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‘मत-पंथों की विज्ञान एवं मनुष्य स्वभाव विषयक असत्य मान्यतायें’

ओ३म्

मतपंथों की विज्ञान एवं मनुष्य स्वभाव विषयक असत्य मान्यतायें

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत व विदेशों में प्रचलित सभी मत-मतान्तर आज से पांच हजार एक सौ 118 वर्ष पूर्व हुए महाभारत के विनाशकारी युद्ध के बाद अस्तित्व में आये हैं। महाभारत युद्ध के बाद न केवल भारत अपितु विदेशों में भी अविद्यान्धकार छा गया था। इस कारण सर्वत्र अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियां फैल गईं थीं। इन्हें दूर करने के लिए समय-समय पर कुछ महात्मा देश-देशान्तर में हुए और उन्होंने समाज सुधार की दृष्टि से प्रचार किया। उन्होंने अथवा उनके अनुयायियों ने उनके नाम पर मत स्थापित कर दिए और उनकी शिक्षाओं के आधार पर अपने अपने मत-पन्थ-धर्म के ग्रन्थ बना दिये। यह सर्वविदित व सर्वमान्य तथ्य है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः उसकी कुछ बातें सत्य व कुछ, अल्पज्ञता के कारण, असत्य भी हुआ करती हैं। महर्षि दयानन्द इस तथ्य को भली प्रकार से जानते थे इसलिए उन्होंने कहा है कि मैं सर्वज्ञ नहीं हूं। सर्वज्ञ तो केवल परमात्मा हैं। इसलिए दयानन्द जी की भी कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो सत्य न हो। उसके लिए उन्होंने विद्वानों को परीक्षा करने व यदि उनकी कोई मान्यता व विचार वस्तुतः असत्य पाया जाये तो उसके संशोधन का अधिकार भी उन्होंने स्वयं अपने अनुयायियों को दिया है। यह बात अन्य किसी मत में नहीं है। मतों की सत्य व असत्य मान्यताओं के अन्वेषण व परीक्षा हेतु ही ऋषि दयानन्द सत्यासत्य के खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुए थे जिससे उन उन मतों में उपलब्ध सत्य को जानने के साथ उनके अनुयायी असत्य से भी परिचित हो सकें और उससे सबको परिचित कराकर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए प्रेरित कर सके। ऐसा इसलिए क्योंकि सत्य ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण है। यदि कोई व्यक्ति अपने मत की असत्य बातांे को नहीं छोड़गा तो सृष्टि की प्रलयावस्था तक भी वह सत्य को प्राप्त न होने के कारण उन्नति नहीं कर सकता।

 

एक प्रमुख मत का अध्ययन करते हुए महर्षि दयानन्द के सम्मुख उस मत के प्रवर्तक की यह मान्यता दृष्टिगोचर हुई जिसमें कहा गया है कि ईश्वर ने सूर्य व चन्द्र को फिरने वाला (घूमने वाला या गति करने वाला) किया है। इसी प्रसंग में उस मत में यह भी कहा गया है कि निश्चय मनुष्य अवश्य अन्याय और पाप करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द ने इस साम्प्रदायिक वा पन्थीय मान्यता पर विचार कर लिखा है कि क्या चन्द्र, सूर्य सदा फिरते और पृथिवी नहीं फिरती? जो पृथिवी नहीं फिरे तो कई वर्ष का दिन रात होंवे। (यदि पृथिवी अपनी धूरी पर न घूमे तो रात्रि व दिन नहीं हांेगे और यदि सूर्य की परिक्रमा न करे तो फिर दिन, महीने व वर्ष की काल गणना भी नहीं हो सकती। पृथिवी यदि न घूमती होती तो पृथिवी व चन्द्रमा गुरुत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे से टकरा कर कब के नष्ट भ्रष्ट हो जाते। ऋतु परिवर्तन भी पृथिवी के घूमने के कारण होता है, वह भी पृथिवी के घूमने व गति न करने से न होता।) और जो मनुष्य निश्चय (स्वभाव से) अन्याय और पाप करने वाला है तो धर्म प्रवत्र्तक का धर्म ग्रन्थ के द्वारा शिक्षा करना व्यर्थ है। क्योंकि जिनका (मनुष्यों का) स्वभाव ही पाप करने का है तो उन में पुण्यात्मता कभी न होगी (क्योंकि वस्तु का स्वभाव अपरिवर्तनीय होता है) और संसार में पुण्यात्मा और पापात्मा सदा दीखते हैं। (इन दोनों प्रकार के लोगों के पाये जाने से यह ज्ञात होता है यह गुण स्वभाव के कारण नहीं अपतिु ज्ञान, शिक्षा व पूर्व जन्म के संस्कार आदि के निमित्त से व संगति आदि के कारण हैं।) इसलिये ऐसी बात (सत्य के विपरीत बात) ईश्वरकृत पुस्तक की नहीं हो सकती। (निभ्र्रान्त व पूर्णसत्यमय ग्रन्थ केवल वेद हैं जो ईश्वर प्रदत्त हैं।)।

 

हम आशा करते हैं कि आर्य व अन्य सभी पाठक ऋषि दयानन्द के विचारों से सहमत होंगे। हम निवेदन करते हैं कि सत्य व असत्य के ज्ञान के लिए पाठक सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करें। इसे पढ़कर और आचरण में लाकर उनका मानव जीवन सफल हो सकता है।

                                                                                                                                       –मनमोहन कुमार आर्य

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