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ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हों

ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हों

– राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

हम में से किसी ने कभी सोचा ही नहीं कि माननीय डॉ. धर्मवीर जी हम से इतनी शीघ्र बिछड़ जायेंगे। मौत ने एक झपटा मार कर उन्हें हमसे छीन लिया। 6 अक्टूबर 2016 को प्रातः वह चल बसे। यह कहना तो ठीक नहीं कि वह मर गये। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए आपने कर्त्तव्य-पथ पर प्राण त्याग दिये। हम कहेंगे कि श्री धर्मवीर जी मरे नहीं, प्रत्युत् आपने इस लोक में जीना बन्द कर दिया। मृत्यु के समय किसी से कोई संवाद नहीं किया।

डॉक्टरों को हाथ से संकेत करते हुए धैर्य रखने की प्रेरणा देते रहे। जो कुछ उन्होंने कण्ठाग्र कर रखा था, उसका चलते-फिरते यात्रा में भी पारायण करते रहते थे। देह-त्याग के समय भी कुछ बड़बड़ाते रहे। हॉस्पिटल जाते समय भी कह रहे थे ‘‘चले हम दयानन्द के स्थान पर’’ स्टेशन से लाते समय भी सेवकों को यही का ‘‘मुझे ऋषि उद्यान नहीं, श्मशान ले चलो।’’ उनका दाह कर्म वहीं किया गया, जहाँ महर्षि दयानन्द जी का अन्तिम संस्कार किया गया।

कर्मण्यता की मूर्त्ति, पुरुषार्थ-परमार्थ के पुतले डॉ. धर्मवीर जी का जीवन अत्यन्त घटनापूर्ण रहा है। वह इस विनीत को 60 वर्ष से जानते थे और मेरा उनसे गत 50 वर्ष से घनिष्ठ सामाजिक नाता था। मेरे नयनों के सामने उनके क्रियाशील, संघर्षमय जीवन की फिल्म घूम रही है। मुझे लिखने को कहा जाये तो मैं एक दम बिना किसी तैयारी के उनके जीवन के 250-300 प्रेरक प्रसंग लिख सकता हूँ। परोपकारी के विशेषाङ्क के लिए क्या लिखूँ और क्या छोडूँ?

वह ईश्वर से कोई ऐसा वरदान लेकर आये कि वह निरन्तर नया-नया इतिहास रचते रहे। जहाँ भी हाथ लगाया, एक सृष्टि रच दी। धर्मवीर जी किसी व्यक्ति की चाकरी नहीं करना चाहते थे, ध्येयनिष्ठ थे। इतिहास में ऐसे दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति ही स्थान पाते हैं।

गृहस्थी बने तो अपनी तीन मेधावी पुत्रियों की भाषा संस्कृत बनाई। इसे मातृभाषा तो कह नहीं सकते। उनकी पितृभाषा में उनके संवाद, वार्त्तालाप और व्याखयान सुनकर श्रोता झूम उठते थे। क्या धर्मवीर जी की निष्ठा, संस्कृत व संस्कृति प्रेम का यह कोई साधारण चमत्कार है?

धर्मवीर जी परोपकारिणी सभा के जब न्यासी बने, तब सभा का अस्तित्व रिकॉर्ड में तो था, परन्तु इतिहास में सभा को कौन जानता था? स्वामी सर्वानन्द जी महाराज, श्रीमान् गजानन्द जी आर्य तथा धर्मवीर जी ने इतिहास में इस सभा की पहचान बना दी। मैं लगभग आधी शताबदी से ऋषि मेले पर आ रहा हूँ। वर्षों पर्यन्त बिना बुलाए आया करता था। यहाँ चाय का कप पिलाने वाला, अल्पाहार पूछने-करवाने वाला कोई नहीं होता था। अब धर्मवीर युग में पूरा वर्ष अतिथियों को दूध, भोजन, सब कुछ मिलता है। इसका श्रेय हमारी इसी त्रिमूर्ति को जाता है।

स्नानागार यहाँ नहीं था। स्वामी सर्वानन्द जी की कोटि का संन्यासी गैलरी में ठहरते हमने देखा। बिस्तर, खाट, ततपोश की व्यवस्था नहीं थी। परोपकारिणी सभा को एक धर्मवीर मिला, तो करोड़ों-अरबों रुपये के भवन बनते गये। पुराने जीर्ण भवनों की नियमित मरमत होती रहती है। यह भिक्षा का भोजन करने वाले सर्वानन्द संन्यासी के आशीर्वाद, सेठ गजानन्द आर्य की सरलता, निर्मलता, संगठन, बुद्धि तथा धर्मवीर लेखराम के धर्मानुरागी योद्धा डॉ. धर्मवीर की आग, पुरुषार्थ, कर्मण्यता व ऊहा का चमत्कार है।

सर्वानन्द महाराज के चरण कमल यहाँ पड़े तो इन दोनों धर्मवीरों (गजानन्द आर्य व धर्मवीर आर्य) के पुण्य प्रताप से यहाँ गुरुकुल की वाटिका लहलहाने लगी। यहाँ महाशय चून्नीलाल चन्ननदेवी गोशाला की स्थापना से अतिथियों की, यात्रियों की, यतियों की, ब्रह्मचारियों की, सबकी दुग्धामृत, लस्सी, दही से सेवा होने लगी।

‘परोपकारी’ पत्रिका की प्रसार संखया जानते हो क्या थी? मात्र 400-500, बस। धर्मवीर समपादक बनते गये, तो वही परोपकारी देश-विदेश में फैलता जा रहा है। आज विरोधी, विधर्मी, अपने-बेगाने सब इसे चाव से पढ़ते हैं। परोपकारी मासिक से पाक्षिक हो गया। देश-विदेश में कोई भी वेद पर, ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज पर, आर्य संस्कृति पर वार-प्रहार हो, परोपकारी बहुत सजगता से उत्तर देने को सजग रहता है। एक भी अंक ऐसा नहीं, जिसमें विरोधियों के आक्षेपों व आक्रमणों का युक्ति, तर्क व प्रमाण से हमारे विद्वान् अपनी ज्ञान प्रसूता धारदार लेखनी से उत्तर न देते हों।

यह सब डॉ. धर्मवीर आर्य की श्रद्धा, मेधा बुद्धि व ऋषि मिशन के लिए अखण्ड निष्ठा का चमत्कार है। धर्मवीर जी की इस नीति-रीति ने प्राणवीर पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के स्वर्णिम अतीत को वर्तमान कर दिखाया है। उनकी इस सेवा को हमारे विरोधी तो जानते हैं, मानते हैं, आर्यसमाज भी जानता ही होगा।

परोपकारी ने ऋषि मिशन को ऐसे-ऐसे रत्न दिये हैं, जिनके सुदृढ़ कंधों पर आर्यसमाज के उज्जवल भविष्य का भार छोड़कर हमारे धर्मवीर जी ने हमसे विदाई ली है। मैं ऐसे किस-किस रत्न का नाम यहाँ गिनाऊँ। परोपकारिणी सभा के भक्त उदार दानी श्री पीताबर कमल जी-रामगढ़, श्री पंकज शाह-विदर्भ वाले, श्री अनिल आर्य-चामधेड़ा, हरियाण की सेना, राजस्थान से एक अनुभवी साहित्यकार श्री वेदप्रकाश आर्य और दूर दक्षिण से श्री रणवीर आर्य-तेलंगाना वाले समर्पित सेवक परोपकारी की ही देन हैं।

धर्मवीर जी की नीतिमत्ता का लोहा कौन नहीं मानेगा? परोपकारी धर्मरक्षा में सब विरोधी शक्तियों से टक्कर लेता ही रहता है। विरोधी हमारे किसी भी लेख पर केस करके हमें कोर्ट में नहीं घसीट सके। भले ही कुछ अपने घने सयानों ने अपना बुद्धि कौशल दिखाकर धर्मवीर जी व उनके सहयोगी आर्य पुरुषों पर अभियोग चलाकर यह कमी भी पूरी कर दी है।

हमारे धर्मवीर जी की लेखनी व वाणी पर आर्यसमाज के बाहर के बड़े-बड़े धर्माचार्य, शंकराचार्य भी मुग्ध होते देखे गये। इस धर्मवीर ने स्वामी श्रद्धानन्द, पूज्य महात्मा नारायण स्वामी, लौह-पुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द का इतिहास दोहराते हुए, वेद-प्रचार करते हुए रणभूमि में ही प्राण त्यागे हैं। यह हमारे लिए अत्यन्त गौरव की बात है। अन्तिम श्वास लेने से पूर्व सेवा करने वाले ब्रह्मचारी योगेन्द्र आर्य जी से आग्रहपूर्वक रात्रि समय में कहा, ‘‘आप मेरी चिन्ता न करें। आप सो जायें। आप विश्राम करें।’’

धर्मवीर जी ने घर नहीं बनाया। अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा। न दक्षिणा माँगते हुए उन्हें देखा गया और न ही मार्ग व्यय की कहीं माँग की। घर घाट बनाने, धन कमाने की कतई चिन्ता नहीं की। जो कुछ कहीं से मिला, चुपचाप सभा को भेंट करते रहे। क्या-क्या घटना यहाँ दें?

श्रोता एक हों अथवा दो-तीन या सहस्रों, उन्हें इसकी कतई चिन्ता नहीं थी। गुरुवर स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का यह नाम लेवा प्रतिवर्ष कुछ समय के लिए बिन बुलाये दूरस्थ प्रदेशों में, ग्रामों में, नगरों में, जहाँ आर्यसमाजें नहीं हैं या शिथिल हो चुकी हैं, मर चुकी हैं, जहाँ कोई विद्वान् नहीं जाता, वहाँ प्रचारार्थ पहुँच जाते। अपनी पत्नी को भी प्रचार यात्राओं पर लेकर निकलते रहे। कभी इस यात्री को और ओम् मुनि जी जैसे साथी को लेकर दूर-दूर निकले जाते थे। अब भी वर्ष 2017 में दो यात्राओं को निकालने की मुझे स्वीकृति चलभाष पर देकर कहा, ‘‘अजमेर आकर हम सब साथी बैठकर इनकी रूपरेखा बनायेंगे। आप यात्राओं की घोषणा कर दें।’’ मैंने कहा, ‘‘घोषणा तो आप या मुनि जी को ही करनी है। कौन-कौन साथ होगा, यह मिलकर निर्णय कर लेंगे।’’ इन यात्राओं के निकालने से पहले ही वह अन्तिम यात्रा पर निकल गये।

वैदिक पुस्तकालय के श्री गुप्ता जी ने कहा कि ‘मैंने तो ऐसा प्रधान कभी नहीं देखा, यदि वैदिक पुस्तकालय से साहित्य मँगवाने के लिये कोई पत्र उनको मिलता तो वह सेवक के हाथ मेरे पास नहीं पहुँचाते थे। मुझे भी अपने कार्यालय बुलवाकर ऐसे पत्र नहीं सौंपते थे। स्वयं मेरे टेबल पर आकर पत्र मुझे दिया करते थे।’ यह प्रसंग सुनाते हुए उनके नयन सजल हो गये।

आर्यसमाज की नाड़ी पर सदा इस वैद्य, विद्वान् व नेता का हाथ रहता था। उनको देशभर के समर्पित समाज सेवियों का अता-पता रहता था। वह सबकी चिन्ता करते थे। संन्यासी का, वानप्रस्थी का, ब्रह्मचारी का, विद्वान् का, सबका उन्हें ध्यान रहता था। आर्यसमाज में कौन जानता है कि डॉ. हरिश्चन्द्र जी की कोटि का वैज्ञानिक व विद्वान् मिशनरी अब तक 85 देशों में धर्म प्रचार कर चुका है। भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी के पश्चात् यह भी एक कीर्तिमान है। अपनी अमेरिका यात्रा से लौटकर धर्मवीर जी ने भाव-विभोर होकर मुझे यह जानकारी सविस्तार दी।

आन्ध्र से लौटकर मुझे बताया कि श्रीयुत् शत्रुञ्जय जी व डॉ. बाबूराव जी ने आई.आई.टी. में आर्यसमाज का अच्छा संगठन करके सुयोग्य युवक-युवतियों का निर्माण करके उन्हें सक्रिय किया है। इसी प्रकार देश-विदेश के कार्यकर्त्ताओं का वह पूरा पता रखते थे।

उनके व्यक्तित्व का एक अनुकरणीय पहलु यह था कि उन्होंने तीनों पुत्रियों का जाति बन्धन तोड़कर विवाह किया। कहना सरल है, परन्तु करना कठिन है। वह जातिवाद, प्रान्तवाद की सोच से बहुत ऊपर थे। निडरता, ऋषि भक्ति के गुण उनको बपौती से प्राप्त हुए। उनके पिता श्री पं. भीमसेन जी की सत्यवादिता व धर्मनिष्ठा को मराठवाड़ा के सब आर्य जानते-मानते थे। यही गुण हमने श्री धर्मवीर जी में देखे।

धर्म-प्रचार उनकी दुर्बलता बन चुका था। ट्रेन में यात्रा करते हुए वह सह यात्रियों में वेद की विचारधारा का सन्देश देने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। उठते-बैठते, सोते-जागते वह ऋषि मिशन के लिए ही सोचते थे।

उनके निधन से जो क्षति हुई है, वह अपूरणीय है। आओ! ईश्वर से यह प्रार्थना करेंः-

हे प्रेममय प्रभु! तुहीं सबके आधार हो।

तुम को परमपिता प्रणाम बार-बार हो।।

ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हो।

वैदिक पवित्र धर्म का जग में प्रचार हो।।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116