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कर्म फल की समस्या

कर्म फल की समस्या

– श्री पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

(स्थूल रूप में तो कर्म फल व्यवस्था को प्रायः सभी मानते हैं, परन्तु सूक्ष्म रूप में चिन्तन करते समय विषय की स्पष्टता कई बार कुछ लोगों को अस्पष्ट-सी लगने लगती है, धुंधली पड़ जाती है। आर्य समाज की पुरानी पीढ़ी के मौलिक चिन्तक, विचारक एवं विद्वान् श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का इस विषय में एक उपयोगी एवं प्रासांगिक लेख पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है – समपादक)

कर्म फल की समस्या समस्त धार्मिक समस्याओं में विकटतम समझी जाती है। यह इतनी जटिल है कि बहुतों ने अपना पीछा छुड़ाने के लिए इसके मानने से इन्कार कर दिया है। ईसाई और मुसलमान भारतीयों के पुनर्जन्मवाद पर व्यङ्ग उड़ाते हुए, इसको कर्म फल की भूल-भुलइयाँ बताया करते हैं। वह समझते हैं कि इस व्यंग से वह समस्या की जटिलता से बच सकेंगे। जो लोग पुनर्जन्म को मानते हैं, उनके सिद्धान्त भी भिन्न-भिन्न हैं। हम देखते हैं कि बहुत से लोगो ंने इस विषय में अपने-अपने सिद्धान्तों की कल्पना कर ली है। ये कल्पनाऐं आगे चल कर कितनी आपत्तियाँ उत्पन्न कर देती हैं। इसका अनुभव वही लोग कर सकते हैं जिन्होंने समस्याओं के मूल तक पहुँचने का श्रम उठाया हो, यों तो मन को सान्त्वना सभी दे लेते हैं, परन्तु यह सान्त्वना स्थिर होनी चाहिए। क्षणिक सान्त्वना से कुछ काम नहीं चलता और प्रायः यह भ्रान्ति-मूलक तथा व्यवहार अवस्था में दुखदायी होती है। हम बहुत से अकर्त्तव्य कर्म इसीलिए कर बैठते हैं, या कर्त्तव्य कर्मों से जी चुराते हैं कि हमको कर्म और फल की समस्याओं का उचित ज्ञान नहीं।

पहला प्रश्न यह है कि कर्म फल की समस्या का विचार कहाँ से आरमभ किया जाए, जब तक आरमभ बिन्दु (starting point) निश्चित न हो जाए, उस समय तक हम अवश्य ही भूल भुलइयों में पड़े रहेंगे और किसी निश्चित परिणाम पर न पहुँच सकेंगे।

जिन लोगों ने कर्म फलवाद के सिद्धान्तों से इनकार कर दिया है और जो इस सिद्धान्त को मानते हैं, उनमें क्या कोई सादृश्या भी  है।

थोडी देर उनके भावों का विश्लेषण कीजिए। कर्म फलवाद का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक को दुःख और सुख अपने कर्मों द्वारा मिले। जो जैसा करे वह वैसा पावे। यह सिद्धान्त सभी लोगों को अभिमत है। यदि इससे सर्वथा इन्कार कर दिया जाए, तो संसार का कोई काम न चले। किसी पुरुष को यह सह्य नहीं है कि वह काम करे और उसका उसको फल न मिले या दूसरा आदमी काम न करे और उसको फल मिल जाए।

किसी स्कूल के विद्यार्थियों से पूछो, परीक्षा का समय है प्रश्न-पत्र हाथ में है, सभी उसको हल करने का यत्न कर रहे हैं। क्यों? इसलिए कि जो सबसे अच्छा पर्चा करेगा उसको सबसे अधिक अंक मिलेंगे। उसकी सबसे अधिक कीर्ति होगी। कल्पना कीजिए कि मोहन ने सबसे अच्छा पर्चा किया और सोहन ने सबसे बुरा। अब अगर मोहन को सबसे कम नबर मिलें और सोहन को सबसे अधिक तो इसका क्या परिणाम होगा। सोहन को हर्ष अवश्य होगा, परन्तु मोहन के जी से पूछो! मोहन कहेगा, ‘‘इस अन्धेर नगरी में रहने से क्या लाभ जिसमें टके सेर भाजी ले लो या टके सेर खाजा। मैं क्यों श्रम करूं जब मुझे कुछ नहीं मिलना।’’ सोहन की यह खुशी भी क्षणिक ही होगी। क्योंकि सोहन यह समझेगा कि बिना परिश्रम के मुझे नबर मिल सकते हैं अतः मुझे श्रम करने की क्या आवश्यकता थी। ऐसी व्यवस्था न तो अध्यापकों को सह्य होगी और न विद्यार्थियों को।

किसी कारखाने को लीजिए। एक अध्यक्ष के अधीन सैकड़ों आदमी काम करते हैं उनकी योग्यता, बुद्धि तथा श्रम के अनुकूल उनको वेतन दिया जाता है, जो अधिक योग्यता का कार्य करते हैं उनको अधिक रुपया मिलता है। जो अति साधारण कार्य करते हैं उनको वेतन भी अल्प होता है। यदि किसी कारखाने का अध्यक्ष इसके विपरीत करने लगे और अकर्मण्य को अधिक वेतन और परिश्रमशील को कम दे तो सभी कार्य-कर्त्ता निरुत्साह हो जाएँ और असन्तोष की आग कारखाने को शीघ्र ही भस्म कर दे।

किसी राज्य पर दृष्टि डलिए। राज्य क्या है! एक बड़ा भारी कारखाना है। जिसमें भिन्न-भिन्न योग्यता के भिन्न-भिन्न मनुष्य कार्य कर रहे हैं और अपने-अपने कर्मों के अनुकूल फल पा रहे हैं, सबसे उल्लंघन होता है और इस नियम की अधिक उच्छृंखलता ही उस राज्य की अधोगति का चिन्ह है।

ये तीन दृष्टान्त विद्याथियों, कारखानों और राज्य के जो हमने यहां दिए कर्मफलवाद के मानने वालों और न मानने वालों दोनों में समान ही हैं। अर्थात् इतना कर्मफलवाद सभी को माननीय है। अन्य पारलौकिक सिद्धान्त चाहे कुछ भी क्यों न हो।

यह सिद्धान्त इतना सर्वतन्त्र क्यों है? क्या कारण है कि इस सिद्धान्त से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता? शायद आप कहें कि कुछ लोग इसके विरोधी हैं। नवुयग का जो दल सामयवादी कहलाता है, वह योग्यता और श्रम पर विचार नहीं करता। वह चाहता है कि संसार के सभी मनुष्य समान सुख और समपत्ति को भोग सकें, परन्तु सामयवादी भी वस्तुतः इतने सामयवादी नहीं है कि वह कर्मफल के बन्धन को तिलांजलि दे दें। वह केवल अन्धेर नगरी को मिटाना चाहते हैं। कभी-कभी समाज इतना पतित हो जाता है कि निठल्ले लोग हलवा खाते हैं और श्रमशील भूखों मरते हैं। जब यह बात पराकाष्ठा को पहुँच जाती है तो एक समय आता है कि समाज में उसके प्रति घृणा उत्पन्न होकर सामयवाद की लहर चलती है। जहाँ-जहाँ ऐसी क्रान्ति करने की आावश्यकता पड़ी है, वहाँ वस्तुतः कर्मफल के बन्धनों से लोग मुक्त हो चुके थे। यह क्रान्ति उन बन्धनों को फिर से स्थापना के लिए ही हुई।

इससे यह सिद्ध हो गया कि यह सर्वतन्त्र ही है। कोई इससे इन्कार नहीं कर सकता। सर्वतन्त्रता बताती है कि यह सिद्धान्त सर्वव्यापी भी होना चाहिए। यह मेरे या आपके या किसी एक मनुष्य समूह के मस्तिष्क की उपज होता तो कोई न कोई तो उसका विरोधी अवश्य ही मिलता, परन्तु ऐसा नहीं है। इससे हम कह सकते हैं, कि वे नियम प्राकृतिक या अपौरुषेय हैं, मनुष्य की गढन्त नहीं।

अगर हम यह मान लें कि जैसा करेंगे वैसा ही, भोगेंगे तो यह भी मानना आवश्यक ही है जैसा भोग रहे हैं वैसा ही किया होगा, जो आज की अपेक्षा भविष्य है वह कल की अपेक्षा वर्तमान या भूत हो जायेगा और जो आज वर्तमान या भूत है, वह कुछ दिन पहले अवश्य ही भविष्य रहा होगा। यह कल्पना नहीं किन्तु अकाट्य युक्ति है जिसका खण्डन हो ही नहीं सकता।

मैं इस पिछली बात को और अधिक स्पष्ट कर दूं। हर एक ईसाई और मुसलमान को पुनर्जन्म या कर्मफलवाद मान्य नहीं। वह मानता है कि यदि धर्म के अनुकूल चलोगे, तो भविष्य में आनन्द या स्वर्ग मिलेगा और यदि अधर्म पर चलोगे तो दुःख या नरक भोगोगे। यह क्यों? इसलिए ‘‘जैसा बोवोगे वैसा काटोगे’’ का सिद्धान्त उसको अभिमत है। यदि वह ऐसा न मानें तो अपने धर्म का उपदेश क्यों करे? यदि उसके बताए हुए धर्म पर न चलने से भी सुख या स्वर्ग मिल सकता है तो उसके उपदेशों से क्या लाभ?् यह रही भविष्य की बात, परन्तु किसी ईसाई या मुसलमान  से पूछो कि तुमहारा वर्तमान अगर अभी भविष्य हो जाएगा तो क्या तुमहारा यह वर्तमान किसी भूतकाल का भविष्य न रहा होगा अर्थात् यदि आज के धार्मिक कृत्य अगले सुख का कारण हो सकते हैं तो आज के सुख किसी पिछले कर्म का फल क्यों न होंगे? या तो यह मानों कि  हमारा यह वर्तमान ऐसा वर्तमान है, जिसका भूतकाल है ही नहीं और यदि इसका कोई भी भूतकाल है, तो इन वर्तमान सुख या दुःखों का कारण अवश्य रहा होगा।

अब विचार कीजिए। आप यह मानते हैं कि हमारे आने वाले सुख या दुखों का कारण हमीं होंगे, दूसरा कोई नहीं, यदि दूसरा हो तो हम अपने कर्म में स्वाधीन नहीं। हम तो परतन्त्र हो गए। कैसे? सभवतः आप नहीं समझे, फिर सोचिए। यदि मेरे सुखों का कारण दूसरे किसी व्यक्ति के कर्म हो सकते हैं, तो मेरा सर्वस्व उस व्यक्ति के अधीन हो गया। मैं क्या कर सकता हूँ? मुझे तो उसका ही मुख ताकना चाहिए। क्योंकि जैसा वह करेगा वैसा पाऊँगा। क्या यह कर्म की स्वतन्त्रता है? कदापि नहीं, मैँ तो उसी के आश्रय हो गया जिसके कर्मों से मुझे फल मिलेगा। कल्पना कीजिए कि पिता के कर्मों का फल पुत्र के सुख या दुःख का कारण होता है। तो पुत्र अपने कर्मों में स्वतन्त्र कैसे रहा? वह तो पिता की इच्छा के अधीन हो गया। पिता चाहे तो उसके लिए दुःख का सामान कर दे और चाहे सुख का।

कुछ लोग आसानी के लिए यह मान बैठते हैं कि हमारे कुछ सुख और दुःख का कारण हमारे कर्म हैं और कुछ का हमारे पिता के कर्म, परन्तु यदि यह नियम मान लिया जाए तो यह प्रश्न उठेगा कि अपने कर्म गौण या पिता के कर्म या दोनों की प्रतिष्ठा समान रूप से है। यदि एक के कर्मों को गौण और दूसरे के कर्मों को मुखय माना जाए तो कोई व्यवस्था न बन सकेगी क्योंकि गौणता और मुखयता के लक्षण करने के लिए किसी तीसरी निरपेक्ष वस्तु की आवश्यकता होगी। समान रूप मानने का कोई अर्थ ही नहीं। क्या पिता और पुत्र के कर्म का एक ही मूल्य है और यदि है तो क्यों? सारांश यह है कि इस सिद्धान्त के मानने में इतनी आपत्तियाँ हैं कि हम को इससे कुछ भी शान्ति नहीं मिल सकती।

अच्छा तो यह मान ही लेना पड़ा कि हमारे वर्तमान अच्छे या बुरे कर्मों का फल आगे के सुख या दुःख के रूप में मिलेगा। अब प्रश्न रहा वर्तमान के सुख और दुःख का। यह सुख और दुःख हम भोग रहे हैं हमारे ही कर्मों का फल होना चाहिए। न्याय दर्शन में कहा भी हैः-

पूर्वकृतफलानुबन्धात् तदुत्पत्तिः।। (3-2-60)

अर्थात् पहले किये हुये कर्मों के फल से शरीर आदि की उत्पत्ति होती है।

हम जब से उत्पन्न होते हैं उसी समय से दुःख या सुख हमको होते रहते हैं।