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सप्तम तथा अष्टम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सप्तमाष्टम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले सप्तमाध्याय में इकतालीसवां और बयालीसवां दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन दोनों श्लोकों में विनयपूर्वक बर्त्ताव की प्रशंसा और अविनयपूर्वक बर्त्ताव की निन्दा के लिये वेन आदि राजाओं के दृष्टान्त दिखाये हैं सो ठीक नहीं हैं। क्योंकि विनय की प्रशंसा और अविनय की निन्दा में जितना जैसा अर्थवाद होना चाहिये उतना और वैसा उनतालीसवें और चालीसवें श्लोक में कहा ही है। और यह अर्थवाद इसलिये ठीक नहीं है कि वेनादि राजा बहुत पिछले हैं जिनकी विस्तारपूर्वक विशेष कथा महाभारतादि इतिहासों में दीखती हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है ऐसे प्राचीन पुस्तक में ऐसे पिछले लोगों की स्तुति-निन्दा कैसे हो सकती है ? और स्मृति वा धर्मशास्त्रों की शैली वा परिपाटी से भी यह विरुद्ध है कि किसी का इतिहास उनमें दिखाया जावे। क्योंकि इसके लिये महाभारतादि इतिहास पृथक् बनाये गये हैं। तथा पिता के जन्म समय में उसके आगे होने वाले पुत्रों के चरित्र का व्याख्यान कोई नहीं कर सकता। लोक में भी जिस-जिस का इतिहास जिस-जिस पुस्तक में दीखता है, वह-वह मनुष्यादि उस-उस पुस्तक के बनने के समय से पूर्व ही होता है। इत्यादि कारणों से उक्त दोनों (४१,४२) श्लोक प्रक्षिप्त हैं, ऐसा विचारशीलों को अनुसन्धान करना चाहिये।

आगे अष्टमाध्याय में एक सौ पांचवां और एक सौ छठा दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन दोनों श्लोकों में ब्राह्मणादि के वध को बचाने में बोले हुए झूठ का प्रायश्चित्त कहा गया है। सो इन दोनों श्लोकों से पूर्व के श्लोक में यदि किसी कारण ब्राह्मणादि को मरण से बचाने के लिये असत्यभाषण किया गया ठीक हो और उसको सत्य बोलने की अपेक्षा भी विशेष फलदायक माना तो पाप ही कहां हुआ? फिर किसकी निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त कहा जावे। इससे वह प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ है। और यहां प्रायश्चित्त का प्रकरण भी नहीं है, किन्तु ग्यारहवें अध्याय में वैसा झूठ बोलने आदि के प्रायश्चित्त का विचार सामान्य-विशेष कर किया ही है। इससे उक्त दोनों श्लोक यहां प्रक्षिप्त हैं।

आगे एक सौ दशवां, एक सौ बारहवां और एक सौ चौदहवें से एक सौ सोलहवें तक पांच श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यह भी अर्थवाद ठीक नहीं। इन श्लोकों में शपथ करने (कसम खाने) की आवश्यकता मिथ्या शपथ करना और अग्निवर्ण लोहे का गोला हाथ पर धरना वा जल में डुबाना जिसको न अग्नि जलावे और न जल डुबावे, वह जानो शुद्ध है, उसका शपथ करना ठीक है, वह पापी नहीं इत्यादि वर्णन किया है। सो यह ठीक नहीं क्योंकि जिसको सब कोई जानता है कि यह सत्यवादी है जो कभी, कहीं मिथ्या नहीं बोलता, उसको शपथ करने की कुछ आवश्यकता नहीं है। वसिष्ठादि महर्षि लोगों का उदाहरण भी यहां ठीक नहीं, क्योंकि वे प्रसिद्ध ही सत्यवादी थे, फिर क्यों शपथ करते और कदाचित् करते भी तो उनके उदाहरण की कुछ आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह इतिहास का विषय है और शपथ लेने का मुख्य प्रयोजन यही होता है कि जो सत्य का खोज करने के लिये शपथ हो वा शपथ से विवाद मिटता हो तो शपथ लेना चाहिये, यही शपथविषयक अर्थवाद ठीक है। स्त्रियों को ठगने के लिये वा विवाहादि के निमित्त मिथ्या शपथ करना अधर्म का हेतु और प्रमादी वा कामी लोगों का कथन है।     धर्म से विरुद्ध कार्य की सिद्धि के लिये मिथ्या शपथ करने को कौन बुद्धिमान् अच्छा कहेगा ? और यह तो असम्भव है कि अग्नि हाथ को न जलावे और तैरना जाने बिना जल में डूबे नहीं। नीति में लिखा है कि- ‘अग्नि का कोई मित्र नहीं, होम करने वाला भी यदि स्पर्श करेगा तो अग्नि जला देगा।’१ क्योंकि अग्नि का जलाना गुण स्वाभाविक है, स्वाभाविक गुण को कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता। यदि आधुनिक कोई मनुष्य इसको सत्य मानें कि शुद्ध को अग्नि न जलावेगा तो उसको कोई मिथ्या दोष लगा देवे, वह दोषी तो है नहीं, फिर अग्नि का अंगार हाथ पर धर लेवे, तब यदि उसका हाथ न जले तो यह सत्य हो सकता है, परन्तु यह असम्भव है। इससे ये उक्त पांचों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

आगे तीन सौ चौंसठवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में कन्या को व्यभिचार में दोष का निषेध किया है। सो इस व्यभिचारप्रकरण में जब उसको हटाने के लिये बड़े-बड़े कठोर दण्ड कहे फिर कन्या को व्यभिचार में कुछ दोष नहीं, यह विरुद्ध है। यदि वह किसी की स्त्री नहीं, इससे दोष का निषेध हो तो ठीक नहीं, क्योंकि उस कर्म से व्यभिचार की वृद्धि ही दीखती है और स्वयं किसी पुरुष से व्यभिचार करने में माता-पिता की आज्ञा न लेना, उनका अपमानरूप दोष है। यदि एक व्यभिचारिणी कन्या को कठोर दण्ड दिया जावे तो आगे अन्य कन्या उसी दण्ड के भय से व्यभिचार न करेंगी। इसलिये कन्या को भी दण्ड देना व्यभिचार का नाशक होगा। यदि कोई कहे कि विवाहरीति से किसी उत्तम वर को कन्या ग्रहण कर ले, इसमें दोष नहीं तो दोष वा दण्ड का निषेध भी व्यर्थ है। क्योंकि विवाह में दोष प्राप्त ही कैसे था जिसका निषेध किया जाता। तथा इस पक्ष में इस श्लोक के उत्तरार्द्ध की भी सग्ति न लगेगी। इससे वह प्रक्षिप्त है।

आगे तीन सौ अस्सीवां और तीन सौ इक्यासीवां दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि पूर्व कह चुके हैं कि- ‘पिता, गुरु, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित इत्यादि सभी को राजा दण्ड देवे। गुरु, बालक, वृद्ध, वा बहुश्रुत ब्राह्मण भले ही हो यदि शस्त्र लेकर सामने मारने को आवे तो बिना विचारे मार देवे वा मार डाले। तथा ब्राह्मण सब विषयों के गुण-दोष वा धर्माऽधर्म के तत्त्व को सबकी अपेक्षा     अधिक जानता है, इस कारण सबसे अधिक दण्ड ब्राह्मण को दिया जावे।’१ इत्यादि प्रमाणों के अनुसार जब अन्य की अपेक्षा विद्वान्, गुरु, पुरोहित और बहुश्रुत ब्राह्मणों को अधिक दण्ड और वध्य कहा फिर सब पापों में अवस्थित ब्राह्मण का मार डालना पुण्यकारक ही होगा। ये दोनों श्लोक किसी ब्राह्मण ने अपने कुल की रक्षा के लिये बनाकर पक्षपात से यहां डाल दिये हैं। जो पापी ब्राह्मण को भी न मारे तो उससे अधर्म की वृद्धि अवश्य होगी, इससे ये दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। इस प्रकार सप्तमाध्याय में दो और अष्टमाध्याय में दश श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

राजधर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से राजधर्म का विवेचन किया जाता है। लोक में राजन् शब्द क्षत्रियवर्ण वा जातिमात्र का भी वाचक मिलता है। इसी कारण राजा नाम क्षत्रियमात्र के धर्म को भी राजधर्म कह सकते हैं। तथा राजानाम प्रजा के रक्षक मनुष्यों में ईश्वर नाम सर्वोपरि सामर्थ्यवान् स्वामी, विशेष ऐश्वर्य से प्रकाशवान् होने से लोक में प्रसिद्ध राजा का भी वाचक राजन् शब्द है, इस कारण उसके धर्म को भी राज- धर्म कहते हैं। इस प्रकरण में जिस किसी प्रकार दोनों अर्थ घट सकते हैं क्योंकि इन दोनों राजपदवाच्यों का किन्हीं अंशों में साधर्म्य अपेक्षित है। क्योंकि सेनादि में रहने वाले सभी क्षत्रिय प्रजाओं की रक्षा करते हैं, किन्तु एक प्रधान राजा ही सबकी रक्षा नहीं कर सकता। परन्तु तो भी मुख्यकर प्रजारक्षक अधिष्ठाता राजा के ही धर्म का विवेचन अपेक्षित है। राजधर्म की इस ग्रन्थ के सात से नौ अध्याय तक तीन अध्यायों में विवेचना की गयी है। उसका विशेष व्याख्यान तो वहीं देखना चाहिये, यहां केवल धर्म की प्रधानता दिखाते हैं- जिस देश में धर्मपूर्वक राज्य होता है वहां की प्रजा सब सुखों से युक्त और सन्तुष्ट होती है, यही अच्छे राज्य और धर्मात्मा राजा का लक्षण है। राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजाओं में चोर, डाकू, लुटेरे और रिश्वतखोर आदि सूर्य के उदय में अन्धकार के तुल्य नष्ट हो जाते हैं। जब राजा प्रधान वा मुख्य है तो उसी के तुल्य गौण प्रजा भी होगी, क्योंकि यह लोक वा शास्त्र का नियम है कि- प्रधान के तुल्य गुण-कर्म-स्वभाव वाला गौण भी हो जाता है। अर्थात् राजा धर्मात्मा हो तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा हो जायेगी। और अधर्मी होगा तो अधर्मी प्रजा हो जायेगी। इसके लिये सैकड़ों दृष्टान्त मिल सकते हैं कि खारे जल में जो अच्छे बिन्दु गिरते हैं वे भी खारे हो जाते हैं। बहुत से चोरों का साथी एक-दो अच्छा भी चोर बन जाता है। यदि वह अच्छा एक-दो मनुष्य सब चोरों को अच्छा बना ले तो वहां वह एक-दो ही प्रधान होगा और चोर गौण हो जायेंगे। तथा जैसे राजा जाता है, यहां साथ चलने वाले राजकर्मचारियों को प्रधान राजा के अन्तर्गत मान के अन्यों के गमन का प्रयोग नहीं किया जाता। इसी पक्ष को प्रधान मान के लोक में यह भी जनश्रुति (कहावत) प्रसिद्ध है कि “यथा राजा तथा प्रजा” इस सब कथन का आशय यह है कि जहां प्रजा के लोग वा राजकर्मचारी अधर्मी हों वा प्रजा की व्यवस्था ठीक न हो वा प्रजा के लोग राजा को कोशें वा बुरा समझें वहां अधिक दोष राजा का है। यदि राजा ठीक धर्मात्मा होगा और प्रजा के लोगों को पुत्र के तुल्य सुख देने को तत्पर रहेगा तो वहां की प्रजा भी कभी अधर्मी और राजा से विरुद्ध नहीं हो सकती, किन्तु प्रजा उस राजा को अपना पिता वा ईश्वर के तुल्य मानने को तत्पर रहेगी। और जो राजा प्रजा के सुख-दुःख की ओर पूरा ध्यान न देकर स्वार्थी, लोभी और लालची बनके सब समय वा दशाओं में जिस किसी प्रकार प्रजा से धन हरणे का उपाय सदा रखेगा, उसको प्रजा भी सदा दुष्ट समझेगी और दुःखी हो-हो के सदा कोशेगी। ऐसे राजा का राज्य बहुत काल तक नहीं चल सकेगा अर्थात् लाखों वर्ष तो दूर रहा किन्तु सहस्रों वर्ष भी चलना दुस्तर है। और धर्मात्मा राजा का यह भी बड़ा लक्षण है कि उसका राज्य बहुत काल तक दृढ़, स्थिर रहता है। और उस राज्य में प्रजा मोहित वा दुःखित नहीं होती। प्रयोजन यह है कि न्यायाधीश राजा यदि चित्त से किसी की ओर कुटिलता वा स्वार्थपरता से न देखेगा तो प्रजा अवश्य सुखी रहेगी। इसी कारण इस राजप्रकरण में कहा यह भी कथन सम्भव है कि- ‘कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये सब राजव्यवहार के नाम हैं, इस कारण राजा को ही विद्वान् लोग युग कहते हैं।’१ तात्पर्य यह है कि जब स्वार्थपरता और आलस्यादि व्यसनों से दूर रहकर राजा ठीक-ठीक धर्म की प्रवृत्ति करना चाहता है, तब बहुत शीघ्र धर्म का प्रचार हो सकता है कि जो प्रजा की चाहना से सहस्रों वर्ष में भी पूरा होना दुस्तर है। जिस दिन किसी कर्त्तव्य के लिये राजा की आज्ञा हो जाती है, उसको प्रजा के लोग निर्विवाद मानने लगते हैं। इसी के अनुसार धर्मकार्यों का प्रचार बहुत शीघ्र हो सकता है। तथा जैसे एक यह भी कहावत है कि- ‘वह वक्ता का ही दोष है कि जिसके कथन को श्रोता लोग न समझ पावें।’२ अर्थात् इससे भी प्रजा की उन्नति न होने में राजा का दोष है। और राजकर्मचारी भी जो कुछ बुराई करते हैं, उसमें भी प्रधान राजा का ही मुख्य दोष होगा, क्योंकि यह न्याय की बात है कि जिसको पाप लगता वही पुण्य भी भोगता है, जो पुण्य भोगता वह पाप का भी भागी होता है। अर्थात् जो कुछ प्रजा के साथ भलाई वा सुकर्म राजकर्मचारी करेंगे उससे जैसे राजा की प्रशंसा और राज्य की ओर से समझा जायेगा वैसे वे जो कुछ पाप वा बुराई करेंगे वह भी राजा की ओर से होगा। क्योंकि सब कर्मचारी वा न्यायसभा सहित का ही नाम राजा पड़ता है। जो राजा लोभी हो कि प्रजा के सुख-दुःख को न देखकर लोभरूप गड्ढे में ही गिरता रहता है वह ठीक-ठीक धर्मानुकूल राजशासन नहीं कर सकता क्योंकि- ‘लोभ ही पाप का सर्वोपरि कारण है’३ जो अधिक लोभी है उसके निकट जानो सब पापों का समूह है। क्योंकि अन्य सब पाप लोभ के ही बाल-बच्चे हैं। इससे सिद्ध है कि लोभी राजा महापापी है। सृष्टि के आरम्भ से बहुत काल अर्थात् लाखों, करोड़ों वर्ष तक धर्म को आगे कर चलने से ही आर्यराजाओं का राज्य बराबर चला आया। और द्वीपान्तरस्थ यवनादि का राज्य धर्मविरुद्ध चलने से नष्ट हो गया और आगे भी वैसे लोभमूलक राज्यों की अधिक स्थिति रहना असम्भव प्रतीत होती है।

जैसा दण्ड एक चोरादि को दिया जाता है उसको अन्य लोग देख वा सुनकर डर जावें और वैसा कर्म करने का साहस न करें अर्थात् ऐसा दण्ड देना चाहिये कि जैसे कोई बार-बार चोरी करे तो उसके हाथ काट लिये, उसकी वैसी दशा देखकर अन्य लोग चोरी करने से डरते हुए वैसा काम न करेंगे। जिस राज्य में चोरी आदि अधर्म की प्रवृत्ति आगे-आगे सदा कम-कम होती जाती है उसको धर्मानुकूल राज कह सकते हैं, और वही दृढ़ बहुकालस्थायी राज्य होता है। जैसे इसी राज- धर्मप्रकरण में दृष्टान्तरूप से यह लिखा है कि- ‘धान्य नाम अन्न की उत्पत्ति में आठवां, छठा वा बारहवां भाग लेवे’१ अर्थात् खेती की लागत मेहनत और उत्पत्ति को देखकर तीन में से कहीं-कहीं किसी-किसी भाग का ग्रहण राजा करे। इससे सिद्ध हुआ कि खेती में थोड़ा-बहुत जैसा अन्न उत्पन्न होगा वैसा ही न्यून वा    अधिक उस खेती वाले से राजा को भाग मिलेगा। और जब किसान के घर में दैवयोग से अन्न उत्पन्न न हो वा होकर नष्ट हो जावे, तब राजा को कुछ नहीं लेना चाहिये, किन्तु उलटा अपने घर से राजा किसान को देवे। और जिस राज्य में खेती में कुछ न होने पर भी वैसा ही कर राजकर्मचारी प्रजा से बलपूर्वक ले लेते हैं, वही अधर्मजनक राज्य है ऐसा जानो। अभिप्राय यह है कि राजकर्मचारी भी राजा की इच्छा वा लोभादि को देखकर ही प्रजा पर निर्दयता से बर्ताव करते हैं, यह राजा का महा अधर्म है कि जो प्रजा को तिल के समान दबा-दबा के तत्त्व खींचा जावे।

राजा की कोई जाति नहीं अर्थात् पहले से भले ही वह ब्राह्मणादि किसी वर्ण-समुदाय में उत्पन्न हुआ हो परन्तु जब वह न्यायासन- राजगद्दी पर बैठता है, तब स्त्री-पुत्रादि भी उससे अलग हो जाते हैं और वह अपनी निज योग्यतानुसार सबसे भिन्न वा विलक्षण माना जाता है। राजा एक मनुष्य जातिमात्र में बड़ा     अधिकार है कि जो सबको मान्य होता है। इसी कारण वह किसी नीच समुदाय में भी उत्पन्न हो तो भी न्यायासन पर सुशोभित होने पर वैसा ही मान्य वा पूज्य होता है कि जैसा ब्राह्मण, क्षत्रिय का राजा होने पर मानादि किया जावे। राजा जब राजगद्दी पर बैठता है तब जैसे दुष्ट कर्म करने वाले प्रजा के अन्य लोग दण्ड के योग्य होते हैं, वैसे ही राजा को अपने स्त्री-पुत्रादि के साथ भी व्यवहार करना चाहिये। वह राजा न्याय करते समय ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसी कारण राजा का नाम लोक में ईश्वर भी पड़ा है। क्योंकि ईश्वर का भी यही काम है कि वह जिस अपराधी को जैसा दण्ड देता है, उसको निर्विवाद भोगना पड़ता है, वैसे राजदण्ड भी निर्विवाद भोगना पड़ता है। कर्म से जो क्षत्रियपन माना जाता है वह भी राजकर्म ही है अर्थात् जो कोई राजकर्म में ठीक-ठीक धर्मानुकूल प्रवृत्त हो वह क्षत्रिय कहा जा सकता है। जब ब्राह्मणादि भी राजा वा राजकर्मचारी आदि बनके राज्य-  सम्बन्धी काम का ठीक-ठीक सेवन करते हैं तब उनमें भी क्षत्रियत्व आ ही जाता है। अथवा यों कहिये कि पहले से उन ब्राह्मणादि में क्षत्रियत्व प्राकृतिक गुणों के अनुसार होता ही है, जिससे उनकी वैसे राज्यसम्बन्धी कर्म करने में उत्साह वा प्रवृत्ति हो जाती है। इसी कारण राजा का सबसे पृथक् होना वा ईश्वर होना दिखाने के लिये आठवें अध्याय में कहा है कि- ‘पिता, गुरु, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र वा पुरोहित कोई क्यों न हो, जो अपराध करे उसको बराबर यथायोग्य दण्ड देवे।’१ चारों वर्ण पृथक्-पृथक् चार समुदाय हैं, सामान्य कर उन सबका शासक और अपने-अपने धर्म पर चलाने वाला सबमें समदृष्टि ईश्वर के तुल्य निष्पक्ष एक राजा है। यद्यपि राजधर्म क्षत्रिय का प्रधान वा मुख्य धर्म है, तो भी वह क्षत्रिय- धर्म का पक्षपाती नहीं होता इसी से उसकी कोई जाति नहीं है। और इसी कारण यह भी कहा है कि- ‘इस सब जगत् की रक्षा के लिये परमेश्वर ने राजा को बनाया और ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार ही वह ऐसे अधिकार को प्राप्त होता है। मनुष्यरूप से बैठे राजा को देवता वा ईश्वररूप से देखना चाहिये।’२ अर्थात् प्रजास्थ मनुष्य उसको अपने तुल्य साधारण मनुष्य न समझें क्योंकि उसको परमेश्वर ने उस काम पर बैठाला है। इसी से जो चाहे वह राजा नहीं बन सकता किन्तु जिसको परमेश्वर बनाता है वही राजा बन सकता है इससे सिद्ध हुआ कि जो सबका समदृष्टि से पालन करता है, वही राजा धर्मात्मा हो सकता है।

जिस राज्य में व्यभिचार का लेश भी नहीं, वह धर्मानुकूल राज्य है। यदि कोई कदापि भूलकर व्यभिचार करे, तो धर्मशास्त्र (कानून) में लिखे अनुसार बड़ा दण्ड देवे। सो इसी राजप्रकरण में कहा है कि- ‘परस्त्री के साथ व्यभिचार करने में प्रवृत्त मनुष्यों को लिग् काट लेने आदि भयटर दण्ड देके वा नाक कटवा लेना आदि दण्ड देकर राज्य से बाहर निकलवा देवे। क्योंकि व्यभिचार से ही जगत् में वर्णसटर दोष बढ़ता है, जिससे सुख की जड़ों को निर्मूल करने वाला अधर्म बड़े बल से उठा हुआ सबका नाश करने वाला हो जाता है।’१ तात्पर्य यह है कि जैसे व्यभिचार करने वाले स्त्री-पुरुषों का चित्त चलायमान भयभीत शान्त्यादि शुभगुणों से रहित बुराई में लिप्त होता है वैसे ही व्यभिचार के सन्तान भी अधर्म की मूर्त्ति होते हैं। यह कदापि सम्भव नहीं कि यदि धर्मानुकूल परस्पर अति प्रसन्नतापूर्वक स्त्री-पुरुषों की ओर से गर्भाधान हो तो वह पुत्र पिता-माता से कभी विरोध करे वा उनकी सेवा प्रीति से न करे। जिस देश में अधिक फूट वा विरोध बढ़ता है उसका बड़ा कारण व्यभिचार ही है। इससे जो अपने राज्य को दृढ़ करना चाहे वह व्यभिचार को जड़ से खोदकर उड़ा देवे। जब व्यभिचार वा वेश्यागमन सर्वथा नष्ट होगा तभी स्त्री-पुरुषों में भी ठीक-ठीक प्रीति बढ़ेगी और प्रीति का फल अच्छे धर्मात्मा पुत्र होना वा संसार में सुख बढ़ना है। ‘जो स्त्री पति का तिरस्कार कर व्यभिचार करना चाहे उसको बहुत मनुष्यों के समुदाय में कुत्तों से काट-काट के खिला देवे जिससे वैसा काम अन्य कोई फिर न करे। और जारपुरुष को लोहे की अत्यन्त तपायी अग्निवर्ण खट्वा पर बहुत मनुष्यों के समुदाय में लिटा देवे जिससे व्यभिचार का नाश हो जावे।’२ इत्यादि कथन से प्रतीत होता है कि पूर्व समय में इस आर्यावर्त्त देश में व्यभिचार नहीं था। और अब व्यभिचार पर विशेष दण्ड ही नहीं है। इसी से प्रतिदिन उसकी वृद्धि दीखती है। जिस राज्य में व्यभिचार का विशेष विचार नहीं होता उसको धर्मानुकूल राज्य नहीं कह सकते। इस पर कोई यह शटा कर सकता है कि छोटे अपराध में वैसा बड़ा दण्ड देना क्या न्याय होगा? इसका उत्तर यह है कि वह वास्तव में न्याय है क्योंकि राजा का क्रोध उस मनुष्य पर नहीं किन्तु उस पापकर्म पर होना चाहिये। ऐसे दण्ड राजा को एक वर्ष में एक-दो ही कर देने से प्रजा भर में उस पाप की निवृत्ति हो जायेगी। वैसे पाप का नाम सुनके लोग कम्पायमान रहा करेंगे। पाप की ओर मुख भी नहीं उठेगा। और जो सहज दण्ड दिये जावें तो हजारों को दण्ड देने पड़ें, इससे न्याय वही है जिससे पाप का नाश और सदा धर्म की वृद्धि होती रहे।

कन्या वरों का ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य और विद्या शिक्षायुक्त होने पर युवावस्था में विवाह होना तथा उनकी ठीक-ठीक विधि वा तुल्यता मिल जाना यह सब राजा के नियमानुसार ही हो तभी प्रजा की ठीक-ठीक उन्नति हो सकती है। यदि राजा की आज्ञा हो जावे कि सब ब्राह्मणादि के बालक इतनी अवस्था तक पढ़ाये जावें तब तक किसी पुत्र वा कन्या का विवाह हो तो अमुक दण्ड मिले। तो राजनियम को तोड़कर थोड़ी अवस्था में कोई भी विवाह न करे, फिर नित्य की झींका-झींकी आप ही मिट जावे।

इस राजप्रकरण में कोई-कोई विवाद और उनका निर्णय (फैसला) ऐसे लिखे गये हैं जो पहले देश-काल भेद से इस देश में थे, उनका उपयोग इस समय नहीं है तो भी व्यर्थ न समझने चाहियें, क्योंकि जो कभी था वैसा फिर भी आगे हो सकता है। और अनेक विवाद वा निर्णय जो पहले नहीं थे इसी से राजधर्म में नहीं लिखे गये, उनके लिये राजा को चाहिये कि विद्वानों से नवीन नियम करा लेवे। तथा कहीं ब्राह्मणादि श्रेष्ठ पुरुषों को ज्ञानी होने से अधिक दण्ड देना उचित है और कहीं हानि-लाभ देखकर साधारण की अपेक्षा बड़े को थोड़ा दण्ड देना वा क्षमा कर देना। ये दोनों बातें समयानुसार कर्त्तव्य हैं, इसी से कहीं-कहीं भेद दीखता है। इसको विरोध नहीं समझना चाहिये।

वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का संक्षेप से विचार किया जाता है। मनुष्य पहली अवस्था में वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम को धारण करके वेदादि शास्त्रों की शिक्षा को प्राप्त करके गृहाश्रम में विवाह कर धर्मपूर्वक पुत्रों को उत्पन्न और उनको समर्थ करके पचास वर्ष की अवस्था से ऊपर गृह से निकलकर वन में बसे। वन में बसना यहां उपलक्षण मात्र है। अर्थात् घर से बाहर कहीं एकान्त में जहां बसने से मन की अत्यन्त स्थिरता और अन्तःकरण के सब सन्देहों की निवृत्ति हो। इस प्रकार मन की शुद्धि होना ही जगत् के उपकार और अपने परमकल्याण मुक्ति आदि को प्राप्त होने के लिये सर्वोपरि उपाय है। एकान्त में बसने के बिना चित्त का वैसा समाधान सब कोई नहीं कर सकते। यदि कोई विशेष अधिकारी विरला मनुष्य घर में रहता हुआ ही तप कर सकता हो तो उसके लिये घर से निकलकर वन में बसने का यहां विधान नहीं है। क्योंकि इसी छठे अध्याय में लिखा है कि- ‘यहां तक सामान्य कर संन्यासियों का धर्म कहा अब आगे विशेष वेदसंन्यासियों का धर्म कहते हैं।’१ ‘सब कर्म और उनके फलभोग की उत्कण्ठा को छोड़कर कर्म के दोषों को छोड़ता हुआ नियमपूर्वक वेद का अभ्यास करके पुत्र और ऐश्वर्य के साथ ही मरणपर्यन्त निवास करे।’२ यहां राजा जनकादि का उदाहरण जो शतपथादि में लिखा है वही विशेष दृष्टान्त है। अर्थात् पूर्वकाल में ऐसे बहुत ऋषि-महर्षि हो गये, जो घर में रहते हुए ही वैसे काम कर सकते थे। इत्यादि प्रकार से जो घर में रहते हुए ही गृहाश्रम की सफलता हुए पीछे पांचों इन्द्रियों को वश में करनारूप तप कर सकते हैं, उनको पचास वर्ष की अवस्था के पश्चात् अपनी स्त्री के साथ भी कामासक्ति को सर्वथा छोड़कर घर में रहते हुए ही वानप्रस्थाश्रम का काम- तप करना चाहिये। क्योंकि तप करने के लिये वानप्रस्थाश्रम है। सो व्यास जी ने योगभाष्य के साधनपाद के आरम्भ में ही तप करने की अत्यन्त आवश्यकता दिखायी है३- ‘तप किये बिना योगसिद्धि नहीं हो सकती, और योगाभ्यास किये बिना मनुष्य का कल्याण भी नहीं होता, क्योंकि अनादि काल से किये शुभाशुभ कर्म और अविद्यादि क्लेशों की वासनारूप रस्सियों से जकड़ी, चित्रविचित्रविषयक जाल जिसमें प्रगट है, ऐसी अन्तःकरण की अशुद्धि, बिना तप किये नष्ट नहीं हो सकती। इस कारण अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य को सावधानी से तप करना चाहिये। परन्तु ऐसा भी तप न करे कि जिससे शरीर को विशेष कष्ट होकर असाध्य रोगादि में ग्रस्त हो जावे, किन्तु जिससे चित्त प्रसन्न हो ऐसा तप करे।’ जैसे वस्त्रादि में अवस्थित थोड़ा स्थूल मल पहले साधारण धोने आदि उपाय से छूट जाता है। और बहुत काल से जुड़े उस वस्त्रादि के रोम-रोम में व्याप्त दृढ़ता से ठहरे हुए मल की निवृत्ति बहुत बड़े उपाय से कर सकते हैं, ऐसा विचारकर तपरूप विशेष उपाय से अज्ञान को हटाने के लिये तीसरा वानप्रस्थ आश्रम अपना कल्याण चाहने वाले सब मनुष्यों को अवश्य सेवने योग्य है। यह वानप्रस्थाश्रम करने का अभिप्राय है। प्रयोजन यह है कि इस वानप्रस्थाश्रम में बहुत काल के जमे हुए अन्तःकरण के मल को छुड़ाने का उपाय बताया गया है कि ऐसा-ऐसा सेवन करना चाहिये। ‘प्राणायामों से दोषों को जलावे, धारणाओं से मन के पाप को, प्रत्याहार से मन की फंसावट मिटावे और ध्यान करके ईश्वर में विश्वास न होने रूप अन्तःकरण के दोष को दूर करे। जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं के मल छूटकर निर्मल निकल आते हैं ऐसे ही प्राणायामादि रूप योगाभ्यास तप से इन्द्रियों और अन्तःकरण को निर्मल कर कल्याण प्राप्ति कर उपाय वानप्रस्थ आश्रम में करे।’१ घर के अनेक फन्दों को छोड़कर वन को प्रस्थान जिस दशा में किया जावे उसको वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं। इसका विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।

और संन्यासाश्रम तो केवल एक परमेश्वर के आश्रय को लेकर सबकी सहायता छोड़कर भ्रमण करने तथा जीवन्मुक्तदशा को धारण कर मुक्ति के द्वार पर पग धरने के लिये सब वृद्धावस्था में सेवना चाहिये। सो पहले ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों का सेवन करके ही संन्यासी होना चाहिये, यह सामान्य कर उत्सर्गरूप प्रधान पक्ष है। इसी कारण इस छठे अध्याय में उत्सर्गरूप से कहा है कि- ‘पहले ब्रह्मचर्याश्रम में विधिपूर्वक वेद पढ़के, द्वितीय गृहाश्रम में धर्म से पुत्रों को उत्पन्न कर तथा वानप्रस्थाश्रम में यज्ञादि तप करके मोक्ष अर्थात् संन्यास में मन लगावे।’२ अन्य वाक्य इसके अपवाद हैं कि- ‘जिस दिन विरक्तता आ जावे, उसी दिन घर वा वन से तथा किन्हीं की सम्मति है कि ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यासी हो जावे।’१ इसका आशय यह है कि संसारी सुखभोग से पूर्ण और परिपक्व दृढ़ वैराग्य होने पर संसारी सुखभोग में जिसने अनेक दोष देखे अथवा लौकिक सब सुख जिसने भोग लिये ऐसे पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् को संन्यास आश्रम धारण करना चाहिये। ऐसा होना तीनों आश्रम का सेवन किये पश्चात् संन्यास     धारण करने पर सम्भव है। जिस देश में नाममात्र के वैराग्य में फंसकर मूर्ख अविद्वान् लोग संन्यासाश्रम धारण करते हैं, उस देश और उन मनुष्यों की सदा  अधोगति ही होती है। इसी कारण यह भी सिद्धान्त ठीक ही है कि ब्राह्मण को ही संन्यास धारण करना चाहिये क्योंकि पूर्ण विद्वान् हुए बिना वैराग्य ठीक नहीं हो सकता और ब्राह्मण ही पूर्ण विद्यावान् हो सकता है। यदि कोई क्षत्रियादि तप करके पूर्ण विद्वान् होने से संन्यास धारण करने योग्य हो तो वह गुणकर्मों से ब्राह्मण की योग्यता धारण करने पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। अब इस विषय का विचार समाप्त किया जाता है। और इस छठे अध्याय में प्रक्षिप्त भी कोई श्लोक नहीं। इस कारण उसका भी कुछ विचार यहां कर्त्तव्य नहीं है।

पञ्चमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पांचवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। यहां प्रारम्भ में चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं और व्यूलर साहब ने भी पञ्चमाध्याय के प्रारम्भ में पहले चार श्लोक प्रक्षिप्त माने हैं। इस पुस्तक के बनने में भृगु उपदेशक और मरीच्यादि ऋषि श्रोता हैं तो ये चार श्लोक उन दोनों शिष्य-शिक्षकों की ओर से नहीं बन सकते। क्योंकि उनमें लिखा है कि ‘उक्त प्रकार मरीच्यादि ऋषियों ने भृगु से स्नातक के धर्मों को सुनकर महात्मा भृगु से यह प्रश्न किया’१ और ‘भृगु ने उन ऋषियों को ऐसा उत्तर दिया।’२ इत्यादि कथन अन्य किसी की ओर से स्पष्ट प्रतीत होता है। तथा प्रश्नोत्तर भी युक्तिपूर्वक ठीक नहीं हैं। जब पूछा गया कि ‘वेद शास्त्र के जानने और अपने धर्म का सेवन करने वाले ब्राह्मणों की मृत्यु कैसे होती है३ ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? कि ‘वेदों का अभ्यास न करने और अच्छे आचरण के छोड़ देने तथा आलस्य और अभक्ष्यभक्षण से ब्राह्मणों को मृत्यु मार डालना चाहता है।’४ जब पूछने वाला तो कहता है कि विद्वानों की मृत्यु कैसे होती है तो उत्तर देने वाला कहे कि विद्या का अभ्यास न करने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है। यहां विचार का स्थल है कि जब वे विद्वान् और धर्मात्मा हैं तो वेद का अभ्यास और अच्छे आचरण तो अवश्य होंगे और न होंगे तो वे विद्वान् और धर्मात्मा नहीं हो सकते। क्योंकि श्रेष्ठ आचरण भी मुख्यकर धर्म का लक्षण है। इस कारण ये प्रश्नोत्तर अपने कहे को आप ही काटने वा कुछ पूछने पर कुछ उत्तर देने के तुल्य हैं। तथा एक बात यह भी विचारने योग्य है कि जो-जो प्राणी संसार में उत्पन्न हुए हैं, वे मरेंगे भी, जिसका जन्म है उसका मरण भी अवश्य होगा क्योंकि ‘उत्पन्न होने वाले सभी घट-पटादि पदार्थ भी अनित्य हैं’५ यह न्याय का सिद्धान्त है। इसके अनुसार जब विद्वान्, अविद्वान्, धनी, निर्धन सबका मरण अवश्य है तो प्रश्नोत्तर कैसे ठीक हो सकते हैं ? यदि कोई कहे कि अल्पमृत्यु क्यों होता है ? यह पूछने का अभिप्राय है तो प्रश्नोत्तरसम्बन्धी वाक्यों में वैसे शब्द वा अक्षर नहीं पढ़े गये, जिनसे वह आशय निकलता। मनुष्यों की पूर्ण अवस्था क्यों नहीं होती, बीच में क्यों मर जाते हैं ? ऐसा प्रश्न ठीक होता, परन्तु उसका उत्तर केवल भक्ष्याऽभक्ष्य का विचारमात्र नहीं हो सकता, किन्तु ऐसे प्रश्न का उत्तररूप ही यह सब धर्मशास्त्र है। लहसुनादि और मांसादि पदार्थ ही न्यून अवस्था होने के कारण नहीं हैं क्योंकि उनके खाने वाले थोड़ी अवस्था में मर जावें, ऐसा नियम नहीं दीखता लशुनमांसादि में जो-जो दोष हैं वे अन्य ही हैं। जैसे लशुनमांसादि के खाने वाले मरते हैं, वैसे अन्य भी दुराचारी अल्पज्ञ और शरीर की रक्षा के उपायों को नहीं जानने वाले थोड़ी अवस्था में मरते हैं। इस कारण इस अध्याय के आरम्भ में चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

सोलहवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। जब यज्ञ में अधर्म का हेतु होने से सब मांस मात्र दुष्ट वा त्याज्य है, यह बात प्रमाणों और युक्ति से सिद्ध हो चुकी फिर पाठीन और रोहितनामक मच्छियों का यज्ञ और श्राद्ध में लेने का उपदेश प्रामादिक तथा स्वार्थी लोगों का घुसेड़ा है। ‘राजीवादि मच्छियों को’१ इत्यादि इस श्लोक का उत्तरार्द्ध असम्बन्ध भी है क्योंकि उसके पदों का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं दीखता। यदि किसी प्रकार सम्बन्ध लग भी जावे कि राजीवादि को खाना चाहिये तो भी जब मांस, होमने योग्य वस्तु किसी प्रकार नहीं ठहर सकता और यज्ञ के बहाने बिना खाना बनेगा नहीं, इसलिये वह पूर्वोक्त इस अध्याय का सोलहवां श्लोक प्रक्षिप्त है।

आगे उन्नीसवें श्लोक से तेईसवें श्लोकपर्यन्त पांच श्लोक प्रक्षिप्त हैं। उनमें से पहले तीन को तो व्यूलर साहब ने भी प्रक्षिप्त माना है। पहले में लहसुन आदि को पुनर्वार अभक्ष्य कहा है सो छठे श्लोक में कह चुकने से पुनरुक्त हो गया, इससे प्रक्षिप्त है। अगले दो पद्यों में प्रायश्चित्त कहा है सो प्रकरण से विरुद्ध और पुनरुक्त है। किन्तु ग्यारहवें अध्याय में प्रायश्चित्त का प्रकरण है, वहां अभक्ष्यभक्षण का सामान्य-विशेष प्रायश्चित्त कहा है फिर यहां प्रायश्चित्त कहना पुनरुक्त है। आगे बाईसवां, तेईसवां और सत्ताईसवां श्लोक यज्ञ में पशु मारने के लिये होने से प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। यज्ञ के बहाने से मांसभक्षण करना बहुत बुरा काम है, यह पहले प्रमाण और युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं। आगे तीसवें श्लोक से बयालीसवें श्लोकपर्यन्त तेरह श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परमेश्वर ने भक्ष्य और भक्षक दोनों प्रकार के प्राणी बनाये हैं, इस कारण यदि मांस खाने में दोष नहीं तो पाप-पुण्य भी सब ईश्वर ने रचा है, फिर पाप करने में दोष भी नहीं मानना चाहिये। यदि ऐसा हो कि पाप करने में भी दोष नहीं तो कर्त्तव्याऽकर्त्तव्य का जिनमें उपदेश है ऐसे विधिनिषेधपरक धर्मशास्त्रों के सब वाक्य व्यर्थ हो जावेंगे। इसलिये वह श्लोक प्रामादिक होने से प्रक्षिप्त है।

आगे इकत्तीसवें श्लोक से लेके यज्ञ के लिये मांस की प्रवृत्ति दिखायी है। उसकी बुराई लिख ही चुके हैं, विशेष भाष्य में देखना चाहिये। इससे आगे छप्पनवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। इस पर किन्हीं लोगों का कथन है कि सामान्य कर यह सिद्धानुवाद दिखाया गया है, किन्तु मांस खाने की आज्ञा देने के लिये यह श्लोक१ नहीं है। और यह धर्मशास्त्र ब्राह्मणादि द्विजों के धर्मयुक्त कर्मों का प्रतिपादन करने के लिये है। ‘अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, पवित्रता और इन्द्रियों को वश में करना यह संक्षेप से चारों वर्णों को सेवने योग्य सामान्य धर्म मनु जी ने विशेष कर कहा है।’२ इस प्रमाण के अनुसार मनुष्यमात्र को हिंसा नहीं करनी चाहिये। और ‘हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न होता नहीं, ऐसा होने पर मनुष्यमात्र को मांसभक्षण नहीं करना चाहिये।’३ द्विजों को मद्य नहीं पीना चाहिये, इस प्रकार ग्यारहवें अध्याय में निषेध किया है। और विवाहविचारप्रकरण के साथ तृतीयाध्याय में अयुक्त वा निकृष्ट नीच के साथ मैथुन का निषेध ब्राह्मणादि के लिये किया है। अब शेष रहे शूद्र और पश्वादि, उनका स्वभाव जताने के लिये यह श्लोक है कि सिंहादि वा बिल्ली आदि का स्वभाव मांस खाने का है, उनके लिये कोई दोष नहीं दिखाया गया। नीच, अन्त्यज, शूद्रादि का स्वभाव है कि वे मद्य पीते हैं और मैथुन भी सबमें स्वाभाविक है, परन्तु उन मांसभक्षणादि कर्मों से बचना वा निवृत्त होना, उन शूद्रादि के लिये भी विशेष फलदायक है। इस प्रकार कोई लोग इसका समाधान करते हैं। सो यह समाधान किसी अंश में सम्भव है, सर्वथा नहीं क्योंकि इस विषय में जो-जो दोष आते हैं उन सबका समाधान उक्त प्रकार परिश्रम करने से भी नहीं हो सकता। यद्यपि सिंहव्याघ्रादि का मांस खाना स्वाभाविक काम है। तो भी पश्वादि का काम मद्य पीना नहीं है, और शूद्रादि का भी स्वाभाविक काम मद्य पीना नहीं दीखता। जैसे प्राणीमात्र अन्न का भोजन सदा करते हैं। किसी प्रकार का आहार किये बिना मनुष्यादि के प्राणों की रक्षा कदापि नहीं हो सकती, इसी कारण आहार स्वाभाविक है, परन्तु मद्य से किसी के प्राण की रक्षा बिना अन्य आहार के नहीं हो सकती तथा जैसे प्रायः सब मनुष्य अन्न खाते वैसे मद्य पीने वाले प्रायः सब प्राणी नहीं हैं, और जो लोग मद्य पीते भी हैं उनका भी मद्यपान का निषेध करके धर्मशास्त्रकारों को उद्धार करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी उन्नति और सुख के साधन चाहता है तो धर्मशास्त्र का काम होगा कि वह सबको कल्याण का मार्ग बतावे और जिसमें किसी समुदाय के लिये दुःख का मार्ग बतलाया जावे उसको विचारवान् विद्वान् लोग कदापि धर्मशास्त्र नहीं कह सकते। इससे सिद्ध हुआ कि मद्यपानादि सबके लिये बुरा काम है। इसी कारण यह श्लोक धर्मशास्त्र की योग्यता से बाहर होने से प्रक्षिप्त है। जो लोग आप ही स्वाभाविक प्रीति से मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में प्रवृत्त हैं, जिससे उनकी मानस, वाचिक और कायिक उन्नति में बड़ी बाधा पड़ चुकी वा पड़ रही है, उनके लिये ऐसा उपदेश सुना देना कि [मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में दोष नहीं१] विशेषकर गड्ढे में गिराने वाला होगा। अर्थात् उनको ऐसा आश्रय मिल जाने से मांसमद्यादि को और भी अधिक सेवेंगे, जिससे उनका बहुत शीघ्र नाश होगा। इसलिये धर्मशास्त्रों में उनके कल्याणार्थ ऐसे वचन हों कि मांसभक्षण वा मद्यपान करने में बड़ा दोष है, किसी को नहीं करना चाहिये। इत्यादि प्रकार कहना उनके लिये कुछ उपकारी होगा। इससे यह श्लोक१ अवश्य निस्सन्देह प्रक्षिप्त है।

इस श्लोक में कोई-कोई सर्वज्ञनारायणादि भाष्यकार दोषशब्द से पूर्व लुप्त अकार की सन्धि मानते हैं कि मांसभक्षण में अदोष नहीं किन्तु अवश्य दोष है इसी प्रकार मद्यमैथुनादि में भी जानो। सो यह उन लोगों की कल्पना और एकदेशी कथन है अर्थात् यह बात सर्वसम्मत नहीं। तथा यह एक प्रकार का वाक्छल है। यद्यपि जो लोग मांसमद्यादि के सेवन करने की इच्छा से इस श्लोक को प्रमाणरूप ढाल बनाना चाहते हैं उनको उत्तर देने के लिये ऐसा अर्थ कर लेना उपयोगी है क्योंकि वे लोग इसको प्रक्षिप्त कदापि नहीं मानेंगे, परन्तु यह धर्मात्माओं की शैली से प्रतिकूल है। और मांसभक्षण में अदोष नहीं किन्तु दोष ही है, ऐसा अर्थ करने पर अर्थापत्ति से सिद्ध हो गया कि मांसादि के छोड़ देने में अवश्य पुण्य है, क्योंकि जिसके करने में दोष माना जाता है, उसके त्याग में पुण्य फल होता ही है। इस कारण इस अकार की सन्धि निकालनेरूप पक्ष में निवृत्ति से महाफल दिखाना भी व्यर्थ है। किन्हीं-किन्हीं मेधातिथि आदि भाष्यकारों की सम्मति है कि जिन-जिन मांसभक्षणादि का विधान है कि यज्ञ में मांस खाना, सौत्रामणी यज्ञ में मद्य पीना और ऋतुकाल में अपनी स्त्री से गमन करना चाहिये। ऐसे मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में दोष नहीं परन्तु उससे भी बच सके तो बहुत उत्तम है। सो यह भी उन लोगों का विचार ठीक नहीं, क्योंकि वेदादि श्रेष्ठ पुस्तकों में मांस, मद्य का विधान नहीं है। सौत्रामणी यज्ञ में मद्य पीने का विधान प्रामादिक है। जैसे आपत्काल में कहीं कभी प्राणरक्षा के लिये मांसभक्षण की अपेक्षा रखी है वैसे आपत्काल में भी मद्य से प्राण की रक्षा नहीं हो सकती। इस कारण मद्य, मांस का विधान ही जब नहीं है फिर उसमें दोष का निषेध करना भी असग्त है। यदि मांसादि का विधान भी होता तो उसके विधानमात्र से ही दोष न होना सिद्ध हो जाता है क्योंकि निर्दोष को ही कर्त्तव्य कह सकते हैं। फिर पुनरुक्त होने से यह श्लोक (न मांस०) प्रक्षिप्त है।

आगे छियानवें, सत्तानवें दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में कहा अर्थवाद ठीक नहीं है किन्तु प्रजा का विवाद मेट वा निर्णय (फैसला) कर रक्षा करने के लिये राजा को नित्य न्यायासन (राजगद्दी) पर बैठना चाहिये, इस कारण उसमें अशुद्धि नहीं लगती, यह चौरानवें श्लोक में कहा अर्थवाद ठीक है। और चन्द्रमा, अग्नि आदि के अंशों से तो सब प्राणियों के शरीर बनते ही हैं, इस कारण से यदि राजा को अशुद्धि का निषेध हो तो सबको अशुद्धि न माननी चाहिये। इस कारण उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे एक सौ पच्चीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। यदि गीले दाल, शाक, खीर वा शीरादि में से कुछ भाग पक्षी, मक्खी, बाल वा कीड़ा आदि से दूषित हो तो उस दाल आदि में थोड़ी मिट्टी डाल देने से उसकी शुद्धि नहीं हो सकती, किन्तु पहले की अपेक्षा और भी बिगड़ जायेगा। क्योंकि मिट्टी मिली हुई दाल आदि को कोई नहीं खा सकता। यदि किसी सूखे वस्तु को पखेरू आदि ने झूठा कर डाला हो तो बिगड़े हुए भाग को निकाल देने से शुद्धि हो सकती है किन्तु मिट्टी डाल देने से वह भी शुद्ध न होगा। और मिट्टी डाल देने मात्र से ऐसे दोष की कोई शुद्धि नहीं मान सकता। आगे एक सौ इकत्तीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है क्योंकि उससे पूर्व श्लोक में लिखा है कि किसी मृग के पकड़ने में कुत्ता का मुख शुद्ध है। यह उपलक्षणमात्र माना जावे कि कुत्ता आदि अशुद्ध प्राणियों का मुख भी शिकार पकड़ने में शुद्ध है, इससे सामान्य कर अन्य भी आ सकते हैं, फिर पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। ‘यह मनु ने कहा’ ऐसी आड़ लेना मनु के वाक्य होने में सन्देह कराता है। जब सभी पुस्तक मनु का कहा है तब इस कथन में कुछ विशेषता की सिद्धि नहीं है। अर्थात् जहां धर्मसम्बन्धी कोई विशेष लक्षण होगा, वहां मनु का नाम उसके साथ बल देने के लिये उपयोगी होगा कि इसको विशेष बल के साथ मनु का कथन जानो। परन्तु यहां यह बात नहीं। किन्तु शिकार में कुत्ते का मुख शुद्ध कहने से यह न समझना कि यहां शिकार और मांस खाने की आज्ञा दी जाती हो किन्तु यहां एक प्रकार का सिद्धानुवाद है कि जो लोग मांस खाने में प्रवृत्त हैं, वे कुत्ते आदि मृगयाकारी (शिकारी) अशुद्ध के पकड़े जन्तुओं को भी अशुद्ध नहीं मानते। और यह तो सिद्ध कर दिया है कि जीवों का मारना और मांस खाना पाप का हेतु है। आगे एक सौ सैंतीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्योंकि अन्य आश्रमियों की अपेक्षा स्त्री के साथ में सम्बन्ध होने से गृहस्थ    अधिक अशुद्ध होता है, वैसे ब्रह्मचारी आदि अशुद्ध नहीं होते, इस कारण गृहस्थ से भी ब्रह्मचारी आदि को अधिक अशुद्धि दिखानी चाहिये। परन्तु यह विपरीत लिखना अनुचित है कि गृहस्थ से द्विगुण ब्रह्मचारी को, उससे दूनी वानप्रस्थ को और वानप्रस्थ से दूनी संन्यासी को शुद्धि करनी चाहिये। तथा सबके मलमूत्रादि में गन्ध और मलिनता एकसी होगी। इसलिये कोई उचित कारण ऐसा नहीं मिलता, जिससे ब्रह्मचर्यादि आश्रमस्थों को अधिक-अधिक अशुद्धि कही जावे। इस कारण किसी ने प्रमाद से यह श्लोक मिलाया जान पड़ता है। इस प्रकार इस पांचवें अध्याय के एक सौ उनहत्तर (१६९) श्लोकों में से तीस श्लोक प्रक्षिप्त हैं, शेष रहे एक सौ उनतालीस (१३९) श्लोक अच्छे निर्विवाद माननीय हैं।

सूतकशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्रव्य और सूतक की शुद्धि का कुछ विचार किया जाता है। इस आशौचप्रकरण में पहली प्रेतशुद्धि अर्थात् किसी के मरने पर जो अशुद्धि मानी जाती है, वह आशौच शोक से होता है। जहां अपने किसी प्रिय वा इष्टमित्रादि का मरणरूप वियोग होता है, वहां प्रीति और मित्रतादि के न्यूनाधिक होने से सबको शोक भी न्यूनाधिक होता है। जब किसी कारण से मन और शरीर की आकृति को ग्लानि प्राप्त होती है, उसको अशुद्धि का सामान्य लक्षण जानो। किसी पिता आदि अपने सम्बन्धी के मरने पर मनुष्य के चित्त में स्वयमेव ग्लानि और शोक उत्पन्न हो जाता है, और मन, वाणी तथा शरीर के मलिन, शोकातुर होने पर शुद्ध, पवित्र वा प्रसन्न मन, वाणी और शरीरों से सेवने योग्य शुभ कर्म ठीक सिद्ध नहीं हो सकते। उनका अनध्याय रखने के लिये और सर्वसाधारण को अपनी शोकदशा जताने के लिये कि हम ऐसी दशा में हैं। हमसे सब कोई ऐसा व्यवहार न करें जैसा प्रसन्न दशा में करना योग्य है, इत्यादि विचार से शोक के दिनों की अवधि और उन दिनों में अपनी विशेष दशा [कुशादि के आसन पर, पृथिवी पर बैठे रहना, खटिया पर न सोना, न लेटना, स्त्री के पास न जाना, सुगन्धि आदि न लगाना आदि] रखनी चाहिये। पहले हुए विचारशील ऋषि-महर्षि लोगों ने विचारपूर्वक अनुमान किया कि इतने काल में शोक की निवृत्ति हो सकेगी, उतना काल अशुद्धि का बताया गया। यदि यह अवधि अर्थात् शोक रखने की सीमा न की जाती तो साधारण लौकिक मनुष्य निश्चय न कर पाते कि कितने काल में शोक-निवृत्ति करनी चाहिये। अथवा शोक के बने रहते ही स्वस्थबुद्धि से होने योग्य कामों का आरम्भ करते हुए कार्यसिद्धि को प्राप्त हों यह सम्भव नहीं है। इस कारण शोकरूप अशुद्धि के समय का निर्णय करने के लिये सामान्य कर ब्राह्मणादि वर्णों के पृथक्-पृथक् बांधे। सो मानवधर्मशास्त्र के इसी प्रकरण में कहा है कि- ‘ब्राह्मण दश दिन, क्षत्रिय बारह दिन, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।’१ ज्ञान के न्यूनाधिक होने से ब्राह्मणादि में न्यूनाधिक दिनों तक शुद्धि की अवधि रखी है। ब्राह्मण वर्ण के सबसे अधिक ज्ञानवान् होने से उसका शोक शीघ्र निवृत्त हो सकता है, इसी कारण उसके लिये सबसे कम दश दिन अशुद्धि रखी। और अन्य तीनों वर्णों की अपेक्षा शूद्र अधिक अज्ञानी होता, इस कारण उसको एक महीने भर अशुद्धि मानने को कहा गया [आजकल प्रायः प्रान्तों में चारों वर्णों में दश ही दिन की अशुद्धि मानी जाती है, यह प्रचार वर्णव्यवस्था के ठीक न रहने से बिगड़ा है अर्थात् शास्त्र से विपरीत चल गया है, सो ठीक नहीं है।] शोकनिवृत्ति के अन्तिम दिन में घर, शरीर और वस्त्रादि की विशेष शुद्धि करनी चाहिये। उससे भी मन की प्रसन्नता होने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। उसी समय कुटुम्बी लोग एकत्र होकर भोजनादि करें तथा अन्य सुपात्र ब्राह्मणों को भी उस समय यथाशक्ति दान-दक्षिणा देवें। इससे द्वितीय अच्छे धर्मसम्बन्धी कार्य में लगने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। और दानादिक भी धर्मयुक्त शुभकर्म है। भविष्यत् में उससे अच्छा फल होगा, इस कारण अवश्य सेवने योग्य है। यह दश आदि दिनों में सामान्य कर उत्सर्ग रूप शुद्धि दिखायी है। अन्य वचन इसी के अपवाद वा बाधक माने जावेंगे। जैसे कहा कि- ‘सात पीढ़ी वालों को मरणान्तर दश दिन अशुद्धि माननी चाहिये तथा कहीं कभी चार, तीन और एक दिन में भी शुद्ध हो सकते हैं।’१ यहां ये सब विकल्प इसलिये दिखाये गये हैं कि विशेष दशाओं में शीघ्र शुद्धि कर लेने के लिये हैं अर्थात् जहां जैसी आवश्यकता पड़े, वहां वैसी शुद्धि कर लेनी चाहिये। कहीं ज्ञान के अतिप्रबल होने से शीघ्र ही शोकनिवृत्ति हो सकती है, उसको शोक नहीं करना चाहिये। कहीं मरा हुआ प्राणी ही विशेष शोक करने योग्य नहीं, वहां भी शीघ्र ही शोक की निवृत्ति हो सकती है। कहीं शीघ्र शुद्धि न करने में विशेष हानि देखकर शीघ्र शुद्धि और शोक की निवृत्ति करनी चाहिये जैसे किसी के विवाह का समय आ गया और सब अन्नपानादि पदार्थ भी जोड़ लिये गये कि जिनका व्यय होगा, ऐसे समय में किसी का मरण हो जावे और पूरी अशुद्धि मानने में विवाह का नियत समय निकल जावे तो सब भोज्य वस्तु बिगड़ जाना सम्भव है अथवा समय टल जाने से वह विवाहादि कार्य ही किसी कारण पीछे न हो सके तो ऐसी दशा में शीघ्र ही शुद्धि करके वह विवाहादि कार्य भी करना चाहिये। कहीं तत्काल के उत्पन्न हुए बालक के मर जाने पर उसमें विशेष प्रीति के न हो पाने से शोक भी न्यून होगा ऐसे समयों में शीघ्र शुद्धि करनी चाहिये। तथा इसी ग्रन्थ मनुस्मृति में न्यायाधीश राजा के लिये आज्ञा है कि वह उसी समय शुद्ध हो जावे, न्याय कभी बन्द न हो। युद्ध में अशुद्धि नहीं लगती इस प्रकार से लोक के व्यवहार की सिद्धि के लिये मृतक अशुद्धि का निर्णय किया गया है किन्तु मृतक को जन्मान्तर में फल पहुंचाने के उद्देश्य से कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। इसका विशेष विचार श्राद्धसम्बन्धी विचार के प्रकरण में दिखा चुके हैं। समीप रहने वाले भाई-बन्धुओं को मृतक का जितना शोक होता है, उतना विदेशस्थों को नहीं होता। विदेश में रहने वाले बन्धु मरने वाले के प्राणत्याग को और उसके जलाने आदि को अपनी आंखों से नहीं देखते। इसी कारण उन विदेशस्थों को मृतक का संसर्ग न होने और शोक के कम होने से अशुद्धि भी उसके लिये कम कही गयी है। समीपी सगे और सात पीढ़ी वालों की अपेक्षा अन्य कुटुम्बियों को भी शोक कम होता है, इसलिये उनको भी कम शौच बताया गया है। और जो अशुद्धि के दिन रखे गये हैं, उन दिनों में जैसे-जैसे नियम सेवने वा जो-जो बर्त्ताव करना चाहिये, वे ‘खार-लवणादि न खावें’१ इत्यादि प्रकार इसी प्रकरण में कहे हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।

यह मरण के पश्चात् हुई अशुद्धि कही गयी। आगे सूतकविषय में कुछ कहते हैं। सूतकशब्द उत्पत्ति में होने वाली अशुद्धि का वाचक है क्योंकि सूतक शब्द उत्पत्ति अर्थ वाले सूधातु२ से बना है, इसी प्रकरण में लिखा है कि- ‘मरणसम्बन्ध की अशुद्धि सब कुटुम्बियों को लगती है परन्तु जनने की अशुद्धि केवल माता- पिता को ही लगती है। उसमें भी माता विशेषकर अशुद्ध रहती है, पिता तो जातकर्म किये पश्चात् स्नान करके शुद्ध हो जाता है।’३ नव महीनों का जुड़ा हुआ मैल योनि द्वारा निकलता है, इस कारण विशेष कर दश दिन माता की ही अशुद्धि कही गयी है, तो भी सूतिका और उसके पास के वस्त्रादि को जो-जो स्त्री-पुत्रादि छूते हैं, वे ही सग् के दोष से किसी प्रकार अशुद्ध होते हैं। इसी से सामान्य से उन सब को शुद्धि करनी चाहिये। मृतक अशुद्धि और सूतक में बहुत भेद है। मृतक दशा में विशेष कर अशुद्धि का कारण शोक है, परन्तु यहां सूतक में मलिनता और आनन्द दोनों अशुद्धि के कारण हैं। अर्थात् सन्तान की उत्पत्ति का एक बड़ा आनन्द होता है और अधिक आनन्द की प्राप्ति में मनुष्य का चित्त ठीक स्वस्थ और व्यवस्थित नहीं रहता, इससे विशेष कार्य ठीक-ठीक नहीं हो सकते। इस कारण अनेक कार्यों का अनध्यायरूप अशुद्धि मानी है। परन्तु जनने की अशुद्धि छोटी है।

इस ग्रन्थ में द्रव्यशुद्धि से पहले शरीर की शुद्धि पर कुछ कहा गया है। द्रव्यों में अनेक प्रकार के सामान्य-विशेष वस्तुओं की शुद्धि कही गयी है। परन्तु इस प्रकरण में किसी जाति वा समुदाय विशेष के स्पर्शमात्र से अशुद्धि नहीं दिखायी गयी और किसी को छू लेने से चौका आदि की अशुद्धि भी नहीं कही। इससे लोक में प्रचरित ऐसी अशुद्धि धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं है। परन्तु घृणित मनुष्य वा वस्तु के छूने से अशुद्धि अवश्य होती है, इसी से चाण्डाल का स्पर्श करना लोक में निषिद्ध है। जिससे मन में ग्लानि और बुद्धि की अप्रसन्नता हो, वह अशुद्ध है। घर, वस्त्र और शरीरादि की सबको सब समय शुद्धि रखनी चाहिये, परन्तु इस शुद्धि से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। लिखा है कि- ‘जो भीतर मन से शुद्ध है वही शुद्ध है किन्तु मिट्टी-जल से शुद्ध हुआ शुद्ध नहीं।’१ यहां मन-शुद्धि की मुख्यता दिखायी है, किन्तु मिट्टी-जल से शुद्धि करने के निषेध में अभिप्राय नहीं। लेन-देन आदि सब व्यवहार जिसका छलकपटादि रहित है वा जो किसी का विश्वासघात नहीं करता वा अर्थ नाम धनादि के व्यवहार में शुद्ध कहा जाता है। जल आदि बाहरी शुद्धि के हेतुओं से मन और जीवात्मा की शुद्धि नहीं हो सकती, इस कारण उनकी शुद्धि के लिये अन्य ही यत्न दिखाया गया है। ज्ञान, तप, अग्नि और आहार आदि बारह शुद्धि के कारण दिखाये हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।

मांस के खाने न खाने का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब मांसभक्षण के विषय में विधि वा निषेध का विचार किया जाता है- हिंसा को उत्पन्न करने वाला होने से सभी मांस अभक्ष्य है। हिंसा एक अधर्म है कि जिस हिंसारूप अधर्म और बड़े दुःखफल का वर्णन बहुत वेदादि शास्त्रों में प्रायः किया है। उसका इसमें संग्रह करना पिष्टपेषण के तुल्य जान पड़ता है। इस मनुस्मृति में भी मांस के निषेधरूप सिद्धान्त में हिंसारूप अधर्म को लेकर ही मांस का निषेध दिखाया है। और अहिंसा को परमधर्म मानना भी शास्त्रों में लिखा ही है। सो इसी धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘प्राणियों को मारे बिना कहीं कभी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता। तथा प्राणियों का वध करना कल्याणकारी नहीं इससे मांसभक्षण छोड़ देना चाहिये। मांस की उत्पत्ति और प्राणियों के वध-बन्धन को विचारकर सब प्रकार के मांसभक्षण से रहित हो जाना चाहिये।’१ इस प्रकार मांस खाना बुरा काम होने से सब को त्याज्य है, यह सामान्य कर सिद्धान्तयुक्त विचार है कि मांसभक्षण अच्छा काम नहीं।

अब विशेष विचार यह है कि यदि कोई कहे कि चिकित्साशास्त्र में मांसभक्षण के बहुत गुण दिखाये हैं, इस कारण मांसभक्षण कर्त्तव्य ही है। इसका उत्तर यह है कि वैद्यकशास्त्र वालों ने हिंसा का निषेध भी नहीं किया कि मांस खाने में हिंसारूप अधर्म नहीं है। और वे चिकित्सासम्बन्धी ग्रन्थ धर्मशास्त्र नहीं हैं। जैसे कि व्याकरणशास्त्र से चोरी-व्यभिचारादि शब्द भी सिद्ध किये जाते हैं। परन्तु वहां धर्मशास्त्र के तुल्य आज्ञा नहीं दी जाती कि चोरी करना धर्म वा अधर्म है। इसी प्रकार यहां वैद्यकशास्त्र में भी धर्म-अधर्म का विवेचन नहीं है। जैसे चोरी करके प्राप्त हुआ अन्न भी क्षुधा की निवृत्ति करेगा। वैसे ही हिंसारूप अधर्म से उत्पन्न हुआ मांस भी खाने पर किसी की अपेक्षा न्यूनाधिक गुण-अवगुण करे, इससे मांस का अधर्म दोष नाम हिंसारूप दोष से ग्रस्त होना नहीं छूटता अर्थात् दोष अवश्य बना रहता है। अभिप्राय यह है कि जो लोग धर्म-अधर्म का विचार छोड़कर स्वभाव से ही क्षुधा के निवारणार्थ वा अपने शरीर को पुष्ट करने की बुद्धि से सामान्य कर सब जन्तुओं का मांस खाने के लिये प्रवृत्त होते हैं, उनके लिये वैद्यकशास्त्र में एक प्रकार का संकोच दिखाया गया है कि वे लोग भी वैसे जीवों के मांस को न खावें जिससे खाते ही समय अवगुण होकर दुःख होवे। क्योंकि सर्वथा मांसभक्षण से बचना सम्भव नहीं तो उस गिरती हुई दशा में भी ऐसा उपाय बताना चाहिये जिससे कुछ कम ही दुःख भोगने पड़ें। अथवा कभी आपत्काल में जब प्राणरक्षा के लिये अन्य कुछ भी भक्ष्य न मिल सके, तब भी वैद्यकशास्त्र में लिखे अनुसार विचार के साथ गुणकारी और जिससे संसार का कम अनुपकार हो ऐसा मांस खाना चाहिये। प्रयोजन यह है कि पशु आदि की अपेक्षा मनुष्य के प्राण की रक्षा रहना अधिक उपयोगी है। इस कारण मांस से ही प्राण बचते हों तो आपत्काल में ऐसा करे। अथवा पराधीनता से ओषधि के लिये कहीं मांस खाना ही पड़े, अन्यथा उस रोग की निवृत्ति होना यदि दुर्लभ हो तो चिकित्साशास्त्र में कहे विवेकपूर्वक मांसरूप औषध के सेवन से रोग की निवृत्ति करनी चाहिये। रहा हिंसारूप दोष सो तो दोनों पक्ष में होगा, चाहे गुण-अवगुण का विचार किया जाय वा नहीं। तो ऐसी दशा में भी जितना विचार हो सके वही अच्छा है।

‘कच्चा मांस खाने वाले वा ग्राम के निवासी पक्षियों को छोड़ देना चाहिये’१ इत्यादि श्लोकों में जिन-जिन पशु-पक्षी आदि के मांसभक्षण का निषेध किया है, उनसे भिन्न पशु आदि के मांसभक्षण का विधान अर्थापत्ति से प्राप्त होता है। इस विषय में ऐसा जानना चाहिये कि मनुष्यादि के विशेष उपकारी दुग्ध-घृतादि से अनेक प्रकार से मनुष्यों के रक्षक गौ आदि पशुओं का तो कदापि किसी को मांस नहीं खाना चाहिये क्योंकि उनके खाने से बड़ी कृतघ्नता और हानि होती है। इसी कारण इस प्रकरण में गौ आदि उपकारी पशुओं के विषय में विशेष विधि-निषेध कुछ नहीं किया गया किन्तु उनके आश्रित होने से सर्वथा रक्षा ही कर्त्तव्य है। और जो निषिद्ध पशुपक्षियों के सदृश अन्य पशुपक्षी भक्षण के विधान में आते हैं, वहां भी ये विधिवाक्य नहीं, किन्तु संकोच हैं। जो वह सामान्य कर मांसभक्षण के लिये प्रवृत्त है, उसका सर्वथा निषेध करना किसी प्रकार मांसभक्षण की प्रवृत्ति को कुछ भी नहीं हटाता अर्थात् जो पुरुष सब प्रकार का मांस प्रत्येक समय विशेष कर खाने में प्रवृत्त है, उसको कहा जाय कि तुम मांस खाना सर्वथा छोड़ दो तो एक साथ छूटना असम्भव होगा। किन्तु इस युक्ति से कहा जाय कि अमुक-अमुक देश, काल वा परिस्थिति में तथा अमुक-अमुक गौ आदि जाति का मांस न खाना चाहिये। रहे शेष उनका खाना भी विहित नहीं कि खाना ही चाहिये। क्योंकि विधिवाक्य वहां रहते हैं कि जहां उस काम वा वस्तु का अभाव हो। वह मनुष्य जो स्वयमेव मांस खाने में प्रवृत्त है। उसके लिये किसी जाति आदि का निषेध करना वा किसी जाति आदि का नियम करना कि इन्हीं का खाना उचित है अर्थात् इनसे भिन्न का मांस न खाओ, ये दोनों प्रकार उसको मांस खाने की प्रवृत्ति कम करने के लिये हैं। और कम होने पर धीरे-धीरे उसका छूटना भी सम्भव है। जैसे कोई जितना पाप करता है उससे आधा वा चतुर्थांश किसी युक्ति से करने लगे तो   अधिक पापी की अपेक्षा वह प्रशंसित माना जावेगा। जैसे लोक में यह कहावत प्रसिद्ध है कि- ‘न करने से थोड़ा करना भी अच्छा है’१। वैसे ही अधिक पाप करने की अपेक्षा थोड़ा पाप करना अच्छा है। यह प्रवृत्ति को कम करने का प्रचार यहीं हो, सो नहीं किन्तु अनेक श्रेष्ठ पुस्तकों में दीखता है। जैसे- ‘पांच नख वालों में से पांच जीव भक्ष्य हैं’२ इस महाभाष्य के उद्धरण पर कैयट ने प्रथमाह्निक में ही लिखा है कि- ‘मांसाहारी लोग लोभी होकर मांस खाते हैं [जैसे कि चोर लोगों को चोरी करने में स्वभाव पड़ जाता है और वे दूसरों के पदार्थों को प्रतिसमय ताका करते हैं] इससे उनमें मांस खाना स्वयमेव प्राप्त है कि वे सभी जीवों का मांस खाने के लिये अपने स्वभाव से प्रवृत्त होते हैं। पांच नख वाले पांच जीवों में नियम कर देने से अन्य के मांस खाने से बच जाता है, किन्तु यह विधि- आज्ञावाक्य नहीं है कि पांच जीवों का मांस खाना चाहिये। क्योंकि विधिवाक्य वहां कहने पड़ता है जहां उस काम का अभाव हो। जब मांसाहारी स्वयमेव सामान्य कर सब जीवों का मांस खाने में प्रवृत्त हैं, तो उसकी आज्ञा देना व्यर्थ है।’३ जैसे कोई नित्य-नित्य विशेष मद्यपान करता है, और उसने मद्य के पीने को एक स्वाभाविक आहार बना लिया हो तो वह अन्न के तुल्य उसका त्याग नहीं कर सकता। जो छोड़े तो मरण ही हो जावे। ऐसे ही स्वभाव पड़े हुए मांस का भी त्याग जहां कष्टसाध्य वा असाध्य है। वहां मांस खाने की प्रवृत्ति को कम करने के लिये जाति आदि के नियम से कहना, संकोचपरक होने से सुखकारी ही है यह आशय है।

इस विषय में कोई लोग कहते हैं कि मनुस्मृति में लिखा है- ‘यज्ञ के लिये परमेश्वर ने स्वयमेव पशु बनाये हैं। यज्ञ में मारने से सबका कल्याण होता है इससे यज्ञ में किया वध- मारना नहीं अर्थात् निर्दोष है।’५ इस कारण यज्ञ में पशुओं को होम करने के लिये मारना चाहिये और होम से शेष बचा खाना भी उचित ही है। मनुस्मृति तथा अन्य पुस्तकों में ऐसा भी विधान दीखता है। इस कारण यज्ञ में हिंसा नहीं और वहां मांसभक्षण भी निर्दोष है। इसी कारण- ‘वेदोक्तहिंसा हिंसा नहीं होती।’१ यह किन्हीं का कथन वेदानुकूल और चरितार्थ होता है। मांसभक्षण के प्रतिपादक लोगों का यह पूर्वदर्शित एक बड़ा वा प्रबल पूर्वपक्ष है।

इस का उत्तर- यह पूर्वोक्त कथन अयोग्य है। यज्ञ में मांसभक्षण का प्रतिपादन मांसभक्षी लोगों ने ही किया है। उन लोगों का यज्ञ करना छलमात्र है। अर्थात् मांसभक्षण से जो पाप वा दोष लगते हैं, उनको दबाने के लिये आड़ मात्र यज्ञ का आश्रय लेना है। यह मार्ग कदापि अच्छा नहीं है कि यज्ञ में पशु मारे जावें और उनका होम से बचा मांस खाया जावे। महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में लिखा है२ कि- ‘मर्यादा को बिगाड़ने वाले मूर्ख संशयात्मा स्वार्थी दबी- दबी बातें करने वाले नास्तिक लोगों ने यज्ञ में हिंसा कर मांस खाने का विधान किया है।।१।। यज्ञादि सब उत्तम कर्मों में धर्मज्ञ मनु जी ने अहिंसा को ही धर्म कहा है। स्वार्थी लोग मांस खाने के लोभ से यज्ञ में वा उससे पृथक् पशुओं को मारते हैं।।२।। इस कारण विचारशील मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि वेदप्रमाण का ठीक-ठीक निश्चय करके [कि वेद में हिंसा है वा नहीं ?] सूक्ष्मधर्म का सेवन करना चाहिये। क्योंकि सब प्राणियों के लिये धर्म के सब लक्षणों से अति उत्तम अहिंसा धर्म माना गया है।।३।। यज्ञादि शुभकर्मों में मांसमद्यादि घृणित वस्तुओं का उपयोग धूर्त्त लोगों ने लगाया है किन्तु वेद में उसका विधान नहीं किया गया।।४।। मान, अज्ञान और लोभ से दुराचारी लोगों ने यज्ञ में मांसमद्यादि खाने, चढ़ाने की कल्पना की है। और श्रेष्ठ ब्राह्मण लोग सब यज्ञों में एक परमेश्वर की ही उपासना मानते हैं।।५।। किसी ब्राह्मण ने कई लोगों से सुने जाने के अनुसार यज्ञ में हरिण मारने की इच्छा की थी, उसके बड़े भारी संचित तप में विघ्न पड़ गया अर्थात् तप खण्डित हो गया। इससे हिंसाकर्म यज्ञ के योग्य नहीं अर्थात् यज्ञ में हिंसा न होनी चाहिये।।६।। अहिंसा समस्त धर्म और हिंसा करना केवल अधर्म वा अहितकारी है। इस कारण मैं प्रतिज्ञा के साथ कहता हूं कि सत्यवादियों का बड़ा धर्म अहिंसा ही है।।७।।

इस पूर्वोक्त कथन से सिद्ध हो गया कि पहले महाभारत बनते समय इस मनुस्मृति में यज्ञ के लिये पशुओं का मारना वा मांस खाने की विधि भी नहीं थी किन्तु पीछे किन्हीं लोगों ने प्रक्षिप्त किया है कि यज्ञ में पशुओं को मारना चाहिये। यह मनु का सिद्धान्त नहीं है किन्तु किसी को कदापि हिंसा नहीं करनी चाहिये। हिंसा करना सर्वथा और सब काल में अधर्म ही है। इसी कारण ‘सब कर्मों में    धर्मात्मा मनु जी ने अहिंसा को ही श्रेष्ठ कहा है।’१ महाभारत का यह पूर्वोक्त कथन संघटित होता है। योगभाष्य में व्यास जी ने भी कहा है कि- ‘सब प्रकार सब काल में सब प्राणियों से द्रोह न करनारूप अहिंसा ही परम धर्म है।’२ और अहिंसा का परमधर्म होना सर्वसम्मत है। और जो यह कहा था कि- ‘वेदोक्त हिंसा हिंसा नहीं’३ उसका आशय यह है कि राजा वा अन्य धर्मरक्षक लोगों को उचित है कि दुष्ट, चोर, डाकू वा जो अपने मारने को शस्त्र लेकर सामने आता हो उसको तथा सांप, बीछू और सिंहादि हिंसक प्राणियों को मार डालें। यही वेदोक्त हिंसा है। क्योंकि इनको मारने के लिये वेदादि शास्त्रों में आज्ञा की गयी है। इससे यह वेदोक्त हिंसा है, यद्यपि इन चोर-दुष्टादि के मारने में भी पाप है क्योंकि उनके प्राण का वियोग होने से उनको क्लेश पहुंचता है, तो भी उनके बने रहने में जितना जगत् का अनुपकार होता है और उसके मारने से अन्यों को सुख होकर जितना पुण्य होता है, उसकी अपेक्षा पुण्य अधिक हो जाता है इस कारण वेदोक्त हिंसा को हिंसा नहीं माना, किन्तु अहिंसा माना है।

और जो मनु के भाष्यकर्त्ता सर्वज्ञनारायण ने कहा है कि- ‘यज्ञ करने से वृष्टि, वर्षा से ओषधि, अन्न और वीर्य की परम्परा से उत्पत्ति होने पर मनुष्यादि प्राणियों के शरीर बनते हैं। इस कारण एक पशु को मारकर यज्ञ करने से अनेक प्राणियों की उत्पत्तिरूप निस्तार होकर पाप की अपेक्षा पुण्य बढ़ जाता है। इस कारण यज्ञ की हिंसा को अहिंसा माना है’४ सो यह युक्ति इस कारण ठीक नहीं है कि जिससे मांस को होम करना वृष्टि का कारण नहीं बनता किन्तु किसी प्रकार वृष्टि का हानिकारक है। जैसे आकाश में ताप के अधिक बढ़ने से वर्षा होती है [इसी कारण ग्रीष्म ऋतु में अधिक ताप बढ़ने से वर्षा अच्छी होती] और घृतादि के अधिक पड़ने से अग्नि में तेज बढ़ता है किन्तु मांस से नहीं। जलते हुए अग्नि में मांस छोड़ने से जलना भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता किन्तु बुझ जाना सम्भव है। कदाचित् घी आदि की सहायता से वा इन्धन के ठीक शुष्क होने से मांस जल भी जावे तो उसमें से दुर्गन्ध उठेगा और वैसे दुर्गन्धगुणयुक्त वृष्टि के होने पर वैसे ही गुणों वाले उत्पन्न हुए ओषधि आदि पदार्थ प्राणियों के लिये अनुपकारी होंगे। यदि घी आदि के बिना ही केवल मांस के होम से वर्षारूप कार्य सिद्ध हो जावे तो सर्वज्ञनारायण का कहना बन सकता है सो तो इच्छामात्र के लड्डू खाना है अर्थात् असम्भव है। जब घृतादि की सहायता बिना मांस का होम कुछ भी उपकारी नहीं हो सकता तो वह उपकार घृतादि से हो सकना सिद्ध हो गया। इस कारण वेदोक्त हिंसा का पूर्वोक्त ही प्रयोजन जानना चाहिये। मांस खाना घृणित काम भी है। जैसे रुधिर आदि से घृणा होती वैसे बहुत विचारशीलों को मांस से भी घृणा रहती है, क्योंकि दूध से दही के समान रुधिर से ही मांस बनता है। इसी कारण इस मनुस्मृति के प्रायश्चित्तप्रकरण ग्यारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘मद्यमांसादि घृणित वस्तु यक्ष, राक्षस और पिशाचादि नाम वाले मनुष्यों का अन्न है।’१ अर्थात् मद्यमांसादि के खाने वालों का ही राक्षसादि नाम है। इसी से मांसभक्षण कर्म रजोगुण, तमोगुण का बढ़ाने वाला और सत्त्वगुण का नाशक है। जो मांस खाता है वह मद्य पीने को भी उद्यत होता और मद्यमांस के सेवन से मैथुन के लिये भी अधिक चेष्टा होती है। ऐसा होने पर धर्म, अर्थ और मोक्ष से विमुख हो जाता है। और क्षीणतादि से होने वाले बड़े-बड़े दुःखों को प्राप्त होता है। इससे भी मांस खाना बुरा फल देता है। धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य को अपने आत्मा के तुल्य सबको सुख देना चाहिये। जब कोई मनुष्य सिंहादि मांसाहारियों को अपना मांस देने को उद्यत नहीं होता। तो उस मनुष्य को भी अन्य जीवों का मांस कदापि न खाना चाहिये। जैसे सब कोई चाहता है कि मेरा मांस कोई सिंहादि न खावे, वैसे ही आप भी किसी के मांस खाने को चित्त न करे ऐसा ही आचरण धर्मानुकूल है, इससे विपरीत को अधर्म जानो। इस कारण मांसभक्षण करना धर्म नहीं है। इस उक्त प्रकार से सब गुण-दोष विचारकर किसी को मांसभक्षण न करना चाहिये। यही धर्म और इससे विरुद्ध अधर्म है। आपत्काल में जब मांसभक्षण किये बिना किसी प्रकार निर्वाह नहीं हो सकता हो तब पूर्वोक्त विचारपूर्वक मांस खाना चाहिये। यह भी मांस की आज्ञा नहीं किन्तु पूर्वोक्त प्रकार संकोचपरक वाक्य है। अर्थात् मांस त्यागने की अपेक्षा यह संकोच भी श्रेष्ठ नहीं, किन्तु सामान्य प्रवृत्ति की अपेक्षा जाति आदि के भेद से प्रवृत्त होना थोड़े पाप और बुराई का हेतु है, यह वेदादि शास्त्रों का सिद्धान्त है। यद्यपि इस विषय पर पहले भी उपोद्घात में कई अवसरों पर लिख चुके हैं कि विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद को उन्हीं- उन्हीं के विचारानुसार लोग समझा करें, किन्तु अर्थवाद वा सिद्धानुवाद को विधिवाक्य कोई न समझ लेवे। तथा अपवाद वा विशेष वचन सामान्य वा उत्सर्ग का हानिकारक नहीं होता। ऐसा उलटा समझ लेने वाला मनुष्य अपनी और अन्य मनुष्यों की हानि कर लेता है। जैसे कहा गया कि ऋतु समय में केवल अपने वर्ण की स्त्री के साथ गमन करना चाहिये, यह सामान्य कर विधिवाक्य है। इसका अपवाद वा विशेष वचन यह होगा कि अमुक-अमुक अवसर में ऋतु समय में भी गमन न करे वा अमुक-अमुक अवसर में ऋतु से भिन्न समय में भी गमन करें। इससे वह सामान्य विधान खण्डित नहीं होता। तथा ऋतु समय में स्त्री से समागम करने की आज्ञा को जब प्रायः लोग तोड़ डालते हैं और नित्य समागम करने में तत्पर होते हैं, उनको ऋतु समय का उपदेश कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता किन्तु वे कदापि ऐसा नहीं कर सकते कि नित्य के भोजन को छोड़कर महीने भर में एक बार खावें तो ऐसी दशा में तीसरे चौथे वा आठवें दिन मैथुन का उपदेश किया जाय तथा किन्हीं-किन्हीं पर्वादि तिथियों में निषेध किया जाय तो सम्भव है कि वह निबाह ले। यह मैथुन का उपदेश नित्य की अपेक्षा विशेष सुख और कम हानिकारक होगा। परन्तु इस कथन से सामान्य वचन जो ऋतु समय में भार्यागमन का विधान है सो कटता नहीं है, अर्थात् ऋतु समय में गमन करने की अपेक्षा तीन चार आदि दिन के अन्तर से करना भी बुरा है। परन्तु नित्य की अपेक्षा अच्छा है। इसी प्रकार मांसप्रकरण में भी समझना चाहिये कि मांस का सर्वथा त्याग करना यही मुख्य आज्ञा है। और जो स्वयमेव उसमें अधिक प्रवृत्त है, उसको कम वा कभी खाने का उपदेश इसलिये नहीं कि मांस खाने की आज्ञा दी जावे वा मांस के निषेध का खण्डन किया जावे। इस प्रसग् में इतना लौट-लौट इसीलिये लिखा है कि कोई विरुद्ध ऐसा न समझ लेवे कि इन्होंने मांस खाने की आज्ञा दी वा उसको अच्छा माना हो। किन्तु सिद्धान्त पर ध्यान देना चाहिये।

भक्ष्याभक्ष्य का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब भक्ष्याभक्ष्य विषय में संक्षेप से विचार किया जाता है। जिस प्रकार के आहार से मनुष्य की स्वस्थदशा रक्षित रहती है। ‘मन, बुद्धि और शरीर के अवयवरूप रसादि धातुओं में किसी प्रकार की विषमता न रहना स्वस्थदशा कहाती है।’१ ऐसी स्वस्थदशा के विद्यमान रहने से ही मनुष्य सुखी होता है और सुख     धर्म का फल है इस कारण धर्म करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को अति उचित है कि पहले वैसे आहार का ही सेवन करे। ऐसे आहार को सामान्य कर भक्ष्य कहते हैं। और जिससे मन, बुद्धि तथा शरीरस्थ धातुओं की विषमता होती है, वह आहार अभक्ष्य वा त्याज्य माना जाता है। वैसे आहार का सेवन करने वाला मनुष्य रोगादि से ग्रस्त हो जाता है, और वह रोगादि सम्बन्धी दुःख अधर्म का फल है, इस कारण वैसा आहार धर्म चाहने वाले को भी त्याज्य है। ये दो प्रकार सर्वसम्मत निर्विवाद माननीय हैं। इस मन्तव्य में किसी को कुछ विवाद नहीं है। इसी अंश पर सुश्रुतकार ने सूत्रस्थान के हिताहितीय अध्याय में लिखा है कि- ‘जो वातप्रकृति वाले को हितकारी है वही वस्तु पित्तप्रकृति वाले को कुपथ्य वा अहित है। इस हेतु से कोई वस्तु किसी के लिये सर्वथा हित वा अहित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस जगत् में अनेक वस्तु स्वभाव वा संयोग से सबके लिये हितकारी, अनेक सबके लिये अहितकारी तथा अनेक सामान्य कर हित-अहित दोनों करने वाले हैं। जैसे जन्म से ही अनुकूल होने से जल, घृत, दूध, भात आदि सर्वथा हितकारी हैं। अग्नि वा अत्युष्ण जलादि में जल जाना, गल जाना और विष खा लेना आदि सबके लिये सदा अहितकारी हैं। तथा हित-अहित मिश्रित वे ही हैं, जो वातप्रकृति के लिये पथ्य है, वह पित्त वाले के लिये कुपथ्य है।’२ इस प्रकार यहां तीन प्रकार कहे हैं। तथा भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भी प्रकारान्तर से आहार के तीन प्रकार दिखाये गये हैं कि-  ‘सरस चिकनायी सहित स्थिर और हृदय को प्रिय रुचिकर शुद्ध पवित्र दूध, घृत आदि आहार आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता सुख और प्रीति के बढ़ाने वाले होने से सत्त्वगुणी लोगों को प्रिय वा अनुकूल होते हैं। ऐसे आहार सर्वोत्तम वा सत्त्वगुणी माने जाते हैं। तथा दुःख, शोक (खुश्की) और रोगकारी, कटु, खट्टे, अतिलवण, अतिउष्ण, तीखे, रूखे, दाह वा जलन करने वाले आहार रजोगुणी लोगों को प्रिय होते हैं। यही मध्यम प्रकार का आहार माना जाता है। तथा बहुत देर का धरा हुआ, नीरस, बहुत काल धरे रहने से जिसमें दुर्गन्ध आने लगा हो, उच्छिष्ट- जूठा वा अशुद्ध भोजन तमोगुणी को प्रिय होता है।’१ अर्थात् इसी बात को अन्य प्रकारों से भी कह सकते हैं कि ऐसे-ऐसे भोजन करने वाले सात्त्विक, रजोगुणी वा तमोगुणी होते हैं वा सत्त्वगुणादि बढ़ाने की इच्छा वालों को वैसे-वैसे भोजन करने चाहियें। ये भी आहार के तीन भेद हैं। इनमें से उत्तम, निकृष्ट में विवाद कम है किन्तु विशेष विवाद नहीं, केवल मध्यस्थदशा में विवाद है, जहां हित और अहित वा बुराई-भलाई दोनों मिले रहते हैं। उसमें से देश, काल वा वस्तु के भेद से जिसमें विशेष वा प्रबल हित हो उस पक्ष का आश्रय लेना चाहिये और लेने पड़ता ही है। इससे विरुद्ध थोड़े हित का पदार्थ वा पक्ष छोड़ देना चाहिये। इसीलिये लोक के व्यवहार को ठीक-ठीक मर्यादा के साथ चलाने की अपेक्षा से विद्वान् लोग समय-समय में धर्मशास्त्र बनाते हैं। उनके कहने से जो शेष रह जाता है उस-उस को उस-उस समय के विद्वान् लोग निर्णीत करते वा उसकी व्यवस्था निकालते हैं। इसके लिये धर्मशास्त्रों में आज्ञा भी मिलती है कि- ‘दश विद्वानों की सभा मिलकर जिस धर्मसम्बन्धी विषय का निर्णय कर देवे उसको अचलधर्म मानना चाहिये।’२ इसका तात्पर्य यह है कि हित-अहित से मिले हुए विषय में सदा विवाद बना रहता है और सामयिक न्यायालय वा धर्माचार्य विद्वानों की सभाओं में समय-समय पर ऐसी बातों पर सदा निर्णय (फैसला) होता रहता है। यही दशा मध्यस्थ भक्ष्याभक्ष्य में जानो। यह सामान्य विचार रहा।

अब विशेष विचार यह है कि इस भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में मुख्य कर जड़ चेतन दो भेद हैं। चेतन प्राणी जड़ वा चेतन दोनों को खाया करते हैं। यह सिद्धानुवाद अर्थात् संसार में जो हो रहा है उसी का कथन है कि ऐसा होता है किन्तु विधिवाक्य नहीं है कि चेतनों को जड़ वा चेतन प्राणी खाने चाहियें। सो मनुस्मृति के भक्ष्याभक्ष्यप्रकरण में सिद्धानुवादरूप से लिखा है कि- ‘चेतन का अन्न जड़ वा जग्म का भोज्य स्थावर, दांत वालों का बिना दांत वाले, हाथ वालों का बिना हाथ वाले और शूरवीरों का अन्न डरपोक प्राणी हैं।’१ अर्थात् जग्म स्थावरों को खाते, दांत वाले बिना दांत वालों को खाते, हाथ वाले बिना हाथ वालों को खा जाते और शूरवीर हिंसादि भीरु मृगादि को खा जाते हैं। यह सिद्धानुवाद उत्सर्गरूप से दिखाया है। अन्य विधि-निषेध परक सब वाक्य इसी के बाधक होंगे। इसी प्रसग् में लहसुन, गाजर, प्याज, कवक-छत्राक (कुकुरमुत्ता वा कठफूल) तथा अशुद्ध पृथिवी में उत्पन्न हुए सामान्य कर पदार्थ अभक्ष्य कहे हैं, उसका विचार ऐसा है कि लहसुन आदि विष के तुल्य अनिष्ट वा त्याज्य नहीं हैं, क्योंकि उनके खाने वाले पीड़ादि से दुःखित वा मरण को प्राप्त नहीं हो जाते। तथा जो भोजन करने योग्य पदार्थ सामान्य कर सब प्राणियों के लिये अतिहितकारी सुश्रुत के हिताहितीयाध्याय में कहे गये हैं, उनमें भी लशुनादि की गणना नहीं की गयी। अर्थात् जो लशुनादि पदार्थ अत्यन्त हितकारी सबको गुण देने वाले दूध आदि के तुल्य होते तो सर्वथा सर्वहितकारी पदार्थों की गणना के साथ इनका भी नाम आता, सो ऐसा न होने से सिद्ध होता है कि लशुनादि सबके हितकारी वा विशेष गुणकारी नहीं किन्तु मध्यस्थ कोटि में अर्थात््््््््््् हित-अहित से मिले हुए आहार के समुदाय में मानने चाहियें। और हिताहित का लक्षण यही कहा गया है कि जो वातप्रकृति वाले को पथ्य है वही पित्त वाले को कुपथ्य होगा। इत्यादि प्रकार से जो वस्तु किसी देश वा काल में किसी का भक्ष्य है, वही वस्तु देशान्तर, कालान्तर वा अवस्थान्तर में उसी को वा अन्य को किसी कारण से अभक्ष्य हो जाता है। इसी प्रकार अभक्ष्य वस्तु भक्ष्य भी हो जाता है। इसी कारण लहसुन आदि वस्तु भी किसी को किसी देश वा कालादि में भक्ष्य वा अभक्ष्य होते रहते हैं। परन्तु सामान्य कर स्वस्थ वा नीरोग दशा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को लहसुन आदि का भक्षण नहीं करना चाहिये, यह धर्मशास्त्र में निषेध करने का अभिप्राय है। उन लशुनादि में जो अच्छे गुण भी हैं वे प्रायः सत्त्वगुण के बढ़ाने वाले नहीं दीखते किन्तु उनमें रजोगुण, तमोगुण के बढ़ाने और सत्त्व के विनाशक गुण अधिक हैं ऐसा मन में विचार करके धर्मशास्त्र में उन लशुनादि का खाना निषिद्ध किया है। और द्विजाति नाम ब्राह्मणादि तीन वर्णों को धर्मयुक्त वेदोक्त सत्त्वगुणसम्बन्धी कर्म का विशेष कर सेवन करना चाहिये। और मुख्यकर सत्त्वगुणयुक्त बुद्धि होने के लिये वैसे ही सत्त्वगुणवर्द्धक पदार्थों का भोजन करना चाहिये। अब आयुर्वेदनामक सुश्रुत के सूत्रस्थान के अन्नपानविधिनामक छियालीसवें अध्याय में लहसुन और प्याज के विषय में ऐसा कहा है कि- ‘लहसुन- चिकना, गर्म और तीखा अर्थात् चरपरा, कटुरसयुक्त, भारी, छेदक वा रेचक, स्वादुरस, बलकारी, कामोद्दीपक, बुद्धि, स्वर, वर्ण और नेत्रों के लिये हितकारी, टूटी हड्डी के जोड़ने में हितकारी, हृदय के रोग पीड़ादि, जीर्णज्वर, कोख की पीड़ा, बद्धकोष्ठ गुल्म रोग जो पेट में गोलाकार होता है, अरुचि, खांसी, और सूजन तथा दाद, पित्त की पीड़ा, कृमि, वायु, श्वास तथा कफसम्बन्धी रोगों को नष्ट करने वाला लशुन है अर्थात् ये गुण लहसुन में हैं। और प्याज के खाने से वीर्य में कुछ गर्मी, वायु का नाश, कटुरसकारी, तीखा, भारी, कुछ कफ का उत्पादक, बलकारी, पित्तवर्द्धक, क्षुधा को बढ़ाने वाला। ये गुण सामान्य कर प्याज में हैं। चिकना, रुचिकारी, धातुओं को स्थिर करना, बलकारी, बुद्धि, कफ और पुष्टि को बढ़ाने वाला, स्वादिष्ट, भारी, लोहू और पित्त को    सुधारने वाला और रसयुक्त लाल प्याज होता है।’१ ये उक्त गुण लाल प्याज में होते हैं। जैसे कोई वस्तु कोमल वा गर्म हो तो विशेष गुणकारी होता वैसा गुणकारी गर्म होने पर तीक्ष्ण हो तो नहीं हो सकता किन्तु उससे रजोगुण की वृद्धि होती है। और रसयुक्त होने पर कटु होना भी वैसा ही रजोगुणकारी है। तथा भारी वा भेदक होना भी लहसुन के गुण सर्वहितकारी नहीं हैं, किन्तु वातरोग वाले को हितकारी हैं, पित्त वाले के लिये नहीं, उष्ण और तीक्ष्णतादि गुण भी पित्त को कुपित करने वा बढ़ाने वाले हैं। मैथुन की इच्छा को बढ़ानारूप गुण भी सर्वहितकारी नहीं है किन्तु कामी लोगों के लिये उपयोगी है, परन्तु जितेन्द्रिय वा ब्रह्मचारी रहने वालों के लिये यह गुण अनिष्ट वा अनुपकारी- उनके नियम वा व्रत को बिगाड़ने वाला है। इत्यादि कई गुण इसमें ऐसे हैं जो विशेष दशाओं में किसी-किसी को कुछ उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु जिन तपस्वी जितेन्द्रिय नीरोग स्वस्थ ब्राह्मणादि के लिये विशेष हितकारी लशुनादि नहीं किन्तु हानिकारक तो किसी प्रकार अवश्य हैं। बुद्धि आदि के वर्द्धक, स्वादुरस वा बलकारी होना आदि कई गुण इन लशुनादि में अच्छे हैं, उनके रहने पर भी सत्त्वगुण का विघात करना उसमें बना ही रहता है तो जो पुरुष उन गुणों को लेने के लिये लशुनादिकों का सेवन स्वीकार करेगा उसको उनके अवगुण के दोषों से दुःख वा हानि भी उठानी पड़ेगी। अर्थात् जिस अन्न में विष मिला हो उसको कोई पुरुष क्षुधा की निवृत्ति के लिये नहीं खाता। जिस धर्म के साथ कई अधर्म भी आ जावें उसका बिना किसी विशेष दशा के ग्रहण वा सेवन नहीं करना चाहिये। इसी के अनुसार लशुनादि में गुण होने पर भी दोषों को साथ में आते देखकर निषेध किया। रहे गुण बुद्धिवर्द्धक आदि उसके लिये घृत, दुग्ध वा मधु आदि अनेक स्वच्छ सत्त्वगुणी पदार्थ विद्यमान हैं जिनमें वैसी बुराई नहीं है। और लशुनादि में रोगनाशक कई गुण अवश्य अच्छे हैं इसलिये वातादि से होने वाले रोगों में उनका सेवन करना चाहिये। प्याज के गुण पूर्व लिख चुके हैं वह भी प्रायः लहसुन के तुल्य अच्छे बुरे गुणों वाला है। इस विषय में भावप्रकाशनामक चिकित्साग्रन्थ में भी लिखा है कि- ‘एक अम्ल रस को छोड़कर पांच रस वाला होने से द्रव्यों के गुण जानने वालों ने लहसुन का नाम रसोन रखा है। जड़ में कडुआ, पत्तों में तीखा, नाल में कषैला, नाल के अग्रभाग में लवण और लशुन के बीज में मीठा रस रहता है। लहसुन- बढ़ाने वाला, मैथुनेच्छाकारी, चिकना, गर्म, पाचक और भेदक है।’१ इत्यादि प्रकार से पूर्व के तुल्य गुण-अवगुणकारी दिखाया है।

तथा प्याज के विषय में भी भावप्रकाश में विशेष यह लिखा है कि- ‘प्याज यवनों का इष्टभोजन, बुरे गन्ध से युक्त, मुख को दूषित करने वाला तथा लशुन के तुल्य गुणों वाला भी है। पचने पर अच्छा चित्त करने वाला, गर्मी रहित कफकारी, कुछ पित्त करने वाला, केवल वातरोग का नाशक, भारी और बल-वीर्य को बढ़ाने वाला है।२ गाजर के विषय में भी लिखा है कि- ‘गाजर पित्त को बढ़ाने, हृदय को पकड़ने और तीक्ष्ण नाम छेदक वा रेचक तथा रोगनाशक है।’३ इत्यादि प्रकार से गाजर भी लहसुन आदि के तुल्य रजोगुणवर्द्धक, क्रोधादिकारक और कामदेव का उत्तेजक है, ऐसा समझकर अभक्ष्य कोटि में रखा गया है। चौथा कवक वा छत्राक जिसको लोकभाषा में कुकुरमुत्ता वा कठफूल कहते हैं। यह भी शीतल और भेदक है। इसके विशेष खाने से विसूचिका होनी संभव है। कठफूल गाजर और प्याज आदि पकाने पर मांस के तुल्य कुछ-कुछ भी प्रतीत होते हैं तथा लहसुन वा प्याज का गन्ध भी सबके अनुकूल ग्राह्य नहीं है। उन दोनों वस्तुओं के खाने वालों के मुख से जो गन्ध निकलता है, उसको सब कोई सुगन्ध के तुल्य ग्रहण करने को उद्यत नहीं होते, किन्तु अनेक लोग दुर्गन्ध के तुल्य असह्य मानते हैं। इत्यादि कारणों से भी इन लशुनादि को अभक्ष्य कोटि में गिना है। पहले       धर्मशास्त्र बनाते समय पूर्व कहे अनेक कारणों से लहसुनादि के खाने का प्रचार भी नहीं था, उसी के अनुसार उस समय के धर्मशास्त्रों में निषेध लिखा गया। इसी प्रकार उस समय प्रदेशभेद से अर्थात् पूर्व में लहसुन, दक्षिण वा पंजाब आदि में प्याज और मध्य प्रान्त में गाजर के खाने का प्रचार देखकर कोई खाने का      विधान भी कर सकता है। परन्तु प्रचार-अप्रचार मात्र को देखकर विधि वा निषेध करना ठीक नहीं है, किन्तु हानि-लाभ आदि को देखकर विधान वा निषेध होना चाहिये। अनेक लोग यह भी कह सकते हैं कि जब लशुनादि में अनेक अच्छे गुण हैं तो उनको भक्ष्य क्यों नहीं ठहराया जाता और थोड़े अवगुणों से अभक्ष्य क्यों माने जाते हैं ? इसका उत्तर यह है कि लशुनादि में जो गुण हैं, उनको हम अवगुण नहीं ठहराते किन्तु वे गुण प्रायः रोगी पुरुषों के रोगनाश करने के लिये उपयोगी हैं। और दोषों के होने से स्वस्थ दशा में कि जब कोई रोग नहीं, तब निषेध किया जाता है। तथा एक बात यह भी है कि लशुनादि को स्वस्थसंरक्षण में नहीं गिनाया गया, इत्यादि कारण से हमने भी इसके निषेध का कारण दिखाया है। ऐसे लालमिर्च भी भेदक वा रजोगुणवर्द्धक, वातघ्न और क्षीणता करने वाली होने से उसके भक्षण का निषेध कर सकते हैं अर्थात् स्वस्थ दशा की रक्षा के लिये घृतादि के तुल्य लालमिर्च का भी कुछ उपयोग नहीं इससे वह भी अभक्ष्य है। परन्तु अभक्ष्य शब्द का वैसा अर्थ नहीं समझना चाहिये जैसा कि इस समय अनेक लोग समझते हैं कि जिसके खाने से मनुष्य पतित हो जाता है किन्तु जिसके खाने से किसी प्रकार का दुःख हो वा कुछ हानि हो वा किसी अन्य को दुःख पहुंचे, वह पदार्थ अभक्ष्य है। लालमिर्च वातघ्न है इस कारण वातप्रकृति वाले को विशेष उपकारी जानो। और पित्त वाले वा स्वस्थ के लिये भेदक वा वीर्यादि को क्षीण करने वाली है। इसलिये उसको अभक्ष्य ठहरा सकते हैं। परन्तु उसके भक्षण से मद्यादि के तुल्य कोई पतित नहीं हो सकता। इसी प्रकार लहसुन आदि के खाने वाले भी पतित नहीं होते। किन्तु उन लहसुन आदि के प्रायः खाने से रजोगुण बढ़ता है। इस कारण उन लहसुन आदि के प्रायः खाने का ही निषेध है, किन्तु नैमित्तिक रोगादि में नहीं। रोग में तो ओषधि के समान सेवन करना ही उचित है। इस अभक्ष्यप्रकरण में लहसुन आदि उदाहरण मात्र उपलक्षण हैं कि इस प्रकार के गुण वाले पदार्थ स्वस्थ दशा में मनुष्यों को नहीं खाने चाहियें, किन्तु परिगणन नहीं है कि इतने ही पदार्थ अभक्ष्य हैं। इससे यह आया कि वेदादि शास्त्र पढ़ने वा वेदोक्तधर्मयुक्त कर्मों का सेवन करने वाले ब्राह्मणादि द्विजों के स्वरदूषक, सत्त्वगुणनाशक वा रजोगुण-तमोगुणवर्द्धक जो कोई गिनाये हुए लहसुन आदि से भिन्न भी शाक, मूल, कन्द, फल वा पुष्पादि वस्तु हों, उनको अभक्ष्य कोटि में रखना चाहिये। यहां उदाहरण (नमूना) मात्र दिखा दिया है। क्योंकि सत्त्वगुण के ठीक होने पर ही सुख उत्पन्न होता और मुख्यकर धर्म का फल सुख ही है, इससे भक्ष्याऽभक्ष्य का धर्म के साथ सम्बन्ध युक्त ही है।

इस अध्याय के छठे श्लोक में गव्यपेयूष (गाय की गिजरी) के खाने का निषेध किया है और आठवें श्लोक में दस दिन से पहले गौ के दूध का निषेध है। इनमें से पहले में अग्नि के संयोग के कठिन हो जाने वाली गिजरी का निषेध है और प्रायः सात दिन तक दूध फटता वा गिजरी होती है उन दिनों में तो अवश्य ही वह त्याज्य है क्योंकि उसमें बहुत दिन की गर्मी वा मलिनता का विकार जुड़ा रहता है। इस कारण उसका विशेष निषेध है। और आठवें पद्य में गौ उपलक्षण मात्र है। इससे दस दिन के भीतर भैंस, बकरी आदि का दूध न फटने पर भी त्याज्य है। इस प्रकार इस प्रकरण में भोज्य वा पेय- पीने योग्यादि पदार्थों में से उदाहरण मात्र कई को अभक्ष्य कहा है। विशेष व्याख्यान वहीं होगा। अब इससे आगे प्राणियों के शरीर से होने वाले मांस के विषय में भक्ष्याभक्ष्य का विचार किया जायेगा।

चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब चौथे अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। २७,२८ सत्ताईस और अट्ठाईस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। और छब्बीसवां श्लोक पच्चीसवें श्लोक में दी आज्ञा की पूर्त्ति करने वाला है। और विधिवाक्य का शेषविधि करके ही माना जाता है। इससे छब्बीसवां श्लोक भी विधिवाक्य ही है। उस छब्बीसवें पद्य में पशुशब्द करके गौ आदि से होने वाले मुख्य घृतादि से होम करे, यह विधान किया गया है। यदि कोई कहे कि पशु के मांस से होम करने की कल्पना निकालेंगे तो पशु से उत्पन्न हुआ वस्तु वा उसका विकार अर्थ लेना दोनों पक्ष में तुल्य है। वहां पशु से हुआ मांस और यहां पशु के ही शरीर से निकला घृतादि है। तो इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है कि जो पशु से होने वाला मांस ही पशुशब्द से लिया जावे और दुग्ध घृतादि न लिया जावे। और पशु के प्राण निकालनेरूप हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और हिंसा करने में पाप अवश्य है। क्योंकि यदि गौ आदि पशु बना रहे तो उससे होने वाले घृतादि से फिर भी यज्ञ कर सकते हैं और यदि मारकर उसके मांस का होम कर दिया जायेगा तो पशु उसी समय समाप्त हो जायेगा फिर आगे होने वाली दुग्धादि के लाभ की भी हानि ही होगी। और मांस के जलाने से दुर्गन्धि अवश्य निकलेगी और घृतादि के होम से सुगन्धि होगी। इस कारण छब्बीसवें श्लोक में पशु शब्द से उसका घृतादि पदार्थ लेना चाहिये। यदि कोई ऐसा लाक्षणिक अर्थ न करे तो ‘पशु से होम करना चाहिये’१ यह वाक्य ही नहीं बनेगा। क्योंकि जीते हुए समूचे पशु का होम अग्नि में कोई नहीं कर सकता। और जैसे दुग्ध-घृतादि का नाम पशु नहीं वैसे मांस का नाम भी पशु नहीं है। इससे पशु शब्द करके दुग्ध-घृतादि ही लेना चाहिये और मांसादि लेने में पूर्वोक्त अनेक दोष हैं।

सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें श्लोक में अर्थवाद है, सो वह अर्थवाद शास्त्र की मर्यादा के अनुकूल ठीक नहीं है। जब वेद में स्पष्ट लिखा है कि ‘यज्ञ करने वाले पुरुष के पशुओं की रक्षा कर’२ अर्थात् यज्ञ करने वालों के पशुओं को कभी न मारना चाहिये, किन्तु उन पशुओं की ठीक-ठीक रक्षा से घृतादि निकाल कर यज्ञादि का प्रचार बढ़ाना चाहिये, जो यज्ञ करने वालों के गौ आदि पशु नष्ट हो जायेंगे तो दूध-घृत आदि के न होने से यज्ञ की ही हानि होगी। ऐसा स्पष्ट प्रमाण मिलने पर जो मांसादि से होम करना चाहते हैं वे वेदविरोधी हैं। और इसी के अनुसार उक्त दोनों २७,२८ श्लोक भी वेदविरुद्ध हैं। इससे विचारशीलों को नहीं मानने चाहियें। अट्ठाईसवें श्लोक पर रामचन्द्र का भाष्य उपलब्ध नहीं है इस कारण से भी इसके प्रक्षिप्त होने का अनुमान किया जाता है। अर्थात् जिस पुस्तक के आधार पर रामचन्द्र ने भाष्य रचा उस पुस्तक में यह श्लोक नहीं था।

आगे छियासीवें श्लोक से लेकर एकानवें पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। ये भी छह श्लोक असम्भव अर्थवादरूप हैं। यद्यपि पिच्यासीवें श्लोक में जो अर्थवाद है उसमें भी किसी प्रकार अत्युक्ति प्रतीत होती है तथापि उसका भयानक होना अनुमान कर सकते हैं। इन छह श्लोकों में शास्त्रविरुद्ध चलने वाले नास्तिक राजा वा क्षत्रिय भिन्न नीच वर्णसटरादि राजा से विद्वान् को दान न लेना चाहिये। उस दान का लेना पिच्यासीवें श्लोक के कहे अनुसार दूषित है, यही कहना ठीक है। और क्षत्रिय भिन्न वा अधर्मी से दान लेने वाला क्रम से इक्कीस नरकों को प्राप्त हो, यह सर्वथा असम्भव है। ग्यारहवें अध्याय के प्रायश्चित्त प्रसग् में चार महापातक और कई उपपातक भी गिनाये गये हैं, उनमें ब्रह्महत्यादि महापातकों का ही नरक प्राप्ति फल कहा है। जैसे- ‘महापातकी लोग अनेक दुःसह दुःखों से युक्त नरकरूप स्थानों को अनेकों वर्ष तक पाकर संसारी कुत्ते आदि की योनि को प्राप्त होते हैं।’१ और सब पापों में महापातक ही बड़े पाप हैं, मुख्यकर उन्हीं का दुःखरूप नरकप्राप्ति फल होना चाहिये। यदि दुष्ट दान लेने का नरक फल हो तो महापातकों का उससे बहुत बड़ा दुःख फल क्या होगा ? अर्थात् कुछ नहीं। जब राजा छोटे-छोटे अपराधों पर प्राणदण्ड [फांसी] वा जन्मभर बन्धन [उम्रकैद] कर देवे तो बड़े अपराधों के लिये और बड़े दण्ड कहां से आवें ? इसी कारण निन्दित दान लेने का नरकप्राप्ति फल कहना असग्त है। और निन्दित प्रतिग्रह उपपातकों में भी नहीं गिनाया गया, किन्तु ‘निन्दित लोगों से धनादि का दान लेना, निषिद्ध वस्तुओं का बेचना, शूद्र की सेवा करना और मिथ्या बोलना ये अपात्रीकरण अर्थात् मनुष्य को नीच बनाने वाले काम हैं।’२ इस का दण्ड, फल वा प्रायश्चित्त भी वहां स्वयमेव दिखाया है कि- ‘ऐसे कामों का प्रायश्चित्त वा दण्डरूप दुःख फल भोगकर चान्द्रायण व्रत करे।३ इस प्रकार जब ग्यारहवें अध्याय में निन्दितों से दान लेने का फल चान्द्रायण प्रायश्चित्त कहा फिर यहां चौथे अध्याय में इसी का फल इक्कीस नरकों की प्राप्ति कहना परस्पर विरुद्ध है। ग्यारहवें अध्याय का कथन ठीक प्रतीत होता है और यहां चौथे अध्याय के उक्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह निस्सन्देह विचार है। नरक- सम्बन्धी विचार कर्मफल विचार प्रकरण में होगा।

आगे एक सौ दश, एक सौ ग्यारह (११०,१११) और एक सौ चौदह (११४) ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। एकोद्दिष्ट श्राद्ध का निमन्त्रण मानकर वेदपाठ करना क्यों निषिद्ध है ? क्या उदरम्भर बनकर पेट भरने के ही विचार में लगा रहे ? और पढ़ना-लिखना छोड़ देवे ? वेद पढ़ने वाले विद्यार्थियों का जब कोई निमन्त्रण करता है, तब भोजन बनाने में जो समय लगता वह भी पढ़ने के लिये मिल जायेगा, इस कारण उस समय तो पहले से भी अधिक पढ़ना हो सकता है। परन्तु श्राद्ध भोजन किये पश्चात् थोड़े काल तक दो-चार घड़ी नहीं पढ़ना क्योंकि शरीर के भारी होने से तथा अजीर्ण के भय से कि अजीर्ण न हो जावे। सो ऐसा निषेध पूर्व श्लोक से ही कर दिया है। और सूतकशब्द का सन्तानोत्पत्ति कालरूप योगरूढार्थ स्वीकार किया जाता है, तो राजा के पुत्रोत्सव में प्रसन्नता के साथ वेद का पाठ अवश्य करना चाहिये। और प्रायः लोग ऐसा करते भी हैं कि मन की प्रसन्नता विशेष होने से राजा का उत्सव मानें। और यदि सूतकशब्द से राजादि के मरने पश्चात् शोक काल लेवो तो उस समय वेद नहीं पढ़ना चाहिये, क्योंकि प्रजा के मनुष्यों को भी राजा का शोक माननीय है। परन्तु इसके लिये यहां अनध्यायप्रसग् में कुछ कहना आवश्यक नहीं क्योंकि पञ्चमाध्याय की सूतकशुद्धि में इसका विचार होगा। राहु एक ग्रह वा लोक है उसके घर में स्त्री-पुत्रादि वा उसी का मरण वा जन्म दोनों ही असम्भव हैं, ऐसा मानने से राहु का सूतक ही नहीं हो सकता, किन्तु सूर्यचन्द्रमा के ऊपर लोकान्तर की छायारूप ग्रहण, पढ़ने का विघ्नकारी नहीं हो सकता, ऐसा मानकर ग्रहण समय में पढ़ने का निषेध करना व्यर्थ है। तथा अगला अर्थवाद भी व्यर्थ है। प्रतिदिन खाये हुए वा एकोद्दिष्ट श्राद्ध में खाये हुए अन्न का गन्ध और लेप शरीर में अवश्य रहेगा किन्तु दो-एक दिन वा मास-दोमास में नष्ट नहीं हो सकता जैसे गगदि नदियों का जल समुद्र में मिल जाने से उसका अभाव नहीं होता, वैसे खाया-पिया आहाररस रुधिरादि धातुओं के रूप से शरीर में व्याप्त हो जायेगा। फिर क्या एकानुदिष्ट श्राद्ध में खाने वाले को जन्मभर के लिये वेद का पढ़ना छोड़ देना चाहिये ? अर्थात् यह सम्भव नहीं, इसलिये यह प्रक्षिप्त है। और अमावास्या में पढ़ाने से गुरु को पठन क्रिया मारती है इत्यादि अर्थवाद भी ठीक वा युक्त नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से ही यह विरुद्ध है। अमावास्या में पढ़ाने से अध्यापक प्रत्यक्ष में मरे नहीं दीखते। यदि कोई कहे कि फिर अमावास्यादि में पठन का निषेध क्यों किया ? तो इसका उत्तर हम पूर्व अनध्याय विचार में लिख चुके हैं।

आगे एक सौ छब्बीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्योंकि पशु वा मेंढक आदि के बीच से निकल जाने में पढ़ने-पढ़ाने वालों की कुछ हानि कोई विद्वान् नहीं मान सकता। ऐसे वाक्यों से धर्मशास्त्र की तुच्छता भी आती है। वेद का पढ़ना ऐसा बड़ा काम है कि उसके चलने में तुच्छ वा क्षुद्र मेंढक आदि जीव विघ्नकारी हों, यह असम्भव है। और विघ्नकारक हेतु जिस कार्य में विघ्न करता है उससे प्रबल होता है तभी विघ्न हो सकता वा कर सकता है कि जैसे कुपथ्य अधिक बढ़ जावे तो रोग दबा लेता और ओषधि का बल बढ़ने से रोग दब जाता है।

आगे एक सौ पैंसठवां और एक सौ छियासठवां श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां पहले श्लोक में घुर्राने का सौ वर्ष तक अन्धकाररूप नरक में गिरना फल कहा है। और ग्यारहवें अध्याय में घुर्राने का दण्ड वा प्रायश्चित्त एक कृच्छ्रव्रत कहा है, इससे ये दोनों बातें विरुद्ध हैं, किन्तु दोनों सत्य नहीं हो सकते। घुर्रानेरूप पाप का फल वा दण्ड एक कृच्छ्रव्रत करना भी अधिक है, किन्तु सौ वर्ष नरक में गिरना रूप फल तो सर्वथा असम्भव ही है। कोई भी विद्वान् ऐसे छोटे अपराध के ऐसे बड़े फल को न्याययुक्त कभी न मानेगा। इस चौथे अध्याय में ब्राह्मण को ताड़ना देने का फल इक्कीस जन्मों तक पापयोनियों में गिरना लिखा है। तथा ग्यारहवें अध्याय में दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न करे यह प्रायश्चित्त कहा है, सो इसमें भी परस्पर विरोध है। यहां भी पूर्व के तुल्य अति छोटे अपराध का ऐसा बड़ा दुःख फल मिलना असम्भव और अन्याय है। एक सौ अड़सठवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। ग्यारहवें अध्याय में लकड़ी आदि के मारने से ब्राह्मण के शरीर में रुधिर निकल आनेरूप अपराध पर कृच्छ्र और अतिकृच्छ्ररूप प्रायश्चित्त लिखे हैं, इतना ही इस अपराध का दण्ड मिलना उचित वा न्याययुक्त है। और यहां चौथे अध्याय में दिखाया पाप फल असम्भव और न्यायविरुद्ध है। इस प्रकार यहां तीन श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं।

आगे एक सौ इक्यासीवें (१८१) श्लोक के उत्तरार्द्ध से लेकर एक सौ चौरासीवें के पूर्वार्द्ध पर्यन्त तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। ऋत्विग्, पुरोहित, गुरु, आचार्य आदि मान्यपुरुषों के साथ विवाद नहीं करना चाहिये, यह सब शिष्ट लोग मानते हैं। इसमें अर्थवादरूप कारण वाद की कुछ भी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि विवाद होने से उन सज्जनों की मानहानि होना दोष है, यह कारण भी स्पष्ट है। तथा सब  विधियों में अर्थवाद का होना भी आवश्यक नहीं। तथा पूर्व कहा अर्थवाद असम्भव है कि जो ब्रह्मलोक का स्वामी आचार्य हो। जिस ब्रह्म का वह लोक है, वही उसका स्वामी होगा। यदि आचार्य स्वामी हो तो ब्रह्म का लोक नहीं कह सकते। जिसका वह वस्तु होता है, वही उसका स्वामी भी माना जाता है, यह सबके अनुकूल सिद्ध है। ऐसे ही पिता आदि के स्वामी बनाने के अर्थवाद को भी गड़बड़ जानो। इसलिये ये तीन श्लोक बुद्धिमानों को प्रक्षिप्त मानने योग्य हैं।

आगे एक सौ नवासीवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इससे पूर्व अठासीवें श्लोक में मूर्ख को दान देने के निषेध का अर्थवाद कहा है वह सम्भव भी है और यह कथन प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है कि अविद्वान् लोग दान लेने से मर जावें वा उनके नेत्रादि फूट जावें। आजकल अधिकांश मूर्ख लोग ही दान लेते और उन्हीं को दिया जाता है। परन्तु उनका मरण आदि होते नहीं दीख पड़ता, किन्तु पराया धन बिना परिश्रम का खा-खाकर सहस्रों लोग अच्छे मोटे हो रहे हैं। घोड़े का दान लेने वाले के नेत्र फूट जावें, यह भी कहीं नहीं दीख पड़ता।

आगे दो सौ सत्रहवें से लेकर दो सौ इक्कीसवें पर्यन्त (२१७-२२१) चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इनमें भी असम्भव वा परस्पर विरुद्ध अर्थवाद ही कहा गया है, किन्तु ये विधिवाक्य नहीं हैं। अधर्मी, अन्यायी वा क्षत्रिय से भिन्न राजा का अन्न विद्वानों को नहीं खाना चाहिये, इस पूर्व किये निषेध की अर्थापत्ति यह है कि     धर्मात्मा राजाओं का अन्न अवश्य खाना चाहिये और ऐसा ही पूर्वज ऋषि लोगों ने भी किया है और इतिहासादि ग्रन्थों से भी सिद्ध है। और अधर्मी अन्यायी राजा का धान्य विद्वान् को लेना पूर्व ही निषेध कर चुके हैं। तथा अन्य शूद्रादि जिन-जिन का अन्न निषिद्ध है, उनका भी अधर्मी हों तो अन्न त्याज्य है। धर्मात्माओं का तो सदा ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। असम्भव घृणित तुच्छता दिखाने वाला और प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध यह अर्थवाद है, ऐसा मानकर प्रक्षिप्त कोटि में उक्त श्लोक छोड़ देने चाहियें। तथा जिन-जिन के अन्न का लेना निषिद्ध है, उसका अर्थवाद सामान्य कर दो सौ बाईसवें (२२२) श्लोक में दिखा दिया है, वही ठीक है, किन्तु यह ठीक नहीं है।

आगे दो सौ अड़तालीसवां और दो सौ उञ्चासवां ये दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। पहले में अर्थवाद मिथ्या और असम्भव है। इस विषय में विशेष अर्थवाद का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। जिसमें किसी प्रकार का दोष वा विरोध न हो तथा बिना मांगे स्वयं प्राप्त हो जावे ऐसी भिक्षा वा दान का सामान्य कर ग्रहण करना चाहिये, यह विधान किया है। इसी कारण बिना मांगे प्राप्त हुई खट्वा आदि के त्याग न करने का कथन द्वितीय पद्य में पुनरुक्त है। मछली और मांस तो कैसा ही हो न लेना चाहिये, क्योंकि उसका मूल हिंसा वा हत्या करना अधर्म है। यदि खट्वादि का विशेष कर विधान मानो तो सामान्य कथन विरुद्ध है, क्योंकि यहां उत्सर्गापवाद की रीति नहीं घटित होती। सो परस्पर विरुद्ध होने से “शय्याम्०” यह श्लोक प्रक्षिप्त है। इस उक्त प्रकार से इस चौथे अध्याय में के दो सौ साठ (२६०) श्लोकों में से पच्चीस (२५) श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ पैंतीस (२३५) श्लोक शुद्ध हैं। बुद्धिमान् लोगों को विचार पूर्वक अनुसन्धान करना चाहिये।

मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पूजा वा उपासना विषय में मूर्त्तिपूजा का विचार किया जाता है। इस मानव धर्मशास्त्र में सावित्री मन्त्र१ के जप की सब प्रकार प्रधानता२ दिखायी है। इस मन्त्र में सब जगत् का रचने वाला परमेश्वर ही उपासना के योग्य बतलाया गया है। किन्तु कोई पत्थर आदि की मूर्त्ति उपासना के योग्य नहीं ठहराई गई। इसी प्रकार की उपासना वेद और योगशास्त्र के अनुकूल है। वेद में लिखा है कि- ‘तू एक असहाय अनुपम आदि विशेषण युक्त है, ऐसी हम उपासना करते हैं।’३ तथा योगशास्त्र में लिखा है कि- ‘ओटार वा ओटारयुक्त गायत्री का वाणी वा मन से जप करना तथा उसके वाच्यार्थ परमात्मा का अपने चित्त में बार-बार विचार और ध्यान तथा उसके गुणों का चिन्तन करना उपासना है।’४ मानव धर्मशास्त्र के अन्य स्थलों में भी जहां-जहां उपासना का प्रकरण है, वहां-वहां वेदमन्त्रों के साथ ही प्रतीत होता है। ऐसा मानकर ही अग्निहोत्र में भी उपस्थानसंज्ञक वेदमन्त्रों से मुख्यकर परमात्मा की ही स्तुति की है। जिस कर्म में वा जिस कर्म से देव नाम परमेश्वर की पूजा होती है, वह अग्निहोत्र कर्म देवयज्ञ कहाता है। अर्थात् उपासना प्रसग् में देव शब्द परमेश्वर का वाचक है, यही सिद्धान्त जानो। बारहवें अध्याय में मनु ने भी कहा है कि- ‘सर्वव्याप्त परमेश्वर का ही नाम देव है, अर्थात् जितने देव के अवान्तर भेद आते हैं, वे सब आत्मा के नाम हैं और उसी एक में सब संसार ठहरा हुआ है।’४ इससे जहां-जहां देवता पद से उपासना कही जाती है, वहां-वहां आत्मा की ही उपासना जाननी चाहिये। इसी कारण “देवताभ्यर्चनम्” इत्यादि वाक्यों से परमात्मा की ही उपासना वेदमन्त्रों द्वारा सिद्ध होती है। प्रातःकाल की उपासना में और भी कहा है कि- ५. ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।। ‘प्रातः कुछ        अन्धेरे ही उठकर वेद के तत्त्वार्थ [कि मुख्यकर वेद में जिसका व्याख्यान है उस] परमात्मा का चिन्तन करे।’५ यहां वेद शब्द के साथ रहने से पौराणिक पाषाणादि मूर्त्तियों का चिन्तन नहीं आ सकता। तथा प्रामाणिक सज्जन विद्वानों के माने हुए व्याकरण-कोषादि ग्रन्थों में पाषाणादि मूर्त्तियों का वाचक देवशब्द कहीं नहीं मिलता। इस कारण भी पत्थर आदि की जड़ मूर्त्तियों का पूजन मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल विहित नहीं है। और न कहीं इस ग्रन्थ में पत्थर आदि जड़ से बनीं प्रतिमाओं की परमात्मा बुद्धि से पूजा करनी चाहिये, ऐसी आज्ञा है। और देव शब्द से परमेश्वर का ही पूजन माना गया है- ‘सर्वान्तर्यामी सर्वव्याप्त एक देव- परमेश्वर सब प्राणियों में गुप्त हो रहा है।’१ इत्यादि उपनिषद् के वाक्यों से भी सिद्ध है कि जो उपासना प्रसग् में देव शब्द परमात्मा का ही वाचक है। इससे मानव धर्मशास्त्र में भी नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, निराकार, निर्विकार और सच्चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा की ही उपासना का विधान किया गया है, किन्तु मूर्त्ति आदि की पूजा का नहीं, यही सिद्धान्त है।

दानधर्म का विवेचन : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब दानधर्म का संक्षेप से विवेचन किया जाता है। यद्यपि इस दानधर्म विषय में विशेषता से इसलिये कुछ वक्तव्य नहीं है कि इस चतुर्थ अध्याय में सब विषय स्पष्ट कर कहा है। और भाष्य में और भी स्पष्ट हो जायेगा। तो भी संक्षेप से दान का सिद्धान्त कहा जाता है। इस चौथे अध्याय में छियासीवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त दान का ही विवेचन किया है। दानधर्म में पांच अवयवों की मुख्यकर परीक्षा करनी चाहिये। दान देने तथा लेने वाला, जिस वस्तु का दान दिया जाय और वह तीसरा, चौथा दान का समय और पांचवें दान का देश कि किस प्रान्त में दान करना उपयोगी वा अनुपयोगी है। कैसे दाता को दान देना चाहिये, किसको दान देने का अधिकार है, और दान लेने वाला कैसा हो इत्यादि प्रकार से दाता को उचित-अनुचित का विचार कर दान करना चाहिये। वही सम्यक् उत्तम दान है। गुणों के तीन भेद होने से दान भी तीन प्रकार का है सो भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदादि शास्त्रों में दान देना लिखा है इस कारण शास्त्र की आज्ञानुसार दान देना चाहिये, किन्तु यह न विचारा जाये कि इससे मुझको फल मिलेगा वा नहीं किन्तु निष्कारण अपना कर्त्तव्य समझकर जो दान ऐसे पुरुष को दिया जाता है जिससे अपना कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता। तथा जिस दान में देने योग्य देश-काल और सुपात्र का विचार कर लिया जावे, वह दान सात्त्विक अर्थात् सत्त्व गुण सम्बन्धी होने से सर्वोत्तम है।’१ ‘और जो प्रत्युपकार होने के लिये कि जिसको हम दान देते हैं उससे हमारा अमुक काम निकलेगा वा मुझको इस दान से अमुक फल मिलेगा इसलिये दान देना चाहिये। इस प्रकार किसी प्रकार के दबाव, परवशता वा लोकलज्जादि के कारण अपने पर भार समझकर दिया जाता है, वह दान रजोगुण सम्बन्धी मध्यम समझा जाता है।’२ ‘तथा जो देश-काल का विचार न करके वा विरुद्ध देश-काल में (कि जहां दान करने से उलटा फल होना सम्भव है) कुपात्रों को दान दिया जाता है कि जिसमें दान लेने वाले का अनादर वा अपमान भी हो वह तमोगुण सम्बन्धी सबसे नीच है।’३ इस उक्त रीति से तीन प्रकार का दान है। उसमें सत्त्वगुण सम्बन्धी सबसे श्रेष्ठ दान है। उसी का आचरण वा सेवन सज्जनों को करना चाहिये, यही सिद्धान्त है। ‘न करने से कुछ करना भी अच्छा है’१ इस जनश्रुति- कहावत के अनुसार जो लोग किसी प्रकार कुछ भी दान नहीं देते उनकी अपेक्षा मध्यम, निकृष्ट दानों के सेवन करने अर्थात् मध्यम वा निकृष्ट प्रकार से दान देने वाले भी उत्तम ही हैं। तो भी धर्मशास्त्र में सत्त्वगुण सम्बन्धी दान का विधान किया है, किन्तु रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी का नहीं, यही सिद्धान्त है। यद्यपि यह पूर्वोक्त सिद्धान्त ठीक है तो भी जहां दान लेने वाला अधिकता से अधर्मी है कि वह दाता के दिये वस्तु को लेकर उसी के आश्रय से अधर्म करता है तो वहां धर्मानुकूल संचित किये    धन का दान भी अनर्थकारी अर्थात् पुण्य के बदले पाप कराने वाला होता है। सो मनुस्मृति के इसी अध्याय में कहा है कि- ‘बैडालव्रतिक अर्थात् मूषक को पकड़ने के लिये बिलाई कीसी दृष्टि रखने वाला कि अवसर पाकर झट दूसरे के माल को मार लेवे इत्यादि दुर्गुणयुक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को धर्मानुकूल उपार्जन किये धन का भी दान दाता के लिये पाप का हेतु होता है। और जन्मान्तर में दान का लेने वाला भी पापभागी होता है।’२ ‘जैसे पत्थर की नौका पर चढ़के जल में तरने वाला पत्थर के साथ ही डूब जाता है, वैसे ही उस दान के सहित दुष्ट को दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों दुःखसागर में डूबते हैं।’३ इस उक्त लेख से सिद्ध हुआ कि रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी दान भी अधर्मी को नहीं देना चाहिये।

इस दानधर्म के प्रसग् में दाता प्रशस्त कोटि में और दान लेने वाला निकृष्ट कोटिस्थ समझा जाता है। इसी कारण जो पुरुष जिस दाता से दान लेता है, वह उसके सामने लज्जित, शटित वा दबा हुआ रहता है। यदि दान लेना नीच काम न होता तो लज्जा वा शटा भी न होती। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘दान लेना अच्छा नहीं’४ तथा ‘दान लेने में समर्थ अर्थात् विद्वान् वा धर्मात्मा दान लेने का अधिकारी होकर भी दान लेने का प्रसग् न आने देवे क्योंकि दान लेने से विद्वान् का विद्या सम्बन्धी तेज घट जाता है।’५ ऐसा विचार कर विद्वान् ब्राह्मण को भी दान लेने की इच्छा न रखनी चाहिये। दान लेने की रुचि वा इच्छा रखने वाला विद्वान् ठीक धर्मात्मा कभी नहीं रह सकता, इसीलिये इसका निषेध है। परन्तु दाता को सदा ही दान देने की रुचि रखनी चाहिए अर्थात् दाता का यही मुख्य धर्म है कि वह सुपात्रों को दान देने की सदा इच्छा बढ़ाता रहे और दान लेने वाले सदा बचते रहें। ऐसा होने पर ही धर्मशास्त्रों की ठीक व्यवस्था हो सकती है। जिस देश और काल में धर्मशास्त्रों के अनुकूल दानधर्म की सम्यक् प्रवृत्ति होती है, वह देश उन्नति को प्राप्त हुआ, ऐसा कहा जाता है। और जिस देश में ऐसा नहीं होता, वहां अवनति ही बनी रहती है। सो कहा भी है कि- ‘जहां अपूज्य वा अयोग्यों की पूजा वा सत्कार होता, और योग्य विद्वानों का सत्कार नहीं होता उस देश की दुर्दशा ही होती है।’१ इसलिये सबको सब समय में शास्त्र के अनुकूल ही दान- धर्म का सेवन करना चाहिये।

इस दानधर्म विषय में तात्पर्य यह है कि जिस कर्म में व्यय किये बिना अपने सुख और विद्यादि का प्रचार न होने से अन्य सर्वसाधारण मनुष्यों की हानि होती है, उस-उस विद्या वा धर्मादि का प्रचार कराने वाले कर्म में व्यय करना मुख्यकर दान ही है। वैसे उक्त कामों में व्यय न करके जिस काम में व्यय करना निष्फल है अथवा जहां विरुद्ध फल देने वाला है, वहां का व्यय करना हानि वा देश का अवनतिकारक होता है। और जो जगत् के उपकारक विद्वान् लोग हैं उनके निर्वाहार्थ भी धनादि वस्तु देने चाहिएं, जिससे उन लोगों का समय अपने निर्वाह की चिन्ता में न जावे किन्तु वे लोग दिनरात जगत् के उपकार की चिन्ता में ही लगे रहें। और जो अनाथ वा अशक्त मनुष्य हैं उनका अन्नादि दान से भरण-पोषण करना दानधर्म ही है। जिस वस्तु के बिना जिस काल में धर्म की हानि प्रतीत होती है उस वस्तु का उस समय देना ही बड़ा कल्याणकारी है। तथा विद्यादान सब दानों में उत्तम है। अन्य दानधर्म यथाकाल वा यथायोग्य उत्तम, मध्यम समझे जाते हैं।

यदि किसी प्रकार विद्वान् धर्मात्मा लोगों का दान लिये बिना कार्य नहीं चलता वा लेना अवश्य पड़ता है तो जिनके यहां अधर्म वा अनेकों को पीड़ा पहुँचाकर धन आता हो वा जो अत्यन्त नीच प्रकृति वाले लोग हों उनसे दान न लेवें क्योंकि ऐसों से लेना पाप है। परन्तु दुष्ट, नीचप्रकृति, अधर्मी और कुटिलों से भी धन लेकर अपने उपयोग में न लगावे और सर्वसाधारण के उपयोगी यज्ञादि काम में लगा देवे तो दान लेने वाले को पाप नहीं किन्तु पुण्य ही है।

और कर्मकाण्ड कराने अर्थात् विवाह-यज्ञोपवीतादि संस्कार कराने वाले को जो दक्षिणा दी जाती है, वह दान के अन्तर्गत नहीं गिनी जायेगी क्योंकि वह परिश्रम का बदला [मेहनताना] है, उसका लेने वाला भी वैसा निकृष्ट नहीं समझा जाता किन्तु दान वही है जिससे अपना कुछ भी उपकार न हुआ हो, उसको धर्मबुद्धि से दिया जावे। धर्म के सब अंशों में दानधर्म प्रधान अवयव है। श्रीमानों को तो प्रतिदिन निस्सन्देह दानधर्म का सेवन करना चाहिये क्योंकि वे लोग शरीर से धर्म का सेवन नहीं कर सकते अर्थात् धनी लोग प्रायः सुकुमार होते और धन के लेन-देन आदि व्यापार में उनका चित्त बंधा रहता है। ऐसा मानकर ही महाभारत के उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘दो पुरुषों को गले में पत्थर की शिला बांधकर जल में डुबा देना चाहिये, एक तो धनी होकर जो दान नहीं करता, द्वितीय दरिद्र होकर जो शरीर से तप नहीं करता।’१ जन्मान्तर में दानधर्म का जो फल है वह तो है ही किन्तु प्रत्यक्ष दशा में भी दान का बड़ा फल है। प्रायः जो दानधर्म का सेवन करने वाला है, उस पुरुष के जगत् में शत्रु नहीं होते, किन्तु मित्र सदा बढ़ते हैं। और दान करते हुए मनुष्य का सदा उत्साह बढ़ता, चित्त प्रसन्न वा सन्तुष्ट होता है, और चित्त के प्रसन्न होने से सब दुःखों का विनाश और सब सुखों की प्राप्ति होती है। इससे धर्मशास्त्र के अनुकूल सबको दान का सेवन करना चाहिये। भाष्य में विशेष व्याख्यान होगा, वहीं देखना चाहिये। तथा वहीं दान के अनधिकारी भी गिनाये जायेंगे।