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मुंशी प्रेमचन्द और आर्यसमाज- राजेन्द्र जिज्ञासु

मुँशी प्रेमचन्द जी पर लिखने वाले प्राय: सभी साहित्यकारों ने उनके जीवन और विचारों पर आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द की छाप पर एक-दो पृष्ठ तो क्या, एक-दो पैरे भी नहीं लिखे। उन्हें गाँधीवाद व माकर््स की उपज ही दर्शाया गया है। श्री ओमपाल ने उनके साहित्य पर आर्य विचारधारा की छाप सिद्ध करते हुए पीएच.डी. भी किया है। उनका शोध प्रबन्ध ही नहीं छपा। जब मैंने ऋषि दयानन्द पर लिखी गई उनकी एक श्रेष्ठ कहानी ‘आपकी तस्वीर’ खोज निकाली और ‘आपका चित्र’ नाम से उसे अपने सम्पादकीय सहित पुस्तिका रूप में छपवा दिया तो प्रेमचन्द जी के नाम पर सरकारी अनुदानों से लाभ उठाने वाले प्रेमचन्द विशेषज्ञों ने मेरा उपहास उड़ाया। यह फुसफुसाहट मुझे आर्य बन्धुओं से ही पता चली। यहाँ तक कहा गया कि प्रेमचन्द जी ने तो ऐसी कोई कहानी लिखी ही नहीं।

आर्यसमाज से मेरे पक्ष में कोई ज़ोरदार आवाज़ उठाकर ऐसे लोगों की बोलती ही बन्द न की गई। श्री इन्द्रजित् देव, श्री धर्मपाल जी मेरठ अवश्य मेरे पक्ष में थे। जब मैंने ‘प्रकाश’ में छपी उस कहानी का छायाचित्र तक छपवा दिया। हिन्दू मूर्तिपूजा करता है। आरती उतारता है, उस कहानी का आरम्भ ‘सन्ध्या का कमरा’ से होता है। राजा को प्रेमचन्द कहते हैं ‘तेरे राज्य की सीमा तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ’ इस वाक्य को ऋषि जीवन से लिये जाने का प्रमाण दिया तो खलबली सी मच गई। उन्हीं विशेषज्ञों के पत्र आने लगे। मुझसे मेरे द्वारा इसके अनुवाद के प्रकाशन की अनुमति ली गई। आर्य पत्रों विशेष रूप से ‘प्रकाश’ में छपी उनकी और और कहानियाँ माँगी गईं। मेरा नाम लेकर स्वामी सम्पूर्णानन्द जी के पुस्तकालय को देखने के बहाने कुछ सामग्री चुराकर ले गये।

अब फिर मेरे पीछे लगे हैं कि ‘प्रकाश’ की फाइलों में से आप प्रेमचन्द जी की और कहानियाँ हमें देने की कृपा करें। इन लोगों को आर्यसमाज का गौरव नहीं सुहाता। इनका प्रयोजन कुछ और ही है। इसलिये मैं भी सावधान हो गया। ‘प्रताप’ में भी मुँशी जी की कहानियाँ छपती रहीं। मैंने पढ़ी हैं। और लो! अपने निधन से पहले आपने ‘कर्मफल’ कहानी आर्यसमाज के लोकप्रिय मासिक ‘आर्य मुसा$िफर’ को भेजी। उसके छपने में विलम्ब होता गया। मुंशी जी के निधन के कुछ समय बाद यह ‘आर्य मुसा$िफर’ में छप गई। भले ही किसी और ने इसका हिन्दी अनुवाद छपवा दिया हो, मैं भी चाहता हूँ कि इस कहानी के साथ दो-तीन आर्य विचारधारा की प्रेमचन्द जी की और कहानियों का हिन्दी अनुवाद करके एक साठ पृष्ठ का संग्रह अपने सम्पादकीय सहित प्रकाशित करवा दूँ। मैं स्वयं तो इसे प्रकाशित नहीं करूँगा। ‘आपका चित्र’ के प्रकाशन का प्रादेशिक भाषाओं में करने का अधिकार भी मुझसे लिया गया परन्तु हुआ कुछ भी नहीं। मिशन की आग और संगठन के तेज के बिना ऐसे कार्य नहीं होते। मैंने तो नि:शुल्क सेवा कर दी।

इतिहासज्ञ स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा प्रो. जयचन्द्र विद्यालङ्कार:- आर्यसमाज में बहुत से व्यक्ति प्रो. जयचन्द्र जी विद्यालङ्कार के नाम की तोता रटन तो लगाते देखे हैं। उनके सम्बन्ध में श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ही प्रामाणिक ज्ञान रखते हैं और मेरे अतिरिक्त इस समय आर्यसमाज में सम्भवत: दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसने उनसे कभी बातचीत की हो। एक भले लेखक ने तो उन्हें डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर का प्रो$फैसर लिख दिया है। गप्पों से तो प्रामाणिक लेखन की एक लम्बी शृंखला के लेखकों, विद्वानों को जन्म देने वाले आर्यसमाज का गौरव घटता है।

इतिहासज्ञ होने की डींग मारने वालों ने कभी इतिहासकारों में नामी पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का तो नाम तक नहीं लिया, जबकि बड़े-बड़े विधर्मी यथा प्रि. गंगासिंह, प्रि. भाई जोधसिंह उन्हें इतिहास का अद्वितीय विद्वान् और मर्मज्ञ मानते थे। न जाने इन बौने दिमागों को स्वामी जी के व्यक्तित्व से क्या चिढ़ है। क्रान्तिकारियों के गुरु आचार्य उदयवीर जी के साथी प्रो. जयचन्द्र जी श्रद्धेय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज से इतिहास की गुत्थियाँ सुलझवाने आते रहते थे। लाहौर में भी आते थे और फिर दीनानगर भी अपनी समस्याएँ लेकर आते रहते थे।

एक बार प्राचीन भारत के पुराने नगरों के उस समय के नामों की जानकारी स्वामी जी से माँगी तो आपने उनका उल्लेख करके ‘आर्य’ मासिक में एक ठोस लेख दिया। मेरा तात्पर्य यह है कि इतिहासज्ञ जयचन्द्र जी शिष्य भाव से जिनके पूज्य चरणों में आते रहते थे, वह तो श्रद्धेय स्वामी जी को इतिहासज्ञों में शिरोमणि मानते थे और आर्यसमाज में कुछ लोगों ने कभी उनकी विद्वत्ता, प्रामाणिकता व देन पर दो पंक्तियाँ नहीं लिखीं। महाशय कृष्ण जी, पं. चमूपति और आचार्य प्रियव्रत उनके ज्ञान व खोज को नमन करते थे।

प्रसंगवश बता दूँ कि बिना प्राथमिकी (एफ.आई. आर.) के एक लम्बे समय तक मुझ पर गुरुद्वारा सिग्रेट केस चलाया गया। आर्यसमाज के दबाव, महाशय कृष्ण जी और लाला. जगतनारायण जी के लेखों के कारण यह केस सरकार को हटाना पड़ा। इनके साथ-साथ प्रो. जयचन्द्र जी ने इस केस को हटाने में कुछ भूमिका निभाई। वह जानते थे कि जिज्ञासु श्री स्वामी जी का चेला है। मिथ्या दोष लगाकर सरकार केस चलाकर बहुत अन्याय कर रही है। हमारे इन नये-नये कृपालु लेखकों की कृपा से जयचन्द्र जी को भी आर्यसमाज से बेगाना बना दिया गया है। भ्रान्ति-निवारण के लिये यह प्रसंग किसी उत्साही भाई की प्रेरणा से दिया है। किसी को तो प्रेरणा प्राप्त होगी ही।