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मनु और मनुस्मृति की विश्व में प्रतिष्ठा : डॉ. सुरेन्द कुमार

मनु और मनुस्मृति का विषय केवल भारत का ही नहीं है, यह अधिकांश विश्व से सम्बन्ध रखता है। इनका प्रभाव केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश सभ्य देशों में रहा है। प्राचीनकाल में ही मनुस्मृति का प्रसार दूर-दूर तक हो चुका था। अनेक देशों की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास आदि को मनुस्मृति ने प्रभावित किया है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का अन्तर-राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय मह     व है। मनु और मनुस्मृति सम्बन्धी मान्यताएं विश्व के विद्वानों में मान्यताप्राप्त (Recognised) और स्थापित (Established) हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि से प्रकाशित ‘इन्सा-इक्लोपीडिया’ में, ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और श्री केबल मोटवानी द्वारा लिखित ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ नामक पुस्तक में विस्तार से उक्त तथ्यों का वर्णन है। इन लेखकों ने दिखाया है कि मनु और मनुस्मृति का प्रभाव कि सी-न-किसी रूप में इन देशों में पाया जाता है- चीन, जापान, बर्मा, फिलीपीन, मलाया, स्याम (थाईलैंड), वियतनाम, कम्बोडिया, जावा, चम्पा (दक्षिणी वियतनाम), इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, श्रीलंका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस, साइबेरिया, तुर्कीस्तान, स्केडीनेविया, स्लेवनिक, गौलिक, टयूटानिक, रोम, यूनान, बेबिलोनिया, असीरिया, तुर्की, ईरान, मिश्र, क्रीट, सुमेरिया, अमेरिका तथा अमरीकी द्वीप के देश।

दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों के संविधान तो मनुस्मृति पर आधारित थे और उनके लेखकों को ‘मनु’ की उपाधि प्रदान कर गौरवान्वित किया जाता था। यहां मनु और मनुस्मृति की प्रशंसा और प्रभाव विषयक कुछ विदेशी उल्लेख प्रस्तुत किये जाते हैं-

(क) चीन में प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण-विदेशी प्रमाणों में मनुस्मृति की काल-सम्बन्धी जानकारी उपल    ध कराने वाला एक मह  वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण हमें चीनी भाषा के हस्तलेखों में मिलता है। सन् १९३२ में जापान ने बम विस्फोट द्वारा जब चीन की ‘ऐतिहासिक दीवार’ को तोड़ा तो उसमें लोहे का एक ट्रंक मिला, जिसमें चीनी पुस्तकों की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थीं। वे हस्तलेख सर अॅागुत्स फ्रित्स (Auguts fritz Geogre) को मिल गये। वह उन्हें लंदन ले आया और उनको ब्रिटिश म्यूजियम में रख दिया। उन हस्तलेखों को प्रो० एन्थनी ग्रेमे (Prop.Anthony Graeme)) ने चीनी भाषा के विद्वानों से पढ़वाया। उनमें यह जानकारी मिली कि चीन के राजा चिन-इज-वांग (Chin-ize-wang) ने अपने शासनकाल में यह आज्ञा दे दी थी कि सभी प्राचीन पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाये जिससे चीनी सभ्यता के सभी प्राचीन प्रमाण नष्ट हो जायें। तब उनको किसी विद्याप्रेमी ने ट्रंक में छिपा लिया और दीवार बनते समय उस ट्रंक को दीवार में चिनवा दिया। संयोग से वह ट्रंक बम विस्फोट में निकल आया। उन हस्तलेखों में से एक में यह लिखा है-‘मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और दस हजार वर्ष से अधिक पुराना है।’ यह विवरण केवल मोटवानी की पुस्तक ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ (पृ० २३२, २३३) में दिया है।

यह चीनी प्रमाण मनुस्मृति के वास्तविक काल विवरण को तो प्रस्तुत नहीं करता किन्तु यह संकेत देता है कि मनु का धर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है। फिर भी, पाश्चात्य लेखकों द्वारा कल्पित काल निर्णय को यह प्रमाण झुठला है।

(ख) ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’ में अंग्रेज इतिहासकारों ने लिखा है कि अंग्रेज जब भारत में आये तो भारत और समस्त दक्षिणी तथा दक्षिणपूर्वी एशिया के बर्मा, कम्बोडिया, थाइलैंड, जावा, बालिद्वीप, श्रीलंका, वियतनाम, फिलीपन, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और रूस के कुछ क्षेत्रों में संविधान के रूप में मनुस्मृति को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी। इन देशों के संविधान मनुस्मृति पर आधारित थे। वहां के राजा और संविधान-प्रणेता गौरव के साथ ‘मनु’ उपाधि धारण किया करते थे। वहां के प्राचीन शिलालेखों में मनुस्मृति के श्लोक उद्धृत मिलते हैं। बर्मा के संविधान का नाम ही ‘धम्मथट्’ और ‘मानवसार’ तथा कम्बोडिया के संविधान का ‘मानवनीतिसार’ या ‘मनुसार’ नाम था। कम्बोडिया के प्राचीन इतिहास में आता है कि कम्बोडियावासी मनु के वंशज हैं। इसी प्रकार ईरान, इराक के प्राचीन इतिहास स्वयं को आर्य और आर्यवंशी घोषित करते रहे हैं। मिस्र के वासी स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। उनके पिरामिडों में सूर्य का चित्र अंकित मिलता है। जो सूर्यवंशी होने का प्रतीक है।

(ग) संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार पाश्चात्य लेखक ए.बी. कीथ ने स्वरचित ‘ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रशंसा का उल्लेख इस प्रकार किया है-

‘‘The influence of the text is attested by its acceptance in Burma, siam (Thailand) and Java as authoritative and production of works based on it.’’ (P.445)

अर्थात्-बर्मा, थाईलैंड, जावा आदि देशों में मनुस्मृति का प्रभाव और स्वीकार्यता एक प्रामाणिक, अधिकारिक और वहां के संविधान के स्रोतग्रन्थ के रूप में है। वहां के संविधान मनुस्मृति को आधार बनाकर लिखे गये हैं।

The smriti of manu not to guide the life of any single community, but to be a general guide for all

the classes of the state.’’ (P. 404)

 

अर्थात्-मनुरचित स्मृति (मनुस्मृति) किसी एक समुदाय के लिए ही जीवनपथ प्रदर्शक नहीं है, अपितु वह विश्व के सभी समुदायों के लिए समान रूप से जीवन का पथ प्रदर्शन करने वाली है।

(घ) जर्मन के विख्यात दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने ‘वियोंड निहिलिज्म नीत्शे, विदाउट मार्क्स’ में मनुस्मृति और बाइबल की तुलना करके मनुस्मृति को बाइबल से उतम शास्त्र माना तथा बाइबल को छोड़कर मनुस्मृति को पढ़ने का नारा दिया। नीत्से ने कहा-

‘‘How wretched is the new testamant compared to manu. How faul it smalls!’’ (P.41)‘‘Close the bible and open the cod of manu.’’ (The will to power’, Vol. I, Book II, P.126)

अर्थात्-मनुस्मृति बाइबल से बहुत उत्तम ग्रन्थ है। बाइबल से तो अश्लीलता और बुराइयों की बदबू आती है। बाइबल को बंद करके रख दो और मनुस्मृति को पढो।

(ङ) भारतरत्न श्री पी.वी. काणे, जो धर्मशास्त्रों के प्रामाणिक इतिहासकार व शोधकर्ता हैं, ने भी अपने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक बृहद्ग्रन्थ में ऐसी ही जानकारी दी है। वे लिखते हैं-

‘मनुस्मृति का प्रभाव भारत के बाहर भी गया। चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के एक अभिलेख में बहुत-से श्लोक मनु से मिलते हैं। बर्मा में जो ‘धम्मथट्’ है, वह मनु पर आधारित है। बालिद्वीप का कानून मनुस्मृति पर आधारित था।’ (भाग १, पृ० ४७.)

(च) एशिया के इतिहास पर पेरिस यूनिवर्सिटी से डी.लिट् उपाधिप्राप्त और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित इतिहासज्ञ डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार ने ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति’ पुस्तक में प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित अनेक जानकारियां दी हैं। जो इस प्रकार हैं-

१. ‘‘फिलीप्पीन के निवासी यह मानते हैं कि उनकी आचार-संहिता मनु और लाओत्से की स्मृतियों पर आधारित है। इसलिये वहां की विधानसभा के द्वार पर इन दोनों की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं।’’ (पृ० ४७)

२. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के अभिलेखों, राजकीय शिलालेखों से सूचित होता है कि वहां के कानून प्रधानतया मनु, नारद तथा भार्गव की स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रों पर आधारित थे। एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग (मनु द्वारा प्रतिपादित मार्ग) का अनुसरण करने वाला था।’’ (पृ० २५४)

३. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) का जीवन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था।……..राजा वर्णाश्रम-व्यवस्था की स्थापना के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखते थे। १७९९ ईस्वी के राजा इन्द्रवर्मा प्रथम के अभिलेख में उसकी राजधानी के सम्बन्ध में यह लिखा गया है…….वहां वर्ण तथा आश्रम भली-भांति सुव्यवस्थित थे।’’

(=निरुपद्रववर्णाश्रम-व्यवस्थिति)’’ (पृ० २५७)

४. ‘‘धम्मथट् या धम्मसथ नाम के ग्रन्थ वर्मा देश की आचार-संहिताएं और संविधान हैं। ये मनु आदि की स्मृति पर आधारित हैं। ‘सोलहवीं’ सदी में बुद्धघोष ने उसे ‘मनुसार’ नाम से पालि भाषा में अनूदित किया। इस धम्मथट् का ‘मनुसार’ नाम होना ही यह सूचित करता है कि ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव संहिता’ के आधार पर इसकी रचना की गई थी। धम्मसथ वर्ग के जो अनेक ग्रन्थ सतरहवीं और अठाहरवीं सदियों में बरमा में लिखे गये, उनके साथ भी मनु का नाम जुड़ा है।’’ (पृ० २९७)

५. ‘‘कम्बोडिया के लोग मनुस्मृति से भली-भांति परिचित थे। राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथेम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानव नीतिसार’ का उल्लेख है, जो मानव सम्प्रदाय का नीतिविषयक ग्रन्थ था। यशोवर्मा के ‘प्रसत कोमनप’ से प्राप्त अभिलेख में मनुसंहिता का एक श्लोक भी दिया गया है। जो आज मनुस्मृति अ.२, श्लोक १३६ पर प्राप्त है।’’ इसमें सम्मान-व्यवस्था का विधान है। (पृ० १९८)

६. ‘‘६६८ ईस्वी में जयवर्मा पंचम कम्बुज (कम्बोडिया) का राजा बना……..एक अभिलेख में इस राजा के विषय में लिखा है कि उसने ‘वर्णों और आश्रमों को दृढ़ आधार पर स्थापित कर भगवान् को प्रसन्न किया।’’ (पृ० १४९)

७. ‘‘राजा जयवर्मा प्रथम के अभिलेख में दो मन्त्रियों का उल्लेख है, जो धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। ‘मनुसंहिता’ सदृश ग्रन्थों को धर्मशास्त्र कहा जाता था…। जो धर्मशास्त्र कम्बुज (कम्बोडिया) देश में विशेष रूप से प्रचलित थे, उनमें मनुसंहिता का विशिष्ट स्थान था।’’ (पृ० १९८)

८. बालि द्वीप (इंडोनेशिया) के समाज में आज भी वर्णव्यवस्था का प्रचलन है। वहां अब भी वैदिक वर्णव्यवस्था के प्रभाव से उच्चजातियों को ‘द्विजाति’ तथा शूद्र का नाम ‘एकजाति’ प्रचलित है जो कि मनु ने १०.४ श्लोक में दिया है। वहां शूद्रों के साथ कोई भेदभाव तथा ऊंच-नीच, छुआछूत आदि का व्यवहार नहीं है। यही मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक रूप था। (दक्षिणपूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति : डा० सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ० १९, ११४)

(छ) यूरोप के प्रसिद्ध लेखक पी. थामस अपनी पुस्तक च्‘Hindu

religion, customs and mannors’में मनुस्मृति का मह    व वेदों के उपरान्त सबसे अधिक बतलाते हैं-

‘‘The code of manu is of great autiquity, only less

ancient then the three vedas.’’ (P.102)

अर्थात्-मनु का संविधान (मनुस्मृति) सर्वोच्च स्थान रखती है। वेदों के बाद उसी का सर्वोच्च मह व है।

(ज) अमेरिका से प्रकाशित ‘दि मैकमिलन फैमिली इन्साइक्लो-पीडिया’ में भी मनु को मानवजाति का आदिपुरुष और आदि-समाज-व्यवस्थापक बताया है-

‘‘Manu is the progenitor of the human race. He is thus the lord and guardian of the living.’’ (P. 131)

अर्थात्-‘मनु मानवजाति का आदिपुरुष है। वह आदिसमाज का व्यवस्थापक या आदि सभ्यता का पथप्रदर्शक राजा है।’

(झ) रूस के विचारक पी.डी. औसमेंस्की ने कहा है कि मनुस्मृति की सर्वश्रेष्ठ समाजव्यवस्था के अनुसार मनुष्य समाज की पुनः संरचना होनी चाहिये (ए न्यू मॉडल आफ यूनिवर्स)।

(ञ) इंगलैंड के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जी.एच.मीज ने वर्णव्यवस्था के पहले तीन वर्णों में समाज को बांटते हुए कहा है कि इस व्यवस्था के होने पर धरती स्वर्ग में बदल जायेगी (वर्क, वैल्थ एण्ड हैप्पिनैस आफ मैनकाइंड)।

(ट) विश्व में इस व्यवस्था के प्रसार के सम्बन्ध में डॉ० अम्बेडकर का कथन है-

‘‘चातुर्वर्ण्य पद्धति………यह संपूर्ण विश्व में व्याप्त थी। वह मिस्र के निवासियों में थी और प्राचीन फारस के लोगों में भी थी। प्लेटो इसकी उत्कृष्टता से इतना अभिभूत था कि उसने इसे सामाजिक संगठन का आदर्श रूप कहा था।’’ (डॉ. अम्बेडकर वाङ्मय खंड, ७, पृ० २१०)

(ठ) मैडम एनी बीसेन्ट (जर्मनी) ने मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘‘यह ग्रन्थ भारतीय और अंग्रेज सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है, क्योंकि आज के समस्यापूर्ण दैनिक प्रश्नों के समाधानात्मक उ   ारों से यह परिपूर्ण है। ’’(द साइंस एण्ड सोशल आर्गनाइजेशन,भूमिका,पृ० 331द्बद्ब ,भगवानदास)

(ड) बैलजियम के विद्वान् लेखक मनुस्मृति को अध्यात्म ज्ञान एवं वैधानिक प्रमाण में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ मानते हैं। उनका कहना है कि यह जीवन के सत्यों को प्रतिपादित करता है। (द ग्रेट सीक्रेट, पृ० ९५)

(ढ) मैडम एच० पी०     लेवैट्स्की ने अपनी कृति “Isis UnVeiled” में मनुस्मृति को आदित्म ज्ञानस्रोत प्रतिपादित किया है। पुरातत्ववे    ाा वी० गार्डन चाईल्ड ने इस मत का समर्थन किया है। (केवल मोटवानी रचित, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० १९७-२०१)

मनुस्मृति और मनुवाद : भ्रांतियों का जन्म : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।

विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।

अंग्रेजी शासन काल में उच्च शिक्षा के नाम पर अनेक लोगों को भारत से इंग्लैंड भेजा गया और वहां वही पढ़ाया गया जो अंग्रेज कूटनीतिक दृष्टि से चाहते थे। वहां से लौटने पर उन्हीं लोगों को सता में भागीदारी दी। उन्होंने जो पढ़ा था, भारत में आकर मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षापद्धति के अन्तर्गत वही बताया, पढ़ाया, लिखाया। इस तरह अंग्रेजी मान्यताओं से प्रभावित उनके मानसपुत्रों का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया जिसकी विचार-वंश-परम्परा आज तक चली आ रही है।

१५ अगस्त १९४७ को भारत के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने पर अंग्रेज तो चले गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गयी। मैकाले की शिक्षापद्धति से भारत आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यताएं आज भी गौरव के साथ पढ़ाई और मानी जा रही हैं। उनके बोये विष के बीज कहीं भाषावाद, कहीं नस्लवाद, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं घृणावाद के रूप में आज भी फलित हो रहे हैं और विडम्बना तो यह है कि हम भारतीय ही आज उन मान्यताओं के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

मनुस्मृति के स्वरूप को विकृत करने वाला तो वह पूर्वज भारतीय ब्राह्मण-वर्ग था जिसने अपने विकृत आचरण, स्वार्थपूर्ण मानसिकता और पक्षपातपूर्ण लक्ष्यों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में समय-समय पर मनचाहे प्रक्षेप किये, किन्तु मनुस्मृति और मनुवाद के विषय में प्रायोजित रूप में भ्रान्ति-जाल फैलाने वाले पहले लेखक अंग्रेज ही थे। उसके पश्चात् भारतीयों की वह पीढ़ी है जिन्होंने अंग्रेज लेखकों के निष्कर्षों को स्पंज की तरह सोखा और फिर ज्यों की त्यों उगल दिया। उसी परम्परा में डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर भी थे जो अंग्रेजी परम्परा के निष्कर्षों के बौद्धिक अनुसरणक र्ाा के साथ-साथ मनु और मनुस्मृति के तीव्र विरोधी भी बने। क्योंकि वे दलित वर्ग से सम्बद्ध नेता थे, अतः दलितों के बहुत बड़े वर्ग ने उन्हीं की मान्यताओं का अन्धानुकरण किया। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग मनु और मनुस्मृति विषयक भ्रान्तियों का शिकार हो गया, और आज भी है।

अंग्रेजों के बाद उनकी विचार-परम्परा को वामपन्थी लेखकों ने हाथों-हाथ अपना लिया। उसका कारण यह था कि अंग्रेज लेखकों के निष्कर्ष वामपन्थियों के राजनीतिक लक्ष्य के अनुकूल और उसके साधक थे। आज स्थिति यह है कि भारत से शासन उठने के उपरान्त अंग्रेज लेखक अपनी पूर्वाग्रही मान्यताओं को छोड़कर तटस्थ निष्कर्ष प्रस्तुत करने लगे हैं जबकि वामपन्थी लेखक उन्हीं विकृत निष्कर्षो पर अडिग हैं; क्योंकि वामपन्थियों का राजनीतिक स्वार्थ तो उन्हीं निष्कर्षों से पूरा हो सकता है।

इन सब कारणों से आज भारत में ऐसा वातावरण बना हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को पकड़कर, चाहे वह संस्कृति, भाषा एवं धर्म-विरोधी है अथवा राष्ट्रीय एकता-विरोधी है, उसके माध्यम से वोट पाने की अपवित्र कोशिश करता रहता है। मनु और मनुवाद आज कुछ राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक शस्त्रास्त्र हैं, तो कुछ वर्गों के लिए सांस्कृतिक शस्त्रास्त्र हैं। जिस देश का वामपंथ प्रभावित केन्द्रीय शिक्षामन्त्री (या मानव संसाधन मन्त्री) प्राचीन भारत के वास्तविक इतिहास को कल्पित कहे और अवास्तविक एवं कल्पित इतिहास को वास्तविक कहे, कहे ही नहीं अपितु उस पर दुराग्रह करे; उस देश का रखवाला केवल ईश्वर ही हो सकता है! इससे सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज और वामपन्थी लेखकों द्वारा फैलायी गयी भ्रान्तियां कितने व्यापक और गम्भीर स्तर तक पैठ बना चुकी हैं। यही स्थिति मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की है। निहित स्वार्थी राजनीतिक दलों और दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा आज जान-बूझकर ‘मनुवाद’ का गलत अर्थ लोगों के मन-मस्तिष्क में डाला जा रहा है। वे वर्ग और लेखक इस श       द का अर्थ ‘जन्मना जाति-पांति, छूत-अछूत, नीच-ऊंच, छुआछूतयुक्त समाजव्यवस्था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा’ के अर्थ में करते हैं। इस भ्रान्ति से आज के समीक्षक, बुद्धिजीवी और राजनेता भी भ्रमित हैं। यों समझिए कि ‘मनु, मनुस्मृति और मनुवाद’ का भ्रान्त अर्थ और विरोध एक सुनियोजित अफवाह के समान फैला हुआ है। इस अफवाह को फैलाने में कितने ही ऐसे लोग हैं जिनके द्वारा मनुस्मृति के गम्भीर-अगम्भीर अध्ययन की बात तो छोड़ दीजिए, उन्होंने मनुस्मृति को देखा तक नहीं होता। उसका दुष्परिणाम यह है कि आज हम मनु के वंशज भारतीयों को ही भारतीय इतिहास के आदिपुरुष, आदिविधिप्रणेता, आदिसमाज-व्यवस्थापक, आदि-धर्मशास्त्रकार और आदिराजा को अभिमान के साथ अपश      द कहते हुए पाते हैं; प्रशंसा के स्थान पर निन्दा करते हुए देखते हैं। भारतीय अतीत को पिछड़ा और भारतीय प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने के लिए आज किसी पूर्वाग्रही अंग्रेज लेखक को भारत में आकर अगुवाई करने की आवश्यकता नहीं है। आज उनके मानसपुत्र भारतीय स्वयं झंडा उठाकर अपने अतीत को पिछड़ा कहने और अपने प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने की रट अफीमचियों के समान लगाते मिलेंगे। देखिए, कूटनीति की कैसी विडम्बना को हम भोग रहे हैं!!

मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।

 

डॉ0 अम्बेडकरजी की यह धारणा बनी कि समाज में प्रचलित विषमतायुक्त धारणाओं की पृष्ठभूमि में ’मनुस्मृति‘ है, अतः उन्होंने 24 दिसम्बर 1927 को महाड़ सत्याग्रह परिषद के अवसर पर रात 9 बजे प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृति जलवाई थी। मनुस्मृति चातुर्वण्र्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है और डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार जन्मना चातुर्वण्र्य का सिद्धान्त विषमता की नींव पर आधारित है, इसलिए उन्होंने ’असमानता‘ का समर्थन करनेवाली मनुस्मृति के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए उसे जलवाना आवश्यक समझा।

तत्पश्चात् आठ वर्ष की कालावधि में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं क डॉ0 अम्बेडकरजी ने विवश होकर धर्मान्तर की घोषणा कर दी। नासिक (महाराष्ट्र) के जिस कालाराम मन्दिर में स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिसम्बर 1874 में व्याख्यान हुए थे, उसी कालाराम मन्दिर में प्रवेश पाने के लिए माननीय डॉ0 अम्बेडकर के मार्गदर्शन में 3 मार्च 1930 से अक्टूबर 1934 तक लगभग 6 साल सत्याग्रह किया गया, फिर भी अस्पृश्य समाज को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पाया। डॉ0 अम्बेडकरजी ने नासिक जिले के ही येवला नगर में जो धर्मान्तर करने की घोषणा की, उसकी पृष्ठभूमि में भी 6 साल तक चली कालाराम मन्दिर की सत्याग्रह की घटना रही है। 13 अक्टूबर 1935 को येवला में दिये अपने भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने घोषणा की कि-’मैं हिन्दू के रूप में जन्मा जरूर हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।

सामान्य और भक्त कोटि के अनुयायियों को ध्यान में रखकर तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति का विरोध किया, अतः आज उनके अनुयायी भी मनुस्मृति का विरोध कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे स्वामी दयानन्द ने वेदानुकूल मनुस्मृति का समर्थन किया तो उनके आर्यसमाजी अनुयायी भी ˗प्रक्षिप्त श्लोक विरहित विशुद्ध मनुस्मृति का समर्थन करते हुए दिखलाई देते हैं। अनुयायियों का मत अनुयायितव पर आधारित होता है। ज्ञान की गहराई में बैठकर अपने मत को नेता के वैचारिक निष्कर्ष तक या उससे और आगे ले जाना सामान्य सामथ्र्यवाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए आठ प्रमाणों में से एक प्रमाण आप्त प्रमाण की शरण लेनी पड़ती है। दोनों भी समाज सुधारकों के अनुयायी सैद्धान्तिक तौर पर जन्मना वर्ण व्यवस्था, जातिगत भेद-भाव और अस्पृश्यता के विरोधी हैं। दोनों भी पक्षों को अपने-अपने ढंग से कार्य करते हुए क्या-क्या हानि-लाभ हुआ ? इन सब तथ्यों का विश्लेषण तो एक स्वतन्त्र पुस्तक का विषय होगा। आर्यसमाज के मनुस्मृति विषयक दृष्टिकोण को पौराणिक रूढ़िवादी प्रवृत्ति का आम हिन्दू आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

समाज-सुधार के पथ पर चलना वस्तुतः एक तपस्या है। हम अपने नेताओं की जय-जयकार तो करने के लिए तैयार है, पर उनके तपोमय संघर्षशील पथ का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हम सुख-सुविधा भोगी हैं। जय लगाना तो आसान है, पर सिद्धान्तों को व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतार पाना बड़ा कठिन है। सामान्य समाज तो एकदम नहीं, धीरे-धीरे बदलता है। जो द्विज वेदाध्ययन हेतु परिश्रम के लिए तैयार नहीं है, वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। मनु के इस वचन (2.1.43) को स्वामी दयानन्द ने भी उद्धृत किया है। स्वामीजी ने संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है –

”सब संस्कारों में मधुर स्वर से वैदिक मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे, न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्यभाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने (‘ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना’, ’स्वस्तिवाचन‘, ’शांतिकरण‘ और ’हवन‘ के) मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकत्र्ता, जड़, मंदमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करे और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावे।“(-सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक-पृ0 37)

स्वामीजी के उपरोक्त कथन का सार यह है कि ’संस्कारविधि‘ के सामान्य प्रकरण में निर्दिष्ट और संग्रहीत चारों वेदों से चुने हुए मन्त्रों का जो सामान्य पाठ नहीं कर सकता, वह शूद्र है। स्वामीजी की इस कसौटी पर आर्यसमाज के सदस्यों को कसा जाए तो अनेक आर्यसमाजियों की गणना तो शूद्र कोटि में ही करनी होगी। आर्यसमाज में चारों वेदों के सस्वर मन्त्रोच्चारण करनेवाले बड़ी मुश्किल से हाथ की उंगली पर गिने जाने योग्य कुछ विरले ही वेदपाठी होंगे।

आर्यसमाज के संस्थापक के उदात्त सपनों को साकार करने के सम्बन्ध में आर्यसमाज के सदस्यों का कद भी बौना साबित हो रहा है। व्यक्तित्व के बौने होने पर भी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने के लिए ध्येय का उदात्त होना बहुत जरूरी है, उसे बौना करने की आवश्यकता नहीं है। जब आर्यसमाजी ही वैदिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में असमर्थ साबित हो रहा है, तो आम हिन्दू या सामान्य व्यक्ति द्वारा आर्यसमाज की मान्यताओं को स्वीकार करने की बात तो अभी कोसों दूर है। हाँ, कुछ सीमा तक आर्यसमाज की बात को हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु समाज के अन्य मत मतान्तर के लोगों ने भी निश्चित रूप से स्वीकार किया है।

लगभग एक दशक से राजनीति में ’मनुवाद‘ शब्द बहुत अधिक ˗प्रचलित हुआ है। राजनीति में जिन्होंने इसका ˗प्रचलन किया है। वे मनुवाद को प्रगतिशीलता के अर्थ में नहीं, अपितु ˗प्रतिगामीपन के पक्ष में प्रचलित करने में जुटे हुए हैं। जो यह मानकर चलते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षिप्त हुआ है, वे प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर मनुस्मृति स्वीकार करने योग्य मानते हैं और मनुवाद का अर्थ ˗प्रगतिशीलता के पक्ष में ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार मनु महाराज की दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु गुण कर्म-स्वभाव के अनुसार है। महिलाओं के साथ शूद्रों की भी शिक्षा और मान-सम्मान के मनु पक्षधर हैं। आर्यसमाज के क्षेत्र में मनुवाद का अर्थ प्रगतिशीलता ही है।

मनु समर्थक पक्ष

24 जुलाई, 1875 को महाराष्ट्र की विद्यानगरी पुणे में इतिहास विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था-’अब मनुजी का धर्मशास्त्र कौन-सी स्थिति में है, इसका विचार करना चाहिए। जैसे-ग्वाले लोग दूध में पानी डालकर उस दूध को बढ़ाते हैं और मोल लेनेवाले को फँसाते हैं। उसी प्रकार मानव धर्मशास्त्र की अवस्था हुई है। उसमें बहुत से दुष्ट क्षेपक (˗प्रक्षिप्त) श्लोक हैं, वे वस्तुतः भगवान् मनु के नहीं हैं। मनुस्मृति की पद्धति से मिलाकर देखने से वे श्लोक सर्वथैव अयोग्य दिखते हैं। मनु सदृश श्रेष्ठ पुरुष के ग्रन्थ में अपने स्वार्थ साधन के लिए चाहे जैसे वचनों को डालना बिलकुल नीचता दिखलाना है।˗‘ (उपदेश मंजरी, सम्पादक, राजवीर शास्त्री: पृष्ठ-57)। स्वामीजी के इस वक्तव्य की व्याख्या करते हुए पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने लिखा है कि ’पानी अगर गंदला है तो उसके छानने का उपाय सोचना चाहिए। गंदलेपन को देखकर पानी से असहयोग करना तो मूर्खता होगी। विद्वानों को चाहिए कि अपने ग्रन्थों को शोधें, क्षेपकों को दूर करें, और जनता को फिर मनुरूपी भेषज (औषधि) से लाभ उठाने का अवसर देवें। (सार्वदेशिक: अगस्त-1948 पृष्ठ 259-60)।

डॉ0 सोमदेव शास्त्री के अनुसार-’श्री मेधातिथि (नौंवी शताब्दी) की टीका से कुल्लूक भट्ट (बारहवीं शताब्दी) की टीमा में 170 श्लोक अधिक हैं। तीन सौ वर्षों के समय में इन श्लोकों की मिलावट हो गई है। श्री मेधातिथि के समय पाँच सौ पाठभेद तथा श्री कुल्लूक भट्ट के समय के 650 पाठभेदों से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में समय-समय पर प्रक्षेप होता रहा है।‘ (स्मृति सन्देश: पृष्ठ-7)। पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के अनुसार कुछ श्लोक मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट आदि के भाष्यों में नहीं हैं, पर वर्तमान मनुस्मृति में हैं। (मनुस्मृति: भूमिका और अनुवाद-पृष्ठ 24)।

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की तुलना में वेदों की प्रामाणिकता स्वामी दयानन्द की दृष्टि में सर्वोपरि थी। मनुस्मृति का प्रक्षिप्त भाग छोड़ने के बाद जो विशुद्ध वेदानुकूल भाग शेष रह जाता है, उसे ही उन्होंने प्रमाण योग्य माना है। स्वलिखित ग्रन्थों में उन्होंने मनुस्मृति के 514 श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि दयानन्द का अनुसरण करते हुए आर्य विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समालोचनाओं के साथ मनुस्मृति के अनेक संस्करण प्रकाशित किये-पं0 भीमसेन शर्मा, पं0 आर्यमुनि, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 हरिश्चन्द्र विद्यालंकार ने क्रमशः ’मानव धर्म शास्त्रम्‘ (1893-99) मानवाय्र्य भाष्य (1914) ’मनुस्मृति‘ (द्वितीय संस्करण-1959) ’मनुस्मृति भाषानुवाद‘ (?) आदि टीकात्मक ग्रन्थों की रचना की। श्री जगन्नाथदास, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), डॉ0 सोमदेव शास्त्री आदि ने छात्रों एवं सामान्य जनता की दृष्टि में ’मानव-धर्म-विचार‘ (1883) ’मानव-धर्म-सार‘ (1890) ’वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति‘ (1911) ’स्मृति सन्देश‘ (1996) आदि मनुस्मृति के संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किये। पं0 बुद्धदेवजी विद्यालंकार, महात्मा मुंशीरामजी, पं0 जगदेव सिंहजी सिद्धान्ती, पं0 भगवद्दत्त रिसर्च स्कासॉलर तथा डॉ0 सुरेन्द कुमार जी ने मनुस्मृति से सम्बन्धित मनु और मांस (1916) ’मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धतियाँ‘ (1917) ’मनु को स्वीकार करना होगा‘ (1951) ’मनुष्य मात्र का परम मित्र स्वायम्भुव मनु‘ (1962) तथा ’मनु का विरोध क्यों‘ (1995) और ’महर्षि मनु तथा डॉ0 अम्बेडकर‘ ( ) नामक रचनाएँ लिखीं।

 

मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने का उल्लेखनीय कार्य पं0 तुलसीराम स्वामी, पं0 चन्द्रमणि विद्यालंकार, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं0 सत्यकाम सिद्धान्त शास्त्री और डॉ0 सुरेन्द्र कुमारजी ने क्रमशः ’मनुस्मृति भाष्य‘ (1908’1922) ’आर्ष मनुस्मृति‘ (1917) ’मनुस्मृतिः भूमिका और भाष्य‘ (1937) वैदिक मनुस्मृति (1948) और ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ (1981) के माध्यम से किया। डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ में प्रक्षिप्त श्लोकों को विशेष चिह्न के साथ प्रकाशित किया है और ’विशुद्ध मनुस्मृति‘ (1981) में प्रक्षिप्त समझे गये श्लोकों को प्रकाशित करना ही आवश्यक समझा है। उनके द्वारा सम्पादित ’मनुस्मृति‘ (संस्करण 1995) के अनुसार मनुस्मृति के कुल श्लोकों की संख्या 2685 है, इनमें मौलिक श्लोक 1214 और ˗प्रक्षिप्त श्लोक 1471 हैं। उन्होंने विषय विरोध, प्रसंग विरोध, अन्तर् (परस्पर) विरोध, पुनरुक्तियाँ, शैली विरोध, अवान्तर विरोध, वेद विरोध नामक सात आधारों पर 1471 श्लोकों को स˗प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध किया है। डॉ0 भवानीलाल भारतीय के अनुसार मनुस्मृति के विस्तृत भाष्य में डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी ने प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करने के लिए विशिष्ट तार्किक प्रक्रिया को अपनाया है। डॉ0 सोमदेव शास्त्री के शब्दों में ’मनुस्मृति‘ का तलस्पर्शी अध्ययन करनेवाले डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से उसमें विद्यमान प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करके मनुस्मृति का यथार्थ स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्लांघनीय कार्य किया है। पं0 राजवीर शास्त्री की दृष्टि में-’यदि मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त निकालने का कार्य महूष के भक्त आर्यों के द्वारा पहले से सम्पन्न हो जाता तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का संविधान बनानेवाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे व्यक्तियों को भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी मिथ्या धारणा को अवश्य ही बदलना पड़ता। इस उपेक्षावृत्ति के लिए हम आर्यबंधु भी कम दोषी नहीं है।‘ (विशुद्ध मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली: 26 दिसम्बर, 1871: पृष्ठ-3-7)।

 

मनु विरोधी पक्ष

माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले की त्रिमूर्ति का शिष्यत्व स्वीकार कर उन्हें अपना गुरु माना है। फुलेजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर मनुस्मृति का विरोध किया है। वे अपने ’तृतीय रत्न‘ (लेखनकाल सन् 1855 तथा प्रकाशन काल 1879) नाटक में रूढ़िवादी ब्राह्मणों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-’आपके ही पूर्वज मनु के कानून दिखाकर हमें यह कहते रहे कि आप लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, फिर क्या वे लोग मनु का कानून तोड़कर अपने बच्चों को स्कूल भेजते ? तब आप लोगों ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया, अब उन्हीं के वंशजों में ऐसे लोग उत्पन्न हो रहे हैं, जो मनु के कानून की उपेक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। (महात्मा फुले समग्र वाड्.मय-पृ0 28)। महात्मा फुलेजी का दूसरा ग्रन्थ हैं-’गुलामगिरी‘ (1873) इसमें ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‘ मन्त्र पर फुलेजी ने अपनी ग्राम्य शैली में व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण को जन्म देनेवाला ब्रह्मा का मुख ऋतु (आर्तव) काल में चार दिन अलग-थलग बैठता था या भस्म लगाकर घर के काम-काज करता था, इस विषय में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं। (तत्रैव-पृ0 142)।‘ ’शेतकर्याचा आसूड‘ (अर्थात्-किसान का चाबुक) (1883) नामक ग्रन्थ में महात्मा फुलेजी ने लिखा है-ब्राह्मणों ने मनु संहिता जैसा मतलबी ग्रन्थ लिखकर शूद्र किसानों के विद्याध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें लूटा है। (तत्रैव-पृष्ठ 265)। इसी प्रकार अपने ’सत्सार‘ (1885) नामक ग्रन्थ में तो उन्होंने यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि ’मनुस्मृति‘ ने शूद्रातिशूद्रों का किस प्रकार सर्वनाश किया है ? (तत्रैव-354)। अपने अन्तिम ग्रन्थ ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ (1891) में वे लिखते हैं-”यदि शूद्रातिशूद्रों ने भट्ट ब्राह्मणों के साथ मनुसंहिता के समान उसी प्रकार का नीचतापूर्ण व्यवहार करना शुरु कर दिया, जैसा वे आज तक उनके साथ करते  आये हैं, तो उन्हें कैसा प्रतीत होगा ?“ (तत्रैव-451)।

महात्मा फुलेजी की शैली में ही डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने अपने ’मनु एण्ड द शूद्राज‘ लेख के अन्त में लिखा है कि ’ब्राह्मण को शूद्र के स्थान पर बिठलाया जाएगा, तभी मनुप्रणीत निर्लज्ज तथा विकृत मानवधर्म का निवारण हो सकता है।‘ (राइटिंग्ज एण्ड स्पीचेस ऑफ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर-पृ0 719)। ‘रिडलस इन हिन्दूइज्म‘ के तृतीय खण्ड का ’ मॉडल ऑफ द हाउस‘ नामक प्रकरण मनुस्मृति पर आधारित है। उसमें डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं, ’मनु प्रणीत वर्ण व्यवस्था में विद्रोह करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को है, शूद्र को नहीं, किन्तु समझ लो यदि क्षत्रिय शस्त्रों की सहायता से इस व्यवस्था को मिटाने क लिए विद्रोह करने के वास्ते खड़ा हो जाए तो उन्हें दण्डित करने के लिए मनु ने ब्राह्मण को शस्त्र उठाने की अनुमति दी है। वर्ण-व्यवस्था को अबाधित रखने के लिए मनु ने अपनी मूलभूत नीति में परिवर्तन किया है, अर्थात् ब्राह्मण को शस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। मनु प्रणीत वर्ण-व्यवस्था से त्रिवर्ण ही लाभान्वित है। उससे शूद्र को कोई लाभ नहीं। त्रिवर्णों में भी ब्राह्मण सर्वाधिक लाभान्वित है। डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में मनु पक्षपाती हैं, अतः विषमता फैलानेवाली मनुस्मृति का विरोध वे अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी मानते हैं।‘

रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं। यदि आधारस्वरूप, आकाशादि तत्त्व पहले न हों तो उत्पन्न हुए प्राणी किसके आश्रय से ठहरें और क्या खाकर के जीवित रहें ? और चेतन शरीरों के कारण भी पृथिव्यादि तत्त्व हैं, उन कारणरूप तत्त्वों की उत्पत्ति हुए बिना प्राणियों के शरीर उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता। इसलिये सब वस्तुओं के कारणभूत द्रव्य पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे कार्यवस्तु होते हैं। सूक्ष्म प्रकृतिरूप अन्तिम कारण की अपेक्षा यद्यपि तन्मात्रादि सूक्ष्मभूत भी कार्य ही हैं, तो भी स्थूल भूतों की अपेक्षा से वे कारण ही समझे जाते हैं। यद्यपि कार्यरूप अग्नि, वायु का कार्य है, तो भी जल की उत्पत्ति की अपेक्षा से अग्नि कारण भी है। इस प्रकार कार्य-कारण व्यवस्था सापेक्ष है। अर्थात् जो कारण है वह किसी की अपेक्षा से कार्य और ऐसे ही कार्य कारण हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले प्रकाश उत्पन्न होता है, तब सृष्टि करने को उद्यतरूप से परमात्मा जागता है।१ इस प्रकार उस परमेश्वर का सृष्टि करने को उद्यत होना ही प्रकाश की उत्पत्ति है। उसको कोई अन्य जगाता नहीं किन्तु वह स्वयमेव उद्यत होता है। इसीलिये वह स्वयम्भू कहाता है। यही बात मनुस्मृति के छठे श्लोक में (प्रादुरासीत्तमोनुद०) इत्यादि प्रकार कही है। उस परमेश्वर से द्वितीयावस्था में आकाश उत्पन्न होता है, जो सब वस्तुओं का आधार, जिसमें सूर्यादि ज्योति नियम पूर्वक तपते, घूमते और प्रकाशित होते हैं। और उसके अवकाश देने स्वरूप होने से नित्य होना कह सकते हैं, फिर उसकी उत्पत्ति क्यों दिखायी जाती है ? इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि- घड़ा आदि के तुल्य आकाश उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी किसी प्रकार तैजस वस्तुओं का सर्वथा अभाव होने से अन्धकार हो जावे। कोई कहीं जा भी न सके तो अवकाश के रहने पर भी कार्यसिद्धि का हेतु न होने से उसका अभाव जैसे कह सकते हैं। और प्रकाश रहने पर कार्यसिद्धि का हेतु होने से आकाश उत्पन्न होता ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार आकाश शब्द दीप्ति अर्थ वाले काश धातु से यौगिक पक्ष में परमात्मा का नाम है। और योगरूढ़ दशा में शब्दगुण वाले आकाश तत्त्व का नाम है। अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है इसलिये सर्वविध प्रकाश के आधार का नाम आकाश है। इसी से सूर्यादि ज्योंतियों के प्रकाश से रहित प्रलय दशा में   अन्धकार रूप शून्य की आकाश संज्ञा नहीं कह सकते, इसी से आकाश नहीं है ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। और सृष्टि के आरम्भ में फिर व्यवहार होता है कि आकाश हो गया। यह भी उस आकाश की उत्पत्ति है। तथा अवकाश अनन्त है। जहां सृष्टि नहीं है, वहां भी शून्यरूप पोल है, उसमें से जितने अवकाश में ब्रह्माण्ड रचा गया, सृष्टि के आरम्भ में उसकी आकाश संज्ञा धरी गयी, क्योंकि सूर्यादि ज्योतियों के वहां रहने से ब्रह्माण्डस्थ ही शून्य प्रकाश युक्त होता उसी में वायु आदि साधनों के विद्यमान रहने से शब्द की भी उत्पत्ति हो सकती है इसलिये वही आकाश है अन्य शून्य आकाश नहीं, यह भी आकाश की उत्पत्ति दिखाने का आशय है। इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति होती है, पर घटादि के तुल्य नहीं। आकाश का शब्द गुण है, उस शब्द की उत्पत्ति में वायु भी सहयोगी कारण है। वायु के बिना केवल आकाश से शब्द का श्रवण नहीं हो सकता। पर तो भी शब्द का मूल कारण आकाश है। तथा संयोग-विभाग से शब्द की उत्पत्ति होती (अर्थात् ताल्वादि स्थानों के संयोग से वा भेरी-दण्डादि के संयोग से शब्द की उत्पत्ति होती है वे संयोग-विभाग बिना अवकाश के नहीं हो सकते) इससे भी शब्द का मूल कारण आकाश होता है। तथा उस आकाश का शब्द गुण सहित होना प्रलयदशा में नहीं घटता ऐसा मानकर सृष्टि के आरम्भ में शब्द का आश्रय बनने से आकाश की उत्पत्ति अर्थात् प्रादुर्भाव मानना पड़ता है।

पीछे आकाश से वायु उत्पन्न होता है और वह वायु गतिवाला होता है। सब वस्तु की गति अवकाश होने पर ही हो सकती है। वायु इधर-उधर चलने से शरीर में लगता और तृणादि को इधर-उधर चलाता है, इससे अनुमान होता है कि वायु है। यदि आकाश न हो तो वायु का भी चलना न हो सके। वह शून्यरूप पोल तो सदा ही है किन्तु तैजस प्रकाश से युक्त आकाश प्रलयावस्था में नहीं रहता, इसी कारण उस समय वायु का भी अभाव है। तैजस कारणरूप प्रकाश के फैलने रूप आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है। और वह शब्दगुणवाले आकाश से उत्पन्न हुआ वायु स्वयं स्पर्श गुण वाला होता है। और उसमें कारण का गुण भी आता है इसीलिये शब्द और स्पर्श दो गुणों वाला वायु अपने कारणरूप सूक्ष्म आकाश से स्थूल उत्पन्न होता है। आकाश के होने पर वायु का होना और उसके न होने पर वायु का न होना, इस प्रकार वायु और आकाश का कार्यकारण सम्बन्ध है। कार्य-कारणों की एकता कई प्रकार से मानी जाती है। उनमें यहां अस्तित्व सामान्य वा कारण की सत्ता में कार्य का होना अर्थात् जिसकी विद्यमानता में जो रहे और जिसके न रहने पर जो न रहे, वह उसका कारण कहाता है। इस प्रकार यहां दोनों कार्य-कारण की एकरूपता है। इसी प्रकार वायु का भी शब्द गुण है यह वायु के कारण आकाश के सम्बन्ध से कह सकते हैं। इसीलिये वर्णोच्चारणशिक्षा में शब्द की उत्पत्ति में कहा है कि- “आकाश और वायु दोनों से शब्द उत्पन्न होता है”।१

तथा वायु से अग्नि उत्पन्न होता है। यहां सब स्थलों में प्रभव अपादान के तुल्य कारकपन मान वा विचार के आकाश वायु आदि शब्दों में पञ्चमी विभक्ति की गयी है। जैसे कहा जाता है कि “हिमालय से गग निकलती वा प्रकट होती है”२ इसी प्रकार यहां भी निकलना वा प्रकट होना अर्थ है। और (सम्भूतः) यह पद उत्पत्ति के कारण को जताता है। इससे वायु का आकाश अथवा अग्नि का वायु, घड़ा का मिट्टी के समान उपादान कारण नहीं अर्थात् जैसे मिट्टी स्वयं घड़ारूप बन जाती है वैसे आकाश वायुरूप और वायु अग्निरूप नहीं बन जाता। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है पर वायु का उपादान आकाश और अग्नि का उपादान वायु नहीं है। और जहां घड़े के उपादान मिट्टी के तुल्य साक्षात् कार्य का उपादान कारण होता है वहां विशेष कर कार्यकारण की एकरूपता अपेक्षित होती है। इसी प्रकार यहां साक्षात् उपादान कारण न होने से वायु के साथ अग्नि का सारूप्य अपेक्षित नहीं होता, किन्तु वायु की विद्यमानता में अग्नि की उत्पत्ति होती है, इसलिये अग्नि का कारण वायु माना जाता है। जैसे वायु के होने पर अग्नि और दीपक जलते हैं, न होने पर नहीं। इसी से जहां वायु का आना-जाना घड़ा आदि से रोक दिया जाता है, वहां दीपादि नहीं जल सकता। जैसे जलते हुए दीपक को एक घड़े में धरके घड़े का मुख बन्द कर दिया जावे जिससे उसमें किञ्चित् भी वायु न पहुंचे तो उसी क्षण भर में दीपक बुझ जायेगा। ऐसा होने पर स्थूल वायु के आने-जाने से अग्नि जलता है अन्यथा नहीं। इससे अग्नि का कारण वायु है, यह कथन सम्भव है। तथा कहीं अग्नि भी वायु का कारण होता है। उसमें भेद यह है कि सूक्ष्म बिजली आदि कारणरूप अग्नि वायु का कारण है। और यही कारण अग्नि सबसे पहले उत्पन्न होता है, इसी के सम्बन्ध से शून्य का आकाश नाम पड़ता है, इसी की व्याप्ति से वायु चलता है, इसलिये इसी को वायु का कारण मानते हैं, पर स्थूल अग्नि का स्थूल वायु ही कारण है, यह पूर्व से सिद्ध हो चुका।

अग्नि के पश्चात् जल उत्पन्न होता है, इसी कारण ग्रीष्म ऋतु के तपने के पश्चात् वर्षा ऋतु होता है, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का अच्छे प्रकार तपना ही वर्षा का कारण है। तथा अन्य समय में भी जब-जब वर्षा होती है, तब-तब उष्णता की उत्तेजना पूर्वक ही होती है, इससे भी जलों की उत्पत्ति का कारण अग्नि आता है। यदि जगत् में अग्नि न हो तो जल में बहनारूप द्रवगुण रहना भी असम्भव है। तथा किसी यन्त्र से जल में व्याप्त अग्नि निकाल लिया जावे तो जलाकार की कठिनता हो जाने से जल का अपने रूप में ठहरना ही सम्भव नहीं (जल में से अग्नि का भाग निकाल लेने पर ही बरफ बन जाता है, वही अग्नि वायु के सम्बन्ध से फिर जलरूप होकर बहने लगता है) और जिसके अभाव में जिसका अभाव होता है, वह उसका कारण हो यह भी न्याय से सिद्ध ही है, जैसे तैल के न रहने पर दीपक नहीं जलता। तथा जल से पृथिवी उत्पन्न होती है। इसी कारण जब वर्षादि द्वारा पृथिवी को जल प्राप्त होता है, तभी पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुएं ठहरती हैं। जल न रहे तो संयोग से बने पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुओं के अवयवों का वियोग होकर विनाश हो जावे। इससे पृथिवी का कारण जल सिद्ध होता है। जहां-जहां जल की प्रवृत्ति है, वहां-वहां पृथिवी की ठीक दशा है। पृथिवी के सम्बन्ध से फल पकते समय स्वरूप से सूखने वा नष्ट होने वाली ओषधियां, उन ओषधियों से उनका फलरूप अन्न तथा खाये हुए अन्न से साररूप रसादि धातु उत्पन्न होते, और उन धातुओं का परस्पर विपरिणाम होते-होते वीर्य धातु उत्पन्न होता है, वह वीर्य प्राणियों के शरीरों का उपादान कारण है। इस प्रकार ओषधियों से अन्न उत्पन्न होने पर प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है। अन्नादि भोग्य वस्तुओं के होने पर भी भोक्ताओं के बिना रसादि धातु न होने से प्राणियों के शरीर नहीं उत्पन्न होते। इसलिये अन्न और ओषधि की रचना के अनन्तर सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने वैसे ही सूक्ष्म कारण से प्राणियों के शरीर उत्पन्न किये। उनके द्वारा खाये अन्न से फिर वीर्यादि धातु होकर मैथुनी सृष्टि हुई। स्थूल स्त्री-पुरुषों के संयोग के बिना अद्भुत शिल्पयुक्त प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति की है, इससे उस परमेश्वर का सर्वज्ञ होना सिद्ध है। फिर भी सृष्टि के आरम्भ में प्रथम बुद्धि में दो भेद कल्पित किये। उनका नाम स्त्री-पुरुष रखा गया, पीछे स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों से युक्त परमाणुओं के संयोग से सबको उत्पन्न किया। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों के संयोग से सब उत्पन्न होता है, यह आशय निकलता है। अथवा पुरुष नाम परमात्मा सृष्टि का निमित्त है और प्रकृति उपादानरूप स्त्री उन दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुई सृष्टि भी मैथुनी कहाती है। इस प्रकार यहां सृष्टिप्रक्रिया में उत्पत्ति का क्रम तथा अन्य भी यथासम्भव कहा। अब इस विषय में अधिक लिखना समाप्त करते हैं। आगे प्रथमाध्याय की समीक्षा लिखी जायेगी।

कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

मनु कौन है इसका प्रतिपादन करके अब द्वितीय प्रकरण का विचार किया जाता है कि किस समय, किसलिये, किस पुरुष ने यह धर्मशास्त्र बनाया ? लोक में मनुस्मृति वा मानव धर्मशास्त्र नाम से यह पुस्तक प्रचरित है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सब वेदों का अनुसन्धान- पूर्वापर विचार करके संसार के व्यवहार की व्यवस्था करने और अच्छे आचरणों का प्रचार करने के लिये सूत्रादि रूप वाक्यों में धर्म का उपदेश किया, किन्तु उस समय कुछ भी विषय पुस्तकाकार से लिखा नहीं गया था। उस उपदेश को शास्त्र करके मानना वा कहना विरुद्ध इसलिये नहीं है कि शास्त्रशब्द का व्यवहार लेखनक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन जी ने न्याय सूत्र के भाष्य में शास्त्र का लक्षण भी यही किया है कि ‘परस्पर सम्बन्ध रखने वाले अर्थसमूह का उपदेश शास्त्र है।’१ इससे लिखे वा छपे पुस्तक का नाम शास्त्र नहीं आता। मनु नाम ब्रह्मा जी ने वेद के अर्थ का अनुसन्धान करके वेद को मूल मानकर व्यवहार की व्यवस्था करने के लिये जो विचार किया वह मनुस्मृति कहाती है। और मनु नाम ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में कहा मानव धर्म उसका उपदेश जिसमें है, वह पद और वाक्यादि रूप मानवधर्म शास्त्र कहाता है। अथवा मनु जी के अनुभव से सिद्ध हुआ मानवधर्म, वह जिसमें कहा गया, वह मानवधर्मशास्त्र कहाता है। प्रोक्तार्थ में प्रत्यय करने से प्रतीत होता है कि मानवधर्म का मूल वेद है। क्योंकि किसी सनातन धर्मशास्त्र का आश्रय लेकर शास्त्र बनाया जाय, उसी में प्रोक्त प्रत्यय होता है। इसी कारण प्रोक्ताधिकार२ के पीछे ‘कृते ग्रन्थे3 प्रकरण पाणिनि ने रखा है। और प्र उपसर्ग पूर्वक वचधातु४ से सिद्ध हुए प्रयोगों की पढ़ाने, प्रचार करने, विशेष लुप्त हुए शास्त्रों को निकाल कर चलाने और प्रकारान्तर से व्याख्यान कर सबको जताने, अर्थ में यथासम्भव प्रवृत्ति होती है। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि महर्षि का आशय५ प्रोक्ताधिकार के व्याख्यान से प्रतीत होता है। ऐसा मानने से ही वेदों की संहिता के माध्यन्दिनीय और वाजसनेयी आदि नाम निर्दोष बन सकते हैं। अर्थात् माध्यन्दिन, वाजसनेय आदि ऋषियों के नाम से वेद की संहिताएं प्रसिद्ध हैं। इसका अभिप्राय यही है कि जिन-जिन ऋषि जनों ने उन-उन संहिताओं का विशेषकर अध्यापन वा उपदेश आदि द्वारा प्रचार कराया उन-उन के नाम से वे-वे पुस्तक प्रचरित हो गये। किन्तु उन पुस्तकों को ऋषियों ने बनाया नहीं। यदि प्रोक्त अधिकार को नवीन कृत्य माना जावे तो ‘कृते ग्रन्थे’ प्रकरण पुनरुक्त होने से व्यर्थ हो जावे, इस कारण प्रोक्त का वही अर्थ ठीक है कि जो ऊपर लिखा गया है।

पहले सृष्टि के आरम्भ में गुरु-शिष्य की निरन्तर चलने वाली परम्परा के साथ वाक्य, पद और मन्त्ररूप से ही वेदों के उपदेश का प्रचार चलता था। एक ने अपने गुरु से यथावत् सुनकर अन्य अपने शिष्यों को किया। इस प्रकार वेद और धर्मशास्त्र सम्बन्धी सूत्रादि रूप वाक्य सब पढ़ने-पढ़ाने वालों को कण्ठस्थ रहते थे। और शास्त्र के कण्ठस्थ होने से पढ़ने-पढ़ाने वालों को विद्या का जैसा ह्ल ल होना सम्भव है वैसा पुस्तकस्थ पाठ से नहीं हो सकता। इस पर किसी विचारशील पुरुष ने कहा है कि- ‘पुस्तक में पड़ी विद्या और पराये हाथ में गया धन, ये दोनों ही समय पर उपयोगी नहीं होते।’1 इससे विचारशीलों को जान लेना चाहिये कि कण्ठस्थ करना सर्वोत्तम है। ऐसा विचार के ही उस समय के लोगों ने लिखने की प्रवृत्ति नहीं चलाई थी। क्योंकि यदि पुस्तकें लिखी जावें तो विद्यार्थी ‘पुस्तकस्थ अपने पाठ को यथावकाश हम देख सकते हैं’, ऐसा मानकर शास्त्र को कण्ठस्थ न करेंगे, ऐसा विचार के लेखन प्रक्रिया का चलाना हानिकारक समझते थे। और यह कदापि कहना ठीक नहीं बनता कि उस समय के लोगों को लिखने का सामान नहीं मिला अथवा उनको लेखन क्रिया ज्ञात नहीं थी। क्योंकि वेद द्वारा परमेश्वर ने सब क्रियाओं का उपदेश पहले ही किया है।२ जैसी लिखने की परिपाटी इस समय है वैसी पहले न हो, यह हो सकता है, तो भी अभाव नहीं कह सकते। क्योंकि अभाव से भाव नहीं होता। किन्तु संसार के कार्यों का प्रकार बदलता रहता है। इसी के अनुसार पूर्वकाल में अन्य प्रकार का लिखना था। अर्थात् पुस्तकें नहीं लिखी जाती थीं, तो भी भित्ति आदि पर प्रतिबिम्ब रखना, वस्त्रों पर अनेक चित्र काढ़ना या छापना वा किसी में मोहर लगाना वा किसी को अटित करना इत्यादि सब काम लिखने के अन्तर्गत ही समझे जाते हैं। और जब पूर्वकाल सृष्टि के आरम्भ में ही अकारादि वर्णों की आकृति विद्वान् लोगों ने बनाई, तो ह्लि र लेखन- क्रिया नहीं थी, यह कहना ठीक नहीं, किन्तु अपने ही कथन को काटना है। अब यह प्रकरणान्तर है इसलिये इस पर विशेष न लिखकर मुख्य प्रकरण की बात करनी चाहिये। अर्थात् पहले सृष्टि के आरम्भ में शास्त्रों को पुस्तकाकार में लिखने की प्रवृत्ति नहीं थी, यह बहुत कारणों से प्रतीत होता है।

सृष्टि के आरम्भ में शास्त्र भी बहुत नहीं थे, किन्तु वेद से भिन्न कोई ही शास्त्र बना था, उन थोड़ों का कण्ठस्थ करना भी सहज ही था। और जो वेद से भिन्न धर्मसूत्रादि रूप से शास्त्र बने थे, वे छोटे-छोटे थे, इस कारण उनका कण्ठस्थ करना सुलभ था। पीछे जब धीरे-धीरे समय के अनुसार व्यवहार चलाने और वेद के आशय का विशेष प्रचार कराने के लिए आवश्यकता के अनुसार विद्वान् लोगों ने अन्य शास्त्र बनाये तब अनेक शास्त्रों के बढ़ जाने से कण्ठस्थ करना दुस्तर था, इस कारण क्रमशः विद्याधर्मादि का न्यून सेवन हो सकने की शटा से आगे होने वाले शक्तिहीन पुरुषों के उपकार के लिए बने हुए शास्त्र पुस्तकाकार किये गये।१ पहले समय में सत्त्व गुण के प्रचार की अधिकता से रजोगुणी पुरुष बहुत नहीं थे।२ और सत्त्वगुणी पुरुषों का यह स्वाभाविक धर्म है कि वे अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए विशेष प्रयत्न न करके अन्य प्रथमोपदेष्टा पुरुषों के नाम से ही अपने निमित्तमात्र कामों को भी प्रचरित करते थे। वैसे ही यह मनुस्मृति सृष्टि के आरम्भ में सूत्रादिस्थ वाक्यरूपों से मनु जी ने उपदेश की, उसके पीछे भृग जी ने अपने शिष्यों को उपदिष्ट की और भृगु जी ने ही पद्यरूप से क्रमबद्ध आकार में बनायी।

कोई लोग कहते हैं कि भृगु के किसी शिष्य ने यह पुस्तक बनाया और ऐसा मानने पर ही ‘स्वयम्भुवे0’ [अमित तेज वाले स्यम्भू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके, मनु के द्वारा प्रणीत विविध शाश्वत धर्मों को कहूँगा।] यह प्रारम्भ में धरा गया किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में प्राप्त होने वाला श्लोक सार्थक हो सकता है। सो यदि इस पक्ष को सत्य माना जावे कि भृगु के किसी शिष्य का बनाया यह मनुस्मृति पुस्तक है, तो जिनका मत है कि भृगुप्रोक्त यह संहिता है, वह विरुद्ध पड़ेगा। और यह श्लोक भी सब पुस्तकों में नहीं मिलता। इससे इसका एकदेशी होना सिद्ध ही है। तथा व्यूलर ने भी यही कहा है कि कहीं-कहीं मिलने वाला यह श्लोक पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है। यदि यह श्लोक पहले से होता तो सब पुस्तकों में मिलना चाहिए था। इससे अधिकांश सम्मति के अनुसार मेरी भी सम्मति यही है कि यह पुस्तक भृगु का बनाया है और ‘स्वयम्भुवे0’ यह श्लोक किन्हीं का पीछे से मिलाया हुआ है। भृगु के द्वारा बनाया होने पर भी सृष्टि के आरम्भ में मनु ही इस धर्म के आशय के प्रवर्त्तक हैं, कि जिसको मैंने श्लोकबद्ध किया। मेरा कुछ इनमें नवीन कृत्य नहीं, ऐसा मन में विचार के उन्होंने मनु के नाम से ही प्रचरित की, और यह बात सत्य भी है। क्योंकि ऐसा होने पर ही वेदों को ईश्वर का वाक्य कह सकते हैं अर्थात् ईश्वर का ज्ञान मात्र वेद हैं, उसने पुस्तकाकार वेद नहीं बनाये। किन्तु महर्षि लोगों ने पुस्तकाकार किये हैं। तो भी परमात्मा से वेद उत्पन्न हुए, ऐसा कहा वा माना जाता है। किन्तु किसी महर्षि ने वेद बनाये, ऐसा प्रसिद्ध नहीं। इसी प्रकार मनु नामक ब्रह्मा ने इसका स्मरण किया और भृगु ने विशेषदशा में पद्यरूपाकार से बनाया। तो भी जैसा मनु ने स्मरण किया था, वही आशय पुस्तकाकार में लाया गया, इसलिये इस पुस्तक को मनुस्मृति कहना वा मानना ठीक ही है, किन्तु निरर्थक नहीं। तथा अन्य स्मृतियों का पीछे बनना, आधुनिक होना, उन-उन के आशयों और उनमें इसी का अनुवाद दीख पड़ने से प्रतीत होता है। और यह मनुस्मृति पुरानी है, तो भी जहां-तहां बीच-बीच में इतिहासादि सम्बन्धी अनेक श्लोक किन्हीं मतवादियों ने मिला दिये हैं, इससे अत्यन्त नवीन प्रतीत होती है। ऐसी ही बातों को देखकर व्यूलर साहब को भी भ्रान्ति हो गई, जिससे उन्होंने इसको अतिनवीन ठहराया है। उनको भ्रान्ति होने में अनुमान से यह भी कारण जान पड़ता है कि जैसे ईसाई मत अतिनवीन है, इससे थोड़ा इधर-उधर तक का समाचार उन्होंने लगा पाया है। जैसे दो-तीन सहस्र वर्ष से पूर्व हमारे मत या कुटुम्ब के नाम तक का पता नहीं, वैसे ही अन्य भी कोई मत पहले नहीं था। इन लोगों के मत वा सिद्धान्त से चार, पांच वा छह सहस्र वर्षों के पूर्व सृष्टि भी नहीं थी और न कोई शास्त्र था। परन्तु यह उन लोगों का विचार ठीक नहीं, क्योंकि इस आर्यावर्त्त देश में सूर्यसिद्धान्त नामक एक पुस्तक है जो वर्तमान इस चतुर्युगी के त्रेतायुग में बनाया गया। उसमें स्पष्ट लिखा है कि इस अट्ठाईसवीं चतुर्युगी में से अब तक केवल सद्युग बीत गया। उस पुस्तक को बने कई लाख वर्ष बीत गये। इसी प्रकार उससे भी अत्यन्त प्राचीन पुस्तकें इस देश में हैं। तथा काल का परिमाण, काल के अवयवों का वर्णन और कल्प तथा प्रलयादि का वर्णन सूर्यसिद्धान्तादि आर्यों के पुस्तकों में मिलता है। उससे सिद्ध है कि इस सृष्टि को उत्पन्न हुए अरब से ऊपर-ऊपर वर्ष बीत चुके हैं। तब से लेकर क्या मनुष्य विद्या, धर्म आदि से रहित ही थे, और ऐसा कथन कोई बुद्धिमान् मान सकता है ? कदापि नहीं। यदि कोई सनातन ईश्वर माना जावे, तो उसने सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को कुछ ज्ञान दिया, ऐसा मानना चाहिये। अन्यथा परमेश्वर में दोष आवेगा। और परमेश्वर के किसी काम में भूल है नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि मनुस्मृति भी सृष्टि के आरम्भ से ही रूपान्तर में थी, वह कुछ काल पीछे भृगु ने पद्यरूप में बनायी। तब मनु जी के अभिप्रायानुकूल होने से मनुस्मृति नाम रखा गया। इस आर्यावर्त्त देश में पहले श्लोक बनाने की परिपाटी वा ज्ञान नहीं था यह भी किसी का मानना वा कहना सम्भव नहीं। क्योंकि वेद में सब प्रकार की छन्दरचना प्रत्यक्ष दीखती है। जब वेद में परमेश्वर ने श्लोक बनाने की प्रक्रिया पहले ही दिखा दी है, तो उन्हीं वेदों के पढ़ने-पढ़ाने-जानने और प्रचार करने वाले ब्रह्मादि लोग श्लोक-रचना की रीति न जानते हों, यह कदापि सम्भव नहीं। परन्तु यह सत्य है कि प्रायः उस समय के लोग आजकल के तुल्य श्लोक-रचना नहीं करते थे। उसका अभिप्राय यह था कि बहुत अर्थ जिसमें से निकले ऐसा छोटा शास्त्र बने, ऐसी लाघवबुद्वि से थोड़े अक्षरों तथा गम्भीर वा बहुत अर्थ वाले सूत्ररूप ग्रन्थों को प्रायः रचते थे। जिससे विद्यार्थी लोग ब्रह्मचर्य आश्रम के समय में ही सब शास्त्रों को पढ़ सकें। पर तो भी सर्वथा पद्यरचना का अभाव नहीं था, अर्थात् कोई-कोई श्लोकबद्ध भी शास्त्र बनाते थे। जैसे भृगु जी ने यह स्मृति बनायी वा जैसे त्रेतायुग में सूर्यसिद्धान्त पद्यरूप से बनाया गया। अब यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के आरम्भ में वेद के आश्रय से सांसारिक व्यवहार को ठीक व्यवस्था चलाने के लिये सूत्रादि वाक्यरूपों से मनु जी ने इस स्मृति का उपदेश किया, उसके पीछे भृगु ने श्लोकरूप से बनाया। जैसे इस समय बनने वाले पुस्तकों में संवत्सर का नाम रखा जाता है कि अमुक संवत् में अमुक पुरुष ने यह पुस्तक बनाया, वैसी परिपाटी पहले नहीं थी और कदापि हो तो भी किन्हीं लोगों ने पीछे नष्ट कर दी। इसी से किस संवत् में यह पुस्तक बना, यह कहना नहीं बन सकता। तो भी अनुमान से हम जान सकते हैं कि इस कल्प में संसार की उत्पत्ति होने के पश्चात् परमेश्वर से वेद का उपदेश पाकर अन्य शास्त्र बनने से पूर्व ही मनु जी ने पहले इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया। उस समय यह धर्मशास्त्र पुस्तकाकार से नहीं लिखा था। पीछे अनुमान से दो सौ वर्ष के भीतर भृगु जी ने श्लोक रूप से बनाया। उसके पीछे कुछ काल बीतने पर किन्हीं अन्य ऋषि लोगों ने पुस्तकाकार किया। उससे पूर्व श्लोकरूप का ही निरन्तर चलने वाली गुरु-शिष्य की पठन-पाठन प्रणाली से प्रचार था। और प्रचार के अनुसार ही पहले लिखी गयी। पीछे कहीं-कहीं बीच में किन्हीं लोगों ने कुछ-कुछ मिला दिया यही इस प्रसग् में मुख्य और दृढ़ सिद्धान्त है।

और यदि किसी प्रकार व्यूलर साहब आदि के कहने के अनुसार किसी ने दो सहस्र वर्ष के भीतर ही इस धर्मशास्त्र को बनाया, ऐसा सिद्धान्त ठीक हो तो भी हमारा मत यह है कि यदि इस पुस्तक में अन्य स्मृतियों की अपेक्षा गम्भीराशय के साथ पक्षपात को छोड़ के वेदानुकूल वर्णाश्रमादि धर्म का वर्णन किया गया है और अन्य-अन्य प्राप्त होने वाली स्मृतियों में वैसा धर्म का उपदेश नहीं प्राप्त होता है तो वेद के अनुकूल होना ही इस मानवधर्मशास्त्र की उत्तमता में हेतु होगा। यह सब सज्जनों का मत है कि जो वेदानुकूल है, वही श्रेष्ठ है। और यदि किसी प्रकार इसका नवीन बनना सिद्ध हो जावे, तो भी मनुस्मृति नाम रखना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि कारण के बिना जब कोई कार्य नहीं होता तो मनु जी ने उपदेश किया सूत्रादि वाक्याकार पुरातन धर्म गुरु-शिष्य की परम्परा से प्रचरित चला आता था, उसी के आश्रय से किसी विद्वान् ने श्लोकरूप से बनाया उसमें भी आदि कर्त्ता मनु की प्रधानता से मनुस्मृति कहना सम्भव है। और इसको आधुनिक मानना हमारा पक्ष नहीं है किन्तु अन्य लोगों के समयानुसार किसी प्रकार कोई इसको आधुनिक मान लें तो भी समूलक वा वेदमूलक होने से प्रशंसा के योग्य अवश्य माननी चाहिये, यह अभिप्राय है। और मैंने तो अपनी सम्मति पूर्व ही लिख दी है।

अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना (अम्बेडकर का छल )

डा. अम्बेडकर ने अपने ब्राह्मण वाद से घ्रणा के चलते मनुस्मृति को निशाना बनाया और इतना ही नही अपनी कटुता के कारण मनुस्मृति के श्लोको का गलत अर्थ भी किया …अब चाहे अंग्रेजी भाष्य के कारण ऐसा हुआ हो या अनजाने में लेकिन अम्बेडकर जी का वैदिक धर्म के प्रति नफरत का भाव अवश्य नज़र आता है कि उन्होंने अपने ही दिए तथ्यों की जांच करने की जिम्मेदारी न समझी |
यहाँ आप स्वयम देखे अम्बेडकर ने किस तरह गलत अर्थ प्रस्तुत कर गलत निष्कर्ष निकाले –
(१) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बोद्ध विरोधी सिद्ध करना –
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान वैडालव्रतिकान् शठान् |
हैतुकान् वकवृत्तीश्र्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ||(४.३०)
डा . अम्बेडकर का अर्थ – ” वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे ) को सम्मान न दे|”
” मनुस्मृति में बोधो और बुद्ध धम्म के विरुद्ध में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है |”
(अम्बेडकर वा. ,ब्राह्मणवाद की विजय पृष्ठ. १५३)
शुद्ध अर्थ – पाखंडियो, विरुद्ध कर्म करने वालो अर्थात अपराधियों ,बिल्ली के सामान छली कपटी जानो ,धूर्ति ,कुतर्कियो,बगुलाभक्तो को अपने घर आने पर वाणी से भी सत्कार न करे |
समीक्षा- इस श्लोक में आचारहीन लोगो की गणना है उनका वाणी से भी अतिथि सत्कार न करने का निर्देश है |
यहा विकर्मी अर्थात विरुद्ध कर्म करने वालो का बलात विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बोद्ध कर लिया |विकर्मी का विधर्मी अर्थ किसी भी प्रकार नही बनता है | ऐसा करके डा . अम्बेडकर मनु को बुद्ध विरोधी कल्पना खडी करना चाहते है जो की बिलकुल ही गलत है |
(ख) या वेदबाह्या: स्मृतय: याश्च काश्च कुदृष्टय: |
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता:|| (१२.९५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जो वेद पर आधारित नही है, मृत्यु के बाद कोई फल नही देती, क्यूंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अन्धकार पर आधारित है| ” मनु के शब्द में विधर्मी बोद्ध धर्मावलम्बी है| ” (वही ,पृष्ठ१५८)
शुद्ध अर्थ – ‘ वेदोक्त’ सिद्धांत के विरुद्ध जो ग्रन्थ है ,और जो कुसिधान्त है, वे सब श्रेष्ट फल से रहित है| वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्ध्कार एवं दुःख में फसाने वाले है |
समीक्षा- इस श्लोक में किसी भी शब्द से यह भासित नही होता है कि ये बुद्ध के विरोध में है| मनु के समय अनार्य ,वेद विरोधी असुर आदि लोग थे ,जिनकी विचारधारा वेदों से विपरीत थी| उनको छोड़ इसे बुद्ध से जोड़ना लेखक की मुर्खता ओर पूर्वाग्रह दर्शाता है |
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान|
विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् || (९.२२५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जो मनुष्य विधर्म का पालन करते है …….राजा को चाहिय कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे | “(वही ,खंड ७, ब्राह्मणवाद की विजय, पृष्ठ. १५२ )
शुद्ध अर्थ – ‘ जुआरियो, अश्लील नाच गाने करने वालो, अत्याचारियों, पाखंडियो, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालो ,शराब बेचने वालो को राजा तुरंत राज्य से निकाल दे |
समीक्षा – संस्कृत पढने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म ,विकर्म ,दुष्कर्म इन शब्दों में कर्म ‘क्रिया ‘ या आचरण का अर्थ देते है | यहा विकर्म का अर्थ ऊपर बताया गया है | लेकिन बलात विधर्मी और बुद्ध विरोधी अर्थ करना केवल मुर्खता प्राय है |
(२) अशुद्ध अर्थ कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करना –
(क) सेनापत्यम् च राज्यं च दंडेंनतृत्वमेव च|
सर्वलोकाघिपत्यम च वेदशास्त्रविदर्हति||(१२.१००)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – राज्य में सेना पति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है|’ (वही पृष्ठ १४८)
शुद्ध अर्थ- ‘ सेनापति का कार्य , राज्यप्रशासन का कार्य, दंड और न्याय करने का कार्य ,चक्रवती सम्राट होने, इन कार्यो को करने की योग्यता वेदों का विद्वान् रखता है अर्थात वाही इसके योग्य है |’
समीक्षा – पाठक यहाँ देखे कि मनु ने कही भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नही किया है| वेद शास्त्र के विद्वान क्षत्रिय ओर वेश्य भी होते है| मनु स्वयम राज्य ऋषि थे और वेद ज्ञानी भी (मनु.१.४ ) यहा ब्राह्मण शब्द जबरदस्ती प्रयोग कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करने का प्रयास किया है |
(ख) कार्षापण भवेद्दण्ड्यो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेद्दण्ड्य: सहस्त्रमिति धारणा || (८.३३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जहा निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है , उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्त्र पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फैक दे ,यह शास्त्र का नियम है |(वही, हिन्दू समाज के आचार विचार पृष्ठ२५० )
शुद्ध अर्थ – जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक कार्षापण का दंड है उसी अपराध में राजा के लिए हज़ार गुना अधिक दंड है | यह दंड का मान्य सिद्धांत है |
समीक्षा :- इस श्लोक में अम्बेडकर द्वारा किये अर्थ में ब्राह्मण को दे या नदी में फेक दे यह लाइन मूल श्लोक में कही भी नही है ऐसा कल्पित अर्थ मनु को ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी सिद्ध करने के लिए किया है |
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते |
द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते|| (८.३४८)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात विघ्न होता हो, तब तब द्विज शस्त्र अस्त्र ग्रहण कर सकते है , तब भी जब द्विज वर्ग पर भयंकर विपति आ जाए |” (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृष्ठ २५० )
शुद्ध अर्थ:- ‘ जब द्विजातियो (ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य ) धर्म पालन में बाँधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या परिस्थति के कारण उनमे विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजो को शस्त्र धारण कर लेना चाहिए|’
समीक्षा – यहाँ भी पूर्वाग्रह से ब्राह्मण शब्द जोड़ दिया है जो श्लोक में कही भी नही है |
(३) अशुद्ध अर्थ द्वारा शुद्र के वर्ण परिवर्तन सिद्धांत को झूटलाना |
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृत: |
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते|| (९.३३५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” प्रत्येक शुद्र जो शुचि पूर्ण है, जो अपनों से उत्कृष्ट का सेवक है, मृदु भाषी है, अंहकार रहित हैसदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है (अगले जन्म में )  उच्चतर जाति प्राप्त करता है |”(वही ,खंड ९, अराजकता कैसे जायज है ,पृष्ठ ११७)
शुद्ध अर्थ – ‘ जो शुद्र तन ,मन से शुद्ध पवित्र है ,अपने से उत्क्रष्ट की संगती में रहता है, मधुरभाषी है , अहंकार रहित है , और जो ब्राह्मणाआदि तीनो वर्णों की सेवा कार्य में लगा रहता है ,वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है|
समीक्षा – इसमें मनु का अभिप्राय कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का है ,जिसमे शुद्र उच्च वर्ण प्राप्त करने का उलेख है , लेकिन अम्बेडकर ने यहाँ दो अनर्थ किये – ” श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का उलेख है अगले जन्म का उलेख नही है| दूसरा श्लोक में ब्राह्मण के साथ अन्य तीन वर्ण भी लिखे है लेकिन उन्होंने केवल ब्राह्मण लेकर इसे भी ब्राह्मणवाद में घसीटने का गलत प्रयास किया है |इतना उत्तम सिधांत उन्हें सुहाया नही ये महान आश्चर्य है |
(४) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना 
(क) ब्राह्मण: क्षत्रीयो वैश्य: त्रयो वर्णों द्विजातय:|
चतुर्थ एक जातिस्तु शुद्र: नास्ति तु पंचम:||
डा. अम्बेडकर का अर्थ- ” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्यवर्ण का विस्तार नही चाहता था और इन समुदाय को मिला कर पंचम वर्ण व्यवस्था के पक्ष में नही था| जो चारो वर्णों से बाहर थे|” (वही खंड ९, ‘ हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृष्ठ१५७-१५८)
शुद्ध अर्थ – विद्या रूपी दूसरा जन्म होने से ब्राह्मण ,वैश्य ,क्षत्रिय ये तीनो द्विज है, विद्यारुपी दूसरा जन्म ना होने के कारण एक मात्र जन्म वाला चौथा वर्ण शुद्र है| पांचवा कोई वर्ण नही है|
समीक्षा – कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ,शुद्र को आर्य सिद्ध करने वाला यह सिद्धांत भी अम्बेडकर को पसंद नही आया | दुराग्रह और कुतर्क द्वारा उन्होंने इसके अर्थ के अनर्थ का पूरा प्रयास किया |
(५) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री विरोधी कहना |
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविध्यो न बालिश:|
होता स्यादग्निहोतरस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा||( ११.३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नही करेगी|” (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृष्ठ ३३३)
शुद्ध अर्थ – ‘ कन्या ,युवती, अल्पशिक्षित, मुर्ख, रोगी, और संस्कार में हीन व्यक्ति , ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक बनने के अधिकारी नही है|
समीक्षा – डा अम्बेडकर ने इस श्लोक का इतना अनर्थ किया की उनके द्वारा किया अर्थ मूल श्लोक में कही भव ही नही है | यहा केवल होता बनाने का निषद्ध है न कि अग्निहोत्र करने का |
(ख) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया |
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तह्स्त्या|| (५.१५०)
डा. अम्बेकर का अर्थ – ” उसे सर्वदा प्रसन्न ,गृह कार्य में चतुर , घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिय |”(वही ,पृष्ठ २०५)
शुद्ध अर्थ -‘ पत्नी को सदा प्रसन्न रहना चाहिय ,गृहकार्यो में चतुर ,घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ सुंदर रखने वाली और मित्यव्यी होना चाहिय |
समीक्षा – ” सुसंस्कृत – उपस्करया ” का बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली” अर्थ अशुद्ध है | ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नही बल्कि सम्पूर्ण घर और घरेलू सामान जो पत्नीं के निरीक्षण में हुआ करता है |
(६) अशुद्ध अर्थो से विवाह -विधियों  को विकृत करना 
(क) (ख) (ग) आच्छद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्|
आहूय दान कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तित:||(३.२७)
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते|
अलकृत्य सुतादान दैव धर्म प्रचक्षते||(३.२८)
एकम गोमिथुंनं द्वे वा वराददाय धर्मत:|
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्म: स उच्यते||(३.२९)
डा अम्बेडकर का अर्थ – बाह्म  विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी| देव विवाह  था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था | आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधु के पिता को उसका मूल्य चूका कर प्राप्त करता था|”( वही, खंड ८, उन्नीसवी पहेली पृष्ठ २३१)
शुद्ध अर्थ – ‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् कन्या द्वारा स्वयम पसंद करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ बाह्य विवाह’ कहलाता है ||’
‘ आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज कर्म करने वाले विद्वान को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना’ दैव विवाह ‘ कहाता है ||”
‘ एक या दो जोड़ा गाय धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘आर्ष विवाह ‘ है |’ आगे ३.५३ में गाय का जोड़ा लेना वर्जित है मनु के अनुसार
समीक्षा – विवाह वैदिक व्यवस्था में एक संस्कार है | मनु ने ५.१५२ में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है | संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी रूप में ससम्मान प्रदान किया जाता है | इन श्लोको में इन्ही विवाह पद्धतियों का निर्देश है | अम्बेडकर ने इन सब विधियों को निकाल कर कन्या को उपहार , दक्षिणा , मूल्य में देने का अशुद्ध अर्थ करके सम्मानित नारी से एक वस्तु मात्र बना दिया | श्लोको में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नही बनता है | वर वधु का मूल्य एक जोड़ा गाय बता कर अम्बेडकर ने दुर्भावना बताई है जबकि मूल अर्थ में गाय का जोड़ा प्रेम पूर्वक देने का उलेख है क्यूंकि वैदिक संस्कृति में गाय का जोड़ा श्रद्धा पूर्वक देने का प्रतीक है |
अम्बेडकर द्वारा अपनी लिखी पुस्तको में प्रयुक्त मनुस्मृति के श्लोको की एक सारणी जिसके अनुसार अम्बेडकर ने कितने गलत अर्थ प्रयुक्त किये और कितने प्रक्षिप्त श्लोको का उपयोग किया और कितने सही श्लोक लिए का विवरण –

 

 उपरोक्त
वर्णन के आधार पर स्पष्ट है कि अम्बेडकर ने मनु स्मृति के कई श्लोको के गलत अर्थ प्रस्तुत कर मन मानी कल्पनाय और आरोप गढ़े है | ऐसे में अम्बेडकर निष्पक्ष लेखक न हो कर कुंठित व्यक्ति ही माने जायेंगे जिन्होंने खुद भी ये माना है की उनमे कुंठित भावना थी | जो कि इसी ब्लॉग पर बाबा साहब की बेवाक काबिले तारीफ़ नाम से है | इन सब आधारों पर अम्बेडकर के लेख और समीक्षाय अप्रमाणिक ही कही जायेंगी |
संधर्भित पुस्तके – (१) मनु बनाम अम्बेडकर-डा. सुरेन्द्र कुमार
(२) मनुस्मृति और अम्बेडकर – डा.के वी पालीवाल …..