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Advaitwaad Khandan Series 1 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

स्वप्न की मीमांसा और उसका शांकर  मत में स्थान!

शास्त्रकारों ने जीव की पाँच अवस्थायें मानी हैं, जागृत, स्वप्न, सुशुप्ति, तुरीय और मोक्ष। इनके अतिरिक्त छठी अवस्था अभी तक कल्पना में नहीं आई। तुरीय या समाधि अवस्था केवल योगियों को प्राप्त है। मोक्ष संसारित्व से परे की चीज है। परन्तु षेश तीन अवस्थाओं से सभी प्राणी भली भांति परिचित हैं। जागना, स्वप्न देखना और गहरी नींद सोना।

विज्ञानवेत्ताओं के लिये जागृत अवस्था ही सब कुछ है। उनका विशय है ब्राह्य जगत्। ब्राह्य जगत् का सम्बन्ध है प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षाश्रित प्रमाणों द्वारा सिद्ध हुये अनुभवों से। सांसारिक समस्त व्यवहार इन्हीं से चलते हें। भौतिकी, रसायन, जीव-षास्त्र, इतिहास, भूगोल, खगोल, गणित, समाजषास्त्र, प्रजननषास्त्र, अर्थषास्त्र, संगीत, कला, चित्रण सभी जागृत अवस्था के अनुभवों के आश्रित हैं। परन्तु मनोविज्ञान एक ऐसा षास्त्र है जिसका विशय-क्षेत्र जागृत अवस्था से चलकर स्वप्न और सुशुप्ति तक विस्तृत है। वैद्यक-षास्त्र का भी स्वप्न और सुशुप्ति से घनिश्ठ सबन्ध है। क्योंकि स्वस्थ मनुश्य को मीठी नींद आती है। बीमार को या तो नींद नहीं आती, या सोते ही वह स्वप्न देखने लगता है। औशध द्वारा सुशुप्ति से भी गहरी अचेतना उत्पन्न कर देते है। वह और सब बातों में सुशुप्ति ही है परन्तु सुशुप्त को साधारण आघात से जगा सकते हैं औशध द्वारा मुर्छित को नहीं।

परन्तु दार्षनिक जगत में ‘स्वप्न’ को बहुत ही उच्च स्थान प्राप्त है। उसके द्वारा मूल तत्व की खोज की जाती है। किसी किसी दार्षनिक सम्प्रदाय के लिये तो स्वप्न जागृत आदि समस्त अनुभवों की कुंजी है। या यों कहना चाहिये कि तत्त्व एक विषाल दुर्गम है। उसमें एक बड़ा ताला पड़ा है और स्वप्न उस ताले की ताली है। वह आरम्भ ही स्वप्न से करते हैं। केवल इतना वैचित्र्य है कि यह अनुभव जागृत अवस्था में संयोजित किये जाते, जागृत अवस्था में उनकी मीमांसा की जाती, जागृत अवस्था में उनको लिखा ओर प्रकाषित किया जाता, जागृत अवस्था में उनपर व्याख्यान दिये जात हैं। इसी वैचित्र्य के आक्षेप से बचने के लिये कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हम जागते नहीं, सोते हैं, यह संसार स्वप्नवत् है। उपमान उपमेय से बड़ा होता है। जिस तराजू में किसी वस्तु को तोलते हैं वह वस्तु तराजू से छोटी होती है। ”स्वप्नवत् संसार“ में संसार उपमेय है और स्वप्न उपमान। स्वप्न बड़ा हुआ। स्वप्न को आदर्ष मान कर हम जागृत की बात की जांच करते हैं।

क्या यह ठीक है? कौन कहे? कैसे कहे?

श्री गौडपादाचार्य जी लिखते हैं:-

स्वप्न जागरितस्थाने ह्ये कमाहुर्मनीशिणः।

भेदानां हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना।।

(कारिका 2।5)

बुद्धिमान लोग स्वप्न और जागृत अवस्थाओं को एक ही बताते हैं। भेदों के प्रसिद्ध समत्व (सदृष्य) के कारण।

सर राधाकृश्णन् लिखते हैं:-

ळंदकंचंक नतहमे जींज कतमंउ मगचमतपमदबमे ंतम वद ं चंत ूपजी जीम ूंापदह वदमेण् प् िजीम कतमंउ ेजंजमे कव दवज पिज पदजव जीम बवदजमगज व िजीम हमदमतंस मगचमतपमदबम व िवनत मिससवू उमद वत व िवनत दवतउंस मगचमतपमदबमए पज उनेज इम नदकमतेजववक जींज पज पे दवज इमबंनेम जीमल ंिसस ेीवतज व िंइेवसनजम तमंसपजलए इनज इमबंनेम जीमल कव दवज बवदवितउ जव वनत बवदअमदजपवदंस ेजंदकंतकेण् ज्ीमल बवदेजपजनजम ं ेमचंतंजम बसंेे व िमगचमतपमदबमे ंदकए ूपजीपद जीमपत वतकमतए जीमल ंतम बवीमतमदजण् ज्ीम ूंजमत पद जीम कतमंउ बंद ुनमदबी जीम तमंस जीपतेज पे पततमसमअंदजण् ज्व ेंल ेव पे जव ंेेनउम जींज ूंापदह मगचमतपमदबम पे तमंस पद पज ेमस िंदक पे जीम वदम तमंसण् ज्ीम जूव ूंापदह – कतमंउ ेजंजमे ंतम मुनंससल तमंस ूपजीपद जीमपत वूद वतकमते वत मुनंससल नदतमंस पद ंद ंइेवसनजम ेमदेमण् ळंदकंचंक तमबवहदप्रमे जींज जीम वइरमबजे व िूंापदह मगचमतपमदबम ंतम बवउउवद जव ने ंससए ूीपसम जीवेम व िकतमंउे ंतम जीम चतपअंजम चतवचमतजल व िजीम कतमंउमतण् ल्मे ीम ेंलेण् श्।े पद कतमंउए ेव पद ूंापदहए जीम वइरमबजे ेममद ंतम नदतमंसण्श्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ण् 454द्ध

गौड़पादाचार्य का आग्रह है कि स्वप्न-प्रत्यय जागृत-प्रत्ययों के तुल्य हैं। यदि स्वप्न के प्रत्यय हमारे साथियों के साधारण अनुभवों या हमारे सामान्य प्रत्ययों से मेल नहीं खाते तो यह नहीं समझना चाहिये कि स्वप्न-प्रत्ययों की तथ्यता में कोई त्रुटि है। बात यह है कि वे हमारे कल्पित मानों (पैमानों) से तोले नहीं जा सकते। इन प्रत्ययों की कोटि ही अलग है। और अपनी कक्षा में समन्वित हैं। स्वप्न में देखा हुआ जल स्वप्ननुभूत प्यास को बुझा सकता है। यह कहना प्रसंग के विरूद्ध है कि वह जागृत की असली प्यास को नहीं बुझा सकता। ऐसा कहने का अर्थ यह है कि हमने मान लिया है कि जागृत-प्रत्यय ही तात्विक हैं और इन के अतिरिक्त कोई अन्य प्रत्यय तात्विक नहीं। जागृत और स्वप्न अपनी अपनी कक्षाओं में एक से ही सत्य या एक से ही असत्य है ओर पारमार्थिक हम सब के समान हैं। परन्तु स्वप्न के प्रत्यय स्वप्न देखने वाले की निज की जायदाद हैं। उनका कहना है:-

यथातत्र तथा स्वप्नं संवृतत्वेन भिद्यते।          (कारिका 2।4)

‘जैसे जागृत में, वैसे स्वप्न में चीजें अतथ्य हैं।’

श्री राधाकृश्णन् जी ने दो पाष्चात्य विद्वानों के वचन इसी सम्बन्ध में टिप्पणी में दिये हैं:-

श्ॅीमद प् बवदेपकमत जीम उंजजमत बंतमनिससलए प् कव दवज पिदक ं ेपदहसम बींतंबजमतपेजपब इल उमंदे व िूीपबी प् बंद बमतजंपदसल कमजमतउपदम ूीमजीमत प् कतमंउण् ज्ीम अपेपवदे व िं कतमंउ – जीम मगचमतपमदबमे व िउल ूंापदह ेजंजमे ंतम ेव उनबी ंसपाम जींज प् ंउ बवउचसमजमसल चन्र्रसमक ंदक प् कव दवज तमंससल ादवू जींज प् ंउ दवज कतमंउपदह ंज जीपे उवउमदजण्श्

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डिकार्टे कहता है कि

”जब मैं सावधानी से विचार करता हूँ तो मुझे कोई एक भी विषेशता ऐसी नहीं प्रतीत होती जिससे मै निष्चय-पूर्वक जान सकूँ कि मैं जागता हूँ या स्वप्न देख रहा हूँ। स्वप्न के दृष्य और जागृत अवस्था के प्रत्यय एक दूसरे के इतने समान हैं कि मैं सर्वथा असमजस्य में जड़ जाता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता कि मैं इस घड़ी स्वप्न नहीं देख रहा।“

श्च्ंेबंस पे तपहीज ूीमद ीम ंेेमतजे जींज प िजीम ेंउम कतमंउ बंउम जव ने मअमतल दपहीज ूम ेीवनसक इम रनेज ंे उनेज वबबनचपमक इल पज ंे इल जीम जपदहे ूीपबी ूम ेमम मअमतल कंलण् ज्व ुनवजम ीपे ूवतकेरू प् िंद ंतजपेंद ूमतम बमतजंपद जींज ीम ूवनसक कतमंउ मअमतल दपहीज वित निससल जूमसअम ीवनते जींज ीम ूंे ं ापदहए प् इमसपमअम जींज ीम ूवनसक ीम रनेज ंे ींचचल ंे ं ापदह ूीव कतमंउे मअमतल दपहीज वित जूमसअम ीवनते जींज ीम पे ंद ंतजपेंदण्श्

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पास्कल का कथन है कि यदि प्रत्येक रात्रि को हमको एक से ही स्वप्न हुआ करें तो हम उनमें भी उतने ही संलग्न रहे जैसे उन चीजों में जिनको हम प्रतिदिन देखते हैं। पास्कल के षब्द ये हैं, ”यदि किसी मजदूर को यह निष्चय हो जाये कि मैं हर रात्रि को पूरा 12 घंटे यह स्वप्न देखूगाँ कि मैं राजा हूँ जो उसको उतनी ही प्रसन्नता होगी जितनी उस राजा को जो हर रात को बारह घंटे यह स्वप्न देखता है कि मैं मज़दूर हूँ।“

इन कथनों की परीक्षा करने से पूर्व सब से पहले हमको यह देखना है कि क्या स्वप्न-प्रत्यय बिना किसी परस्पर सम्बन्ध के एक दूसरे से स्वतंत्र है। अथवा उनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध है।

सर्वथा असंबद्ध तो प्रतीत नहीं होते। क्योंकि प्रथम तो हमको स्वप्न की स्मृति जागृति में रहती है। हम कहते है ”रात हमने अमुक स्वप्न देखा।“ यदि जागृत और स्वप्न सर्वथा भिन्न और असम्बद्ध अवस्थायें होतीं तो जागृति में स्वप्न की स्मृति न होनी चाहिये थी। दूसरे यह कि हम उन्हीं चीजों का स्वप्न देखते हैं जिनका जागृति में अनुभव के आधार पर की हुई कल्पनाओं में सम्भव है। तीसरे स्वप्न के कतिपय भीशण प्रत्ययों का प्रभाव जागने पर षेश रहता है। जैसे स्वप्न में देखा कि हम किसी ऊँचे स्थान से गिर पड़े। उससे दिल धड़कने लगा। यह दिल की धड़कन जागने पर भी स्पश्ट प्रतीत होती है। एक पुरूश के लिये कहा जाता है कि उसने स्वप्न में देखा कि सीढ़ी से गिर कर उसकी हड्डी टूट गई। उस दिन से यद्यपि उसकी हड्डी ठीक है उसके पैर में दर्द हुआ करता है। इसीलिये यह कहना कि इन दोनों अवस्थाओं का क्षेत्र सर्वथा अलग हैं ठीक नहीं है। यह ठीक है कि स्वप्न-दृश्ट जल से स्वप्ननुभूत प्यास बुझ जाती हे। परन्तु इसका क्या कारण है कि स्वप्न की प्यास भी जागृत के समान हो और जागृत के समान जल से ही जागृत के समान उपाय द्वारा बुझती हो। जागृत और स्वप्न में यह समानता

;च्ंतंससमसपेउद्ध क्यों हैं?

इसका एकमात्र उत्तर यह है कि स्वप्न और जागृत का द्रश्टा तो एक ही है। जिसको आत्मा कहते हैं। इसी की यह दो अवस्थायें हैं। मूल वही है। यह उत्तर ही ठीक है। इससे आत्मा की सिद्धि होती है। इससे पाया जाता है कि क्षण क्षण पर बदलने वाले प्रत्ययों के मूल में एक सत्ता है जिसको यह भिन्न प्रत्यय हुआ करते है।

परन्तु इससे स्वप्न और जागृति के परस्पर सम्बन्ध पर प्रकाष नहीं पड़ता। यदि स्वप्न और जागृति के प्रत्यय सर्वथा स्वतन्त्र हैं जैसा कि डिकार्टे का कथन है और यदि वे समकक्ष है तो स्वभावतः यह प्रष्न उठेगा कि या तो यह दोनों सत्य हैं या दोनों असत्य। यहाँ प्रष्न करने में कुछ अनिष्चिता है। प्रष्न का स्वरूप समझ लेने पर ही उसक पर विचार किया जा सकता है। सत्यता और असत्यता का क्या अर्थ हैं। मैंने स्वप्न देखा कि एक मक्खी की टाँग पर एक हाथी बैठा हुआ है और मैं उस पर सवार हूँ। ऐसा स्वप्न देखना असम्भव नहीं है। अब प्रष्न यह है कि क्या स्वप्न मिथ्या है। मैंने देखा है। मुझे याद है। मैं झूठ नहीं बोलता। मेरी स्वप्न के विशय में रिपोर्ट ठीक हैं। मैंने अपनी ओर से बनावट नहीं की। अतः स्पश्ट है कि यह स्वप्न के रूप में सत्य है। यह उसी प्रकार सत्य है जैसे मेरा सूरज को देख कर उस अनुभव का कथन करना। मिथ्या बोलने वाले जागृति के प्रत्ययों को भी अन्यथा कह सकते हैं और स्वप्न के प्रत्ययों को भी। उनके कथन हमारी मीमांसा के प्रसंग से बाहर हैं। परन्तु जब हम प्रष्न करते हैं कि स्वप्न मिथ्या है या सत्य तो हमारे प्रष्न का तात्पर्य है या अन्यथा। मैंने स्वप्न में देखा कि मेरे द्वार पर दो पुरूश लड़ रहे हैं। मैं जाग पड़ा, द्वार पर कोई न पाया गया। ऐसी दषा में मैं कहूँगा कि मेरा स्वप्न असत्य था। जागृत अवस्था में मैंने सुना कि द्वार पर कोई आवाज दे रहा है। जाकर देखा तो एक मनुश्य को बुलाते हुये पाया। मैंने कहा मेरा जागृत-प्रत्यय ठीक है। यदि न पाया तो कहूँगा कि षायद सुनने में कोई भ्रान्ति हो गई है। ऐसी भ्रान्तियाँ जागृत में बहुधा हुआ करती हैं।

आचार्य गौड़पाद का कहना है कि यदि स्वप्न के प्रत्ययों और जागृति के प्रत्ययों को बाहरी चीजों की अपेक्षा से देखना छोड़ दो तो दोनों सत्य हैं परन्तु यदि उनकी सत्यता को बाह्य पदार्थाें की अपेक्षा से तोलना चाहते हो तो दोनों आसत्य है। स्वप्न में द्वार पर बुलाने वाले को यदि तुम स्वप्न में देखते तो उसे द्वार पर खड़ा पाते। तुमको क्या अधिकार है कि स्वप्न में बुलाने वाले को जागृत में देखो और जागृति की तराजू से तोल कर निर्णय करो कि स्वप्न झूठा है? वह एक पग और आगे जाते है। वह कहते हैंः-

”जैसे स्वप्न को तुम मिथ्या कहते हो उसी प्रकार जागृति के प्रत्ययों को भी मिथ्या कहना चाहिये। क्योंकि दोनों एक से हैं।“

यदि ऐसा कहे तो किसी बाह्य पदार्थ की सिद्धि नहीं होती। जिस सूर्य को हम जागृति में देखते हैं वह सूर्य है नही। भासता है। कैसे? जैसे स्वप्न का सूर्य था नहीं। केवल भासता था।

यहाँ दृश्टि-कोण में भेद हो गया। हमने स्वप्न के प्रत्ययों को जागृति की तराजू से तोला और आचार्य गौड़पाद ने जागृति के प्रत्ययों को स्वप्न की तराजू से। एक और भेद हुआ। उसको भूलना नहीं चाहिये। हम तो तोलने का काम जागृति में कर रहे थे अतः जागृति की तराजू हमारे पास थी। श्री गौड़पादाचार्य जी जागृत हुए स्वप्न की तराजू से तोल रहे है। प्रष्न यह है कि इनके पास स्वप्न की तराजू कहाँ से आ गई? अभी स्मृति का प्रष्न अलग है क्योंकि स्मृति की स्वयं परीक्षा होनी है।

इसलिये यह कहना कि

ज्ीमल कव दवज बवदवितउ जव वनत बवदअमदजपवदंस ेजंदकंतकेण्

”वे हमारे कल्पित मानों के अनुकूल नहीं है“ ग़लत है। हमारी तराजू को कल्पित बताना, अपनी को वास्तविक, सर्वथा अनुचित है।

डीकार्टे के समान प्रत्येक पुरूश कभी-कभी असमंजस में पड़ सकता है कि वह जाग रहा है या स्वप्न देख रहा है। अभी मैं भूखों चिल्ला रहा था। मेरे पास पाई तक न थी। थोड़ी देर में मेरे तकिये के नीचे से अचानक एक लाख का नोट निकला। ऐसी विभिन्नता को देखकर मुझे संदेह होगा कि मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा। परन्तु यह संदेह ही स्वप्न के स्वरूप को भी बताता हैं। अर्थात् संदेह वहीं होता हे जहाँ विलक्षण हो। इस विलक्षणता का पूरा पूरा ज्ञान हो जाय तो स्वप्न और जागृति की पहचान होने में कोई कठिनता नहीं होती। इस विलक्षणता को पकड़ लेना और उसको उचित षब्दों में प्रकट करना ही आगे की मीमांसा में सहायक हो सकता है। शंकराचार्य जी ने इसको इन षब्दों में व्यक्त किया है:-

वैधम्र्याच्च न स्वप्नादिवत्।।

(वेदान्त 2।2।29)

(1) यदुक्तं बाह्यार्थापलायिना स्वप्नादि-प्रत्ययवज् जागरित-गोचरा अपि स्तम्भादि प्रत्यया विनैब बाह्येनर्थेन भवेयुः प्रत्ययत्वा-विषेशादिति। तत् प्रतिवक्तव्यम्।           (पृ॰ 250)

बाह्य पदार्थो की सत्ता न मानने वाले कहते हें कि जैसे स्वप्न के प्रत्यय बिना बाहरी पदार्थों के होते हैं उसी प्रकार जागृति के प्रत्यय भी खंभे आदि बिना बाहरी पदार्थों के होंगे। क्योंकि इन प्रत्ययों में तो कोई विषेशता नहीं हैं। ;नोट-डिकोर्ट ने भी यही कहा था- ज्ीम अपेपवदे व िं कतमंउ – जीम मगचमतपमदबम व िउल ूंापदह ेजंजम ंतम ेव उनबी ंसपाम मजबण्द्ध शंकर  स्वामी कहते हैं कि इस सिद्धान्त का खण्डन करना है।

(2) अत्रोच्यते-न स्वप्नादि प्रत्ययवज् जागªत्प्रत्यया भवितु महन्ति।

जागृति के प्रत्यय स्वप्न के समान नहीं हो सकते।

(3) क मात्?

क्यों?

(4) वैधम्र्यात्। वैधम्र्यंहि भवति स्वप्जागरितयोः।

समानधर्मी न हाने से। स्वप्न और जागृति एक से नहीं हैं।

(5) किं पुनर्वैध्म्र्यम्?

वह भिन्नता क्या हैं?

(6) बाधाबाधाविहि ब्रूमः-

हमारा कहना है कि बाध और अबाध।

(7) बाध्यते हि स्वप्नापलब्धं वस्तु प्रतिबुद्धस्य मिथ्या मयोपलब्धो महाजन समागम इति, न ह्यस्ति मम महाजन समागमो निद्रालग्नं तु मे मनो बभूव तेनैशा भ्रान्तिरूद्बभूवेति।

स्वप्न में देखी हुई वस्तु जागने पर मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं। जैसे मैंने स्वप्न में देखा कि अमुक बड़े आदमी से भेंट हुई, जागा तो ज्ञात हुआ कि कोई बड़ा आदमी नहीं है। मेरा मन नींद में था। इसी से ऐसी भ्रान्ति हो गई।

(8) एवं मायादिश्वपि भवति यथायथं बाधः।

जादू में भी ऐसी बाध होता है।

(9) नैवं जागरितोपलब्धं वस्तु स्तम्भादिकं कस्यांचिदप्यवस्थायां बाध्यते।

जागने में जो खंभे आदि देखे जाते है। उनका बाध किसी अवस्था में नहीं होता।

(षंा॰ भा॰ 2।2।29 पृश्ठ 250)

यह है विलक्षणता। जिसका विचार श्री गौड़पादाचार्य तथा अन्य विचारकों ने छोड़ दिया है। यह बाध अबाध नोट करने की चीज है। इनको नहीं भूलना चाहिये।

पास्कल के कथन में षंका का समाधान भी छिपा हुआ है। अनायास ही उनकी कलमसे निकल गया कि ”यदि वही स्वप्न सदा एक सा रहे तो उस पर भी विष्वास करना होगा।“ इस ‘यदि’ में ही तो समस्त रहस्य छिपा हुआ है। ‘एक सा’ होता कैसे? यदि ‘एक सा’ होता तो

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स्वप्न प्रत्ययों बाधितो जाग्रत् प्रत्ययष्वबाधितः।         (भामती)

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बाध न होता। यदि बाध न होता तो स्वप्न न होता। दूसरे षब्दों में यह कहेंगे कि यदि स्वप्न-प्रत्यय होते तो उन पर उसी भांति विष्वास कर लेते। कोई कारीगर हर रात को बारह घंटे राजा होने का स्वप्न नहीं देखता और न कोई राजा कारीगर होने का। श्री शंकर  स्वामी स्पश्ट कहते हैं कि मन सदा तो निद्रालग्न नहीं रह सकता। न भ्रान्ति ही सदा रहती है। भ्रान्ति वही है जिसका बाध हो सके। मेरे हाथ में पाँच उगलियाँ है। यदि अचानक छठी उँगली की प्रतीति हो उठे। और सावधानी से गिनने में पाँच ही उँगलियाँ निकले तो कहेंगे कि छठी उँगली की प्रतीति भ्रान्ति मात्र थी। परन्तु यदि इस क्षण के पष्चात् छठी उँगली की प्रतीति न केवल मुझको ही हो अपितु सबको तो कहेंगे कि किसी कारण छठी उँगली उत्पन्न हो गई हैं।

श्री गौड़पादाचार्य लिखते हैंः-

चित्तकालादि चेऽन्तस्तु द्वयकालाष्वये बहिः।

कल्पिता एव ते सर्वे विषेशोनान्यहेतुकः।।

(कारिका 2।14)

नान्यष्वित्तकालव्यतिरेकेण परिच्छेदकः कालो येशां ते चित्तकालः। कल्पना काल एवोपलभ्यन्त इत्यर्थः। द्वयकालाष्व भेदकाला अन्योन्यपरिच्छेद्याः।

(षां॰ भा॰)

चित्त मे उठने वाले भाव कल्पना काल भावी है और बाहर के पूर्वापर कालभावी। ये दोनों कल्पित है। कोई विषेशता उनमें नहीं। ‘द्वय काल’ का अर्थ है बहुकाल। इसी को सर राधाकृश्णन् कहते हैंः-

श्ज्ीम वइरमबजे व िूंापदह मगचमतपमदबम ंतम बवउउवद जव ने ंससए ूीपसम जीवेम व िकतमंउे ंतम जीम चतपअंजम चतवचमतजल व िजीम कतमंउमतण्श्

मैं समझता हूँ कि स्वप्न की पराधीनता दिखाने के लिये इतना पर्याप्त है। यदि मुझे अपनी आँखों के सामने साँप उड़ते हुए दिखाई देते है और मैं काँप-काँप कर चिल्ला रहा हँू और यदि मेरे आस-पास किसी अन्य को ऐसा प्रतीत नहीं होता तो इसमें मेरे मस्तिश्क का ही दोश है सब के मस्तिश्क का नहीं। इसी का नाम भ्रांति है। क्योंकि इसका बाध होता है, यही बाध स्वप्न के प्रत्ययों को मिथ्या सिद्ध करता है और जाग्रतत्ययों को सत्य।

श्री गौडंपादाचार्य का कथन है:-

स्वप्रमाये यथादृश्टे गन्धर्वनगरं यथा।

तथा विश्वमिद दृश्टं वेदान्तेशु विचक्षणैः।।

(कारिका 2।31)

जैसे स्वप्न, जादू तथा इन्द्र जाल आदि मिथ्या होते है उसी प्रकार बुद्धिमान् वेदान्ती सब विष्व को मिथ्या समझते है।

इसी को सर राधाकृश्णन् ने इस प्रकार व्यक्त किया है।

ॅम ंबबमचज जीम ूंापदह ूवतसक ंे वइरमबजपअमए दवज इमबंनेम ूम मगचमतपमदबम वजीमत चमवचसमष्े उमदजंस ेजंजमेए इनज इमबंनेम ूम ंबबमचज जीमपत जमेजपउवदलण्

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हम जाग्रत्प्रत्यय द्वारा सूचित संसार को बाहर उपस्थित मान लेते हे। इसलिये नहीं कि हमको दूसरे पुरूशों के मनोभावों को अनुभव है किन्तु केवल इसलिये तात्पर्य यह है कि हमने कल्पना कर ली है कि दूसरों का देखा हुआ ठीक ही होगा। इसीलिये विलक्षण बात देख कर हम उसको अपने मस्तिश्क की भ्रान्ति मान बैठते है। या जाग्रतप्रत्ययों से बाधित पाकर हम स्वप्न के प्रत्ययों को अतथ्य समझने लगते है।

परन्तु यदि हम अपने मस्तिश्क की वृत्तियों पर विचार करें तो हम को ऊपर के कथन से मतभेद करना पड़ता है। श्री शंकर  स्वामी कहते हैं-

नाभाव उपलब्धेः।

(वे॰ 2।2।28)

न खल्वभावो बाह्यास्यार्थस्याध्यवसतु षक्यते। कस्मात्। उपलब्धः। उपलभ्यते हि प्रति-प्रत्ययं बाह्याष्र्वः स्तम्भःकुड्यं। घटः पट इति।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 248)

अर्थात् हर एक जाग्रतत्प्रत्यय में केवल प्रत्यय ही नहीं है अपितु पदार्थ के बाहर होने का भी भाव है। मैं मेज देख रहा हूँ। इसका केवल यही अर्थ नहीं कि मेरे मन में मेज का ज्ञान है अपितु साथ में यह भी ज्ञान है कि ”मेज एक पदार्थ है जो बाहर है।“ अर्थात् मैं मेज के बाहर होने को केवल दूसरों की साक्षी द्वारा नहीं मानता। सब से बड़ी साक्षी मेरे अपने ज्ञान की है। यह मेरे मन की कल्पना नहीं है। यदि मैं चाहूँ कि यह मेज एक तेज घोड़ा बन जाय तो मैं उस पर सवार नहीं हो सकूँगा।

पूर्वपक्षः-ननु नाहमेवं ब्रवीमि न कंचिदर्थमुपलभ इति किं तूपलब्धि व्यतिरिक्तं नोपलभ इति ब्रवीमि।

(तदेव-सइपक)

मैं यह नहीं कहता कि मुझे किसी अर्थ का ज्ञान नहीं होता। मैं कहता हूँ कि ज्ञान से अतिरिक्त किसी बाहरी पदार्थ का ज्ञान नहीं होता।

षं॰ स्वा॰-बाढमेवं ब्रवीशि निग्ङ्कुषत्वात्ते तुण्डस्य। न तु युक्तयुपेतं ब्रवीशि। यत उपलब्धि व्यतिरेकोऽपि बलादर्थस्याभ्युपगन्तव्य उपलब्धेरेव। न हि कष्चिदुपलब्धिमेव स्तम्भः कुड्यं चेत्युपलभन्ते उपलब्धि विशयेत्वेनैव तु स्तम्भ कुड्यादीन् सर्वे लौकिका उपलभन्तें। अतष्चैवमेव सर्वे लौकिका उपलभन्ते यत् प्रत्याचक्षाणा अपि बाह्यार्थमेव व्याचक्षते यदन्तज्र्ञेयरूपं तद्वहिर्वदवभासते इति।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 248)

तुम्हारे मुँह में लगाम नहीं। तुम जो चाहे कहो। युक्तियुक्त तो नहीं कहते ज्ञान के स्वरूप से ही बाह्य पदार्थों की सिद्धि होती है। कोई दीवार या खंभे को केवल ज्ञान मात्र नहीं मानता अपितु ज्ञान का विशय मानता है। जो बाहर के पदार्थों का अस्तित्व नही भी मानते वे भी एक प्रकार से मानते ही हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि ये ‘बहिर्वत्’ बाहर के समान प्रतीत होते हैं, ‘वत्’ षब्द के प्रयोग से ही पता चल गया कि बाहरी कोई पदार्थ हैं जिनकी समानता ‘वत्’ षब्द द्वारा बताई गई।

पूर्व पक्षः-बाह्यास्यार्थस्यासंभवाद् बहिर्वदवभासते।

बाहर का पदार्थ असम्भव है। इसलिये कहा कि उस असम्भव के समान प्रतीत होता है। अर्थात् है नहीं।

पूर्व पक्ष- (1) नायं साधुरध्यवसायोंधतः प्रमाण प्रवृत्त्यप्रवृत्तिपूर्वचै संभवासंभवाववर्धायाविति न पुनः संभवासंभपपूर्विके प्रमाण प्रवृत्त्यप्रवृत्ती। यद्धि प्रत्यक्षादीनामन्य-तमेनापि प्रमाणोनोपलभ्यते तत् संभवति। यत् तु न केनचिदपि प्रमाणोन पलभ्यते तन्न संभवति।

अरे भाई सम्भव तो वही है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो। जो प्रमाणों से सिद्ध न हो वह असंभव। किसी पदार्थ की संभवता या असंभवता तो प्रमाणों की प्रवृत्ति अप्रवृत्ति के अनुसार ही होगी। अन्यथा नहीं।

(2) बहिरूपलब्धेष्च विशयस्य।

(षां॰ भा॰ 2।2।28 पृश्ठ 289)

पदार्थ का ज्ञान तो बाहर होता है। अर्थात् हमारे ज्ञान का यह भी अंग है कि पदार्थ बाहर हैं।

यहाँ एक षंका हो सकती है। वह यह कि स्वप्न में भी तो जो ज्ञान होता है वह बाहर ही होता है। हम स्वप्न में षेर देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि षेर हमारे सामने बाहर खड़ा है। परन्तु होता नहीें। इसलिये जागृत में भी वैसा ही समझना चाहिये।

यह एक मुख्य प्रष्न है और इस पर सावधानी से विचार करना चाहिये। इसमें देखने के कारण पर विचार करना होगा अर्थात् स्वप्न क्यों होते हैं।

स्मृतिरेशा। यत् स्वप्नदर्षनम्। उप्लब्धिस्तु जागरित दर्षनम्। स्मृत्युपलब्धयोष्व प्रत्यक्षमन्तर स्वयमनुभूयतेऽर्थविप्रयोगसंप्रयोगात्मकमिश्टं पुत्रं स्मरामि। नोपलभ उपलब्धुमिच्छामीति। तत्रैवंसति न षक्यते वक्तु मिथ्या जागरितोपलब्धि रूपलब्धित्वात् स्वप्नोपलब्धिवत् इति उभयोरन्तरं स्वयमनुमवता।

(षां॰ भा॰ 2।2।29 पृश्ठ 250)

स्वप्न में तो मनुश्य स्मृत पदार्थों को ही देखता है। जागते में वास्तविक ज्ञान होता है। याद में और प्रत्यक्ष में तो स्पश्ट भेद है। प्रत्यक्ष में पदार्थ होता है। याद में नहीं होता। जब कहता हूँ कि पुत्र की याद आ रही है तो आषय यह है कि पुत्र है नहीं। उसको देखना चाहता हूँ। इसलिये स्वप्न की उपलब्धि के समान जागृत की उपलब्धि को मिथ्या कैसे कह सकते हो?

शंकर  स्वामी के षब्दों में स्वप्नवाद का यह अच्छा खंडन है। इसी को उन्होंने एक और स्थान पर दिया है। वेदान्त दर्षन के तीसरे अध्याय के दूसरे पाद का तीसरा सूत्र है:-

मायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्त स्वरूपत्वात्।

इस शंकर  स्वामी लिखते हैंः-

(1) मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थ-गन्धोऽप्यस्ति।

(पृ॰ 344)

स्वप्न की सृश्टि सर्वथा मिथ्या है। उसमें तथ्यता की गंध भी नहीं।

(2) कुतः-कात्स्न्र्येनानभिव्यक्त स्वरूपत्वात्। नहि कात्स्न्र्येन परमार्थवस्तु धर्मेणाभित्र्यक्त स्वरूपः स्वप्नः।

क्यों?-इसलिये कि स्वप्न में देखी हुई वस्तुओं में वास्तविक वस्तुओं के समान पूर्णता नहीं होती। अर्थात् कहीं न कहीं ऐसी त्रुटि होती है जिससे स्पश्ट पता लग जाता है कि यह भ्रान्ति है।

(3) किं पुनरत्र कात्स्न्यमभिप्रेत देषकांल निमित्त संपत्तिर बाद्यष्व। न हि परमार्थ वस्तु विशयाणि देषकाल निमित्तान्यबाधष्व स्वप्ने संभाव्यन्ते।

कात्स्न्र्य (पूर्णता) का क्या अर्थ है? देष, काल निमित्त और परिस्थिति का अबाध। (हम अबाध का अर्थ ऊपर दे चुके हैं) स्वप्न की चीजों में असली चीजों के समान देष, काल, निमित्त सम्बन्धी अबाध नहीं होता

अब यहाँ बाध अबाध के कुछ उदाहरण देते है।

(4) न तावत् स्वप्ने रथादीनामुमितो देषः संभवति।

स्वप्न में रथ आदि के लिये स्थान नहीं होता। जागते हुये रथ देखना चाहो तो स्थान चाहिये। स्वप्न में तंग कोठरी में चारपाई पर पड़े बड़े-बड़े रथो को देख सकते हो।

(2) नहि सुप्तस्य जन्तोः क्षणमात्रेण योजनषातान्तरितं देष पर्येतु विपर्येतु च ततः सामथ्र्य संभावते।

(पृ॰ 345)

सोने वाले का यह सामथ्र्य नहीं कि क्षण भर में सैकड़ों मील दौड़ जाय।

(3) क्वचिष्व प्रत्यागमनवर्जितं स्वप्ने श्रावयति।

कभी देखता हैं कि मैं कलकत्ते से दिल्ली पहुँच गया। और लौटा नहीं। इतने मे आँख खुल गई। परन्तु है पड़ा कलकत्ते में ही, इससे सिद्ध है कि स्वप्न की बात झूठ है।

(4) येन चायं देहेन देषान्तरमष्नुवानो मन्यते तमन्ये पाष्र्वास्थाः षयनदेष एव पष्यन्ति।

सब पास वाले देखते हैं कि देह कलकत्ते में पड़ीं है। स्वप्न वाला समझता है कि दिल्ली पहुँच गई।

(5) यथाभूतानि चायं देषान्तराणि स्वप्ने पष्यति न तानि तथा भूतान्येव भवन्ति।

स्वप्न में देखते हैं कि दिल्ली में अमुक तिथि को अमुक घटना हुई। जाँचने से पता चलता है कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई।

(6) रजन्यां सुप्तो वासरं भारतवर्शे मन्यते।

सोता रात में है और समझता है कि भारतवर्श में दिन है।

(7) मुहूर्तमात्र वर्तिनि स्वप्ने कदाचिद् बहुवशपूगानतिवाह यति।

धड़ी भर सोया और स्वप्न में देखता है कि बहुत वर्श हो गये।

(8) निमित्तान्यपि च स्वप्ने न बुद्धये कमणो वोचितानि विद्यन्ते। करणोपंसहाराद्धि नास्य रथादिगªहणाय चक्षुरादीनि सन्ति।

स्वप्न में ज्ञान या कर्म के लिये उपयुक्त साधन भी नहीं होते। न तो देखने के लिये आँख न पकड़ने के लिये हाथ। यह कैसे संभव है कि क्षण भर में उसको नये उपकरण मिल जावें। क्योंकि आँख, हाथ आदि ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ तो निश्क्रिय हो जाती है।

(9) बाध्यन्ते चैते रथादयत् स्वप्नदृश्टाः प्रबाधे।

जागने पर स्वप्न में देखे हुये रथ आदि का बाध हो जाता है।

(10) आद्यन्तयोव्यभिचारदषनात्। रथोऽयमिति हि कदाचित् स्वप्ने निर्धारितः क्षणोन मनुश्यः संपद्यते मनुश्योऽयामति निर्धारितः क्षणोन वृक्षः।

स्वप्न में देखी हुई चीज आदि में कुछ होती है अन्त में कुछ और आदि रथ था। वही थोड़ी देर में मनुश्य हो गया। जिस को समझा कि यह मनुश्य है वह वृक्ष हो गया।

(11) स्पश्टं चाभाव रथादीनां स्वप्ने श्रावयति षास्त्रम्-‘न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानों भवन्ति।’

(बृ॰ 4।3।10)

षास्त्र में भी स्वप्न में देखे हुये पदार्थों का अभाव बताया है। वृहदारण्यक उपनिशत् कहती है कि वहाँ न रथ होते हैं, न घोड़े, न मार्ग। परन्तु दिखाई देते है।

(षां॰ भा॰ 3-2-3–345)

(12) जगरित प्रभववासना निर्मितत्वात् तु स्वप्नस्य तत्-तुल्य निर्भासत्वाभिप्रायं तत्। तस्मादुपपन्नं स्वप्नस्य मात्रत्वम्।

(षां॰ भा॰ 3।2।6 पृश्ठ  348)

उपनिशद् के ऊपर के वाक्य का अभिप्राय यह है कि जागृत अवस्था में जो प्रत्यक्ष अनुभव होते हैं उनकी वासनाओं से स्वप्न की उत्पत्ति होती है। इसलिये स्वप्न जागृत के समान प्रतीत होते हे। ‘भासत्व’ का अर्थ है कि वे जागृत के तुल्य हैं नही। तुल्य प्रतीत होते है। इसलिये सिद्ध हुआ कि स्वप्न अतथ्य है।

इन सब युक्यिों से दो बातें सिद्ध होती है जिनके ऊपर अलग-अलग विचार होना चाहिये।

(1) स्वप्न प्रत्यय जाग्रत्प्रत्ययों की वासनाओं या स्मृति से बनते है। इसलिये वह अतथ्य हैं। अतथ्य का अर्थ याद रखना चाहिये। अतथ्य का यह अर्थ नहीं कि स्वप्न-रूप में नहीं। अतथ्य का अर्थ है कि उनके विशय अतथ्य है। रथ प्रतीत होता है, पर है नहीं।

(2) जागृत्प्रत्ययों की वासनाओं से उत्पन्न होने के कारण उनके सदृष प्रतीत होते हैं।

एक मोटा उदाहरण लीजिये। मैं हूेँ और मेरा चित्र है। चित्र एक अंष मैं तो तथ्य है। अर्थात् उसकी आकृति मेरी आकृति के सदृष है। अच्छा कलाकार ऐसा चित्र बना सकता है कि विषेश दूरी से विषेश प्रकार के प्रकाष में आप पहचान न सकें कि मैं हूँ अथवा मेरा चित्र। परन्तु आप चित्र को एक अंष में मिथ्या कह सकते हैं। उस का अधिक परीक्षा करने से बाध हो जाता है उसमें मेरे समान हड्डियाँ, षरीर, निमेष उन्मेश आदि नहीं हैं।

मेरे चित्र में और मुझ में साघम्र्य भी है और वैधम्र्य भी। यदि साधम्र्य न होता तो कौन कहता कि यह मेरा चित्र है; परन्तु यदि वैधम्र्य न होता तो मेरे चित्र को भी लोग ‘मैं हूँ’ ऐसा समझ लेते।

परन्तु इससे एक और बात का पता चलता है। वह यह कि मैं मुख्य हूँ और चित्र गौण। मुझ से मेरे चित्र को मिलाना चाहिये मेरे चित्र में मुझको नहीं मिलाना चाहिये। यदि चित्रकार ने मेरी नाक टेढ़ी बना दी तो मैं अपनी नाक को उसके अनुकूल नहीं करूँगा अपितु चित्रकार को ही चित्र में सुधार करना होगा।

इसी प्रकार जब जाग्रत-प्रत्ययों की वासना या स्मृति से ही स्वप्नों का निर्माण होता है तो जाग्रत-प्रत्यय मुख्य हुये स्वप्न-प्रत्यय गौण। जाग्रत-प्रत्ययों को देख कर स्वप्न-प्रत्ययों की परीक्षा करनी चाहिये। न कि स्वप्न-प्रत्ययों को देख कर जाग्रत्प्रत्ययों की। नागार्जुन आदि बौद्धों तथा गौड़पादाचार्य आदि वेदान्तियो ने सब से बड़ी भूल  यह की है उन्होंने स्वप्न को तराजू मान कर जाग्रत्प्रत्ययों को उसमें तोलने का यत्न किया है। इनकी युक्यिाँ इस प्रकार की है जैसे कोई कहने लगे कि मेरे चित्र में मांस,रक्त आदि नहीं हैं। मेरा चित्र मेरे षरीर के तुल्य है। अतः मेरे षरीर में भी मांस रक्त आदि नहीं हैं। वे कहते है कि जैसे स्वप्न में देखे हुये प्रत्ययों के भी बाहरी पदार्थों का अभाव होता है। उसी प्रकार जागृत में देखे हुये प्रत्ययों के भी बाहरी पदार्थाे का अभाव है। जितना साधम्र्य है उतना ही स्वीकार करना चाहिये। अधिक नहीं। श्री शंकर  स्वामी गौड़पादाचार्य के समान के समान इस लहर में बह नहीं गये। उन्होंने युक्ति के इस दोश को देखा। और बौद्धों के प्रकरण में प्रबल युक्तियों से इसका परिहार किया। परन्तु कारिका का भाश्य करते समय गुरूभक्ति के प्राबल्य में उन्होंने किसी न किसी प्रकार इन दोनों पर कलई कर दी। अभी हमने वेदान्त अध्याय 3, पाद 2, के 3रे सूत्र का शांकर  भाश्य दिया है। इससे आप कारिका 2-4 के भाश्य की तुलना कीजियेः-

जागªद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिति प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतूः। स्वप्नदृष्यभाववदिति दृश्टान्तः। यथा तत्र स्वप्ने दृष्यानां भावानां वैतथ्यं तथा जागरितेऽपि दृष्यत्वमविषिश्टमिति हेतूपनयः। तस्माज्जागरितेऽपि वैतथ्यं स्मृतमिति निगमनम्।

प्रतिज्ञा-जाग्रत दृष्यों के भाव अतथ्य हैं।

हेतुः-क्योंकि दीखते हैं।

दृश्टान्तः-जैसे स्वप्न के दृष्य।

उपनयः-जैसे स्वप्न के दृष्यों के भाव अतथ्य हैं उसी प्रकार जागृत के।

निगमनः-इसलिये जागृत के दृष्यों के भाव भी अतथ्य हुये।

प्रतिज्ञाः-मेरे षरीर में मांस आदि नहीं हैं।

हेतुः-क्योंकि षरीर दीखता है।

दृश्टान्तः-जैसे मेरे चित्र में।

उपनयः-जैसे मेरा चित्र दीखता है परन्तु उसमें मांस आदि नहीं।

निगमनः-इसलिये सिद्ध हुआ कि मेरा षरीर मांस-षून्य है।

यहाँ शंकर  स्वामी यह कह सकते हैं कि कारिका में परमार्थ का उल्लेख है। और बौद्धों के खंडन करने में हमने व्यवहार का मंडन किया। परन्तु यह युक्ति असंगत है। व्यवहार दषा को तो बौद्ध लोग भी मानते है। वह सापेक्षिक सत्यता ;त्मसंजपअमज्तनजीद्ध का खंडन नहीं करते। पारमार्थिक सत्यता ;।इेवसनजमज्तनजीद्ध का खंडन करते है। षून्यवादी होते हुये भी नागार्जून खाना खाते थे। सदाचार का प्रचार करते थे। उन्होंने पुस्तके लिखी। वे समस्त व्यावहारिक व्यापार करते थे। मौलिक प्रष्न यह है कि व्यवहार और परमार्थ में क्या सम्बन्ध है। नागार्जून आदि माध्यमिक कहते है कि व्यवहार में सब कुछ सत्य है। परमार्थ में कुछ नहीं।

शंकर  स्वामी यह नहीं बताते कि परमार्थ और व्यवहार में यह परस्पर विरोध क्यों? मेरे चित्र और मेरे षरीर भेद इसलिये है कि चित्रकार केवल मेरी षरीर की ऊपरी आकृति को लेना चाहता है। मेरी षरीर के और अंषो से उसे संबन्ध नहीं। इसी प्रकार स्मृति या स्वप्न एक अंष को लेकर होते है। जैसे षरीर को चीर कर देख सकते है कि अमुक हड्डी कहाँ है। यंत्र के हृदय की गति का अनुमान लगा सकते हैं। इसी प्रकार चित्र को चीर कर नहीं देख सकते। यदि मुझे अपने किसी मित्र की स्मृति है या मैने उसको स्वप्न में देखा है तो मैं उस स्मृति-गत या स्वप्न-गत दृष्य से अपने मित्र की अन्य बातों का पता नहीं लगा सकता।

चित्र और पदार्थ, स्मृति और उनके विशय, अथवा स्वप्न और जागृत के भेद का तो स्पश्ट कारण ज्ञात होता है। परन्तु पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य के भेद का नहीं।

आचार्य शंकर  का मत है कि जैसे स्वप्न के अनुभव स्वप्न में सत्य प्रतीत होते हुये भी जागृत में बाधित हो जाते है इसलिये असत्य हैं इसी प्रकार जाग्रत्प्रत्यय भी ब्रह्मानुभव में बाधित हो जाते है अतः वे अतथ्य है। जागृत अवस्था व्यवहार है और ब्रह्मानुभव परमार्थ।

इतने मात्र से हमारे प्रष्न का समाधान नहीं होता। प्रथम तो स्वप्न अवस्था में हमने अपने अनुभवों को कभी जागृत के अनुभवों से तोल कर अतथ्य नहीं ठहराया। जागृत अवस्था में

(1) न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मणउभयलिङ्गत्व मुपपद्यते। न ह्येक वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरींत चेत्यवधारयितु षक्य विराधात्।

(2) अस्तु तहि स्थानगतः पृथिव्याद्युपाधियोगादिति। तदपिनोपपद्यते। नह्युपाधियोगादप्यन्यादृषस्य वस्तुनोऽन्यादृषः स्वभावः संभवति।

(3) न हि स्वच्छः धन स्फटिकोऽलक्तकाद्युपाधियोगादस्वच्छो भवति भ्रममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य। उपाधीनां चाविद्याअप्रत्युपस्थापितत्वात्।

(षां॰ भा॰ 3।2।11, 355-56)

(1) परब्रह्म स्वयं किसी प्रकार भी दो प्रकार के लिंग वाला नहीं हो सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि एक वस्तु स्वयं ही रूपवाली भी हो और उसके विपरीत भी।

(2) यदि यह कहा जाय कि स्थान के कारण (स्थानम् उपधिस्तद्योगात्) अर्थात् पृथिवी आदि की उपाधि के योग से। तो भी ठीक नहीं। क्योंकि उपाधि के कारण किसी वस्तु का स्वभाव अन्यथा नहीं हो सकता।

(3) स्वच्छ स्फटिक लाख की उपाधि से अस्वच्छ नहीं हो जाता। अस्वच्छता समझना अविद्या है।

ब्रह्म में तो केवल अविद्या के कारण उपाधियाँ है।

हमारी आलोचना-यदि केवल ब्रह्म ही सत्य है तो उपाधि का क्या कारण है? यदि स्फटिक ही होता और लाख न होती तो उपाधि का प्रष्न न उठता। और न कोई स्फटिक की स्वच्छता को अविद्यावष अस्वच्छता समझता। फिर इस सूत्र में तो जीव का ब्रह्म के साथ संपर्क बताया है, जब तक स्वच्छ ब्रह्म में अविद्यावष अस्वच्छता न आवे जीव बनेगा कैसे? आप कहेंगे कि ब्रह्म तो स्वच्छ ही है तुम इसको अस्वच्छ समझते हो। हमारा उत्तर यह है कि आपके मत में हम तो ब्रह्म ही हैं। अविद्यावष अपने को अस्वच्छ समझ लिया है, यह क्यों?

फिर आप अपने इस कथन को नीचे के कथन से मिलाइयेंः-

द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते, नामरूपविकार भेदोपाधिविषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधिविवर्जितम्।

(षां॰ भा॰ 1।1।62 पृ॰ 34)

ब्रह्म के दो रूप हैं एक तो नाम रूप विकार भेद की उपाधि वाला दूसरा इसके विपरीत सब प्रकार की उपाधियों से छूटा हुआ।

इन दोनों का समन्वय कैसे होगा? इससे तो द्वैतसिद्ध है।

इसका उत्तर षं॰ स्वा॰ ने यह दिया है:-

उपाधिनिमित्तस्य वस्तुधमत्वानुपपत्तेः। उनाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात्। सत्यांमेव च नैसर्गिकामविद्यायां लोकवेद व्यवहारावतार इति।

(षां॰ भा॰ 3।2।15 पृ॰ 358)

उपाधि के निमित्त से वस्तु में कोई धर्म नहीं आता। उपाधियाँ तो अविद्या के कारण होती हैं। अविद्या नैसर्गिकी है। इसी से लौकिक और वैदिक व्यवहार होते है।

यह कोई उत्तर नहीं है। नैसर्गिकी अविद्या के विशय में अन्यत्र आलोचना आ चुकी है।

स्वप्न के अनुभवों को जागृत-अनुभवों से तोल कर उनको बाधित कर दिया। स्वप्न में यह संभव ही न था कि जागृत के अनुभवों को सामने लाकर उनसे अपने स्वप्न-प्रत्ययों की तुलना कर सकते। अधेरे में दीपक को लाकर उससे अँधेरे को नहीं माप सकते। यहाँ आप उलटा जागृत अवस्था में हमसे कहते है कि तुम्हारे अनुभव ‘ब्रह्मानुभव’ से बाधित हो रहे हैं। दूसरी बात यह है कि जागृत के प्रत्ययों की स्मृति, वासना आदि से स्वप्न-प्रत्ययों की व्याख्या हो जाती है। यह शांकर  स्वामी ने भी माना है। और निद्र्रालग्नता आदि दोशों को इसका कारण माना है। परन्तु जागृत के अनुभवों का यदि वे अतथ्य है कुछ कारण बताना चाहिेये। और वह ‘ब्रह्मानुभव’ की अवस्था में बताना चाहिये। यदि ‘सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म’ अद्वैत है। बिना उसके कुछ नहीं, तो बताइये कि उस अवस्था में कौन सी निद्रा, कौन सी स्मृति, कौन सी वासना थी जिसने इस व्यवहार रूपी सत्य को जो वास्तव मे असत्य है उत्पन्न कर दिया?

यदि कहें कि जब तुमको ब्रह्मानुभव प्राप्त होगा तो अवष्य ही ज्ञात हो जायगा। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि संसार में इतने ‘ब्रह्मनुभव’ की दुहाई देने वाले हैं। इनको जाँचा कैसे जाय? आप है। कपिल आदि महर्शि हैं, भिन्न-भिन्न उपनिशत्कार हैं। सभी तो आपके मत के नहीं हैं। यह हो सकता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा कहने वाला कई कारणों से भ्रान्ति-युक्त हो। आप बहुधा यह कह देते हैं कि श्रुति में ऐसा लिखा है। परन्तु आपके विपक्षी द्वैतवाद को भी तो श्रुतियों से ही सिद्ध करते हैं, ‘श्रुति’ का होना ही द्वैत का साघक है। इसीलिये आप उसको भी अविद्यावत् कहते हैं (देखो चतुः सूत्री 1।1।1)

आपका कहना है कि सत्य वह है जो कभी बाधित न हो। स्वप्न-प्रत्यय बाधित होने से अतथ्य हैं। इस बात को तो सभी स्वीकार करेंगे। परन्तु प्रष्न यह है कि प्रत्यक्ष से लेकर षब्द पर्यन्त सब प्रकार से परीक्षित प्रत्ययों का बाध आप कैसे करते हैं? रज्जु की परीक्षा करके हमने उसमें सर्पत्व का बाध कर दिया। अब आप कहते हैं कि इसी प्रकार रज्जुत्व का भी बाध कर देंगे। कैसे दें? होता ही नही। यो तो बौद्ध लोग आपसे कहेंगे कि जैसे आपने जागृत्प्रत्ययों का बाध किया उसी प्रकार ‘ब्रह्मानुभव’ का भी बाध कर दीजिये। आप कहेंगे कि प्रकाष का बाध कैसे करें? हम भी कहते हैं कि प्रत्यक्ष का बाध कैसे करें? प्रत्यक्ष कि प्रमाणम्।

आप कहेंगे कि संसार की वस्तुओं को कभी एक रूप में नहीं देखते। यह सब कुछ परिवर्तनषील है। परन्तु हमारा कहना है कि परिवर्तन और बाधता में भेद है। आप स्वंय ऊपर बता चुके हैं। (देखो षां॰ भा॰ 3।2।3) कि देषकाल और निमित्त का स्वप्न में बाध होता है। और जागृत में इनका बाध नहीं होता। इन्हीं के आधार पर आपने जागृत को सत्य को माया मात्र ठहराया। आपने सम्यग्ज्ञान का ऐसे लक्षण किया है।

तच्च सम्यग्ज्ञानमेकरूपं वस्तु तन्त्रत्वात्। एकरूपेणह्यवस्थितो योऽर्थः स परमाथः। लोके तद्विशयं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्युच्यते यथाग्निरूश्ण इति।

(षां॰ भा॰ 2।1।11 पृ॰ 194)

जो ज्ञान एक रूप रहे वह सम्यक् है क्योंकि वह वस्तु के आश्रित है। परमार्थ वही है जो एक रूप में स्थित रहे। जैसे अग्नि की उश्णता।

परन्तु यदि परमार्थ, और सम्यक्ज्ञान का अर्थ सत्यता है तो आपको यह लक्षण ठीक नहीं। और यदि यह पारिभाशिक षब्द हैं तो इनसे कुछ बनता नहीं। क्योंकि अनित्य सत्य भी होता है यही अनित्यता अनेक रूपता है। अनेक रूपता सत्य भी होता है। और मिथ्या भी। यदि देष, काल और निमित्त के कारण जो परिवर्तन होना चाहिये वह दृश्टिगोचर न हो तो उसकी सत्यता में संदेह हो जाता है। जैसे यदि किसी माता का 1 वर्श का बच्चा खो जाय और बीस वर्श के पीछे उसी आकृति, उसी रूप रंग, उसी क़द का एक बच्चा उसे मिले तो वह स्पश्ट कह देगी कि यह मेरा बच्चा नहीं है। बीस वर्श में जो परिवर्वन उसमें होना चाहिये था वह नहीं है। यहाँ परिवर्तन का दृश्टिगत न होना असत्यता की पहचान है। उन्हीं के कारण तो स्वप्न को अतथ्य कहना पड़ा।

यदि आप कहें कि इसी देष, काल और निमित्त का तो हम बाघ करना चाहते है, देष काल और निमित्त से अपेक्षित सत्य नहीं। हम तो निरपेक्षित सत्य की खोज में हैं। तो हमारा कहना है कि आप कल्पित सत्य की खोज के फिरते रहिये। आप कभी सफल न होंगे। जिसको आप निरपेक्ष सत्य कहेंगे उसमें भी आपके ‘मान’ की अपेक्षा रहेगी। आपने कल्पना कर ली कि जो सापेक्षित है वह असत्य है। न्यायदर्षन में यह षंका उठाई है।

न स्वभावसिद्धिरापेक्षिकत्वात्।

(न्यायदर्षन 4।1।39)

अर्थात् सापेक्षित होने से कोई भाव भी ठीक नहीं।

इसका उत्तर देते हैंः-

व्याहतत्वादयुक्तम्।

(न्यायदर्षन 4।1।40)

व्याघात दोश होने से युक्ति ठीक नहीं, वात्स्यायन मुनि लिखते हैंः-

यदि ह्नस्वामिति गुह्यते। अथ दीर्घापेक्षाकृतं ह्नस्वं, दीर्घमनपेक्षिकम्।

यदि ह्नस्व की अपेक्षा से दीर्घ है तो किसकी अपेक्षा से ह्नस्व है तो दीर्घ अनपेक्षिक (बिना अपेक्षा के हुआ)

किमपेक्षासामथ्र्यमिति चेत् ? द्वयोग्र्रहणोऽतिषय ग्रहणोपपत्तिः। द्वे द्रव्ये पष्यन्नेकत्र विद्यमानमतिषयं गृहणाति तद्दीर्घमिति व्यवस्यति, यच्च हीनं गृह्णाति तद्धृस्वमिति व्यवस्यतीति। एतच्चापेक्षा सामथ्र्यमिति।

अपेक्षा है क्या? जब दो चीजें दिखाई दी और एक के अतिषय का ग्रहण किया। यह अपेक्षा है। विष्वनाथ की वृत्ति में इस पर एक टिप्पणी हैंः-

किं च सोपक्षत्वं सोपक्ष न वा। आद्ये तस्य तुच्छत्वान्न साधकत्वम्। अन्त्ये तस्यैव सत्यवात् कुतः सर्वषून्यत्वमिति भावः।

अर्थात् यदि कहा जाय कि जो भाव सापेक्षक है वह असत्य है तो प्रष्न होता है कि सापेक्षत्व सापेक्षक है तो असत्य हुआ। अतः आप जो युक्ति असत्यता के लिये देना चाहते थे वही कट गई। फिर आप असत्यता को किस प्रकार सिद्ध करेंगे। यदि कहो कि सापेक्षता निरपेक्षे है, तो सोपक्षता सत्य हो गई और उसके द्वारा सिद्ध हुये भाव भी सत्य हुये।

प्रायः यह कहा जाता है कि सापेक्षिक सत्यता सब असत्य है। ;त्मसंजपवदे चतवअम जीम मगपेजमदबम व िजीम जूव तंजीमत जींद जीम दवद.मगपेजमदबम व िमपजीमतण्द्ध

निरपेक्ष सत्यता ;।इेवसनजमज्तनजीद्ध  का कोई अर्थ नहीं। मनुश्य मात्र के मस्तिश्क में इसका कोई भाव नहीं। क्यों हो? ‘निरपेक्ष सत्य’ दो षब्द है जिनको कल्पना द्वारा संयुक्त कर लिया गया है। यह वाक्य ही निरर्थक है। आप कहेंगे कि अपेक्षा अविद्या के कारण है। हम पूछते हैं कि अविद्या का क्या अर्थ है? विद्या-षून्यता अथवा विद्या-विपरीतता। यदि विद्या-षून्यता का नाम अविद्या हो तो जिस ब्रह्म को आप ज्ञान-स्वरूप कहते है उसके होते हुये विद्याषून्य कहाँ से आ गई है? आपके मत में कोई जड़ पदार्थ (प्रधान आदि) तो है नहीं। सूर्य-मंडल में अँधेरा! यदि कहो कि विद्या की विपरीतता का नाम अविद्या है (तद्दुश्टं ज्ञानं-वैषेशिक 9।11) तो भी वही प्रष्न है कि ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म में दुश्ट ज्ञान कैसा? तीसरी और क्या चीज हो सकती है? इसलिये क्यों नहीं मान लेते कि एक ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म है एक जड़ प्रधान है और कुछ दुश्ट ज्ञान वाले जीव भी है। पूर्ण विद्या ब्रह्म का धर्म है। विद्याषून्यता प्रधान का और अल्पज्ञता जीवों का।

ब्रह्म को कभी भ्रान्ति नहीं होती क्योंकि वह ज्ञान-स्वरूप है। प्रघान को कभी भ्रान्ति नही होती क्योंकि वह जड़ है। जीव अल्पज्ञ होने से भ्रान्ति की सम्भावना रखते हैं। जीव की अल्पज्ञता समस्त प्रपंच की व्याख्या करने को समर्थ है। भ्रान्तियाँ अल्पज्ञता के कारण हैं। श्री राधाकृश्णन् शांकर -सिद्धान्त का वर्णन करते हुये कहते हैः-

श्व्नत चतंबजपबंस पदजमतमेजे कमजमतउपदम वनत ूीवसम जीवनहीज चतवबमकनतमण् ज्ीम पदजमतदंस वतहंद ीमसचे ने जव बवदबमदजतंजम बवदेबपवनेदमेे वद ं दंततवू तंदहमए सपाम ं इनससष्े दृमलम संदजमतद ूीपबी तमेजतपबजे जीम पससनउपदंजपवद जव ं चंतजपबनसंत ेचवजण् ॅम जंाम दवजम व िजीवेम मिंजनतमे व िजीम ष्ूींजष् व िजीपदहे ूीपबी ींअम ेपहदपपिबंदबम वित वनत चनतचवेमेण् म्अमद वनत हमदमतंस संूे ंतम मेजंइसपेीमक ूपजी ं अपमू जव वनत चसंदे – पदजमतमेजेण्श्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ण् 504द्ध

अर्थात् ”हमारे विचारों पर हमारे उद्देष्यों का प्रभाव पड़ता है। अन्तत्करण से हमको यह सहायता मिलती है कि हम अपने लक्ष्य को एकाग्र कर सके जैसे टार्च का प्रकाष केवल एक ही स्थान पर पड़ता है। हम चीजों के केवल उसी अंष को देखते है जो हमारे प्रयोजन से सम्बन्ध रखता है। हमारे सामान्य नियम भी इसी दृश्टि से बनाये जाते है।“

यह ठीक है। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? हमारा बौद्धिक यन्त्र निर्वचन करता है। जितने अंष पर टार्च पड़ी उतने को देखता है षेश को नहीं। क्योकि हम अल्पज्ञ हैं। बिना टार्च के देख नहीं सकते और जितने अंष पर टार्च पड़ती है उससे अधिक को भी नहीं देख सकते। परन्तु जितने को देखते हैं। उससे अधिक को भी मानें? यही नहीं कि टार्च का प्रकाष कुछ अंष को प्रत्यक्ष कराता है, कुछ को धुधँला बताता है और कुछ का प्रकाष में देखे हुये अंष की सहायता से अनुमान कराता है। यदि आप अल्पज्ञता का नाम ”नैसर्गिक अविद्या“ रक्खें तो ठीक है क्योंकि जीव स्वभाव के अल्पज्ञ है परन्तु अल्पज्ञता का इतना ही अर्थ लेना होगा कि ज्ञान अल्प है। इस अल्प ज्ञान को बढ़ाने की सम्भावना है जैसे टार्च को इधर उधर फिरा कर कई स्थानों का ज्ञान हो सकता है। परन्तु यह मान बैठना कि टार्च जहाँ पड़ती है वहाँ मिथ्या ज्ञान कराती है। ठीक नहीं है। पूर्णज्ञता के अभाव को आप अल्पज्ञता कह सकते हैं। यदि आप विपरीत ज्ञान को जीव का स्वभाव मान लेगे तो कभी विद्या की प्राप्ति न हो सकेगी। क्योंकि स्वभाव का नाष कभी नहीं हो सकता। अग्नि को कभी ठंडा नहीं कर सकते। वायु को कभी गर्म कर सकते हैं, कभी कम गर्म, कभी ठंडा। कुछ चीजें हैं जिनको न आग गर्म कर सकती है, न जल ठंडा, जैसे आकाष। समझने के लिये यहाँ जीव को वायु की उपमा दे सकते है।

इस सम्बन्ध में ‘भ्रान्ति’ की भी मीमांसा करनी है। ऊपर टार्च का दृश्टान्त दे चुके हैं। उसी को फिर लीजिए। जो स्थान टार्च के क्षेत्र से बाहर है वहाँ धुँधला दिखाई पड़ता है। कल्पना कीजिये कि टार्च ठीक एक वृक्ष पर पड़ी। हमने देख लिया कि यह आम का वृक्ष है। निकट में प्रकाष क्षेत्र के बाहर कुछ ठूँठ सा दीख पड़ा उसके विशय में अटकल दौड़ाई कि कोई मनुश्य है या किसी गिरे हुये वृक्ष का ठूँठ है। यहीं भ्रान्ति उत्पन्न हो गई। इसी का नाम दुश्ट ज्ञान है। इसका कारण इन्द्रिय-दोश और संस्कार-दोश को बताया है (इन्द्रिय दोशात् संस्कारदोशाच्चाविद्या-वैषेशिक 9।10)

भ्रन्तियुक्त प्रतीति की व्याख्या कई दर्षनकारों ने ‘ख्यातियों’ द्वारा की है। जैसे रस्सी में यदि साँप की भ्रन्ति हो तो प्रष्न होता है कि इसको कौन सी ख्याति कहना ठीक होगा? छः ख्यातियाँ प्रसिद्ध हैं (1) सत् ख्याति (2) असत् ख्याति (3) आत्म ख्याति (4) अख्याति (5) अन्यथा ख्याति (6) अनिर्वचनीय ख्याति।

प्रत्येक ख्याति के साथ अलग-अलग दार्षनिक सम्प्रदायों का सम्बन्ध बताया जाता है जैसे सत् ख्याति या सदसत्् ख्याति सांख्यो की है। वे मानते हैं कि रस्सी में साँप की आकृति की कुँडलियाँ सी है। इसी सत् धर्म के कारण रस्सी में साँप की भ्रान्ति हो जाती हैं।

असत्ख्याति-षून्यवादी माध्यमिकों की है जो बौद्धों का एक दार्षनिक सम्प्रदाय है। उनका कथन है कि रस्सी में साँप का अभाव है। परन्तु प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि असत् की प्रतीति हुआ ही करती है। जो प्रतीत हो उसको सत् नहीं समझना चाहिये। इसका परिणाम षून्यवाद है। अर्थात् जो भाव हैं वे असत् हो गये तो षून्य ही रह गया।

आत्मख्याति-योगाचार बौद्धों की है। इनका कहना है कि आत्मा में जो भाव हैं उनके अनुकूल आत्मा से बाहर कोई पदार्थ नहीं। वाह्य पदार्थ ज्ञान से अतिरिक्त और कुछ नहीं। इनकी दृश्टि में आत्मा के बाहर किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं। पदार्थों का बाहरीपन मिथ्या है। इतना कहने में कोई हानि नहीं कि मेज की मुझे प्रतीति होती है। परन्तु यह मत कहो कि मेज मेरे ज्ञान से बाहर कोई पदार्थ है जिसका मुझको ज्ञान हो रहा है।

अख्याति-प्रभाकर आदि मीमांसकों की है। वे कहते हैं कि साँप के आकार की स्मृति और सामने पड़ी हुई रस्सी के बीच में जो भेद है उसकी प्रतीति होती। अतः रस्सी को साँप समझ लिया जाता है।

अन्यथा ख्याति-नैयायिकों और वैषेशिकों की हे। अर्थात् दोश-वष एक चीज अन्यथा प्रतीति होती है। थी रस्सी। हमको प्रतीत हुई साँप।

अनिर्वचनीय ख्याति-शांकर  मत की है। वे कहते हैं कि किसी में साँप का भाव भावरूप में तो सत्य ही था। अतः हम उसको असत् कैसे कहें? ओर सत् भी नहीं कह सकते क्योंकि रस्सी हैं साँप नहीं। अतः यह एक विलक्षण चीज है न सत् है न असत्। यह अनिर्वचनीय है।

ये सब ख्यातियाँ एकांगी है और भारतीय प्राचीन दार्षनिकों के सिद्धातों में इनका उल्लेख नहीं पाया जाता। इनको मूल मान कर किसी सिद्धान्त को निष्चय करना भूल है। और यही भूल प्रायः की गई है।

भ्रान्ति युक्त प्रतीति के तीन कारण होते है। (1) इन्द्रिय-दोश (2) संस्कार-दोश (3) परिस्थिति-दोश। जैसे आँख दुखने आ गई हो तो रस्सी को साँप समझ सकते हैं। मन में पहले साँप के विचार हो रहे हो ताकि जल्दी में साँप की भ्रान्ति हो सकती है। ओर यदि अँधेरा हो तो रस्सी साँप का सन्देह उत्पन्न कर सकती है। जब भ्रान्ति होती है तो उसमें कुछ न कुछ तीनों बातें सम्मिलित रहती हैं। यदि केवल आँख ही दुखने आवे ओर किसी ने कभी साँप ने देखा हो, न साँप की आकृति के संस्कार मन मे हो तो कभी कोई रस्सी को साँप न समझेगा ओर यदि साँप का भय मन में बैठा भी हो परन्तु प्रकाष भी हो और षुद्ध इन्द्रिय भी हो तो रस्सी रस्सी ही प्रतीत होगी। साँप नहीं।

इस बात को प्राबल्य देने की आवष्यकता है कि भ्रान्ति का उत्तर दातृत्व इन तीनों बातों पर व्यस्त और समस्त दोनों रूप में है। और विषेश कर समस्त रूप में यद्यपि प्रत्येक कितने अंष तक उत्तरदाता है यह और बात है। सब भ्रान्तियाँ समकक्ष नहीं होती। उनके भेद का कारण इन्हीं तीनों में से किसी की प्रधानता और किसी की गौणता होती है।

यदि ख्याति की दृश्टि से देखा जाय तो सभी ख्यातियाँ किसी एक भ्रान्ति में लागू हो सकती है। किसी गौ को देख कर कह सकते हैं कि यह घोड़ा नहीं है। अर्थात् गौ में घोड़पन का अभाव है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है। कि गौ गौ भी नहीं है। इसी प्रकार यदि गौ में गौपन का भाव है तो यह अर्थ नहीं कि उसमें घोड़ेपन का भी भाव है। यह ठीक है कि भ्रान्ति की दषा में रस्सी में साँप नहीं है प्रतीत होता है। इसे आप असत् ख्याति कहिये। साँप मन में है बाहर साँप नहीं, रस्सी है। इसे आत्म ख्याति कहिये। रस्सी को साँप समझ लिया अन्यथा ख्याति कहिये। रस्सी साँप का भेद ग्रहण में नहीं आया अख्याति कहिये। सन्देह होने से कुछ कहा नहीं जा सकता इसे अनिर्वचनीय ख्याति कहिये। आँख ने केवल कुँडलियाँ देखी । कुँडलियाँ रस्सी में भी होती हैं और साँप में भी। इसलिये सत् ख्याति कहिये। यह तो कहने का ढंग है। भूल है उन ख्यातियों के आधार पर अन्य सिद्धान्त निर्धारित करने में और भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बना लेने में।

रस्सी में साँप का अभाव है। परन्तु रस्सी का तो भाव है। अतः साँप के अभाव से समस्त वस्तुओं का अभाव सिद्ध नहीं होता। भारतवर्श में लन्दन का अभाव है। और इंगलैण्ड में कलकत्ते का। इस हेतु से लन्दन और कलकत्ते दोनों का अभाव सिद्ध करना सर्वथा अयुक्त है। साँप मन में था रस्सी में न था। परन्तु साँप मन में आया कहाँ से? मन में साँप नहीं उत्पन्न होते। साँप की स्मृति किसी स्थान पर बाहर स्थित साँप को देख कर ही आई होगी। सन्देह भी तो तभी उत्पन्न होता है जब कभी दो चीजें प्रायः एक सी देखी गई हो। जिसने कभी चाँदी नहीं देखी उसको सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो ही नहीं सकती।

सब से बड़ी भूल यह है कि कुछ थोड़ी सी भ्रान्तियों का दृश्टान्त बना कर उनके अन्य अभ्रान्तियों पर लागू किया जाता है। कछवे का काटा कठौती का डरता है। उसे यह विवके नहीं कि कठौती चैके में है। वहाँ कछवा समझ लेना तो क्षन्तव्य था। जीवन में हम सामान्यतया तो रस्सी को रस्सी ही देखते हैं, साँप को साँप ही, जल को जल ही और रेत को रेत ही। बहुत कम और कभी-कभी ही ऐसा होात है कि सीप में चाँदी का भ्रम हो जाय या रस्सी में साँप का या मृगवृश्णिका में जल का। यदि हम अपने अनुभवों का लेखा रक्खें तो ऐसे अवसर एक प्रतिषतक क्या, एक प्रतिलक्ष भी न निकलेगे। चाहिये तो हमको यह था कि अपवाद की व्याख्या उत्सर्ग की सहायता से करते। परन्तु किया हमने उलटा। उत्सर्ग का कारण अपवाद में खोजने लगे। एक मन दूध में यदि आप सेर जल मिल जाय तो समस्त दूध के साथ जलवत् व्यववहार करना और उसे स्नान या कपड़ा धोने के काम में लाना बुद्धिमता नहीं है। इसी प्रकार थोड़ी सी भ्रान्तियों के आधार पर समस्त जगत् को मिथ्या सिद्ध करना भूल है। श्री राधाकृश्णन् ने शांकर -मत को इस प्रकार लिखा हैः-

।सस जीवनहीज ेजतनहहसमे जव ादवू जीम तमंस जव ेममा जीम जतनजीए इनजए नदवितजनदंजमसलए पज बंद ंजजमउचज जव ादवू जीम तमंस वदसल इल तमसंजपदह जीम तमंस जव ेवउमजीपदह वजीमत जींद पजेमसण् िज्ीम तमंस पे दमपजीमत जतनम दवत ंिसेमण् प्ज ेपउचसल पेण् ठनज पद वनत ादवूसमकहम ूम तममित जीपदे वत जींज बींतंबजमतपेजपब जव पजण् ।सस ादवूसमकहम ूीमजीमत चमतबमचजनंस वत बवदबमचजनंसए ंजजमउचजे जव तमअमंस तमंसपजल वत जीम नसजपउंजम ेचपतपज (प्रत्यक्ष प्रमा चात्र चैतन्यमेव-वेदान्त परिभाशा 1) ूीपसम चमतबमचजपवद पे ंद मअमदज पद जपउमए दवद.मगपेजमदज इवजी इमवितम पज ींचचमदे ंदक ंजिमतए पज पे ेजपसस जीम उंदपमिेजंजपवद व िं तमंसपजल ूीपबी पे दवज पद जपउमए जीवनही पज ंिससे ेीवतज व िजीम तमंस ूीपबी पज ंजजमउचजे – उंदपमिेजेण् ैव ंित ंे पदंकमुनंबल जव जीम हतंेच व िजीम तमंस पे बवदबमतदमकए ंसस उमंदे व िादवूसमकहम ंतम वद जीम ेंउम समअमसण् ।सस रनकहउमदजे ंतम ंिसेम पद जीम ेमदेम जींज दव चतमकपबंजम ूीपबी ूम बंद ंजजतपइनजम जव जीम ेनइरमबज पे ंकमुनंजम जव पजण् ॅम ींअम मपजीमत जव ेंल त्मंसपजल पे त्मंसपजलए वत ेंल जींज त्मंसपजल पे ग्ए लर््ए ए ज्ीम वितउमत पे नेमसमेे वित जीवनहीज इनज जीम संजजमत पे ूींज जीवनहीज ंबजनंससल कवमेण् प्ज मुनंजमे जीम तमंस ूपजी ेवउमजीपदह मसेमए पण्मण् जीम दवद.तमंसण् ज्व ंजजतपइनजम जव जीम तमंस ूींज पे कपििमतमदज तिवउ पज पे ूींज ैींदांत बंससे ंकीलंेंए वत ंजजतपइनजपदह जव वदम जीपदह ूींज पे कपििमतमदज तिवउ पजण् (अध्यासो नाम अतस्मिँस्तद्बुद्धिः) ।कीलंें पे कमपिदमक ंे जीम ंचचमंतंदबम व िं जीपदह ूीमतम पज पे दवज  (परत्र परावभासः)

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ंहम 505द्ध

”सब मानसिक व्यापारों का यत्न है तत्व को जानना, सत्य की खोज करना, परन्तु दुर्भाग्य है कि तत्व के जानने का यत्न करने में उसे तत्व का सम्बन्ध किसी ऐसी वस्तु से करना पड़ता है जो तत्व नहीं है (अतत्व है)। तत्व न सत्य है न असत्य। यह केवल सत्ता मात्र है। परन्तु अपने ज्ञान में हम उसके साथ यह धर्म अथवा वह धर्म जोड़ देते हैं। समस्त ज्ञान चाहे वह ऐन्द्रिक हों अथवा बौद्धिक, तत्व अर्थात् मौलिक आत्मा को जानने का यत्न करता है। (प्रत्यक्ष प्रमा चात्र चैतन्यमेव-वेदान्त परिभाशा 1) ऐन्द्रिक ज्ञान एक कालिक घटना है। अर्थात् आरम्भ से पहले उसका अस्तित्व न था। पीछे न रहेगा। तो भी वह एक ऐसी सत्ता का बोध करता है जो कालातीत है। यद्यपि यह जिस तत्व का बोध कराना चाहता है उसको पूरा नही कर पाता। तत्व की उपलब्धि के कवचार से देखा जाय तो सभी प्रमाण अपूर्ण है। हमारे समस्त विचार इस अर्थ में मिथ्या है कि कोई धर्म ऐसा नहीं हैं जिसका हम तत्व से सम्बन्ध जोड़े और वह पूरा उतरे। या तो हम कहते हें कि तत्व तत्व है। या कहते हैं कि ‘तत्व क्ष, य या ज्ञ हैं।’ पहली बात विचार के लिये निश्प्रयोजन है (अर्थात् ”तत्व तत्व है।“ ऐसा कह देने के कुछ ज्ञान में वृद्धि नहीं होती)। परन्तु दूसरी बात तो विचार नित्य प्रति ही करता है। यह तत्व में कुछ ऐसे धर्म बताता जो तत्व से इतर हैं, अर्थात् अतत्व है। तत्व में वह बताना जो तत्व के नहीं हैं शांकर  परिभाशा में अध्यास का लक्षण है कि एक चीज वहाँ प्रतीत हो जहाँ वह नहीं है (परत्र परवभासः)।

(इण्डियन फिलासफो जिल्द 2, पृश्ठ 505)

शांकर  अध्यास को समझने का नवीन भाशा में उससे उत्तम रूप नहीं हो सकता। श्री राधाकृश्णन् ने अध्यास को ऐसे सरल रूप में हमारे सामने रक्खा हैं कि एक बार तो विपक्षी को भी इसकी सत्यता का निष्चय हो जाता है। परन्तु थोड़ी सी सावधानता से ही हेत्वाभास की रूपरेखा दिखाई पड़ने लगती है। खोज करनी थी तत्व की। यह बिना सिद्ध किये मान लिया गया कि ”तत्व केवल सत्ता मात्र है। उसमें कोई धर्म है ही नहीं।“ आप ऐसे कल्पित तत्व की खोज करने चले। कहीं प्राप्ति नहीं हुई। अतः आपने घोशणा कर दी कि संसार भर में तत्व नहीं। अर्थात् संसार अतत्व या मिथ्या है। इसको साध्यसम हेत्वाभास कहते हें। यह ठीक है कि हमारा ज्ञान तत्व की खोज करने मे तत्व के साथ किसी न किसी धर्म का सम्बन्ध जोड़ देता है। परन्तु इससे तो यह सिद्ध होता है कि तत्व में अनेक धर्म है। तभी तो आपकी बुद्धि तत्व का धर्म जानने के लिये लालायित रहती है। प्रमाण ज्ञान का साधन है। उनका तो आपने निराकरण कर दिया। अब आपके पास रह ही क्या गया जिससे आप तत्व की खोज करें? यदि कोई पुरूश किसी पुश्प का रंग जानने की खोज में चले और चलने से पहले आँखों में पट्टी बाँध ले तो ऐसे पुरूश को सफलता की क्या आषा हो सकती है?

 

आप तत्व के साथ उसका धर्म बताने को अतत्व कहते है। यह कैसे? यदि कहा जाय कि नीबू नीबू है तो यह कथन व्यर्थ है। क्योंकि उतना कहने से कुछ पता नहीं चलता। यदि कहा जाय कि ‘नीबू पीला है’ तो आप कहते हे कि नीबू से ऐसे धर्म का सम्बन्ध लग गया जो नीबू से इतर है। याद रखना चाहिय कि पीलापन नीबू का धर्म है। इसलिये धर्म बताना ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ नहीं है आप तत्व के खोजी है। आपने पहले से ही यह क्यों मान रक्खा है कि तत्व में कोई अन्य धर्म नहीं और तत्व एक ही है, अनेक नहीं। यदि आप यह मान बैठें कि आपने हाथ में केवल एक ही उँगली है तो इस कल्पना के आधार पर यही कहना पड़ेगा कि अन्य चार उँगलियों की प्रतीति मिथ्या है। अविद्या के कारण है। अध्यास है। यदि आप सच्चे तत्व के खोजी हैं तो अपना मस्तिश्क खुला रखिये। ओर गिनना आरम्भ कजिये। सिर एक है इसलिये उसको एक कहिये। आँखें दो हैं अतः उनको दो कहिये। दाँत बत्तीस हैॅं उनको बत्तीस कहिये। यदि गिनने से कम या अधिक निकलें तो उनको वैसा कहिये। आप कहते है कि तत्व को तत्व कहने ;त्मंसपजल पे त्मंसपजलद्ध से काम नहीं चलता। ओर तत्व को क्ष, य,ज्ञ, कहने ;त्मंसपजल पे ग्एलर््एद्ध से तत्व के साथ अतत्व जोड़ना पड़ता है क्योंकि क्ष, य, ज्ञ तत्व नहीं है। और ऐसा करने को ही अध्यास कहते हैं। हम आपके अध्यास के लक्षण को माने लेते है परन्तु युक्तियों को नहीं। क्योंकि इनमें समझ को फेर है। वाक्य के दो भाग होते है एक उद्देष्य ;ैनइरमबजद्ध दूसरा विधेय ;च्तमकपबंजमद्ध  यदि विधेय उद्देष्य से सर्वथा अन्य हो तो वाक्य ही नहीं बन सकता। ”बंध्या अपने पुत्र को खिला रही है।“ यहाँ ‘पुत्रवतीत्व’ बंध्यां का धर्म नहीं। परन्तु ‘बंध्या अपना मुँह धो रही है’ ठीक है क्योंकि मुँह रखना बंध्या का धर्म है। अतः जितने विधेय हैं वे सब उद्देष्य के धर्माे में से किसी धर्म को बताते हैं। कभी-कभी उद्देष्य और विधेय में अनन्यतव उद्देष्य भी होता है जैसे ”चार दो और दो के जोड़ के बाराबर है।“ यहाँ उद्देष्य ‘चार’ है और विधेय दो और दो का जोड़। परन्तु यदि गम्भीर विचार से देखा जाय तो चार का एक धर्म ही बताने का यत्न किया गया है। यह भी कह सकते थे कि ‘चार दस और एक के बराबर होते है।’ यदि विधेय उद्देष्य से सर्वथा इतर होता है तो उसको कोई नहीं मानता। जैसे कोई कहे कि ”चार दस और पाँच के योग के बराबर होते है।“ यह है अतस्मिँस्तद्बुद्धिः। अर्थात् चार में पन्द्रह के धर्मो की कल्पना कर ली गई।

 

आपका आक्षेप है कि हमारा बौद्धिक यंत्र विचार करने में तत्व के साथ किसी न किसी धर्म को सम्बन्ध कर देता है। यदि वही धर्म सम्बन्ध किये जायँ जो उसमें विद्यमान हैं, तो हानि क्या? हानि तो तब होगी जब अन्य धर्म तत्व के नही तो क्या यह अतत्व के धर्म हैं? फिर तो आपका अतत्व भी नाम का ही अतत्व रहा। वस्तुतः तत्व हो गया, अपितु तत्व से भी बढ़ कर। आपका तत्व तो षून्यत्व को प्राप्त हो गया और अतत्व सब कुछ हो गया। यदि आप कहें कि तत्व तो केवल सत्ता मात्र है। उसमें कोई धर्म नहीं। तो यह भी आपकी कल्पना ही है। यदि कहते ”ब्रह्म ब्रह्म एव“  (ब्रह्म ब्रह्म है) तो वाक्य निश्फल होता। यदि कह दिया कि ‘सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म’ तो ब्रह्म में सत्यता, ज्ञान तथा अनन्तता आदि धर्म मानने पड़े, क्यो? इसलिये कि यह ब्रह्म के धर्म है। यह ‘अतस्मिंस्तद्बुद्धिः कैसी? यदि कहते कि ब्रह्म बड़ा मोटा है, दस गज लम्बा है इत्यादि तो यह अध्यास होता। यदि कोई कहे कि हम तो उनको भी काना कहेंगे जिनके दो आँखें हैं क्योंकि केवल दो ही आँखें तो है दस बीस नही। तो उसकी इच्छा। उसकी दृश्टि में समस्त संसार काना है क्योंकि उसने काने के लक्षण ऐसे कर रक्खे हैं और वह इसका अपना दुर्भाग्य बताता है कि संसार में उसे कोई ऐसा नहीं दृश्टिगोचर होता जो काना न हो।

यह ठीक है कि हम अल्पज्ञ है। हमारा बौद्धिक यंत्र भी टार्च के समान एक समय में एक अंष का ही बोध कराता है। सम्पूर्ण तत्च का नहीं। यदि हम सर्वज्ञ होते तो बौद्धिक यन्त्र की आवष्यकता न होती। परन्तु उस टार्च से मिथ्या रूप दीखता हो यह नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्व के निर्माण के लिये भी तो सत्य का ज्ञान चाहिये। अन्यथा तुलना कैसे होगी? हमारा बौद्धिक यन्त्र ऐसी टार्च है जो कहीं तो प्रकाष ;च्मदनउइमतंद्ध ।प्रकाष क्षेत्र में पड़ी हुई चीज को हम ‘निष्चर्य’ या सम्यक् ज्ञान कहते है। ‘अर्द्ध’ प्रकाष में पड़ी हुई चीज को हम ‘निष्चय’ कहते हैं, और थोड़ा सा टार्च का कोण बदल देने से अर्द्ध प्रकाष को प्रकाष क्षेत्र में ला सकते है। सन्देह-निवारण का यही अर्थ है। प्रकाष, अर्द्ध प्रकाष, अंधकार (सत्, रज, तम) यह तीन अवस्थायें है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का यही अर्थ है। ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता हैं सन्दिग्ध वस्तुयें ज्ञात कोटि में और अज्ञात वस्तुयें सन्दिग्ध र्कोिट में आती जाती है। यदि आप सभी को अध्यास कहेंगे तो अध्यास का लक्षण भी न कर सकेंगे। क्योंकि यदि गाय के सींग नहीं होते तो गधे के सिर पर उनका अध्यास भी नहीं हो सकता। (इसका कुछ वर्णन चतुःसूत्री की समालोचना मे आया है। वहाँ देखना चाहिये)ै।

Advaitwaad Khandan Series- By Gangaprasad Ji: भूमिका : शंकर भाष्य आलोचन

भूमिका : शंकर भाष्य आलोचन

श्रीयुक्त शंकराचार्यजी महाराज न केवल भारतवर्श के अपितु संसार के दार्षनिकों में एक उच्च स्थान रखते हैं। इस प्रकार के दार्षनिक जो अपने नवीन विचारों से जगत् को सम्पायमान कर दें और विद्वन्मण्डली तथा विद्या-षून्य सर्वसाधारण की विचारधारा को बदल दें जगतीतल पर कभी-कभी ही उत्पन्न होते हे। शंकर  स्वामी भारतवर्श में उस समय उत्पन्न हुये जब बौद्ध-दर्षन काल का प्राबल्य था और विषेश कर माध्यमिकों और योगाचारों का। इनका मूल सिद्धान्त था आत्म-नास्तिक्य और वेदों का अप्रमाणत्व किया और आत्मसत्ता तथा श्रुति के प्रामाण्य दोनों को पुनः स्थापित कर दिया।

इसके लिये शंकर  स्वामी के प्रयोग में सब से बड़ा अस्त्र जो आया वह वेदान्त दर्षन (वादरायण या व्यास के सूत्रों) का षरीरक भाश्य है। यह एक महान ग्रथ है। इसकी भाशा अत्यन्त विषद और कोमल है। और युक्तियों की षैली तो इतनी विलक्षण है कि जो मनुश्य दार्षनिक क्षेत्र में मास्तिश्किक भोजन चाहता है उसे अवष्य ही बड़े परिश्रम और सावधानी के साथ इसका अध्ययन करना चाहिये। प्रतिपक्ष का खण्डन तो शंकर  महाराज की आष्चर्य-जनक विषेशता है। राजा बालि के लिये प्रसिद्ध है कि जब वह प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष आता था तो उसके प्रतिपक्षी का आधा बल उसमें आ जाता था। वह आधा बल दूसरे आधे को परास्त करने के लिये पर्याप्त हो जाता था अपने बल को प्रयोग में लाने की आवष्यकता नहीं होती थी। श्री स्वामी शंकराचार्य जी अपने दार्षनिक जगत् के राजा बालि है। प्रतिपक्षी कीह प्रतिज्ञाओं और लक्षणों का ऐसा अद्भुत विष्लेशण करते हैं और यथासंभव जितने विकल्प उठ सकते है उनको उठाकर परिषेश न्याय ;च्तवव िइल म्गींनेजपवदद्ध द्वारा उसका इस प्रकार खंडन करते हैं कि प्रतिपक्षी स्वयं डाँवाडोल हो जाता है और दर्षक तो शंकर  स्वामी के पक्ष में करतलध्वनि किये बिना रह ही नहीं सकते। यही कारण था कि शंकर  स्वामी इतनी थोड़ी आयु में ही दिग्विजय कर सके और चारों ओर से त्यागे हुये वैदिक धर्म को फिर से पुनर्जीवित करने में सफल हुये।

जिस प्रकार काव्य जगत् में ‘उपमा कालिदासस्य’ प्रसिद्ध है इसी प्रकार दर्षनिक जगत् में शंकर  स्वामी के दृश्टान्त भी विचित्र विषेशता रखते है। इनकी विजय श्री का मुख्य साधन इनके दृश्टान्त है। दृश्टान्तों की खोज और उनके प्रयोग की षैली दोनों ही अद्भुत है। योद्धा के लिये षस्त्र ही पर्याप्त नहीं है। उन षस्त्रों के प्रयोग का औचित्य भी अनिवार्य है। शंकर  स्वामी दोनों बातों में दक्ष है। उनके तरकष में दोनों प्रकार के तीर हैं। कठोर आघात के लिये कठोर और कोमल आघात के लियें कोमल। षत्रु की हड्डियाँ चूर करनी हों तो वर्ज उठा लेते हैं और यदि षत्रु पुश्पमुखी हो तो तुशार से काम चला लेते हें। यदि कोई उचित तथा उपयुक्त दृश्टान्त न भी मिलता हो तो किसी दृश्टान्त को उठाकर इस प्रकार प्रदर्षन कर देते हैं कि चित्रपट सौन्दर्यपूर्ण हो जाता है। इस अन्तिम बात के लिये एक उदाहरण दे देना अनुयुक्त न होगा। चतुःसूत्री में प्रष्न उठाया कि यदि ब्रह्म के विशय में विधि और निशेध का प्रष्न असंगत है तो षास्त्र में लिङ् लकार का प्रयोग क्यों है? यह एक ऐसा प्रष्न है जिसका समुचित समाधान संभव ही नहीं है। यदि षास्त्र को मानते हैं तो सिद्धान्तहानि होती है और यदि सिद्धान्त पर आग्रह करते है तो भी सिद्धान्तहानि होती है क्योंकि षास्त्र का प्रामाण्य भी तो सिद्धान्त का एक अंग है। यदि षास्त्र विपक्षी बनकर आता तो शंकर  स्वामी किसी न किसी वज्र से उसकी हड्डियाँ चूर-चूर कर देते। अपने ही षरीर के दो अंग यदि एक दूसरे से लड़ पड़े तो क्या किया जाय। साधारण महारथी तो षस्त्र रख कर पराजय स्वीकार कर लेता। परन्तु शंकर  स्वामी ने अत्यन्त सौन्दर्य के साथ एक अद्भुत दृश्टान्त उपस्थित कर दिया जिससे षंका का समाधान न होने पर भी सर्वसाधारण की दृश्टि में उसका प्राबल्य नश्टा हो जाता है वे कहते हैंः-

तद्विपये लिङादयः श्रूयतमाणा अप्यनियोज्य विशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिपु प्रयुत्त क्षुरतैक्ष्ण्यादिवत्।   (पृश्ठ 19)

अर्थात् यद्यपि श्रुति में लिङ् आदि का प्रयोग है यथापि विशय नियोज्य नहीं है इसलिये जैसे पत्थर पर छुरा मारने से कुण्ठित हो जाता है इसी प्रकार लिङ् आदि का प्रयोग भी कुण्ठित हो जाता है।

ऐसे दृश्टान्त बहुत मिलेंगे जो दाश्र्टान्त के अनियोज्य होने के कारण पत्थर पर छुरे के तुल्य कुण्ठित हो गई हो छुरे की चमक-दमक तो वैसी ही बनी हुई है। अपितु शंकर  स्वामी के मायावी हाथों में आकर बढ़ गई है।

परन्तु इतनी प्रषंसनीय विषेशताओं के होते हुये भी शंकर  स्वामी का मायावाद सर्वसम्मत नहीं हो सका।

दूराद्धि पर्वता रम्याः।

शांकर  भाश्य के पष्चातु विषिश्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, षुद्धाद्वैत, तथा द्वैत सिद्धान्तों के पोशक अनेक भाश्य हुये। जिनमें अपने अपने ढंग से शांकर  मायावाद की कड़ी आलोचना की गई, और अब भी की जा रही है, शंकर  स्वामी की प्रषंसा सब करते हैं परन्तु शांकर  मायावाद के तद्वत् मानने वाले बहुत कम है। यद्यपि शंकर  स्वामी को षिश्य भी भाग्यवष ऐसे उत्तम मिले जिन्होने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य से अपने गुरू के सिद्धान्त रूपी हुई के टूटे फूटे अंषों की भली भांति लीपापोती कर दी, शांकर  भाश्य के भी कई भाश्य और उनपर टीकायें निकल चुकी हैं, जो साधारण विद्यार्थी को जीवन भर पढ़ने के लिये पर्याप्त हैं, फिर भी मायावाद है एक जर्जरित सिद्धान्त। कोई युक्ति, कोई षैली, कोई पाण्डित्य इसकी त्रुटियों को मिटा नहीं सकता।

प्रष्न इतने हैंः-

(1) क्या शंकर  मत युक्ति युक्त है?

(2) क्या वेदान्त सूत्र इसका प्रतिपादन करते है?

(3) क्या वेद और उपनिशदों द्वारा इसकी पुश्टि होती है?

पहली बात तो तर्क से सम्बन्ध रखती है। तर्क के अप्रतिश्ठान की अवस्था में दूसरी और तीसरी बातों का आश्रय लेना है। यदि यह दोनों ठीक हैं तो यह कहना पड़ेगा कि शांकर  भाश्य ही एक स्वीकार करने योग्य भाश्य हे अन्य सब त्याज्य है। परन्तु ऐसा कहना दुस्साहस मात्र है। उसके कारण स्पश्ट हैं। और भाश्य पर एक गहरी दृश्टि डालते ही अवगत हो जाते हें।

जितने भाश्य वेदान्त पर पाये जाते हैं उनकी तुलना करके षुद्धाषुद्ध का निर्णय कठिन है। शांकर  भाश्य से पुराना कोई भाश्य नहीं मिलता। बोधायन मुनि के भाश्य का नाममात्र ही षेश है। वह क्या था पता नहीं, शंकर  स्वामी ने भी कहींे इसका उल्लेख नहीं किया। एक दो स्थानों पर शंकर  स्वामी ने कुछ वेदान्तियों का उल्लेख किया है। जिनका मत उनके मत से भिन्न था। जैसे

‘केचित् पुनः पूर्वाणि पूवेपक्षसूत्रणि भवन्त्युत्तराणि सिद्धांत सूत्राणीत्येतां व्यवस्थामनुरूध्यमानाः परविशया एव गतिश्रुतीः प्रतिश्ठापयन्ति तदनुपपन्न गन्तव्यत्वानुपपत्तेब्र्रह्मणः।

अर्थ-कुछ लोग ऐसा मानते हें कि पहले सूत्र पूर्व पक्ष के हैं और पिछले सिद्धान्त पक्ष में। और इस प्रकार आत्मा की गति का विशय पराविद्या के अन्तर्गत है। परन्तु यह ठीक नहीं। ”ब्रह्म में गन्तव्यत्व कैसा?“

इसी प्रकार

अपरे तु वादिनः पारमार्थिकमेव जैवं रूपमिति मन्यन्तेऽस्म-दीयाष्व केचित्।

(षां॰ मा॰ 1।3।19। पृश्ठ 115)

अर्थ-कुछ लोग जीव का रूप पारमार्थिक मानते हैं। हममें से कुछ लोग भी।

यह ‘केचित्’ और ‘अपरे’ कौन है यह पता नहीं। परन्तु यह तो सिद्ध ही है कि शंकर  स्वामी से पहले भी कुछ ऐसे भाश्यकार या वृत्तिकार रहे होंगे जिनका शांकर  मत से मौलिक भेद था। क्योंकि ऊपर जो उदाहरण दिये वे मूल-सिद्धान्त से सम्बन्ध रखते हैं। गौण बातों से नहीं।

श्री रामानुजाचार्य जी ने अपने श्रीभाश्य में तथा अपने वेदार्थ संग्रह में बोधायन, तंक, द्रमिड़, गुहदेव, कपर्दिन, भारूचि का उल्लेख किया है और यत्र-तत्र कुछ उद्धरण भी किये हैं। परन्तु इनमें से कोई भाश्य प्राप्य नहीं है। और धारणा तो ऐसी है कि रामानुजाचार्य को भी देखने को नहीं मिले। इन्होंने अन्य पुस्तकों में ही संकेत पाया होगा।

यह परिस्थिति बड़ीं कठिन है। वेदान्त सूत्रों का ही स्वतन्त्र अध्ययन किया जाय और भाश्यों की सहायता सर्वथा छोड़ दी जाय। इससे भी काम नहीं चलता। क्योंकि बहुत से सूत्रों में केवल संकेत से कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं निकलते। ‘षब्दात्’ ‘आह’ श्रुतेः’ से यह पता चलना असंभव है कि किस वेद का कौन सा मंत्र अभीश्ट है या कौन सी उपनिशद् का कौन सा वाक्य। इस विशय में शंकर  स्वामी ने जो सीमेन्ट की पक्की सड़क बना दी है उसी पर अन्य भाश्यकार भी चल पड़े हैं चाहे उनका सिद्धान्त कितना ही विरूद्ध क्यों न हो। सूत्रों का प्रायः वही अधिकरण और उपनिशदों के प्रायः वही कथन। मुझे तो प्रतीत होता है कि शंकर  स्वामी की पूरी पूरी छाप सभी भाश्यों पर है। किसी न स्वतंत्र खोज नहीं की। केवल अपने निज सिद्धान्त की पुश्टि के लिये कहीं कहीं एक दो पग इधर उधर बढ़ाया हे परन्तु षीघ्र ही फिर उसी मार्ग पर आ गये हैं। एक विचित्र बात है वह है सोचने योग्य। ‘षास्त्रयोनित्वात्’ मे बादरायण वेद का प्रामाण्य मानते है, फिर क्या कारण है कि ‘षब्दाद्’ ‘श्रुत’ ‘आह’ इत्यादि से सम्पूर्ण उपनिशदों के ही उदाहरण लिये जाय न कि वेदों के? षांर भाश्य में वेदों के दो चार प्रमाणों से अधिक नहीं मिलते। एक तो ‘सूय्यौचन्द्रमसौघाता’ है और दूसरा ‘द्वासुपर्णा’। पिछला मन्त्र उपनिशत् में भी है। ऐसे ही बहुत खोज के पष्चात् दो चार षायद और मिलें। श्री रामानुजाचार्य ने श्रीभाश्य में स्मृति के अन्तर्गत विश्णु पुराण के उद्धरणों की भरमार कर दी है। श्री आनन्दतीर्थ के अणुभाश्य में अन्य पुराणों के भी उद्धरण हैं। वेद के प्रमाण क्यों नहीं है? यह एक टेढ़ा प्रष्न है। आजकल के आय्र्य समाजिक भाश्यकार दो है एक आर्यमुनि जिनका भाश्य हिन्दी में है और दूसरे स्वामी हरिप्रसाद ने वेदों के भी उद्धरण स्वतन्त्रतापूर्ण दिये हैं। परन्तु इन भाश्यों की ओर विद्वानों का ध्यान गया ही नहीं है। दूसरे इन भाश्यों में भी कितनी मौलिकता है यह एक प्रष्न है।

एक बात मुझे और खटकी। परन्तु इसका समाधान नहीं मिला। जैसे ‘द्यु भ्वाद्यायतनं स्वषब्दात्’ (वे॰ 1।3।1) में ‘स्व’ षब्द पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि किसी ऐसी श्रुति की ओर संकेत है जिसमें ‘स्व’ षब्द हो। परन्तु मुण्डक उपनिशद् 2।2।5 की जो श्रुति दी जाती है उसमें ‘स्व’ षब्द नहीं इसके स्थान पर ‘आत्म’ षब्द है। यदि यही श्रुति सूत्रकार को अभीश्ट होती तो ‘आत्मषब्दात्’ ऐसा कहते है। पर्याय देने का क्या प्रयोजन था? जैसे ‘समि़़द्वती’ ऋचा वह है जिसमें ‘समिद्’ षब्द आया हो और ‘सवित्री’ वह है जिसमें ‘सविता’ षब्द आया हो। इसी प्रकार ‘स्थित्यदनाभ्याम् च’ (1।3।7) में ‘द्वासुपर्णा’ (मु॰ 3।1।1) की ओर संकेत बताया जाता है। इसमें भी न ‘स्थिति’ षब्द है न ‘अदन’। ऐसे ही अन्यत्र भी कई मिलेंगे। कहीं कही तो ठीक है जैसे ‘स्वाप्ययात्’ (1।1।9) का सम्बघ ‘यत्रैयतत् पुरूशः स्वपिति’ इत्यादि (छा॰ 6।8।1) से है। फिर भी यह वेदमन्त्र नहीं है। इस ओर अभी तक किसी विद्वान् का ध्यान नहीं गया।

फिर ‘अनुमान’ षब्द सांख्य के प्रधान या प्रकृति का वाचक कैसे और कब से बन गया ओर सांख्यमत के किस ग्रन्थ में यह षब्द इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है इसका पता नहीं चलता। श्री रामानुज आदि अन्य भाश्यकारों ने इसकी विवेचना की ओर इसलिये ध्यान नहीं दिया कि वे स्वयं सांख्य के विरोधी थे। इन्होंने तो केवल उसी स्थल की जाँच की है जहाँ उनके प्रयोजन का प्रष्न था। यह भी तो संभव है कि जहाँ हमारे सिद्धान्त की हानि न होती हो वहाँ भी युक्ति या उदाहरण समीचीन न हो।

एक और प्रष्न है। वर्तमान भाश्यकार यह मानकर चले है कि वैदिक शड् दर्षनों में केवल इतना ही समाजस्य है कि वे वेदों को किसी न किसी रूप में प्राणाण्य मानते हैं। अन्यथा उनमें परस्पर घोर विरोध है। अंग्रेजी भाशा वाले तो इनको  ैपग ैबीववसे व िच्ीपसवेवचील कहते हैं अर्थात् यह छः अलग अलग सम्प्रदाय हैं। मध्यकालीन भारतीय दार्षनिक सम्प्रदायों की परस्पर नोक-झोंक तो प्रसिद्ध ही हैं। वेदान्ती अपने को दर्षन रूप बन का केसरी मानते हें। और अन्य सम्प्रदायों को श्रृगाल मात्र। न्याय आदि वेदान्तियों को यह पदवी देना नहीं चाहते। उन्होंने भी इस कल्पित केसरी के दाँत और नख तोड़ डालने का भरसक प्रयत्न किया है।

यदि यह मान लिया जाय कि यह छहों दर्षन बोद्धा और जैन काल के पष्चात् बने और उनका खण्डन तथा वेद की स्थापना करने के लिये। तो इनमें परस्पर विरोध कैसे हो गया? आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाष में यह संकेत किया है कि यह छः दर्षन मौलिक सिद्धान्तों में विभिन्न नहीं हैं। केवल षैली का भेद है। परन्तु इस पर कोई अच्छी पुस्तक लिखी नहीं गई जिसमें विस्तार से इस बात की मीमांसा की गई हो। यदि यह बात ठीक है तो वेदान्त दर्षन के भाश्य में बहुत बड़ी उथल पुथल करनी पड़ेगी। परन्तु इसके लिये बहुत बड़ा संगठित उद्योग चाहिये।

वेदान्त दर्षन के शांकर  भाश्य के अध्ययन में हमको जो कुछ सूझ पड़ा उसको हम शांकर  भाश्यालोचन के रूप में जनता के समक्ष रखते है। शांकर -भाश्य का उद्धृत करते हुये हमने वेदान्त दर्षन के अध्याय, पाद, सूत्रों के वे अंग दिये हैं जिन पर शंकर  स्वामी का भाश्य है। और पाठकों की सुविधा के लिये निर्णयसागर बम्बई की प्रकाषित ”ब्रह्म-सूत्र शांकर -भाश्यम् सटिप्पनं मूल मात्रम्“ द्वितीय संस्करण षाके 1849 सन् 1927 के पृश्ठ दिये हैं।

गंगाप्रसाद उपाध्याय