृपक्षये ।
इक्ष्वाकुकुलनाथेऽस्मिम्स्तल्लोपयितुमिच्छसि ॥अयोध्याकांड-३५-९॥
अर्थात्, ” देख! राजा दशरथ के मरने पर राज्य का स्वामी अवस्था अनुसार जेष्ठ पुत्र होता है। क्या तुम महाराज दशरथ के जीवित रहते ही इक्ष्वाकु कुल की इस प्राचीन व्यवस्था का लोप करना चाहती हो?”।।९।।
भरत,जिसके लिए कैकई इतना प्रपंच कर रही थी,वह भी इसी परंपरा का अनुमोदन करते हैं:-
अस्मिन् कुले हि सर्वेषाम् ज्येष्ठो राज्येऽभिषिच्यते ।
अपरे भ्रातरस्तस्मिन् प्रवर्तन्ते समाहिताः ॥अयोध्याकांड ७३-२०॥
अर्थात,”रघुवंश के यहां परंपरा है कि बड़ा भाई ही राज्य का अधिकारी होता है और छोटे भाई उसके अधीन सब कार्य करते हैं”।।२०।।
शाश्वतो ऽयं सदा धर्म्म: स्थितो ऽस्मासु नरर्षभ ।
ज्येष्ठपुत्रे स्थिते राजन्न कनीयान् नृपो भवेत् ।। अयोध्याकांड १०२.२ ।।(कुछ संस्करणों में सर्ग १०२ श्लोक २ में यह श्लोक है।यहां हम गीताप्रेस संस्करण के अनुसार संदर्भ दे रहे हैं)
अर्थात्, ” हे पुरुष श्रेष्ठ! हमारे कुल में तो यही सनातन नियम है की जेष्ठ पुत्र के समक्ष छोटा पुत्र राजा नहीं होता”।।२।।
   रघुकुल के कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ भी कहते हैं:-
पितुर्व्म्शचरित्रज्ञः सोऽन्यथा न करिष्यति ॥अयोध्याकांड ३७-३१॥
अर्थात् “अपने पितृ कुल के आचार्य को जानने वाले भरत कुलाचार के विरुद्ध आचरण कभी न करेंगे” ।।३१।।
अतः इस परंपरा के विरुद्ध दशरथ कोई भी वचन नहीं दे सकते।
अयोध्याकांड सर्ग 7,8और 9 में वर्णन है वह संक्षेप में कहते हैं।
जब मंथन राम माता कौसल्या का धनवान तथा अयोध्या वासियों को आनंदित होते देखती है तब श्री राम की भाई से इस विषय के बारे में पूछती है। धात्री कहती है कि प्रातः काल पुष्य नक्षत्र में महाराज श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करेंगे। यह समाचार सुनकर क्रोध में जलती हुई मंथरा कैकेई के शयनागार की ओर गई और कैकई को जगा कर उससे बोली,” हे मुढे!उठ! पड़ी-पड़ी क्या सो रही है तेरे ऊपर को बड़ा भारी भय आ रहा है। इत्यादि वचन कैकेयी से कहने लगी। मंथरा के वचन सुनकर हर्ष परिपूर्ण सुंदर मुखी कैकेयी शय्या से उठी।
अतीव सा तु संहृष्टाअ कैकेयी विस्मयान्विता ।
एकमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम् ॥२-७-३२॥
अर्थात उसने अत्यंत हर्षित होकर एवं आश्चर्यचकित हो कर अपना एक बहुमूल्य आभूषण कुब्जा को प्रदान किया।।३२।। और मंथरा से बोली,” हे मंथरे! तूने मुझे परम प्रिय संवाद सुनाया है इसके लिए मैं तुझे क्या उपहार दूं इत्यादि।” मंथरा कैकई को भड़काते हुए बहुत सी बातें कहती हैं जैसे, राम के राजा बनने पर है कि वह भारत की दुर्गति होगी इत्यादि। जब मंथन आने के कई को इस प्रकार पट्टी पढ़ाई तो क्रोध के मारे लाल मुख करके एक ही ने उसे कहा ,”मैं आज ही राम को वन में भेजती हूं और शीघ्र ही भरत को युवराज पद पर अभिषिक्त कर आती हूं।” मैं जब कह कर उससे इसका उपाय पूछती है तो मंथरा देवासुर संग्राम में कैकई का राजा दशरथ के प्राण बचाने का वृतांत सुनाती है ,फिर कहती है कि जब राजा ने प्रसन्न होकर तुझे दो वर दिए थे तब तूने कहा था कि जब आवश्यकता होगी तब मांग लूंगी। उन चारों में से तू भरत का राज्याभिषेक और श्रीराम का १४ वर्ष का वनवास मांग ले। (सर्ग ९/३०)
इस पूरे प्रकरण में मंथरा राजा दशरथ की कैकयराज को दी हुई प्रतिज्ञा का उल्लेख नहीं करती उसे दो वरदानों के अलावा पिता को दिए वचन दुबारा स्मरण कराने की आवश्यकता थी। दशरथ ने कैकई को कहना था ,”हे राजन्! मेरे पिता के समक्ष आपने जो वचन दिया था उसे याद कर आप भारत को युवराज बनाइए। पर ऐसा नहीं हुआ ।कैकेई देवासुर संग्राम में रक्षा करते करने के कारण मिले दो वरदान मांगती है इससे सिद्ध है कि कैकयराज अश्वपति को कोई वचन नहीं दिया गया था पूरा प्रकरण पीछे से रामायण में मिलाया गया है।
यदि कैकयराज वाले वचन की बात सत्य मान ली जाए तो फिर भी कैकेई राजा दशरथ से उक्त दो वरदान पूर्ण करने की आशा कैसे कर सकती थी? जो व्यक्ति उसके पिता को दिए वचन से मुकर गया वह भला कैकई को दिए वचनों को भला क्या खाकर पूरा करेगा? अतः कैकयराज के वचन वाली बात झूठी और कपोलकल्पित है।
इस वचन की बात “श्रीराम भरत- मिलन” के प्रकरण में आती है।
अयोध्या कांड सर्ग १०२ में भरत श्री राम से पुनः राज्य ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं। साथ ही उनके पिता की  मृत्यु के लिए शोक ना करने का उपदेश देते हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण ना करके वन में रहने का ही दृढ़ निश्चय करते हैं।
यत्राहमपि तेनैव नियुक्त: पुण्यकर्मणा ।
तत्रैवाहं करिष्यामि पितुरार्य्यस्य शासनम् ।।
न मया शासनं तस्य त्यक्तुं न्याय्यमरिन्दम ।
तत् त्वयापि सदा मान्यं स वै बन्धु: स न: पिता ।।
तद्वच: पितुरेवाहं सम्मतं धर्मचारिण: ।
कर्मणा पालयिष्यामि वनवासेन राघव ।।
धीर्मिकेणानृशंसेन नरेण गुरुवर्त्तिना ।
भवितव्यं नरव्याघ्र परलोकं जिगीषता ।। २.१०५. ४१-४४ ।।
अर्थात्,”उन पुण्य कर्मा महाराज ने मुझे जहां रहने की आज्ञा दी है वहीं रह कर मैं उन पूज्य पिता के आदेश का पालन करूंगा ।शत्रु दमन!भरत पिता की आज्ञा की अवहेलना करना मेरे लिए कदापि उचित नहीं है वह तुम्हारे लिए भी सर्वदा सम्मान के योग्य है क्योंकि वही हम लोगों के हितैषी बंधु और जन्मदाता थे। रघुनंदन! मैं इस वनवास रूपी कर्म के द्वारा पिताजी के ही वचन का जो धर्मात्माओं को भी मान्य है, पालन करूंगा। नरश्रेष्ठ!परलोक पर विजय पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को धार्मिक क्रूरता से रहित और गुरुजनों का आज्ञापालक होना चाहिए।” ४१-४४।।
यहां पर श्री राम कैकयराज को दिए वचन की कोई बात नहीं करते।आगे सर्ग १०६ में भरत पुनः बहुत सी बातें कहकर श्रीराम को मनाने का प्रयास करते हैं।तब सर्ग १०७ में श्रीराम भरत के नाना कैकयराज को दिये वचन का उल्लेख करते हैं।
सर्ग १०७:
जब भारत पुनः इस प्रकार प्रार्थना करने लगे तब कुटुंबीजनों के बीच में सत्कार पूर्वक बैठे हुए लक्ष्मण के बड़े भाई श्री रामचंद्र जी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-
उपपन्नमिदं वाक्यं यत्त्वमेवमभाषथा: ।
जात: पुत्रो दशरथात् कैकेय्यां राजसत्तमात् ।। २.१०७.२ ।।
पुरा भ्रात: पिता न: स मातरं ते समुद्वहन् ।
मातामहे समाश्रौषीद्राज्यशुल्कमनुत्तमम् ।। २.१०७.३ ।।
इन दो श्लोकों में श्री राम कहते हैं कि, महाराज दशरथ के द्वारा राज्य कन्या कैकई के गर्भ से उत्पन्न हुए हो। आज से पहले की बात है- पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था तभी तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी।।२-३।।
इसके बाद पुनः कैकई को दो वरदानों का वर्णन है।
पूरा प्रकरण पढ़कर लगता है कि व्यर्थ ही बात को यों खींचा जा रहा है। सर्ग १०४ में श्रीराम इस वचन की बात नहीं करते प्रत्युत कैकेयी को दिये दो वरदानों(प्रतिज्ञाओं) की ही बात करते हैं।अब अचानक सर्ग १०७ में भरत के नाना को दिये वचन को कहते हैं और कैकेयी के वरदानों की बाद उसके बाद कहते हैं। प्रश्न यह है कि श्रीराम पहले इस वचन का उल्लेख क्यों नहीं करते? दरअसल यह पूरा स्थल प्रक्षेपों से भरा हुआ है ।सर्ग १०७ के आगे के दो सर्ग पूरी तरह से प्रक्षिप्त है। सर्ग १०८ में जाबालि नामक एक ऋषि श्रीराम से नास्तिकमत का अवलंबन लेकर श्रीराम को समझाते हैं।उनकी सारी दलीलें बौद्ध और चार्वाकमत से मिलती हैं। सर्ग १०९ में श्रीराम जाबालि के नास्तिक मत का खंडन और आस्तिक मत का मंडन करते हैं।विस्तारभय से हम उनको पूरा नहीं लिख रहे हैं।मात्र एक श्लोक लिखकर उसका अर्थ देते हैं:-
यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।
तस्माद्धि य: शङ्क्यतम: प्रजानां न नास्तिकेनाभिमुखो बुध: स्यात् ।। २.१०९.३४ ।।
‘ जैसे चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेद विरोधी बुद्ध (बौद्ध मतावलंबी)भी दंडनीय है तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक)को भी इसी कोटि में समझना चाहिए। इसीलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके,उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाय परंतु जो वश के बाहर हो ,उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मुख ना हो।३४।।
इस प्रकरण में बौद्ध मत का नाम आया है।इससे यह सिद्ध है कि यह श्लोक बौद्ध काल में ही किसी पौराणिक पंडित ने रामायण में बौद्धों की निंदा करने के लिये प्रक्षिप्त किया है।क्योंकि रामायण में कई बार आया है कि उस समय कोई भी नास्तिक नहीं था,और बौद्ध और चार्वाकमत भी रामायण से कई सदियों बाद अस्तित्व में आये।ये पूरे दो सर्गों का ड्रामा केवल इस श्लोक के लिये प्रक्षिप्त किया गया ताकि श्रीराम के मुख से बौद्ध मत की निंदा कहलाई जाये।अतः भरत के नाना को दिये वचन वाली बात भी प्रक्षेपों के इस अंबार में से ही है।अतः राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता को कोई वचन नहीं दिया था।
अब रही कैकेयी के रानी बनने की बात,तो पेरियार साहब ने इसका कोई प्रमाण नहीं दिया।रामायण में कहीं नहीं लिखा कि राजा दशरथ ने अपना राज्य कैकेयी को सौंप दिया था।दावा बिना किसी सबूत के होने से खारिज करने योग्य है।
पाठकगण! पेरियार के पहले बिंदु की आलोचना हमने भली भांति की।इसका उद्देश्य यह था कि बाकी के कई प्रश्नों के उत्तप इसी से आ जायेंगे। इतना विस्तृत लेख अब आगे लिखने से बचेंगे।आगे के बिंदुओं की समीक्षा छोटी-बड़ी होगी।विस्तार कम करने का पूरा प्रयास रहेगा।अगले लेख में बिदु २-५ का खंडन किया जायेगा।
पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
क्रमशः
नमस्ते ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामायण का खंडन- १०

*सच्ची रामायण की पोल खोल-१०

अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*

-लेखक कार्तिक अय्यर ।

*प्रश्न १० आगे लिखा है-लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न आदि राजा दशरथ से पैदै न होकर कथित पुरोहितों द्वारा पैदा हुये तथापि आर्यधर्म के अनुसार कोई पाप नहीं था।उन पुरोहितों के नाम होता,अर्ध्वयु,उद्गाता लिखा है।महाभारत का संदर्भ लेकर नियोग संबंधी आरोप लगाये हैं।व्यास जी का उल्लेख करके कहा है कि धृतराष्ट्र और पांडु इसी कोटि की संतान थीं।*
*क्या श्रीरामादि नियोग से उत्पन्न हुये थे अथवा महाराज दशरथ की औरस संतान थे?*
*नोट*-यह लेख लंबा है क्योंकि आरोप गंभीर है। हममे इस लेख में सिद्ध करने का प्रयासकिया है कि श्रीरामादि महाराज दशरथ की औरस संतान थे।कृपया पाठकगण लेख को आद्योपांत पढे़ें एवं सत्य को स्वीकार करें।इस लेख को तीन भागों में विभक्त करते हैं:-
१:-नियोग का सत्य स्वरूप
२:- राजा दशरथ द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ तथा श्रीरामादि की उत्पत्ति
३:- श्रीरामादि के दशरथपुत्र होने की रामायण की अंतःसाक्षी।
४:- ललई सिंह जी के प्रमाणों की परीक्षा।
*समीक्षा*-  *१ नियोग का सत्य स्नरूप*यहां पेरियार साहब की एक और धूर्तता तथा चालबाजी की हद पार कर दी।बिना किसी आधार के एक तो श्रीराम आदि को नियोग की संतान बता दिया ,ऊपर इसे अपनी धूर्तता छिपाने के लिये व्यासजी का महाभारतोक्त वर्णन और पांडुआदि का जन्म वर्णन लिख दिया।*क्यों जी!राम पर आक्षेप लगाने के लिये वाल्मीकि आदि रामायण ग्रंथ कम थे जो बारंबार आप महाभारत और पुराण में जा छिपते हैं?खैर,आप चाहें जितने पर्दे में सच को छिपायें,हम उसको उधेड़कर निकालेंगे।
पेरियार साहब!पहले आपको बता दूं कि नियोग एक आपद्धर्म है।जब कोई स्त्री बिना संतान के विधवा हो जाती है,तब उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव युक्त पुरुष से वीर्यदान करवाकर  गर्भधारण द्वारा संतान प्राप्त कर सकती है।संतान देने के बाद *नियुक्त* पति का स्त्री से संबंध नहीं रहता तथा संतान को माता का नाम मिलता है।यदि विधवा या विधुर हो तो पुनर्विवाह कर लें अन्यथा नियोगकर ले।यदि नहीं,तो संतान गोद ले ले।
*नियोग की आज्ञा दोनों पक्ष तथा परिवारों की सहमति से हो,तभी उचित है।पंचायत के समक्ष दोनों पक्षों को निर्धारित करना होगा कि वे नियोग कर रहे हैं।संतान हो जाने के बाद दोनों के बीच कोई संबंध नहीं होता।*
प्राचीनकाल में जब राजाओं को वंशपरंपरा चलाने वाला कोई वारिस नहीं होता था,तब रानियां उत्तम वर्ण के पुरुष से नियोग करती थीं।उस समय में वंश और देश को बचाने हेतु नियोग आवश्यक था।व्यास जी ने विचित्रवीर्य की स्त्रियों :-अंबिका और अंबालिका को पुत्रदान किया।यदि ऐसा न होता,तो राष्ट्र में अराजकता,मार-काट,विदेशी आक्रमण होने का भय था।अतः नियोग आपदा का धर्म है। इस विषय पर अधिक जानकारी लेने के लिये पढ़ें – सत्यार्थप्रकाश चतुर्थसमुल्लास।
*२ राजा दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ एवं पुत्रों की प्राप्ति*:-
अब आते हैं *पेरियार एंड कंपनी* के मूल आरोप पर। *हम डंके की चोट पर यह कहते हैं कि श्रीरामादि राजा दशरथ के ही औरस(वीर्य से उत्पन्न) संतान थे।*
वाल्मीकि रामायण में पूरा वर्णन इस प्रकार है:-
*तस्य चैवं प्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद्वशकरः सुतः।।* (बालकांड ८:१)
 अर्थ:- ‘ऐसे प्रभावशाली,धर्मज्ञ,महात्मा के पुत्र के लिये पीड़ित महाराज दशरथ के लिये वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था।’
तब राजा दशरथ ने अपनी प्राणप्रिया पत्नियों से कहा कि ‘मैं पुत्र-प्राप्ति के लिये यज्ञ करंगा।तुम यज्ञ की दीक्षा लो।इस प्रकार ऋष्यश्रृंग ऋषि से दशरथ मिलते हैं तथा सात-आठ दिन बाद रोमपाद जी ( ऋष्यश्रृंग के श्वसुर)से यज्ञ के विषय में वार्तालाप करते हैं। ऋष्यश्रृंग मुनि अपनी पत्नी शांता के साथ अयोध्या पधारते हैं।उनके आगमन के कुछ समय बाद वसंत ऋतु का आगमन हुआ।तब महाराज को यज्ञ करने की इच्छा हुई। वे बोले:- *कुलस्य वर्धनं त्वं तु कर्तुमर्हसि सुव्रत।* (बालकांड १४:५८) अर्थात् ‘हे सुव्रत!आप मेरे कुल की वृद्धि के लिये उपाय कीजिये।तब मेधावी ऋष्यश्रृंग ऋषि ने,जो वेदों के ज्ञाता थे,ने थोड़ी देर ध्यान लगाकर अपने भावी कर्तव्यों का निश्चय किया और महाराज दशरथ से बोले:-
*इष्टि ते$बं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात्।अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मंत्रैः सिद्धां विधानतः।।* (बाल*१५:१२)
‘महाराज!आपको पुत्र प्राप्ति कराने हेतु मैं अथर्ववेद के मंत्रों से *पुत्रेष्टि* नामक यज्ञ करूंगा।वेदोक्त विधि से अनुष्ठान करने से यह यज्ञ अवश्य सफल होगा।’
[अथर्ववेद के निम्न मंत्र में पुत्रेष्टि यज्ञ का वर्णन है *शमीमश्वत्थ आरूढस्तत्र पुंसवनंकृतम्।तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् स्त्रीष्वाभरामसि।।* (६:११:१)
अर्थ:- *’शमी(छौंकड़) वृक्ष पर जो पीपल पर उगता है वह पुत्र उत्पन्न करने का साधन है।यह पुत्र-प्राप्ति का उत्तम साधन है।यह स्त्रियों को देते हैं। ]
उसके बाद ऋषि ने विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारंभ किया तथा विधिवत् मंत्र पढ़कर आहुति देना शुरू किया।थोड़ी देर बाद ऋषि ने पुत्रोत्पादक रूप गुणयुक्त खीर देकर राजा से कहा :-
*इदं तु नृपशार्दूल पायसं देवनिर्मितं।प्रजाकरं गृहाण त्वं धन्यमारोग्यवर्धनम्।।* (बाल* १६:१९)
 *’नृपश्रेष्ठ!यह देवताओं(=विद्वानों)द्वारा निर्मित खीर है।यग पुत्रोत्पादक, प्रशस्त तथा आरोग्यवर्धक है।इसे ग्रहण कर रानियों को खिलाइये।आपको निस्संदेह पुत्रों की प्राप्ति होगी।’*
तब राजा ने खीर पाकर प्रसन्नता प्रकट की,मानो निर्धन को धन मिल गया।तब खीर लेकर वे रनिवासमें गये तथा रानियों को पृथक-पृथक खीर बाँटी।महाराज दशरथ की सुंदर स्त्रियों ने खीर खाकर स्वयं को भाग्यवती माना।
*ततस्तु ताः प्राश्य तमुत्तमस्त्रियो महीपतेरुत्तमपायसं पृथक्।हुताशनादित्यसमानतेजसो$चिरेण गर्भान्प्रतिपेदिरे तदा।।*
( बाल* १६:३१)
‘ तदनंतर तीनों उत्तमांगनाओं ने महाराज दशरथ द्वारा पृथक-पृथक प्रदत्त खीर खाकर अग्नि और सूर्य के समान तेजवाले गर्भों को धारण किया।’ यज्ञ समाप्ति पश्चात् राजा लोग अपने-अपने देशों को लौटे। ऋष्यश्रृंग भी अपनी पत्नी शांता सहित महाराज से विदा लेकर अपने स्थान को चले।
*तते यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः।ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावभिके तिथौ।।*
‘यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् छः ऋतुयें व्यतीत होने पर बारहवें मास में चैत्र की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में जब पांच में कौसल्या जी ने श्रीराम को जन्म दिया।फिर कैकेयी न पुष्य नक्षत्र में भरत को,सुमित्रा मे अश्लेषा  नक्षत्र और कर्कलग्न में सूर्योदय होने पर लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया।’
इस वर्णनको पढ़कर पाठक समझ गये होंगे कि पेरियार जी के आरोप निराधार हैं। यहां स्पष्ट वर्णन है कि ‘तीनों रानियों ने महाराज दशरथ द्वारा पृथक-पृथक गर्भों को धारण किया’। इससे साफ सिद्ध है कि श्रीराम,लक्ष्मण, भरत,शत्रुघ्न- चारों पुत्र महाराज दशरथ के औरस पुत्र थे।
*पुत्रेष्टि यज्ञ क्या होता है*- पुत्रेष्टि यज्ञ में समिधाओं द्वारा हवन करके एक विशेष खीर का निर्माण किया जाता है।यह खीर आयुर्वेदिक औषधियों से युक्त होती है।इससे गर्भ संबंधी विकार दूर होते हैं तथा स्त्री गर्भधारण के योग्य बनती है। महाराज दशरथ ने भी औषधी युक्त पायस (खीर) खिलाकर रानियों से वीर्यदान किया तथा पुत्रों को उत्पन्न किया।
हमने पेरियार साहब के आरोपोंका युक्तियुक्त सप्रमाण खंडन कर दिया है । अगले लेख में हम *ललई सिंह यादव के दिये साक्ष्यों की परीक्षा तथा रामायण की अंतःसाक्षी द्वारा अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करेंगे।*
पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद ।
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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्रकी जय।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामायण की पोल खोल-९

*सच्ची रामायण की पोल खोल-९
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक कार्तिक अय्यर ।
*प्रश्न-९आगे रामायण को धर्मसंगत न होना तथा चेतन प्राणियों के लिये अनुपयोगी होना लिखा है।राक्षसों का यज्ञ में विघ्न,ब्रह्मा जी की विष्णु जी से प्रार्थना, विष्णु के अवतार का उल्लेख किया है विष्णु द्वारा जालंधर की पत्नी का शीलहरण करके आक्षेप किया है।आपने कहा है “इसका वर्णन आर्यों के पवित्र पुराण करते हैं!”*
*समीक्षा*-प्रथम,रामायण धर्मसंगत,अनुकरणीय है वा नहीं ये आगे सिद्ध किया जायेगा।
दूसकी बात,श्रीराम ईश्वरावतार नहीं थे,अपितु महामानव,आप्तपुरुष, राष्ट्रपुरुष आर्य राजा थे।इसका स्पष्टीकरण ‘श्रीराम’के प्रकरणमें करेंगे।
यहां आपने रामायण से छलाँग मारी और पुराणों पर पहुंच गये।पेरियार साहब! भागवत,मार्कंडेय,शिवपुराणादि ग्रंथों का नाम पुराण नहीं है। *वेद के व्याख्यानग्रंथ ऐतरेय,साम,गोपथ और शतपथ इतिहास व पुराण कहलाते हैं।*वर्तमान पुराण व्यासकृत नहीं हैं। ये १०००-१५०० वर्ष पूर्व ही बनाये गये हैं।इनको वैदिक धर्म के दुश्मन वाममार्गियों तथा पोपपंडितों ने बनाये हैं।इनमें स्वयं राम,कृष्ण, शिव,विष्णु, ब्रह्मा,शिव आदि की निंदा की गई हैं।मद्यपान,मांसभक्षण,पशुबलि,व्यभिचार आदि वेदविरुद्ध कर्मों का महिमामंडन इनमें हैं।अतः पुराण वेदविरुद्ध होने से प्रामाणिक नहीं हैं।
महर्षि दयानंद सत्यार्थप्रकाश मेंपुराणों के विषय में प्रबल प्रमाण एवं युक्तियां देकर लिखते हैं:-
( एकादश समुल्लास पृष्ठ २९७)
*”जो अठारह पुराणोंके कर्ता व्यासजी होते तो उनमें इतने गपोड़े नहीं होते।क्योंकि शारीरिक सूत्रों,योगशास्त्र के भाष्य और व्यासोक्त ग्रंथों को देखने से विदित होता है कि व्यास जी बड़े विद्वान, सत्यवादी,धार्मिक, योगी थे।वे ऐसी मिथ्या कथा कभीन लिखते।*
*……वेदशास्त्र विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यासजी सदृश विद्वानों का काम नहीं किंतु यह काम वेदशास्त्र विरोधी, स्वार्थी,अविद्वान लोगों का है..*
*….”ब्राह्मणानीतिहासान पुराणानि कल्पान् गाथानराशंसीदिति।”(यह ब्राह्मण व सूत्रों का वचन है-(१) ब्राह्मण ग्रंथों का नाम इतिहास पुराण है।इन्हीं ग्रंथों के ही इतिहास, पुराण,कल्प,गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम है*
विस्तार से जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास देखने का कष्ट करें।
अतः अष्टादशपुराण वेदविरुद्ध होने से अप्रमाण हैं ।इससे सिद्ध है कि विष्णु-जालंधर आदि की कथायें मिथ्या हैं। *और जहां-जहां पुराणोक्त गल्पकथायें रामायण में मिलें,वे भी कालांतर में धूर्तों द्वारा प्रक्षेपित की गई होने से अप्रमाण हैं-ऐसा जानना चाहिये।*
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

*सच्ची रामायण की पोल खोल-८

*सच्ची रामायण की पोल खोल-८
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक कार्तिक अय्यर ।
।।ओ३म्।।
धर्मप्रेमी सज्जनों! नमस्ते ।पिछले लेख मे हमने पेरियार साहब के ‘कथा स्रोत’ नामक लेख का खंडन किया।आगे पेरियार साहब अपने निराधार तथ्यों द्वारा श्रीराम पर अनर्गल आक्षेप और गालियों की बौछार करते हैं।
*प्रश्न-८इस बात प अधिक जोर दिया गया है कि रामायण का प्रमुख पात्र राम मनुष्य रूप में स्वर्ग से उतरा और उसे ईश्वर समझा जाना चाहिये।वाल्मीकि ने स्पष्ट लिखा है कि राम विश्वासघात,छल,कपट,लालच,कृत्रिमता,हत्या,आमिष-भोज,और निर्दोष पर तीर चलाने की साकार मूर्ति था।तमिलवासियों तथा भारत के शूद्रों तथा महाशूद्रों के लिये राम का चरित्र शिक्षा प्रद एवं अनुकरणीय नहीं है।*
*समीक्षा* बलिहारी है इन पेरियार साहब की!आहाहा!क्या गालियां लिखी हैं महाशय ने।लेखनी से तो फूल झर रहे हैं! श्रीराम का तो पता नहीं पर आप गालियां और झूठ लिखने की साक्षात् मूर्ति हैं।आपके आक्षेपों का यथायोग्य जवाब तो हम आगे उपयुक्त स्थलों पर देंगे।फिलहाल संक्षेप में उत्तर लिखते हैं।
  श्रीरामचंद्रा का चरित्र उनको ईश्वर समझने हेतु नहीं अपितु एक आदर्श मानव चित्रित करने हेतु रचा गया है।यह सत्य है कि कालांतर में वाममार्गियों,मुसलमानों और पंडों ने रामायण में कई प्रक्षेप किये हैं।उन्हीं में से एक मिलावट है राम जी को ईश्वरावतार सिद्ध करने की है।इसलिये आपको प्रक्षिप्त अंश पढ़कर लगा होगा कि ‘ श्रीराम को ईश्वरावतार समझना’ अनिवार्य है।परंतु ऐसा नहीं है।देखिये:-
*एतदिच्छाम्यहं श्रोतु परं कौतूहलं हि मे।महर्षे त्वं समर्थो$सि ज्ञातुमेवं विधं नरम्।।* (बालकांड सर्ग १ श्लोक ५)
 आरंभ में वाल्मीकि जी नारदजी से प्रश्न करते हैं:-“हे महर्षे!ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति के संबंध में जानने की मुझे उत्कट इच्छा है,और आप इस प्रकार के मनुष्य को जानने में समर्थ हैं।” ध्यान दें!श्लोक में नरः पद से सिद्ध है कि श्रीराम ईश्वरानतार नहीं थे।वाल्मीकि जी ने मनुष्य के बारे में प्रश्न किया है और नारदजी ने मनुष्य का ही वर्णन किया ।
*महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने यह सिद्ध किया है कि ईश्वर का अवतारलेना संभव नहीं।परमात्मा के लिये वेद में “अज एकपात” (ऋग्वेद ७/३५/१३)’सपर्यगाच्छुक्रमकायम'(यजुर्वेद ४०/८)इत्यादि वेद वचनों में ईश्वर को कभी जन्म न लेने वाला तथा सर्वव्यापक कहा है।(विस्तार के लिये देखें:- सत्यार्थप्रकाश सप्तमसमुल्लास पृष्ठ १५७)
 अतः राम जी ईश्वर नहीं अपितु महामानव थे।
 महर्षि वाल्मीकि ने कहीं भी श्रीरामचंद्र पर विश्वासघात, लालच,हत्या आदि के दोष नहीं लगाये वरन् उनको *सर्वगुणसंपन्न*अवश्य कहा है।आपको इन आक्षेपों का उत्तर श्रीराम के प्रकरणमें दिया जायेगा।फिलहाल वाल्मीकि जी ने राम जी के बारे में क्या *स्पष्ट* कहा है वह देखिये। *अयोध्याकांड प्रथम सर्ग श्लोक ९-३२*
*सा हि रूपोपमन्नश्च वीर्यवानसूयकः।भूमावनुपमः सूनुर्गुणैर्दशरथोपमः।९।कदाचिदुपकारेण कृतेतैकेन तुष्यति।न स्मरत्यपकारणा शतमप्यात्यत्तया।११।*
अर्थात्:- श्रीराम बड़े ही रूपवान और पराक्रमी थे।वे किसी में दोष नहीं देखते थे।भूमंडल उसके समान कोई न था।वे गुणों में अपने पिता के समान तथा योग्य पुत्र थे।९।।कभी कोई उपकार करता तो उसे सदा याद करते तथा उसके अपराधों को याद नहीं करते।।११।।
आगे संक्षेप में इसी सर्ग में वर्णित श्रीराम के गुणों का वर्णन करते हैं।देखिये *श्लोक १२-३४*।इनमें श्रीराम के निम्नलिखित गुण हैं।
१:-अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता।महापुरुषों से बात कर उनसे शिक्षा लेते।
२:-बुद्धिमान,मधुरभाषी तथा पराक्रम पर गर्व न करने वाले।
३:-सत्यवादी,विद्वान, प्रजा के प्रति अनुरक्त;प्रजा भी उनको चाहती थी।
४:-परमदयालु,क्रोध को जीतने वाले,दीनबंधु।
५:-कुलोचित आचार व क्षात्रधर्मके पालक।
६:-शास्त्र विरुद्ध बातें नहीं मानते थे,वाचस्पति के समान तर्कशील।
७:-उनका शरीर निरोग था(आमिष-भोजी का शरीर निरोग नहीं हो सकता),तरूण अवस्था।सुंदर शरीर से सुशोभित थे।
८:-‘सर्वविद्याव्रतस्नातो यथावत् सांगवेदवित’-संपूर्ण विद्याओं में प्रवीण, षडमगवेदपारगामी।बाणविद्या में अपने पिता से भी बढ़कर।
९:-उनको धर्मार्थकाममोक्ष का यथार्थज्ञान था तथा प्रतिभाशाली थे।
१०:-विनयशील,गुरुभक्त,आलस्य रहित थे।
११:- धनुर्वेद में सब विद्वानों से श्रेष्ठ।
कहां तक वर्णन किया जाये? वाल्मीकि जी ने तो यहां तक कहा है कि *लोके पुरुषसारज्ञः साधुरेको विनिर्मितः।*( वही सर्ग श्लोक १८)
अर्थात्:- *उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि संसार में विधाता ने समस्त पुरुषों के सारतत्त्व को समझनेवाले साधु पुरुष के रूपमें एकमात्र श्रीराम को ही प्रकच किया है।*
 अब पाठकगण स्वयं निर्णय कर लेंगे कि श्रीराम क्या थे?लोभ,हत्या,मांसभोज आदि या सदाचार और श्रेष्ठतमगुणों की साक्षात् मूर्ति।
 श्रीराम के विषय में वर्णित विषय समझना मानव बुद्धि से परे नहीं है।शायद आप अपनी भ्रांत बुद्धि को समस्त मानवों की बुद्धि समझने की भूल कर दी।रामायण को यदि कोई पक्षपातरहित होकर पढे़ तो अवश्य ही जान जायेगा कि श्रीराम का चरित्र कितना सुगम व अनुकरणीय है।
आगे दुबारा शूद्रों और महाशूद्रों का कार्ड खेलकर लिखा है कि इन लोगों के लिये कुछ भी अनुकरणीय व शिक्षाप्रद नहीं है।यह पाठक रामायण का अध्ययन करके स्वतः जान जायेंगे कि उनके लिये क्या अनुकरणीय है?
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद ।
कृपया पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें।
क्रमशः—–
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र की जय।
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

सच्ची रामायण की पोल खोल-७

*सच्ची रामायण की पोल खोल-७-
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक *कार्तिक अय्यर*
।।ओ३म ।।
 धर्मप्रेमी सज्जनों! नमस्ते!
पेरियार साहब के ‘कथा प्रसंग’नामक लेख का खंडन आगे करते हैं।
*प्रश्न-७* *रामायण में जो सद्गुण, दूरंदेश,करुणा,शुभेच्छाओं की शिक्षा,जिस निर्मूल रूप से दी गई है,वह मानव-शक्ति तथा समझ के परे है-आदि बातें लिखी हैं*(पेज नंबर १५ पंक्ति ५)
*समीक्षा*:-
*मजा़ आता जिसे है जहर के प्याले चढ़ाने में ही,वह व्यक्ति अमृत-तत्व का महत्व क्या जाने।*
*मन में अगर दशशीश के दश शीश बसते हों,वह व्यक्ति प्रभु श्रीराम यश- सामर्थ्य क्या जाने।।*
रामायण एक सार्वभौमिक ग्रंथ है।आपके दिये तर्क कितने हास्यास्पद हैं,यह तो पाठकजन वाल्मीकि रामायण पढ़कर ही जान लेंगे।आप कहते हैं कि ‘रामायण की सद्गुण आदि की शिक्षायें निर्मूल तथा असत्य रूप से दी गई हैं’। सच कहें तो आपकी पुस्तक और लेखनी है।रामायण का मूल ही नैतिक मूल्यों का प्रकाश करना है ,जो मानववमात्र के लिये सहज,सरल,बोधगम्य,और अनुकरणीय है।’मानव शक्ति की समझ से परे हैं ‘-यह कहना ठीक नहीं।शायद आपने अपनी बुद्धि-सामर्थ्य को सम्पूर्ण मानवों की मानव-शक्ति समझने कीभूल कर दी।रामायण तो “यावच्चंद्र दिवाकरौ” है जबकि आपकी पुस्तक की हैसियत सड़े-गले कूड़ेदान में ही है।
अस्तु।
हम आपको वाल्मीकि रामायण की रचना का कारण बताता हूं।देखिये-
*श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मार्थसहितंसहितम्।व्यक्तमन्वेषते भूयो यद्वृत्तं तस्यधीमतः।।* (बालकांड सर्ग ३ श्लोक १)
*अर्थात् -नारदजी से श्रीराम का चरित्र सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने धर्म-अर्थ से युक्त सर्वजन-हितकारी राम के जीवन की घटनाओं को उत्तम प्रकार से एकत्रित करना आरंभ किया*
साफ है, ‘धर्मार्थ काम मोक्ष युक्त होने से श्रीराम चरित्र सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाय है।’यही रामायण का उद्देश्य है।
रामायण में सद्गुणों का सागर है।श्रीराम एक आदर्श महामानव,पति,प्रजापालक,मित्र तथा योद्धा हैं।श्रीलक्ष्मण जी एक आदर्श भ्राता हैं जो बड़े भाई के सुख-दुख ,लाभ-हानि में नगर हो या जंगल,हर जगह साथ खड़े रहते हैं।भगवती सीता जी एक ऐसी नारी-रत्न हैं,जिनके पातिव्रत्य,शील तथा तेज के आगे आगे रावण जैसा प्रतापी भी फीका पड़ जाता है।मां सीता मन,कर्म तथा वाणीसे पति-प्रेम में अनुरक्त हैं।रावण ज्ञानवान तथा प्रतापी होते हुये भी अपने नीच कर्मों के कारण पतित हुआ।इस प्रकार रामायण में आज्ञापालन,दीन,दुर्बल एवं आश्रित संरक्षण,एकपत्नीकव्रत,आदर्श पातिव्रत्य, न्यायानुकूलआचरण,त्याग,उदारता,शौर्य तथा वीरता की शिक्षायें प्राप्त होती हैं,जो यत्र-तत्र मोतियों के समान बिखरी पड़ी है।कहां तक कहा जाये?पाठकजन संक्षेप में ही रामायण का महत्व समझ जायेंगे।
क्रमशः—–
आगे की पोस्ट में पुरजोर खंडन किया जायेगा।पाठकगण इसका आनंद लेवें।
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये
धन्यवाद ।
 कृपया पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र की जय।
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

सच्ची रामायण की पोल खोल-६

 *सच्ची रामायण की पोल खोल-६
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
 कार्तिक अय्यर
।।ओ३म्।।
 धर्मप्रेमी सज्जनों ,नमस्ते ।कल पेरियार साहब की भूमिका का खंडन करके हमने उनकी आर्य-द्रविड़ की राजनीति का पर्दाफाश किया।अब आगे कथा स्रोत का जवाब लिखा जाता है।
*प्रश्न-६रामायण की घटनायें और कथा क्रम ‘अरबी जोधा ‘ ‘मदन कामराज’ पंचतंत्र की तरह है।वे मानव की समझ और गूढ़ विचारों से दूर है।यह ढृढ़तापूर्वक कहा जाता है कि रामायण में कोई वास्तविक कथा नहीं है।रामायण में वर्णित तत्व निराधार,निरर्थक अनावश्यक है।*
*समीक्षा*- बहुत खूब पेरियार साहब!जब आपने रामायण को कोरी गप्प माना है तो आप और ललई सिंह जी किस मुंह से रावण का यशोगान करते हैं?अहो मूलनिवासी मित्रों! रामायण पर गप्प होने का तमगा लगाकर आपके तथाकथित पूर्वज रावण को भी काल्पनिक सिद्ध नहीं कर दिया?
 रामायण मानव के समझ और गूढ़ विचारों से दूर नहीं है।सत्य कहें तो आप ‘मानव’ का अर्थ नहीं जानते।आपने मानव बनकर रामायण का पठन-चिंतन-मनन किया होता तब आपको कुछ समझ में आता।और जो व्यक्ति मानवीय आचरण,चिंतन से परे हैं उसे क्या कहा जाता है ये पाठक भली-भांति जानते हैं।
“रामायण वास्तविक कथा नहीं है”-यह आप किस आधार पर कहते हैं?केवल कागज़ पर कागज़ रंगने से सच नहीं झुठलाया जा सकता।*रामायण की ऐतिहासिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाने वालो!रामसेतु रामायण की वास्तविकता का ज्वलंत उदाहरण है।’नासा’ ने भी यह प्रमाणित कर दिया।इस विषय पर विस्तार से आगे लिखा जायेगा।बाकी लंका और अयोध्यानगरी ये चीख-चीख कर कह रहे हैं कि रामायण एक सत्य घटना है।इसे काल्पनिक कहने वाला हठी-दुराग्रही है या फिर अल्पज्ञानी।
रामायण में वर्णित तत्व निराधार या निरर्थक नहीं है।रामायण में आस्तिकता,धार्मिकता,प्रतिज्ञा-प्रतिपालन,वर्णाश्रमधर्मानुसार मर्यादित आचरण एवं उच्च नैतिक आदर्शों का वर्णन है,वह दुर्लभ है।जैसे बालकांड में राम जी के बचपन का सुंदर वर्णन है,तो अयोध्याकांड में उनके सद्गुणों का उल्लेख।सुंदरकांड में श्रीहनुमानजी की वीरता और शौर्य का मार्मिक चित्रण है।युद्धकांड में सत्य-असत्य धर्माधर्म का निर्णायक युद्ध ।
 रामायण वैदिक संस्कृति के उच्चतम मानवीय मूल्य प्रदर्शित करने वाला ग्रं थ है। *शायद निरर्थक या अनावश्यक सामग्री  देखकर आपको रामायण काल्पनिक लगी हो,परंतु यह क्लिष्टतायें प्रक्षेपकर्ताओं ने जोड़ी हैं।निश्चित ही इसके दोषी वे लोग हैं,नाकि आदिकवि वाल्मीकि ।
 श्रीरामचंद्रा-सा उदात्त चरित्र, लक्ष्मण-सा आदर्श भाई,भरत-जैसा वैराग्यवान मिलना कठिन है।रामायण मानव मात्र की उन्नति करने वाला ग्रंथ है।इस पर आक्षेप करने वालों की बुद्धि पर तरस आता है।
क्रमशः—–
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद ।
धन्यवाद ।
 मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रा की जय ।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र की जय।
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

सच्ची रामायण की पोल खोल-५

*सच्ची रामायण की पोल खोल-५
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
 कार्तिक अय्यर
   ।। ओ३म।।
धर्मप्रेमी सज्जनों! सादर नमस्ते । पिछले लेख में हमने पेरियार के पांच आक्षेपों का जवाब दिया। अब आगे:-
 *प्रश्न ५राम और सीता में कोई किसी प्रकार की कोई दैवी तथा स्वर्गीय शक्ति नहीं है।आगे लिखा है कि आर्यों(गौरांगों)ने स्वतंत्रता के बाद उनके नामों से देवता गढ़ लिये।तमिलनाडु की जनता को चाहिये कि तमिल नाडु के विचारों और सम्मान को दूषित करने वाली आर्यों की सभ्यता मिटा देने की शपथ लें*
समीक्षा:- श्रीराम चंद्र और सीता में दैवीय गुण न थे-यह कहना कोरा अज्ञान है।यदि रामायण के नायक में धीरोदत्त गुण न होते तो रामायण रची ही क्यों जाती?श्रीराम में कितने सारे दिव्य गुण थे तथा वे आप्तकाम थे।यदि पक्षपातरहित होकर रामायण पढ़ते तो ७० पृष्ठों की रंगाई-पुताई नहीं करते। ये देखिये,श्रीराम के दिव्य गुणों की झलकियां:-
 ” वे श्रीराम बुद्धि मान,नीतिज्ञ,मधुरभाषी,श्रीमान,शत्रुनाशक,ज्ञाननिष्ठ,पवित्र,जितेंद्रिय और समाधि लगाने वाले कहा गया है। (बालकांड सर्ग १ श्लोक ९-१२)
 उसी प्रकार मां सीता को भी पतिव्रता, आर्या आदि कहा गया है। सार यह है कि श्रीराम व मां सीता में दिव्य गुण थे।हां,यदि स्वर्गीय शक्ति और दैवी शक्ति का तात्पर्य आप असंभव चमत्कार आदि से ले रहे हैं तो वे दोनों में नहीं थे।
देखिये प्रबुद्ध पाठकजनों!मेरे प्यारे परंतु भोलेभाले मूलनिवासी भाइयों! पेरियार साहब आर्यों को विदेशी मानते हैं पर डॉ अंबेडकर शूद्र तक को आर्य व भारत की मूल सभ्यता मानते हैं (पढ़िये ‘शूद्र कौन थे?’-लेखक डॉ अंबेडकर) ।दोनों में से आप किस नेता की बात मानेंगे?
आर्यों ने खुद को देवता नहीं कहा बल्कि दिव्य गुण धारण करने वाले विद्वान देवता कहलाते हैं,फिर वे चाहे जिस किसी मत,देश,भाषा से संबंधित हो।
 तमिल जनता को गुमराह करने का आपका उद्देश्य कभी सफल नहीं होगा।आर्यसभ्यता सत्य,विद्या,धर्म की सभ्यता है।भारत की मूल संस्कृति है।न तो तमिल की सभ्यता अलग है न आर्यों की।दोनों एक ही है।*आर्य सभ्यता को मिटाने की शपथ लेना लेखक की विक्षिप्त मनोदशा बताता है।*लेखक विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता,जो “आत्मवत् सर्वभूतेषु ,मनुर्भव,” वसुधैव कुटुंबकम्” पर आधारित है,को मिटाना चाहता है।इसका कारण या तो लेखक का मिथ्याज्ञान है या फिर स्वार्थांधता और मानसिक दिवालियापन।
पाठकजन! आप समझ गये होंगे कि लेखक का इस पुस्तक को बनाने के पीछे केवल एक ही मंशा थी-*श्रीराम और रामायण पर आक्षेप लगाने के नाम पर आर्य-द्रविड़ की राजनीति खेलना तथा सत्य को छिपाकर गलत धारणाओं व मान्यताओं का प्रचार करना।अपनी स्वार्थांधता के कारण लोगों की धार्मिक भावनाओं पर प्रहार करना किसी विवेकवान,सत्यान्वेषी तथा विद्वान व्यक्ति का काम नहीं हो सकता।
निश्चित ही पेरियार साहब के आक्षेपों का द्वेषमुक्त तथा मर्यादित रूप से खंडन किया जायेगा ताकि पाठकजन असत्य को त्यागकर सत्य को जानें।
आगे के लेख में ‘कथास्रोत’ नामक लेख का खंडन-मंडन विषय होगा
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

*सच्ची रामायण की पोल खोल -४

*सच्ची रामायण की पोल खोल -४
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
– कार्तिक अय्यर
ओ३म
 धर्मप्रेमी सज्जनों!पेरियार के आक्षेपों के खंडन की चौथी कड़ी में आपका स्वागत है। आपने पिछले लेखों को पढ़ा तथा शेयर किया।इसलिये में हृदय से आपका आभारी हूं।आशा है कि आगे की पोस्ट भी आपका इसी प्रकार समर्थन प्राप्त करेगी। पेरियार साहब की “भूमिका” के खंडन में :-
*प्रश्न-३ :-रामायण युद्ध में कोई भी उत्तर भारत का कोई भी निवासी ब्राह्मण (आर्य) या देवता नहीं मारा गया।एक शूद्र ने अपने जीवन का मूल्य इसलिये चुकाया था क्योंकि आर्यपुत्र बीमार होने के कारण मर गया था इत्यादि।वे लोग जो इस युद्ध में मारे गये वे आर्यों द्वारा राक्षस कहे जाने वाले लोग थे*
*समीक्षा:-* आपका यह कथन सर्वथा अयुक्त है।राम-रावण युद्ध में दोनों ओर के योद्धा मारे गये थे।वानर भी क्षत्रिय वनवासी ही थे, तथा आर्य ही थे,यह हम सिद्ध कर चुके हैं।यह सत्य है कि लक्ष्मण जी,जांबवान,हनुमान आदि वीर योद्धा नहीं मारे गये परंतु कई वानर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुये।जब आर्य-राक्षस में युद्ध होगा तो दोनों ही पक्ष के सैनिक मारे जायेंगे या नहीं? राम-रावण युद्ध ” परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां” था। अर्थात् अधर्म पर धर्म की विजय का युद्ध था। धर्म-अधर्म के युद्ध में धर्म को जीतना ही था।
यहां फिर प्रांतवाद का खेल खेला। आर्य,देवता या ब्राह्मण केवल उत्तर भारत के ही नहीं होते बल्कि सर्वत्र हो सकते हैं, क्यों कि ये गुणवाचक संज्ञायें हैं कोई जातिगत नाम नहीं। यही नहीं, रावण तक को उसका पुत्र प्रहस्त “आर्य” कहकर संबोधित करता है। अतः पेरियार साहब की यह बात निर्मूल है।
रहा प्रश्न शंबूक वध का तो यह प्रक्षिप्त उत्तरकांड की कथा है । *हम डंके की चोट पर कहते हैं उत्तर कांड पूरा का पूरा प्रक्षिप्त है तथा महर्षि वाल्मीकि की रचना नहीं है।हम इस कथन को सिद्ध भी कर सकते हैं।*
” राक्षस कहे जाने वाले तमिलनाडु के मनुष्य थे”- यह सत्य नहीं है।लंका कहां और तमिल नाडु कहां? रावण की लंका सागर के उस पार थी और तमिल नाडु भारत का अंग है।तो तमिल वासी राक्षस कैसे हुये? राक्षस आतंककारी, समाज विघातक,दुष्टों को कहते हैं। रावण की लंका के वासी ऐसे ही कर्मों के पोषक होने से राक्षस ही थे। ISIS जैसे आतंकी संगछन,माओवादी,नक्सली सब मानवता विरोधी हत्यारे हैं।इनको मारना मानव मात्र का कर्तव्य है।तब श्रीराम का राक्षसों का संहार गलत क्यों?
स्पष्ट है कि लेखक आर्य-द्रविड़ की राजनीति खेलकर अपना मतलब साधना चाहते हैं। उनकी इसी विचारधारा को पेरियारभक्त आगे बढ़ा रहे हैं।
: *प्रश्न:-४ रावण राम की स्त्री सीता को हर ले गया- क्योंकि राम के द्वारा उसकी बहन सूर्पनखा के अंग-भंग किये गये व रूप बिगाड़ा गया। रावण के इस कृत्य के कारण पूरी लंका क्यों जलाई जाये? लंका निवासी क्यों मारे जायें?इस कथा उद्देश्य केवल दक्षिण की तरफ प्रस्थान करना है। तमिलनाडु में किसी सीमा तक सम्मान से इस कथा का विष-वमन अर्थात् प्रचार यहां के लोगों के लिये अत्यंत पीड़ोत्पादक है।*
*समीक्षा*:-
रावण सीता को हरकर ले गया,ये कदापि न्यायसंगत नहीं था।भला छल से किसी के पति और देवर को दूर करवाकर तथा कपटी संन्यासी का वेश धरकर एक अकेली पतिव्रता स्त्री का हरण करना कौन सी वीरता है? यदि रावण सचमुच इतना शूरवीर था तो राम-लक्ष्मण को हराकर सीताजी को क्यों नहीं ले गया?अंग-भंग किये लक्ष्मण जी ने श्रीराम के आदेश पर और बदला लिया एक पतिव्रता निर्दोष स्त्री से!
 और शूर्पणखा का अंग-भंग करना भी उचित था,क्योंकि एक तो कुरूप,भयावह,कर्कशा,अयोग्य होकर भी न केवल शूर्पणखा ने श्रीरामचंद्र पर डोरे डाले,प्रणय निवेदन किया,बल्कि माँ सीता पर जानलेवा हमला भी किया।ये दोनों कृत्य  दंडनीय अपराध हैं जिनका दंड शास्त्रों में प्रतिपादित है।इस विषय पर आगे विस्तार से लिखा जायेगा।परंतु शूर्पणखा और रावण के कृत्य कदापि न्यायसंगत नहीं कहे जा सकते।
 रहा प्रश्न लंका को जलाने का तो इस पर भी आगे प्रकाश डाला जायेगा।फिलहाल यह जानना चाहिये कि हनुमान जी ने अधर्मी राक्षसों को संतप्त करने के लिये लंका का ‘दुर्ग’ नष्ट किया था,पूरी लंका नहीं।उसी को अतिशयोक्ति में कह दिया गया कि पूरी लंका जल गई।इसे ऐसे जानिये,जैसे कह दिया जाता है कि ‘पूरा काश्मीर आतंकी हमलों से जल रहा है’ यहां कश्मीर का जलना आलंकारिक है।जलने का तात्पर्य आतंकित होना,त्रस्त होना इत्यादि है।देखिये:-
*वनं तावत्प्रमथितं प्रकृष्टा राक्षसा हताः।*
*बलैकदेशः क्षपितः शेषं दुर्गविनाशिनम्।।२।।*
*दुर्गे विनाशिते कर्म भवेत्सुखपरिश्रम।।* ( सुंदरकांड सर्ग ३५ )-स्वामी जगदीश्वरानंद टीका।
अर्थात्:-*(हनुमान जी विचारकर रहे हैं)’मैंने रावण के प्रमदावन=अशोकवाटिका का विध्वंस कर दिया।चुने हुये पराक्रमी राक्षसों को मार दिया।अब तो केवल दुर्ग का नाश करना शेष है।दुर्ग के नष्ट होते ही मेरा परिश्रम सार्थक हो जायेगा।
 “तमिलनाडु में इस कथा का प्रचार विष वमन,निंद्य तथा पीड़ोत्पादक है”-यह कहना दुबारा आर्य-द्रविड़ का खेल खेलना दर्शाता है।क्योंकि *रामायण धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य के संग्राम की कथा है*- रामायण का पढ़ना-पढ़ाना केवल असत्य,अधर्म के पक्षियों के लिये ही पीड़ोत्पादक हो सकता है नाकि आम जनता के लिये।आम जनता में रामायण के प्रचार-प्रसार से धर्य,नैतिकता,स्वाभिमान,राष्ट्रीयता आदि गुणों का ही प्रचार होगा।रामायण किसी देश विशेष की निंदा नहीं अपितु अधर्म का प्रतिकार सिखाती है।इस राजनीतिक हथकंडों द्वारा आप केवल अपने अंधभक्तों को फंसा सकते हैं,जनता-जनार्दन को नहीं।अस्तु।
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद ।कृपया पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें ताकि श्रीराम तथा आर्य संस्कृति के बारे में फैले दुष्प्रचार का निराकरण हो। अगले लेख में भूमिका पर  अंतिम समीक्षा तथा ” कथास्रोत”नामक लेख का उत्तर दिया जायेगा। पेरियार साहब ने पुस्तक में दशरथ,राम,सीता आदि शीर्षक देकर आलोचना की है तथा ललई सिंह यादव,जिन्होंने हाईकोर्ट में सच्ची रामायण का केस लड़ा और दुर्भाग्य से जीता,ने “सच्ची रामायण की चाबी” नाम से पेरियार की पुस्तक का शब्द प्रमाण दिया है।ये दोनों पुस्तकें सच्ची रामायण तथा इसकी ‘चाबी’ हमारे पास पीडीएफ रूप में उपलब्ध है।हम दोनों का खंडन साथ ही में करेंगे।ईश्वर हमें इस काम को आगे बढ़ाने की शक्ति दे।
धन्यवाद
 मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी की की जय।।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र जी की जय
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

*सच्ची रामायण की पोल खोल-3

*सच्ची रामायण की पोल खोल-३ अर्थात्*
*पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक:- *कार्तिक अय्यर
*ओ३म*
धर्मप्रेमी सज्जनों! सादर नमस्ते । पिछले लेख में हमने पेरियार साहब द्वारा लिखी भूमिका का खंडन प्रारंभ किया था। इसी भूमिका में आगे *राम जी पर अनर्गल आरोप लगायें हैं साथ ही आर्य-द्रविड़ राजनीति का कार्ड भी खेला गया है।पाठकवृंद आगे की समीक्षायें पढ़कर आनंद उठाये तथा सत्य को जाने*
निवेदन:-पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें ताकि पेरियारभक्तों का मुखमर्दन तेजी से हो।
*प्रश्न २* पेरियार साहब भूमिका में आगे लिखते हैं *”राम तमिल सभ्यता का कण मात्र भी नहीं था।उसकी स्त्री सीता तमिलनाडु की विशेषताओं से रहित  उत्तरी भारत की निवासिनी थी।तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस कहकर उनका उपहास किया जाता है।वही उनकी स्त्रियों के प्रति भी।*
*समीक्षा* :-
१:-लेखक महोदय से पूछना चाहिये कि तमिल नाडु और तमिल नाडु की सभ्यता तथा आर्य संस्कृति में क्या अंतर है?स्पष्ट हो गया कि आपका पुस्तक बनाने का उद्देश्य तमिल-उत्तर भारत में फूट डालने के अलावा कुछ और विदित नहीं होता। पेरियार साहब को बताना चाहिये कि तमिल संस्कृति व सभ्यता की विशेषतायें क्या हैं और सीता राम में तमिल की किन विशेषताओं का अभाव था।
२:-तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस नहीं कहा गया। बल्कि वाल्मीकि रामायण में *वानर* शब्द है तथा दुष्टाचरण,पापी,समाज विघातक,आतंककारी आदि का करने वालों का नाम राक्षस,दस्यु,असुर है। वानर और राक्षस दोनों गुणवाचक नाम हैं नाकि जातिवाचक। हम क्रमशः दोनों शब्दों की मीमांसा करते हैं।
*(अ)* *वानर* :- *वने भवं वानरम्,राति गृहणाति ददाति वा।वानं वनं संबंधिनं,फलादिकं गृहणाति ददाति वा।* – जो वन में उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर है। वानर कोई विशेष जाति नहीं है अपितु वनवासी और वानुप्रस्थ वर्ग इस श्रेणी में आते हैं। इसलिये सुग्रीव,बालि,जामवंत,हनुमान आदि वानर मनुष्य ही थे पूंछवाले बंदर नहीं। और तारा,रुमा आदि भी मानव स्त्रियां थीं।वे ऋष्यमूक पर्व पर रहते थे ,वन में उगने वाले फलादिक खाते थे इसलिये “वानर” कहलाये नाकि पूंछवाले बंदर थे।उनकी पूंछ बंदर जैसी न थी बल्कि वो विलक्षण मानव ही थे। उनकी पूंछ एक यंत्र थी जो उछलने कूदने के काम आती थी। वाल्मीकि रामायण से कुछ प्रमाण हम लिखते हैं:-
*हनुमानजी को  वेदज्ञ तथा राजमंत्री कहा गया है। (  आध्यात्म रामायण किष्किंधाकांड १/१६,१८,३९)
*हनुमान जी व्याकरण के महापंडित थे ( वाल्मीकीय रामायण किष्किंधा-३/२६,२८,२९)
*सुग्रीव का सिंहासन पर बैठना व स्वयं को मनुष्य कहना ( किष्किंधा-२/२२ तथा ३३/६३)
*सोने के घड़े,चंवर आदि (किष्किंधा-२६/२३,३३-३६)
* अंगद का बाली को अग्नि देक अपना यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रखना( किष्किंधा-२ ५/५) इससे सिद्ध है कि वानर मानव ही थे क्यों कि यज्ञोपवीत यज्ञ करने वाला धारण करता है। यज्ञेपवीत आर्य संस्कृति का चिह्न है अतः वानर क्षत्रिय आर्य थे ।
* बालि की पत्नी तारा को राज संचालन में निपुण कहा गया है। ( किष्किंधा-२ २/१३,१४) क्या कोई बंदरिया राज-संचालन कर सकती है? कदापि नहीं। अतः वानर मनुष्य ही थे जो वनों में रहा करते थे।
पेरियार साहब, यहां ऋष्यमूक पर्वतवासी वानरों को द्रविड़ या तमिलवासी कहकर आपकी दाल नहीं गलेगी। देखिये, जब बालि का वध हुआ तब बाली की भार्या तारा ने उसे *आर्यपुत्र* कहकर संबोधित किया था:- लीजिये प्रमाण-
*समीक्ष्य व्यथिता भूमौ संभ्रांता निपपात ह।*
*सुप्तेवै पुनरुत्थायलआर्यपुत्रेति क्रोशती।।* *(किष्किंधा-१९/२७)*
*अर्थात-् युद्ध में मरे अपने पति को देख विकल और उद्विग्न हो तारा भूमि पर गिर पड़ी।थोड़ी देर बाद सोती हुई के समान उठकर, “हा आर्यपुत्र!” कह और कालकवलित पति को देख रोने लगी।*
अब आपका क्या कहना है पेरियार साहब?यहां तथाकथित “वानर तमिलवासी” बालि को भी “आर्य पुत्र कहा गया है।इससे सिद्ध है कि आर्य एक गुणवाचक नाम है,किसी जातिविशेष का नहीं।जिस समाज में कोई भी श्रेष्ठ गुण वाला वेदानुसार सत्याचरण करने वाला व्यक्ति हो, वो आर्य है।
अब आर्य शब्द की मीमांसा करते हैं :-आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ,बलवान,सद्गुणी आदि।
* ऋग्वेद १/१०३/३,१/१३०/८ में श्रेष्ठ व्यक्ति का वाचक आर्य है।
*ऋग्वेद ६/२२/१०- आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ।
* ” कृण्वंतो विश्वमार्यम्” विश्व को आर्य बनाओ, यह वेद का आदेश है।
*निरुक्त ६/२६- अर्य ईश्वरपुत्रः। अर्य ईश्वरपुत्र होता है ।इसी से आर्य बना है।
अब डॉ अंबेडकर के भक्त नवबौद्ध भाइयों के लिये विशेष प्रमाण लिखते हैं, अवलोकनकरें:-
* डॉ अंबेडकर अपनी पुस्तक “शूद्र कौन थे” में  शूद्र तक को आर्य कहते हैं।
*धम्मपद अध्याय ६ वाक्य १९/६/४ ममें आया है कि जो आर्यों के मार्ग पर चले वो पंडित है।
*बौद्धग्रंथ “विवेक विलास” में आर्य शब्द आया है *बौधानाम सुगतो देवो च क्षभंगुमार्य सत्वाख्या यावरुव चतुष्यामिद कल्पना त*  अर्थ:- बुद्धवग्ग ने अपने उपदेशों मेॉ तार आर्य सत्य प्रकाशित किये। (अध्याय १४) *चत्वारि आरिय सच्चानि*।।
: *ब * राक्षस मीमांसा*:- राक्षस का प्रयोग विध्वंसकारी,आतंककारी,हत्यारे तथा दुष्ट प्रवृत्ति वालों के लिये किया जाता है। यह भी गुणवाचक नाम है।देखिये:-
*ऋग्वेद ७/१०४/२४- यहां यातुधान (प्रजाजनों को छुपकर मारने वाले)को राक्षस कहा है।*
*ऋग्वेद १०/८३/१९-यहां अनार्य को दस्यु कहा है।*
*ऋग्वेद १०/२२/८-अज्ञानी,अकर्म का , अमानवीय व्यवहार वाला व्यक्ति दास है।*
*निरुक्त ७/१३-कर्मों नाश करने वाला दस्यु है।*
*अष्टाध्यायी ५/१०-हिंसा करने वाले,गलत भाषण करने वाले दास,दस्यु,डाकू हैं।*
अतः पेरियार जी का दास,दस्यु ,असुर आदि शब्दों का द्रविड़ो,आदिनासियों,दलितों के लिये प्रयोग करना अयुक्त है । दस्यु ,दास,राक्षस आदि का प्रयोग अमानवीय, हिंसक,लुटेरों के लिये किया गया है।तब क्या आप आज के सभी द्रविड़ों(तमिल वासियों)को दस्यु आदि कहेंगे?परंतु रावण और लंका के वासी आतंककारी,विध्वंसकारी, हिंसक,मांसभक्षक,मद्यपि,ऋषि मुनियों के हत्यारे आदि होने के कारण राक्षस कहलाने के अधिकारी हैं। परंतु वर्तमान के के तमिललोग राक्षस नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनमें उपर्युक्त गुण नहीं हैं।
*निष्कर्ष:- पेरियार साहब का पुस्तक लिखने का उद्देश्य उत्तर और दक्षिण भारत में फूट डालकर राजनीति करने का था,यह स्पष्ट हो गया। द्रविड़,आर्य,दस्यु,राक्षस वानर आदि नाम उछालकर जनता की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधना चाहा परंतु हमने इन शब्दों की गुणवाचक व्याख्या कर दी है।
पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिये धन्यवाद । अगले लेख में खंडन कार्य आगे बढ़ाया जायेगा।

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |