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मृत-पितरों का श्राद्ध, तर्पण आदि: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह दूसरी मिलावट है। ऊपर बताया जा चुका है कि

पितृयज्ञस्तु तर्पणम्

(मनु0 3।70)

पितृयज्ञ को तर्पण कहते है। साधारण हिन्दू समझता है कि तर्पण मरे पितरों को पानी देने का नाम है । मनु के इस श्लोक से तो मृत पितरो की गंध नही पाई जाती । इसी श्लोक का भाष्य करते हुए कुल्लूक भट्ट लिखते हैं:-

‘अन्नाद्येनोदकेन वा’ इति तपणं वक्ष्यति स पितृयज्ञः। अर्थात् तर्पण में अन्न पानी देने का विधान आगे कहेगे। यही पितृयज्ञ हैं। जिसके विषय में वक्ष्यति (आगे कहेंगे ) लिखा है। वह श्लोक यह है:-

कुर्यादहरहः श्राद्धमत्राद्येनोदकेन वा ।

पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्।।

अर्थात पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाकर खना, पानी, दूध, मूल फल से प्रति दिन श्राद्ध करे इस श्लोक के होते हुए कौन कह सकता है कि यहाॅ मृत पितरो को रोज बुलाने का विधान है ? इन दोनो श्लोको और कुल्लूक की टिप्पणी को देखकर प्रतीत होता है कि जिसको तर्पण कहते है और दूसरे में श्राद्ध है । एक श्लोक में तर्पण शब्द आया है और दूसरे में श्राद्ध। बात एक ही है प्रबन्ध करना । “अन्नद्य” वैदिक ग्रन्थों का एक परिचित शब्द है जो इसी अर्थ में आता है। मरे हुए पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाने का कुछ भी अर्थ नहीं । वह आ ही कैसे सकते है ? वैदिक सिद्धान्तानुसार तो उनका दूसरा जन्म हो जाता है और जो पुनर्जन्म को नही मानते वह भी मृत आत्मा की कुछ न कुछ गति तो मानते ही है उनक ेमत में भी मृतकों का बुलाना असम्भव है। मृतको को खाना पानी पहुॅचाने की प्रथा कहाॅ से चली यह कहना कठिन है। साधारणतया तो यह प्रथा बहुत पुरानी मालूम होती है। दो सहस्त्र वर्ष से अवश्य पुरानी है, इसलिये समस्त तत्कालीन साहित्य में इतस्ततः इसके उदाहरण मिलते है। मर कर आत्मा की क्या गति होती है इसके विषय में प्राचीन मिश्र आदि देशो की जातियों में भिन्न मत थे। आत्मा के साथ प्रेम करते-करते हमको शरीर से भी प्रेम हो जाता है। यह शरीर का प्रेम ही है जिसके कारण लोगों ने मृतक की लाश का अपने प्रकार से आदर-सम्मान करके की प्रथा डाल ली। वैदिक सिद्धान्त तो यह था कि

भस्मान्त  शरीरम्

(यजुर्वेद 40।15 )

आर्थात् मरने पर लाश को जला देना चाहिये । मनु 2।16 से भी ऐसा ही पाया जाता है। यही सब से उत्तम रीति थी। क्योकि पांच भौतिक शरीर को बिना सडे गले अपने कारण में लय कराने की अन्य कोई विधि नही है । परन्तु जो लोग मृत्यु के तत्व को नही समझते थे वह उसी प्रकार मृतक के शव को सुरक्षित रखने का प्रयव करते थे जैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को गले से चिपटाये फिरा करती है । शव को सुरक्षित रखने के कई प्रकार प्रचलित हो गये। मिश्र देश में लाश के भीतर मसाला लगाकर शरीर के ऊपरी भाग को सुरक्षित रखने की प्रथा थी । कुछ लोग समझते थे कि आत्मा को परलोक यात्रा के लिये खना पानी रख देने की आवश्यकता है जैसे यात्रा पर चलते समय लोग साथ भोजन बाॅध लेते हैं। इस प्रकार लोग लाश के साथ भोजन या पिण्ड रखने लगे। ’पिंड‘ शब्द का मौलिक अर्थ भोजन था जैसे कि नीचे के उदाहरणो से ज्ञात होता है:-

(1) तथेति गामुत्कवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्त बाहुः।

सन्यस्त शस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत् पिंडामवामिषस्य।।

(रघुवंश 2।51 )

(2) न शोच्यस्तत्र भवान् सफलीकृतभर्तृ पिंडः।

(मालविकाग्रिमित्र पंचमोऽक्कः )

(3) लांगूलचालनमधश्ररणाव पातं

भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च।

श्रा पिंडदस्य कुरूते गजपुंगवस्तु

धीर विलोकयति चाटु शतैश्य भुक्ते।।

(भर्तृहरि नीतिशतकम् 31 )

यब यह लोग लाश के साथ पिंड रखते थे तो यह जानने का यत्न नही करते थे कि यदि आत्मा यात्रा पर चली गइर्    तो भी वह लाश से तो निकल ही गई । लाश के साथ भोजन रखने से क्या प्रयोजन ? आत्मा मरने के पश्चात् कहीं जाय, चाहे नष्ट हो जाय चाहे अन्यत्र चली जाय। कम से कम इतना तो मानना ही पडेगा कि उसका इस शरीर के साथ सम्बन्ध टूट गया। जीवन और मृत्यु मे क्या भेद ? यह न कि जब तक जीव शरीर के साथा है जीवन है जब साथ छूट गया तो मृत्यु हो गई। इस प्रकार मृतक के शव के साथ भोजन या पिंड रखना कुछ अर्थ नही रखता। परन्तु मनुष्य मे मोह होता है। वह अज्ञानवश मृत्यु के तत्व को भूल जाता है और मृतक की लाश से ही प्रेम करने लगता है। कवरो पर फातिहा पढने की प्रथा भी इसी अज्ञान की द्योतक है । लोग कबरों पर चादर चढा कर समझते है कि आत्मा उस कबर में कही चिपटी हुई है  पिंड के यह मौलिक अर्थ पीछे से बदल गये और पिंड शब्द आटे के उन पिंडो का अर्थ देने लगा जो आजकल मृतक के नाम पर दिये जाते है ।

जब एक बार कोई प्रथा चल पडती है तो उसके लिये युक्तियाॅ भी गढ ली जाती हैं, चाहे वह प्रथा कितनी ही भ्रमात्मक क्यों न हो। भिन्न भिन्न देशों के इतिहास मे इस प्रकार की युक्तियाॅ मिलती हैं। जिन देशो में पुनर्जन्म मानने की प्रथा जाती रही वहाॅ के लोगों का विचार था कि आत्मा शरीर से निकलकर विक्षिप्त अवस्था में इधर उधर फिरती रहती है। उसकी शांति के लिये कुछ कृत्य करना होता है। भारतवर्ष के हिन्दुओं ने भी एक युक्ति गढ ली कि भौतिक शरीर के त्यागने पर जो लिंग शरीर रह जाता है उसकी पुष्टि पिंडदान द्वारा की जाती है। मौनियर विलियम्स ¼Monier Williams½  ने हिन्दुओं के श्राद्ध के विषय मे लिखा हैं।

‘’It is performed for the benefit of a deceased person after he has regained an intermediate body and become a pitri or beatified father’’ . (Brahmanism p. 285)

अथार्त मृतक के आत्मा के ’पितृ‘ हो जाने पर उसके लिंग शरीर के लाभार्थ श्राद्ध किया जाता हैं। परन्तु लोग यह सोचने का कष्ट नहीं उठते कि श्राद्ध करके या पिण्डदान करके लिग्ड शरीर को किस प्रकार लाभ पहुॅचाया जा सकता है । साधारणतय तीन पीढियों तक श्राद्ध किया है । इससे भी प्रतीत होता है कि जीवित पिता, पितामह, प्रपितामह, आदि के श्राद्ध तर्पण का ही बिगडकर यह रूप हो गया है। लिंग शरीर को इन तीन पीढियों तक ही क्यों लाभ पहुॅचता है और लिंग शरीर इतने दिनो पुनर्जन्म के लिये क्यो ठहरा रहता है, यह एक ऐसी समस्या है जो मृतक श्राद्ध के ढकोसले को आगे बढने नही देती।

कुछ लोगों ने पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति को मृतक श्राद्ध के पक्ष में लिया है। पुत्र कहते है पुत् नाम नरक से जो बचावे उसको । लोग कहते है कि पुत्र जब श्राद्ध करेगा तो पिता नरक से बच सकेगा। यदि किसी का पुत्र श्राद्ध नहीं करता तो उसका नरक से त्राण भी नहीं होने का । परन्तु ऐसी धारणा करने वाले कर्म के सिद्धान्त को नही समझते । मौनियर ने इस विषय में एक चुभता हुआ नोट दिया है:-

It is wholly inconsitant with the true theory of Hinduism that the Shraddha should deliver a man from the consequence of his own deeds. Manu says ‘‘ Iniquity once practiced, like a seed, fails not to yield its fruit to him that wrought it.’ ( iv 173 ) but Hinduism bristles with such inconsis tencies.

( Brahmanism,page 28 )

अर्थात् यह बात हिन्दू धर्म के सिद्धान्त के सर्वथा विरूद्ध है कि श्राद्ध के द्वारा मनुष्य अपने निज कर्मो के फल से बच सके  क्योकि मनु 4।173 मे लिखा है कि एक बार किया पाप बीज के समान फल लाने से नही रूक सकता। परन्तु हिन्दू धर्म इस प्रकार के परस्पर-विराधों से भरा पडा है। ” वस्तुतः बात भी ठीक है । जब मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार ही दूसरी योनि पाता है तो उसके पुनर्जन्म को उसकी सन्तान के कर्मो के आधीन कर देना कहाॅ का न्याय है ?

शायद पाठक कहें कि फिर पुत्र को नरक से बचाने वाला क्यों कहा ? क्या निरूक्त में यास्क ने पुत्र की यह व्युत्पत्ति नहीं की ? हमारा उत्तर यह है कि व्युत्पत्ति तो ठीक है। केवल समझ का फेर है। प्रथम तो यह धारणा भ्रम-मूलक है कि पुत्र केवल लडके को ही कहते है लडकी को नहीं ।

यास्क के निरूक्त में यह श्लोक मिलता है:-

अविशेषण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भवोऽब्रवीत्।।

अर्थात् धर्म के अनुसार लडका और लडकी दोनो को बिना विशेषता के दायभाग मिलता है। ऐसा स्वायम्भव मनु ने कहा था।    दूसरे, सन्तान को नरक का त्राता कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तानोत्पत्ति करके और उसका यथोचित पालन करके मनुष्य ’पितृ-ऋण‘ से छूट जाता है। बिना ऋण चुकाये मोक्ष का भागी होना कठिन है। सन्तान को धर्मात्मा और सुशिक्षित छोड जाना एक प्रकार से मृतक के आत्मा के लिये भी लाभदायक है। क्योकि पिता मरकर जब जन्म लेगा तो उसी प्रकार के घरों में जैसे उसने छोडा है। यदि सन्तान अधर्मी और विद्याहीन है तो आने वाले समाज की अवस्था भी बुरी होगी। और जो आत्मा मरकर जन्म लेगी उसको इसी बुरे समाज के नरक रूपी गढे मे पडना जिससे उसका अगला विकास बन्द हो जायगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संतान मनुष्य को नरक से बचाती है, परन्तु पिंड देकर नहीं किन्तु सामाजिक वातावरण को शुद्ध करके। यदि इस दृष्टि से देखा जाता तो मौनियर विलियम्स को हिन्दू धर्म में इतना विरोध दिखाई न पडता। परन्तु जब हिन्दुओं ने स्वयं ही आपने सिद्धान्तों को बिगाड  रखा हो तो विदेशियो का क्या दोष ?

भारतवर्ष में यह प्रथा कब से चली इसमें सन्देह है। भारतवर्षो पहले भी पुनर्जन्म को मानते थे और अब भी मानते है। बौद्ध और जैन मतों ने वेदो को मानना त्याग दिया था, परन्तु पुनर्जन्म पर वह भी उसी भाॅति विश्वास रखते थे। दूसरे देशों के अति प्राचीन इतिहास तो पुनर्जन्म का पता देते है परन्तु पीछे के लोगों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को त्याग दिया और वे मृत-आत्माओं की भाति -भाति से पूजा करने लगे। इसका प्रमाण पूर्वी तथा पश्चिमी देशो के इतिहास से मिलता है। बौद्धमत का जब चीन, जापान, ब्रह्मा आदि देशों मे प्रचार हुआ तो बौद्ध लोग भी मृत-आत्मा के उपासक बन गये । बौद्धो का सिद्धान्त आत्मा के विषय मे वहीं नहीं है। जो वोदों का है। बौद्धों का आत्म-विज्ञान वाद भारतवर्ष के अन्ंय मतों के आत्मा-विषयक भिन्न-भिन्न वादो से भेद रखता है। वे आत्मा को एक स्थायी पदार्थ नही मानते। इनका निर्वाण भी वैदिक अपवर्ग से भिन्न है। श्री शंकराचार्य ने वेदान्त भाष्य में इसका कई स्थानो पर उल्लेख किया है। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के प्श्चात् उनके उपासक उनको पूजने लगे थे । पूजा का यही अर्थ है कि वह मृत आत्मा को पूजते थे। यद्यपि महात्मा बुद्ध की जातक में मृतक श्राद्ध का उल्लेख मिलता है और चार्वाक आदि की पुस्तको में मृतक-श्रद्ध का खंडन आता है तथापि बौद्धों ने मृत आत्मा की पूजा के प्रचार मे कमी के बजाय बढती ही की। इसका चिह यह है कि भारतवर्ष के भिन्न भिन्न तीर्थ स्थानों में जो भिन्न कारण से वर्तमान प्रसिद्धिद को प्राप्त हुए है गाया का तीर्थ-स्थान केवल मृतक-श्राद्ध और तर्पण के लिये प्रसिद्ध है। गय के तीर्थ होने का पता बुद्ध-भगवान से पहले नही मिलता।

मनुस्मृति मे तो ‘गया’ का नाम है ही नही । याज्ञवल्क्य में श्राद्ध, तर्पण के सम्बन्ध में गया का नाम आया हैं:-

यद् ददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते।

तथा वर्षात्रयोदश्यां मद्यासु च विशेषतः।।

( याज्ञवल्क्य 1।261 )

याज्ञवल्क्यस्मृति स्पष्टतया ही बुद्ध भागवान के बहुत पीछे की है। हमरी धारणा है कि गया को इस कीर्ति के दाता बुद्ध भगवान ही थे । जब बैद्धों तथा पौराणिकों में विग्रह आरंम्भ हुआ और बौद्धों को पराजय तथा पौराणिकों कों वियज प्राप्त हुई तो बौद्धों का मन्दिर इनके हाथ लग गया और अभी तक उसी भाॅति चला आता है। पौराणिक धर्म की नई विशेषताओं का निरीक्षण करने से भली भाॅति ज्ञात होता है कि प्राचिन वैदिक धर्म के विकृत रूप में यदि बौद्ध और जैन मत की पोट दे दी जाय तो परिणाम पौराणिक मत होगा। पौराणिक मत के गन्थों और बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में इस बाह्म रूप में बहुत बडा साहश्य है । देवी देवता, अवतार , तीर्थकर, मृतियाॅ, मन्दिर, पूज्य पुरूषों के जन्म तथा आयु से सम्बद्ध गाथायें सब मिलते जुलते है। इसी युग मे वैदिक ग्रन्थों मे मिलावट भी बहुत हुई है। हमारी धारणा है कि श्राद्ध और तर्पण का मृतको के लिये विधान इसी मिलावट का फल स्वरूप है। कुछ लोग कह दिया करत है कि यदि मिलावट होती तो उनके प्रमाण इस बहुतायत से न मिलते। वे दो बातों पर विचार नहीं करते। प्रथम तो बौद्ध मत की आॅधी का वेग बहुत जोर का था। उसने भारतीय जीवन के भी विभागों में अपना हस्ताक्षेप किया था। दूसरे यह कि इस युग को दो सहस्त्र वर्ष के लागभग हो गये । इतने समय में जातियाॅ कही की कहीं पहुँच जाती है। यदि पिछले पचास वर्ष के केवल हिन्दी के साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो पचास वर्ष पहले के और अब के सिद्धान्तों में बहुत बडा भेद मिलगा। यूरोपियन जातियों के साहित्य में सौ वर्ष पहले विकासवाद का चिन्ह भी न था । डार्विन के पश्चात् विकासवाद ने सभ्य देशों के साहित्य के सभी विभागों पर इतना बलपूर्वक आक्रमण किया कि अब काव्य, विज्ञान, इतिहास, दर्शन सभी पर विकासवाद  का ठप्पा है । इसलिये यह कोई आश्चय-जनक बात नहीं है यदि पितृ-यज्ञ को जीवित पितरों के स्थान पर मृत-पितरों के लिये मान लिया गया मनु0 अध्याय 3।83 श्लोक इस प्रकार हैः-

एकमप्याशयेद् विप्रं पित्रर्थे पान्चयज्ञिके।

न चैवात्राशयेत् कंचिद् वैश्रवदेवं प्रतिद्विजम्।।

”पंच यज्ञ सम्बन्धी पितृ-यज्ञ में एक ब्राहम्ण को भी भोजन कराना पर्याप्त है। परन्तु वैश्रदेव के सम्बन्ध में किसी ब्राहम्ण को भोजन न करावे।

यह श्लोक और आगे के कई श्लोक मृतक-श्राद्ध के गौरव के हेतु ही जोडे गये है और इस अध्याय के अंन्त में तो मृतक श्राद्ध की वह विधियाॅ दी गई है जो आजकल के पौराणिकों को भी चक्कर में डलती है और उनको कहना पडता है कि मनुस्मृति कलियुग के लिये है ही नहीं।

मृमक-श्राद्ध का प्रभाव  दायभाग पर भी पडा़ है। हम ऊपर कह चुके है कि पिंड का अर्थ भोजन है। पिंड का दूसरा अर्थ है उस भोजन से बना हुआ शरीर। पिंड का हिन्दी पय्र्याय लोथडा़ प्रसिद्ध ही है। जैसे मृत-पिंड़ अर्थात् मिट्टी का लोथडा़। पिंड के इसी अर्थ से सम्बद्ध ’सपिंड’ है जिसका अर्थ है एक ही शरीर से सम्बन्ध रखने वाला । अर्थात् एक ही माता-पिता की सन्तान या एक ही परिवार का । याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराव्याय विवाह प्रकरण में यह श्लोक है:-

अविलुप्तब्रहम्चर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्।

अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिंडां यवीयसीम्।

( याज्ञ0 1।52 )

’असपिंडां समान एकः पिंडो देहो यस्याः सा सपिंडा न संपिंडा असपिंडा ताम्। सपिंडता च एकशरीरावयवान्येन भवति। तथा हि पुत्रस्य पितृशरीरावयवान्वयेन पित्रासह । एवं पितामहाहदभिरपि पितृद्वारेण तच्छरीरावयवान्वयात्। एवं मातृशरीरावयवान्वयेनम मात्रा। तथा मातामहादिभिरपि मातृद्वारेण। तथा मातृष्वसृमातुलादिभिरप्येकशरीरावयवान्वयात्। तथा पितृस्वस्त्रादिभिरपि। तथा पत्यासह पत्न्या परस्परमेकशरीरारब्धैः सहैक शरीराम्भकत्वकन। एवं यन्त्र यन्त्र सपिंडशब्दस्तत्र तत्र साक्षात् परम्परया वा एक शरीरावय वान्वयो वेदितव्यः ।‘

बतलाना यह था कि ऐसी युवती कन्या से विवाह करे जो ’असपिंडा‘ हो यहाँ विज्ञानेश्वर कहते हैं कि ’असपिंड‘ वह है जो सपिड न हो । पिंड कहते हैं देह को । जिसकी एक देह हो वह सपिंड है। शरीर के अवयवो के अन्वय से सपिंडता होती है। पुत्र के शरीर में पिता के शरीर के अवयव होते है इसलिए पिता और पुत्र सपिंड है। इसी प्रकार से पितामह के शरीर के अवयव पिता के द्वारा पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये पितामह भी पौत्र का सपिंड है। इसी प्रकार माता के शरीर के अवयव भी पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये माता और पुत्र सपिंड हुए। इसी प्रकार नाना के शरीर के अवयव भी माता के द्वारा पुत्र मे आते है इसलिये नाना भी दौहित्र का सपिंड हुआ। इसी प्रकार मौसी और मामा के साथ भी सपिंडता होती है। इसी प्रकार चाचा और फूफी के साथ भी इसी प्रकार पति और पत्नी की सपिंडता आरम्भ हो जाती है । इसी प्रकार भौजाइयों के साथ भी । इस प्रकार जहाॅ जहाॅ सपिंड शब्द है वहाॅ वहाॅ सीधा या परम्परा से शरीर के अवयवों का अन्वय समझना चाहिये।

विज्ञानेश्रवर ने यहाॅ बडी उत्तम रीति से ’सपिंड‘ शब्द का अर्थ समझा दिया। जो लोग यह समझते है कि ‘सपिंड’ शब्द मृतक-श्राद्ध के पिंडो से सम्बन्ध रखता है वे भारी भूल करते है और पिंड के मौलिक अर्थों को त्यागकर उसके गौण और कल्पित अर्थ ले लेते है।  दायभाग का भी मुख्य प्रयोजन यही था। अर्थात् पिता के शरीर के अधिकांश अवयव पुत्र के शरीर में विद्ययमान है। पितामह की सम्पत्ति के कई पौत्र अधिकारी है, क्योकि पितामह से शरीर के अवयव बॅंटकर  पौत्रो तक पहुँचते है। पुत्र के शरीर में अधिक अवयव पिता के शरीर के होते है और पितामह के शरीर के कम । परिवार और कुटुम्ब के पुरूषो का अधिकार इसी अपेक्षा से कम होता जाता है। संभव है कि जब मृतक-श्राद्ध की परिपाटा चल पडी तो श्राद्ध करने का कर्तव्य भी उनका अधिकार ठहरा जो सपिंड थे। अर्थात् जिनके शरीर में अपने पूर्वजो के शरीर के अधिक अवयव थे । पीछे से सपिंड शब्द का अर्थ उलट गया । सपिंड इसलिये नहीं है कि पिंड देता है, किन्तु इस लिये है कि पिंड अर्थात् देह के  अवयवों का साझी है । यह भी कुछ कम आश्र्चय-जनक बात नहीं है कि वेदों में ’सपिड‘ शब्द कही नही आया। एक स्थान पर अर्थात् ऋग्वेद, 1।62।19 या यजुर्वेद 25।42 में ’पिण्डानां’ शब्द आया है।  और इसी वेद-मंत्र में उसका पय्र्याय ’गात्रारंभान्‘ पड़ा हैं। और इससे सिद्ध होता है कि पिण्ड का अर्थ शरीर है। और मृतक-श्राद्ध और दायभाग में कुछ भी सम्बन्ध नही है। पितृ शब्द का अर्थ बहुत से लोग मृत पितरों का हो लेने लगे हैं और वेद के कई मंत्रो में आये हुए ‘पितरो’ का अर्थ ऐसा ही मान बैठे है । यहाॅ सायणाचार्य के  ऋग्वेद-भाष्य से एक उदाहरण ही पय्र्याप्त होगा। ऋग्वेद मण्डल 1, सूत्र 106 का 3 रा मंत्र यह है:-

अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उतदेवी देवपुत्रे ऋतावृधाः।

( ऋ0 1।106।3 )

इस प्रकार श्री सायणार्चाय लिखते है:-

नोऽस्मान् पितरोऽग्निष्वात्तादयोऽवन्तु। रक्षन्तु। कीघ्शाः। सुप्रवाचनाः सुग्वेन प्रवक्तुं स्तोतुं शक्याः।

अर्थात् अग्निष्वात्ता आदि पितर हमारी रक्षा करे । कैसे ? जो भीली भाॅति बातचीत करने में समर्थ है। यहाॅ अग्निष्वात्ता शब्द इसलिये दिया है कि ऋग्वेद के एक और मंत्र की ओर संकेत है जहाॅ इस शब्द का प्रयोग हुआ है।

दायभाग सम्बन्धी श्लोकों के विषय में हम आगे भी कहगें। जहाॅ केवल श्राद्ध-सम्बन्धी संकेत कर दिया गया है।