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मिशनरियों के प्रहार व प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु

मिशनरियों के प्रहार व प्रश्नः- पश्चिम से दो खण्डों में श्री राबर्ट ई. स्पीर नाम के एक ईसाई विद्वान् का एक ग्रन्थ छपा था। इसने महर्षि की भाषा को तीखा बताते हुए यह लिखा है कि आर्य विद्वानों की भाषा में तीखेपन का दोष लगाया है। ऋषि के तर्कों की मौलिकता व सूक्ष्मता को भी लेखक स्वीकार करता है। लेखक के पक्षपात को देखिये, उसने अन्य मत-पंथों के लेखकों व वक्ताओं के लेखों व पुस्तकों में आर्य जाति व आर्य पूर्वजों के प्रति अन्य मत-पंथों की अभद्र भाषा का संकेत तक कहीं नहीं दिया। ऋषि ने और आर्य विद्वानों ने कभी असंसदीय भाषा का प्रयोग नहीं किया। कठोर भाषा का प्रयोग किया तो क्यों?
विधर्मियों की भाषा के कितने दिल दुखाने वाले उदाहरण दिये जायें?
‘सीता का छनाला’ पुस्तक इस पादरी को भूल गई। मिर्जा गुलाम अहमद के ग्रन्थों में वर्णमाला के क्रम से कई लेखकों ने गालियों की सूचियाँ बनाई है। एक सिख विद्वान् ने उसकी एक पुस्तक को ‘गालियों का शदकोश’ लिखा है। पढ़िये मिर्जा की पंक्तियाँः-
लेखू मरा था कटकर जिसकी दुआ से आखिर
घर-घर पड़ा था मातम वाहे मीर्जा यही है
हमारे शहीद शिरोमणि को ‘लेखू’ लिखकर जिस घटिया भाषा का प्रयोग किया है, वह सबके सामने हैं। एक पादरी के बारे लिखा हैः-
इक सगे दीवाना लुधियाना में है
आजकल वह खर शुतर खाना में है
अर्थात् लुधियाना में एक पागल कुत्ता है। वह आजकल गधों व ऊँटों के बाड़े में है। कहिये कैसी सुन्दर भाषा है। ‘वल्द-उलजना’ यह अश्लील गाली उसने किस को नहीं दी। आश्चर्य है कि पादरी जी को ये सब बातें भूल गई। ऋषि पर दोष तो लगा दिया, उदाहरण एक भी नहीं दिया। ईसाई पादरियों ने क्या कमी छोड़ी? इनके ऐसे साहित्य की सूची भी बड़ी लबी है। कभी फिर चर्चा करेंगे।
दुर्भाग्य से आर्यसमाज में नये-नये शोध प्रेमी तो बढ़-चढ़ कर बातें बनाने वाले दिखाई देते हैं, परन्तु मिर्जाइयों के चैनल का नोटिस लेने से यह शोध प्रेमी क्यों डरते हैं? यह पता नहीं। कोई बात नहीं। हमारी हुँकार सुन लीजियेः-
रंगा लहू से लेखराम के रस्ता वही हमारा है।
परमेश्वर का ज्ञान अनादि वैदिक धर्म हमारा है।।
इनको जान प्यारी है। ये लोग नीतिमान हैं।