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- सूर्य नमस्कार- एक विवेचन -विद्यासागर वर्मा, पूर्व राजदूत
- –वैदिक ईश्वर-अन्तिम भाग
- -इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- -प्राचीन भारत का स्वर्णिम आदर्श इतिहास- ‘कैकेय नरेश महाराज अश्वपति की सार्वजनिक घोषणा’ -मनमोहन कुमार आर्य
- -विश्व इतिहास की अन्यतम् घटना- ‘महर्षि दयानन्द ने देश व धर्म के लिए माता-पिता-बन्धु-गृह व अपने सभी सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- . …योग र यसका अंग-३
- . क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी? : आचार्य सोमदेव जी
- ……योग र यसका अंग-५
- ….योग र यसका अंग-४
- ….योग र यसका अंग-६
- ….योग र यसका अंग-७
- …योग र यसका अंग-२
- …वैदिक ईश्वर
- …वैदिक ईश्वर-३
- …वैदिक ईश्वर-४
- …वैदिक ईश्वर-५
- ..योग र यसका अंग-०८
- ..योग र यसका अंग-०९
- ‘PIMPED OUT BY BOSS’ Married banker, 36, ‘pimped out’ to wealthy Arab client in bid to land £25m account and ‘threatened with the sack if she didn’t go for dinner date’
- ‘ओ३म्’ को बिषयमा संका समाधान-२
- ‘जन्नत की कुंवारी हूरों के लिए’ जेब में अंडरगार्मेंट्स रख आत्मघाती हमला करने जाते हैं ISIS जिहादी
- ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने वाले नीतीश के मंत्री के खिलाफ फतवा जारी
- ‘സത്യ പ്രകാശം’ വൈദിക ശില്പ്പശാല ‘LIGHT OF TRUTH’ VEDIC WORKSHOP AT PT. LEKHRAM ARSH GURUKUL, VELLINEZHI FROM 21 -23 DEC 2014
- ‘സത്യപ്രകാശം’ വൈദിക ശില്പ്പശാല ‘LIGHT OF TRUTH’ VEDIC WORKSHOP AT PT. LEKHRAM ARSH GURUKUL, VELLINEZHI FROM 21 -23 DEC 2014
- ‘‘अध्यात्मवाद’’ आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में समबन्ध क्या है-इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है। मैंने किसी जगह पढ़ा था कि अध्यात्म वह स्थिति है, जब बुद्धि आत्मा में स्थित हो जाता है और उस समय जो विचार आता है वह उत्तम ही आता है। कृपया स्पष्ट करें।
- ‘‘आर्य भारत में बाहर से आये’’ : यह मान्यता देशद्रोह है : डॉ धर्मवीर
- ‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रत्याक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं है’’ – की समीक्षा – डॉ. कृष्णपालसिंह
- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?
- ‘‘माँ’’ – देवेन्द्र कुमार मिश्रा
- ‘‘मेरे लिये सन्ध्योपासना करिये?: राजेन्द्र जिज्ञासु
- ‘अविद्यायुक्त असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन और आर्यसमाज’
- ‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’
- ‘आर्य जाति नहीं गुण सूचक शब्द है।’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती
- ‘आर्यसमाज की स्थापना और इसके नियमों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘आर्यसमाज की स्थापना के समय ऋषि दयानन्द द्वारा व्यक्त की गई आशंका’
- ‘आर्यसमाज के नियम’1
- ‘आर्यसमाज के यशस्वी साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द’
- ‘इतिहास प्रदूषण’ पर आक्षेप: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ‘ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी’
- ‘ईश्वर का ध्यान व उपासना तथा मूर्तिपूजा’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर का प्रमाणिक विवरण कहां से प्राप्त हो सकता है?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर की पूजा उपासना में भेदभाव एवं हिंसा अनुचित’
- ‘ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर के प्रति मनुष्य का मुख्य कर्तव्य’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’
- ‘ईश्वर को जानना और उसकी स्तुति करना आवश्यक क्यों है?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद सरल च सुबोध हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का सदा सर्वदा का साथी और रक्षक है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?’
- ‘ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण’ – मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ ज्ञान में आधुनिक विज्ञान भ्रमित है।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘ईश्वर व जीवात्मा विषयक यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति का सरल उपाय’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करें?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘ईश्वर, माता-पिता, आचार्य, वायु, जल व अन्न आदि देवताओं का ऋणी मनुष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘ईश्वर, वेद और विज्ञान’
- ‘ईश्वर, वेद, राजर्षि मनु व महर्षि दयानन्द सम्मत शासन प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘ईश्वराधीन कर्म-फल व तद् आश्रित सुख-दुःख व्यवस्था पर विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘उल्लास’ – देवनारायण भारद्वाज
- ‘ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता व प्रकाशक विभूतियां’
- ‘ऋषि दयानन्दभक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के कुछ प्रेरक प्रसंग’
- ‘एक ईश्वर, एक संसार और एक ही मनुष्य जाति विषय पर कुछ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था’
- ‘एक दलित बन्धु की बारात में एक सुप्रसिद्ध आर्य संन्यासी’
- ‘ओ३म्’ को बिषयमा संका समाधान-३
- ‘ओ३म्’ को बिषयमा संका समाधान-४
- ‘क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’
- ‘क्या महर्षि दयानन्द को वेद की पुस्तकें धौलपुर से प्राप्त हुईं थीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’
- ‘गाय के प्रति माता की भावना रखना और उसकी रक्षा करना मनुष्य का धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘गुजरात के सोमनाथ मन्दिर की लूट पर महर्षि दयानन्द का शिक्षाप्रद व्याख्यान’-मनमोहन कुमार आर्य
- ‘गृहस्थ जीवन की उन्नति के 16 स्वर्णिम सूत्र’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘गोमाता, गोदुग्ध एवं गोरक्षा का महत्त्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘गोरक्षा युक्ति प्रमाण सिद्ध मनुष्य धर्म है’ – मनमोहन कुमार आर्य
- ‘गोरक्षा-आन्दोलन और गोपालन का महत्व’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘गोवर्धन पूजा गो के उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘जल्लीकट्टू का विरोध’-एक अन्तर्राष्ट्रीय षडय़न्त्र: -प्रभाकर
- ‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’
- ‘दया के सागर महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘देश के लिए मर मिटने वाले देशभक्त मृत्युंजय भाई परमानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘धर्म के अनुशासन बिना विज्ञान मानव जीवन के लिए अहितकारी’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘धर्म प्रवतर्कों व प्रचारकों के लिए वेद-ज्ञानी होना अपरिहार्य’
- ‘धार्मिक अंधविश्वासों का कारण सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न करना’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘नारियां शुभ, शोभा, शोभनीयता गुणों से सुशोभित हों : ऋग्वेद’
- ‘न्यायकारी व दयालु ईश्वर कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता।’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘पं. गणपति शर्मा का वैदिक धर्म व महर्षि दयानन्द के प्रति श्रद्धा से पूर्ण प्रेरणादायक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘पं. विष्णुलाल शर्मा द्वारा ऋषि दयानन्द के दर्शन का वृतान्त’
- ‘पंडित चमूपति द्वारा अमर दयानन्द का स्तवन’
- ‘पण्डित चमूपति द्वारा ऋषि दयानन्द का गौरव गान’
- ‘पाठकों की प्रतिक्रिया’
- ‘पुनर्जन्म व त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क व युक्तियाँ ‘
- ‘प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि और उसके प्रेरक लोग’
- ‘प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की महर्षि दयानन्द को श्रद्धांजलि’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘प्रातः व सायं संन्ध्या करना सभी मनुष्यों का मुख्य धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द’
- ‘ब्रह्मचर्य का स्वरुप व उसके पालन से लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मत-पंथों की विज्ञान एवं मनुष्य स्वभाव विषयक असत्य मान्यतायें’
- ‘मनुष्य और उसका धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मनुष्यों एवं प्राणियों के जातिभेद ईश्वर व मनुष्यकृत दोनों हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मनुस्मृति का सर्वग्राह्य शुद्ध स्वरूप’
- ‘मन्दिरों की लूट तथा धार्मिक साहित्य नष्ट करने संबंधी इतिहास विषयक ऋषि उपदेश’:- मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विश्व के महापुरुषों में सर्वोत्तम स्मरणीय चरित्र’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित महर्षि वाल्मिकी भी विश्व के आदरणीय एवं पूज्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द’-मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम को जानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनाने का संकल्प लेने का पर्व है रामनवमी’
- ‘महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य’
- ‘महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द का नवदम्पत्तियों व गृहस्थियों को वेदसम्मत कर्तव्योपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द के बहुप्रतिभावान् अद्वितीय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द के मुम्बई में ऐतिहासिक उपदेशों का विवरण’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द के योग शिष्य लक्ष्मणानन्द’
- ‘महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रकाशित ग्रन्थों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार और खण्डन-मण्डन क्यों किया?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द प्रोक्त वेद सम्मत ब्राह्मण वर्ण के गुण-कर्म-स्वभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली’-मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महर्षि दयानन्द, सत्यार्थ प्रकाश और आर्यसमाज मुझे क्यों प्रिय हैं?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘महान आर्य संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं’
- ‘माता-पिता, आचार्य, चिकित्सक व किसान आदि की तरह धर्म प्रचारक का असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मांसाहार और मनुस्मृति’
- ‘मृतक श्राद्ध विषयक भ्रान्तियां: विचार और समाधान’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘मैं इष्ट वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति करता हूं’
- ‘मैं और मेरा आचार्य दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘मैं और मेरा धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य।
- ‘मैं और मेरा परमात्मा’-मनमोहन कुमार आर्य
- ‘मैं महानतम पुरुष ईश्वर को जानता हूं’
- ‘यज्ञ का महत्व एवं याज्ञिकों को इससे होने वाले लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ, देश की एकता व अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास’
- ‘योगेश्वर श्री कृष्ण जन्म दिवस पर्व और शिक्षक दिवस’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘रक्षा बन्धन अन्याय न करने और अन्याय पीढि़तों की रक्षा करने का संकल्प लेने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘राम के मित्र महावीर हनुमान का आदर्श व अनुकरणीय जीवन’
- ‘वर्तमान शिक्षा में समग्र वैदिक विचारधारा को सम्मिलित करना सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास और देशोन्नति के लिए आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘विजयादशमी पर्व पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श जीवन के अनुरूप स्वयं को बनाने का व्रत लें’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- ‘विश्व में वेद-ज्ञान-भाषा की उत्पत्ति और आर्यो का आदि देश’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘विष का घट फोड़ दो : पंडित प्रकाश चन्द्र कविरत्न’
- ‘वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वेद’ उंगलियों पर
- ‘वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन, तर्क, विवेचना और सम्यक् ज्ञान-ध्यान के बिना ईश्वर प्राप्त नहीं होता’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’
- ‘वेदों और आर्यसमाज का प्रचार और प्रभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वेदों का ज्ञान और समाज का पुराण वर्णित अन्ध विश्वासों का आचरण’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून
- ‘वैदिक आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वैदिक धर्म और आंग्ल नववर्ष २०१६’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वैदिक धर्म की वेदी पर प्रथम बलिदान: महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वैदिक धर्म में पिता का गौरव’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर’
- ‘वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा’
- ‘व्यालेन्टाइन-डे’ को वास्तविकता:
- ‘व्रत, तप, तीर्थ व दान का वैदिक सत्य स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘शहीद ऊधम सिंह जी की जयंती पर उनकी देशभक्ति के जज्बे को प्रणाम’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘शहीद भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और ऋषि दयानन्द’
- ‘शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का डंका बजाने वाले आर्य विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद’
- ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द थे’: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- ‘श्री राम की तरह भरत जी का जीवन भी पूजनीय एवं अनुकरणीय’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सत्य के आग्रही व यथार्थवादी महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग की भावना से सर्व मत-पन्थों का समन्वय ही मनुष्यों के सुखी जीवन एवं विश्व-शान्ति का आधार’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सत्याचरण से अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान’
- ‘सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘संन्यास आश्रम की महत्ता पर संन्यासी स्वामी दयानन्द का उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सब सत्य विद्याओं एवं उससे उत्पन्न किए व हुए संसार व पदार्थों का मूल कारण ईश्वर’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- ‘सर्वव्यापक ईश्वर मुनष्य की जीवात्मा में वास करता है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘सर्वव्यापक कर्मों का साक्षी परमात्मा मुनष्य को बुरे काम करने पर रोकता क्यों नहीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘संसार के सभी मनुष्यों का धर्म क्या एक नहीं है?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वज एक थे व वैदिक धर्मानुयायी थे’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘संसार में ईश्वर और धर्म एक हैं’
- ‘सृष्टि उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त और महर्षि दयानन्द’
- ‘सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान’–मनमोहन कुमार आर्य
- ‘स्वामी दयानन्द अपूर्व सिद्ध योगी व पूर्ण वैदिक ज्ञान से संपन्न महापुरुष थे’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘स्वामी दयानन्द के चार विलुप्त ग्रन्थ’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘स्वामी श्रद्धानन्द का पावन चमत्कारिक व्यक्तित्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ‘हमारा गणतन्त्र और समाज’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ‘हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नाम ‘ओ३म्’ का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर’
- ‘होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार’
- ’ विषय में शिवलिंग वस्तुतः यज्ञ वेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में तेईस देवियों के नाम मिलते हैं। अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना झूँठ और बेईमानी है। जिज्ञासा यह है कि शिव, शिवलिंग और देवी शबद के यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है एवं ऋग्वेद में देवी शबद का प्रयोग किस तात्पर्य या प्रयोजन को सिद्ध करता है। यह पौराणिक मान्यताओं के देवी शबद का प्रयोजन तो नहीं है। कष्ट के लिये क्षमा।
- ” ओ३म् -वन्दना “
- “ईसा के शांतिवादी सिद्धांत का मिथक”
- “द्रौपदी का चीरहरण” – भारतीय संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र – पार्ट 2
- “भगवाकरण” या “भगवा प्रबंधन” डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
- ““सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 11”
- “ARYA” AND ‘ANARYA’
- “अमर शहीद भगत सिंह को श्रद्धाजंली” -मनमोहन कुमार आर्य।
- “महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द”
- “यज्ञ क्या होता है और कैसे किया जाता है?” -मनमोहन कुमार आर्य
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 10″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 15”
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 2″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 3″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 4″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 5″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 6″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 7″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 8″
- “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 9″
- ( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
- (1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।
- (3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।
- (क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है। जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?
- (ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है। जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?
- (ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।
- (ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?
- (ग) एक व्यक्ति बिल्कुल नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता को मानने से इन्कार करता है। लोगों को कहता है- ईश्वर नाम की कोई हस्ती संसार में नहीं है, लोग भ्रम में पड़े हुए हैं। किन्तु कर्म अच्छे करता है, बड़ा समाज सेवी भी है। क्या उस पर नाराज नही होता ईश्वर?
- *अथ पेरियार दर्प भंजनम्* सच्ची रामायण का जवाब -१ –
- *पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१२*
- *राष्ट्रको विनाश कसरि हुन्छ?*
- *सच्ची रामायण की पोल खोल -४
- *सच्ची रामायण की पोल खोल-3
- *सच्ची रामायण की पोल खोल-८
- #पेरियार के प्रश्नों का श्रृंखलाबद्ध #प्रश्न – उत्तर #संख्या (०१.) क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते? उत्तर – आचार्य योगेश भारद्वाज
- ~पं.मनसाराम जी वैदिक तोप~राजेंद्र जी जिज्ञासु
- ★বেদোক্ত কর্ম পর্ব সংগঠন★
- १. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव
- 12 साल में तीन बार तीन तलाक और चार शादी
- 1965 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठ भूमि तथा मेरे संस्मरण -मेजर रतनसिंह यादव
- 1मारीशस में आर्यसमाज
- 300 लोगों का करवा रहे थे धर्म परिवर्तन. तभी अचानक वहां पहुँच गया “विश्व हिन्दू परिषद्”
- ३३कोटि देवताको रहश्य के हो ?
- A critique of the beliefs of the Hare Krishna movement (ISKCON) : Dr. Vibhu
- A last kiss for mama: Jihadi parents bid young daughters goodbye… before one walks into a Damascus police station and is blown up by remote detonator
- a sex offender receives a free “cultural differences” pass following his Surfers Paradise groping frenzy.
- Adi Shankaracharya, Brihadaranyak Upnishad and Beef-Meat
- Admission Started for First Vedic Missionary School in Kerala
- Advairwaad Khanadan Series 2 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 1 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 10 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 3 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 4 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 5 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 6 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 7 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 8 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series 9 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- Advaitwaad Khandan Series- By Gangaprasad Ji: भूमिका : शंकर भाष्य आलोचन
- Advice to Teachers on education from Vedas
- Age of Ayesha at marriage with Mohammed saheb
- AGNIHOTRA
- Alcohol Fest or New Year’s Celebration
- Algeria defends Ahmadiyah sect arrests, community says vilified
- Allah a Servant of Muhammad
- Allah admires Blind & Irrational Believers
- Allah and Enemies
- Allah beguiles people
- Allah destitute of compassion
- Allah ignorant of physics
- ALLAH IS NOT ENOUGH
- ALLAH WAS NOT OMNISCIENT
- Allah, quranic embryology and the soul !
- Allah, the great deceiver
- An Islamic Caliphate in Seven Easy Steps By Yash Arya
- Ancient Vedic Shipcraft
- ANGADIPPURAM RAMA SIMHAN – AN ARYA MARTYR OF KERALA
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- hadees : PRAYERS FOR THE DEAD
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- hadis : GOOD AND EVIL DEEDS
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- Satya Nirnay – Response to Gandhi
- Satyarth Prakash – Hindi
- Satyarth Prakash Nepali
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- Secularism a Dangerous Nonsense – Dr. Vidhu
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- Shiva Baavani
- Shivaji The Great
- Shri Krishan ke Vivahon ka sach
- SHUDDHI WORK OF THE ARYA SAMAJ
- Shyamji Krishna Varma- His Making and Dayanad Saraswati , By Vidhu
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- The Autobiography of Swami Dayanand Saraswati
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- THE CENTRAL THOUGHT OF VEDIC CULTURE By Dr. Satyavrat Siddhantalankar
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- The origin of the Vedas: Dr. Vidhu Mayor
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- The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)
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- This is treason: Dr. Dharmveer
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- VEDAS : IS THERE CHARM AND MAGIC IN THEM?
- VEDAS : IS THERE MONISM OR POLYTHEISM IN THEM?
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- Yes, the Vedas sanction death of a cow slaughterer: Dr. Dharmveer
- Yogeshwar Shree Krishna
- Zakir Naik, Ayesha, The Prophet & Ayurveda.
- اوم ہی جیون ہمارا
- अकबर की औछी हरकत
- अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा- वीर नाथूराम गोडसे…
- अग्नि नामक जगदीश्वर की महिमा -रामनाथ विद्यालंकार
- अग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार
- अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार
- अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार
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- अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार
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- अग्निहोत्र -रामनाथ विद्यालंकार
- अग्निहोत्र का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व – प्रो. डी.के. माहेश्वरी
- अग्निहोत्र यज्ञ से अनेक लाभ व इसके कुछ पक्षों पर विचार
- अग्निहोत्र यज्ञ- पंच महायज्ञ के विषय में महर्षि जी द्वारा ऋग्वेद भाष्य में विस्तार से बताया गया है इस विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें घी सामग्री की आहुतियाँ देकर इन यज्ञों का जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। कृपया समाधान करने की कृपा करें।
- अग्न्याधान
- अंग्रेजी का महिमा-मण्डन अनुचित है
- अँग्रेजी भाषा के बारे में भ्रम
- अच्छे कम करने से आयु लम्बी होती है
- अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है
- अजमेर की दरगाह बन चुकी है लूट का अड्डा – सरोज खान
- अजमेर के विमान तल(air port) को महर्षि दयानन्द के नाम नामी से सुशोभित किया जाये ऐसा हमारा आपसे नम्र निवेदन है I plz vote and share this link to all group and friend
- अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ
- अजान के हो?
- अजेयता के तप लिए आवश्यक
- अजेयता के तप लिए आवश्यक
- अज्ञान और अंधविश्वास आध्यात्मिक उन्नति में बाधक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
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- अतिथि यज्ञ ऐसे किया : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
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- अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन
- अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’
- अदीना स्याम शरदः शतम्
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- अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?-राजेन्द्र जिज्ञासु
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- अध्ययन और अध्यापन की ऋषि निर्दिष्ट विधि – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती
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- अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म-मरण-जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध
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- अन्त भला सो भला:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
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- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : दिनेश
- अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार (लोयोला कॉलेज कांड)
- अमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है – रामनाथ विद्यालंकार
- अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य
- अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य
- अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह: – चन्दराम आर्य
- अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य
- अमृतसर में पौराणिक विद्वानों तथा श्रीशंकराचार्य के साथ नौ घण्टे तक महान् शास्त्रार्थ ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक
- अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
- अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
- अमेरिका – एक विहंगम दृष्टि
- अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों की आयुः- – राजेन्द्र जिज्ञासु
- अम्बेडकर की वेदों के विषय में भ्रान्ति
- अम्बेडकर की सांख्य दर्शन के प्रति भ्रान्ति
- अम्बेडकर के वेदों पर आक्षेप
- अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना (अम्बेडकर का छल )
- अम्बेडकर वादी का गलत गायत्री मन्त्र का अर्थ और उसका प्रत्युत्तर
- अम्बेडकरजी द्वारा नमस्ते अभिवादन का प्रयोग: कुशलदेव शास्त्री
- अयोध्या_ 25 मुस्लिम परिवारों ने इस्लाम त्याग कर अपनाया हिंदूत्व…
- अरब का मूल मजहब (भाग २ )
- अरब का मूल मजहब (भाग १)
- अरब का मूल मजहब (भाग ३)
- अरब का मूल मजहब (भाग ४)
- अरब का मूल मजहब (भाग ५)
- अरब का मूल मजहब (भाग ६)
- अरब का मूल मजहब (भाग ७)
- अरब किस तरह मुसलमान हुआ ?
- अरविन्द केजरीवाल ने किया “औ३म्” का अपमान
- अरे यह कुली महात्मा
- अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि
- अल्लाह एक कल्पित चरित्र है
- अल्लाह का इलाज
- अल्लाह का न्याय
- अल्लाह की रजिस्टर्ड डाक गुम – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- अल्लाह ने ‘कुन’ कहा और …….- राजेन्द्र जिज्ञासु
- अल्लाह सर्वज्ञ और सर्वव्यापक नहीं
- अल्लाह-ताला एक सीमित व्यक्ति है [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-२] । ✍🏻 पण्डित चमूपति
- अल्लाहमियाँ की कसमें | – चमूपति
- अवतारवाद अर्थात् नपुंसकवाद:
- अवतारवाद का अन्त होगा? रामनिवास गुणग्राहक
- अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः
- अवतारवाद समीक्षा
- अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री
- अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री
- अवैदिक कर्म – सूर्य अर्ध्य
- अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार
- अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार
- अष्टाादशपुराणसमीक्षा
- असफल कौन ? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा अजमेर
- असरदार और ताकतवर ढंग से जवाब चाहता है पाकिस्तान शिवदेव आर्य गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून Mobi.- 08810005096
- असहिष्णुता का मानवीय रोगःराजेन्द्र जिज्ञासु
- अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार
- अहल्योद्धार
- अहिंसक होने का दण्ड: डॉ धर्मवीर
- अहिंसाको दर्शन-वैदिक संस्कृति..
- अहिंसाको दर्शन-वैदिक संस्कृति..२
- आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार
- आओ, सोम-सरोवर के भक्ति रस-जल में स्नान कर आनन्दित हों’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- आकर्षण : :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- आखिर क्या है वैलेंटाइन डे? शिवदेव आर्य
- आखिर क्यों मैं एक ईसाई नहीं हु
- आखिर संस्कृत व हिन्दी भाषा का विरोध क्यों? : शिवदेव आर्य
- आँखों के लिए सर्वथा हितकारी – सप्तामृत लौह
- आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार
- आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन
- आचार्य धर्मवीर जी के प्रति उद्गार: – सोमेश पाठक
- आचार्य रामदेव जीः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक
- आचार्य सोमदेव जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’
- आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण :रामनाथ विद्यालंकार
- आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे
- आज 23 दिसम्बर को 90 वें बलिदान दिवस पर ‘स्वामी श्रद्धानन्द का महान व्यक्ति और कार्य भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा’ -मनमोहन कुमार आर्य
- आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता: राजेन्द्र जिज्ञासु
- आज भोजन करना व्यर्थ रहा
- आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- आजकल आर्य समाज में कई नए-नए संगठन बन गए हैं, जो अपनी नई-नई परमपराएँ चला रहे हैं और नए-नए सिद्धान्त भी बता रहे हैं। इसी प्रकार एक यज्ञ के बारे में सुना, जिसका नाम स्वराज यज्ञ रख रखा है। मेरी जिज्ञासा यह है कि क्या वेद, शास्त्रों और स्वामी दयानन्द के अनुसार इस प्रकार के स्वराज यज्ञ करने का कोई विधान है? अगर है तो इसे कौन कर सकता है, इसके करने की विधि क्या होगी? कितने समय के अंतराल पर इसे करना चाहिए? क्या इतिहास में भी कहीं इस प्रकार के यज्ञ का वर्णन आता है? इस प्रकार के यज्ञ करने से स्वराज-प्राप्ति हो जाती है? और इस यज्ञ का लाभ क्या होगा?
- आजकल आर्यसमाज के नए-नए विद्वान् नई-नई खोज कर रहे हैं। एक नई खोज सामने आयी है कि आत्मा साकार है और सत्यार्थप्रकाश का हवाला देते हुए बताते हैं कि स्वामी जी ने निराकार नहीं निराकारवत् लिखा। अब सही और गलत आप ही बताएँ।
- आत्म चिन्तन -रमेश मुनि
- आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार
- आत्म-चिन्तन और मनन – रमेश मुनि
- आत्मघाती लोग कहाँ जाते हैं? डॉ रामनाथ वेदालङ्कार
- आत्मनिवेदन: दिनेश
- आत्मनिवेदन: दिनेश शर्मा
- आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार
- आत्मा का स्थान-1
- आत्मा का स्थान-२
- आत्मा का स्थान-3
- आत्मा का स्थान-४
- आत्मा का स्थान-5
- आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार
- आत्मा के हो ?
- आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें
- आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है ।
- आत्मा सूर्य, मन सोम -रामनाथ विद्यालंकार
- आदर्श संन्यासी – स्वामी विवेकानन्द भाग -२ : धर्मवीर जी
- आदर्श सन्यासी -स्वामी विवेकानन्द : प्रो धर्मवीर
- आदर्श समाजवाद वैदिक साहित्य के परिपेक्ष में
- आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?
- आदिकालीन विश्व में मनु, मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के प्रमाण-डॉ. सुरेन्द कुमार
- आदित्य पुरुष -रामनाथ विद्यालंकार
- आधुनिक कानूनविदों व लेखकों के अनुसार मनु आदि-विधिप्रणेता:डॉ. सुरेन्द कुमार
- आधुनिक मतों के अनुसार स्वायंभुव मनु का काल-डॉ. सुरेन्द कुमार
- आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प
- आध्यात्म संग्राम में विजयी हो धनवान बनें
- आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण……….- स्वामी विष्वङ्
- आनन्द स्त्रोत बह रहा – प्रकाश्चन्द”कविरत्न”
- आनन्दमुनि जी का सौजन्य
- आन्तरिक प्रमाणों में धर्म और शिक्षा का विधान: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- आप कैसे मिशनरी थे!
- आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार
- आपद्धर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- आम आदमी पार्टी की वास्तविकता
- आयशा की हड्डी
- आयशा मुहम्मद साहब को रसूल नहीं मानती थीं : फ़रोग़ काज़मी
- आयु को निश्चित मानना वेद विरुद्ध है: -ब्र. वेदव्रत मीमांसक
- आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार
- आरक्षण नहीं, वैदिक संरक्षण
- आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
- आर्य नरेश कोल्हापुर का सक्रिय सहयोग
- आर्य महापुरुषों के प्रति डॉ0 अम्बेडकरजी का कृतज्ञता भाव:डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- आर्य वक्ताओं व लेखकों की सेवा में:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- आर्य समाज और इस्लाम : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- आर्य समाज और इस्लाम: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर ,प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु
- आर्य समाज और डॉ0 अम्बेडकर: कुशलदेव शास्त्री
- आर्य समाज और राजनीति: – भाई परमानन्द
- आर्य समाज का वेद प्रचारः एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक
- आर्य समाज का वेद प्रचार: एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक
- आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून
- आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः-राजेन्द्र जिज्ञासु
- आर्य समाज को अपयश से बचाओः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- आर्य समाज क्या है?
- आर्य समाज व आर्यवीर दल -कर्मवीर
- आर्य समाज हिन्दु बिगारक होइन हिन्दु सुधारक हो ।
- आर्य समाजका मान्यताहरु
- आर्य समाजबाट केहि सिक
- आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि
- आर्य-पथ – राजेश माहेश्वरी
- आर्यनेता और फूल मालायें
- आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी
- आर्यसमाज – समस्या और समाधान:- धर्मवीर
- आर्यसमाज और हरिजन-समस्या: – स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती
- आर्यसमाज का एक अद्वितीय दानी सपूत
- आर्यसमाज का एक विचित्र विद्वान्
- आर्यसमाज का एक विचित्र विद्वान्: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- आर्यसमाज का वेद-सम्बन्धी उत्तरदायित्व: स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती
- आर्यसमाज की आवश्यकता: – उत्तमचन्द शरर
- आर्यसमाज की प्रगतिशील दृष्टि: कुशलदेव शास्त्री
- आर्यसमाज की सैद्धान्तिक विजयः राजेन्द्र जिज्ञासु
- आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि
- आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति
- आर्यसमाज क्या है ? पण्डित मनसाराम वैदिक तोप
- आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव
- आर्यसमाजी बन गया तो ठीक किया
- आर्यसमाजी हूँ
- आर्यावर्त क्या है ? ✍🏻 प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय
- आर्यों का इतना विरोध हुआ
- आर्यों का समाज कहाँ है? – सोहनलाल कटारिया
- आर्यों की देवी व देवता
- आर्यों को उद्बोधन क्या शौर्य दिखला सकते हो? – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु
- आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
- आलाराम स्वामी की पीड़ाः-राजेन्द्र जिज्ञासु
- आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः: राजेन्द्र जिज्ञासु
- आसुरीभाव दूर करने को हम आध्यात्मिक बनें
- इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः : राजेंद्र जिज्ञासु परोपकारी पत्रिका Dec II, 14
- इतिहास का हस्ताक्षर-महाशय कृष्ण जी का पत्र:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”
- इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”
- इतिहास प्रदूषण – प्राक्कथन : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- इतिहास बोलता है और बोलेगाः-राजेन्द्र जिज्ञासु
- इतिहास से ऐसी चिढ़ः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी
- इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है
- इनको कुछ नहीं कहा जा सकताः-राजेन्द्र जिज्ञासु
- इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार
- इन्हें आर्यसमाज से क्या लेना-देना:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- इन्हें सोने दें
- इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों
- इससे हमने क्या सीखा?ः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- इस्लाम : महिलाओं का खतना बन्द हो .. सुप्रीम कोर्ट में गुहार
- इस्लाम और ईसाइयत का इतिहास एक नज़र में
- इस्लाम और औरत को पीटने का अधिकार
- इस्लाम का चमत्कार (अंधविश्वास) : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰
- इस्लाम का भविष्य क्या होगा ?
- इस्लाम का वैदिक रंगः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- इस्लाम में आज़ादी ? एक कड़वा सच
- इस्लाम में नारी
- इस्लाम में नारी की स्थिति – १. बहुविवाह प्रथा
- इस्लाम में नारी की स्थिति – २ :- कुरान में बीबियाँ बदलने का आदेश
- इस्लाम में विचित्र विवाह : मुतअ: ( सामयिक विवाह )
- इस्लाम में स्त्री और पुरुष का बराबरी का हक़ महज एक “अन्धविश्वास” है
- इस्लाम शान्ति का मज़हब!
- इस्लामिक जिहाद
- इस्लामी बंदगी दरिंदगी और गंदगी !
- ईश- प्रार्थना:डॉ रामनाथ वेदालङ्कार
- ईश-भजन
- ईश्वर अवतार नहीं लेता
- ईश्वर कहाँ रहता है ? : आचार्य सोमदेव जी
- ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।
- ईश्वर का अस्तित्व :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं
- ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव
- ईश्वर की दया और न्यायः – राजेन्द्र जिज्ञासु
- ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं
- ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं
- ईश्वर को प्राप्त करने की सरल विधि क्या है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ईश्वरः जैन एवं वैदिक दृष्टि -डॉ. वेदपाल, मेरठ
- ईश्वर नियंता है, न्यायकारी है, आधीन नहीं
- ईश्वर निराकार है – एक तर्कपूर्ण समाधान
- ईश्वर न्यायकारी व दयालु अवश्य है परन्तु वह कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ईश्वर पूजाको वैदिक स्वरूप
- ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ उपदेश देने से महर्षि दयानन्द विश्वगुरु हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- ईश्वर विचार – तर्क आधार पर ईश्वर की सिद्धि
- ईश्वर सबको हर क्षण देखता है और सभी कर्मों का यथोचित फल देता है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ईश्वर सुकृत कैसेः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- ईश्वर है या नहीं एक विश्लेषण – ब्र. कश्यप कुमार
- ईश्वर-परिचय
- ईश्वरको यथार्थ स्वरूपलाई कसले जान्दछ?
- ईश्वरीय ज्ञान
- ईश्वरीय ज्ञान: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ईश्वरीय नववर्ष
- ईश्वरोपासना की वैदिक रीति (अष्टांगयोग)
- ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1
- ईसा के सम्बन्ध में अनेक विचार –
- ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था
- ईसा मुक्तिदाता नहीं – बाइबिल
- ईसाई पैगम्बर अत्यंत चरित्र हीन थे – पार्ट 1
- ईसाई पैगम्बर अत्यंत चरित्र हीन थे – पार्ट 2
- ईसाई पैगम्बर अत्यंत चरित्र हीन थे – पार्ट 3
- ईसाई पैगम्बर अत्यंत चरित्र हीन थे – पार्ट 4
- ईसाई पैगम्बर अत्यंत चरित्रहीन थे – पार्ट 5
- ईसाई पैगम्बरों का चरित्र चित्र
- ईसाई मत परीक्षा
- उज़रप्रदेश का एक साहसी आर्यवीर
- उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार
- उत्तम सामग्री से यज्ञ करें
- उत्तर दिया जायः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु
- उत्तर दो और उत्तर देने की कला सीखोः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- उत्तराखंड की मुस्लिम महिला का बड़ा बयान- ‘ट्रिपल तलाक से बेहतर है हम हिंदू बन जाए’
- उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार
- उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार
- उदारता व दान की प्रतिमूर्ति गार्गी
- उनकी आत्मीयता
- उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।
- उपनिषदको अमर सन्देश
- उपनिषदों में संन्यासयोग
- उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है
- उपासना क्या, क्यों व किसकी करें तथा इसकी विधि?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- उम्र से लड़ती आधुनिकायें – डॉ. रामवीर
- उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार
- ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार
- ऋग्वेद का दसवा मंडल क्या बाद में जोड़ा गया – मिथक से सत्यता की ओर
- ऋग्वेद प्रथम अध्याय सूक्त सात के मुख्य आकर्षण
- ऋग्वेद में वायु का स्वरूप :- श्रीमती माला प्यासी
- ऋषि की ऊँचाईः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि की एक ओर दिग्विजयःराजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि की राह में जवानी वार दी
- ऋषि की राह में जवानी वार दी: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- ऋषि के पग चिन्हों पर हमारी गुजरात यात्रा- (1) – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि के पग चिह्नों पर हमारी गुजरात यात्रा- (2) – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि के भक्त : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि जीवन विचारः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी
- ऋषि जीवन-विचारः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है
- ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी
- ऋषि दयानन्द की कल्पना के यज्ञ – होतर्यज- स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती
- ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति
- ऋषि दयानन्द की विलक्षणता: डॉ धर्मवीर
- ऋषि दयानन्द के दृष्टान्त :आचार्य सोमदेव जी
- ऋषि दयानन्द जी और कुछ वर्ष जीते तो संसार का कितना उपकार होता सविवरण बताने का कष्ट करें।
- ऋषि भक्त मथुरादास जीःराजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि-जीवन पर विचारः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषि-जीवन विचारःराजेन्द्र जिज्ञासु
- ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु
- एक अद्वितीय दीनबन्धु
- एक अभूतपूर्व घटना
- एक असंगत लेख की शव-परीक्षा
- एक आग्नेय पुरुष : स्वामी योगेन्द्रपाल
- एक आपबीती
- एक ऐतिहासिक ईश्वर-प्रार्थना
- एक ऐसी जगह जहां निकाह कराया जाता है “क़ुरान” से.
- एक और ऋषि को आने में और कितना समय लगेगा? भारत में दुनिया में ऋषि मुनि उत्पन्न होने के लिए हमें क्या-क्या कार्य करने चाहिए
- एक और दीवाना संन्यासी
- एक और शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार
- एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार
- एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर
- एक महान् कर्मयोगी का महाप्रयाण
- एक शास्त्रार्थ
- एकादश अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हों
- ऐसे थे पण्डित लेखराम : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ऐसे दिलजले उपदेशक!
- ओ देव दयानंद, देख लिया तेरे कारण,
- ओ३म् ‘क्या देश ने महर्षि दयानन्द को उनके योगदान के अनुरूप स्थान दिया?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- ओ३म् को बिषयमा संका समाधान
- ओ३म् खं ब्रह्म: डॉ रामनाथ वेदालङ्कार
- ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।
- ओ३म् वह सबका स्वामी है। रामनिवास गुणग्राहक
- ओउम नाम की माला लेकर, फूल हमेशा खिलते हैं |
- ओम् का माहात्म्य :- उत्तरा नेरूर्कर
- और लो, यह गोली किसने मारी
- और लो, यह गोली किसने मारी : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- और वह अग्नि फिर बुझ गई
- औरतों का खतना: एक दर्दनाक इस्लामिक मान्यता
- कत्लखाना बंद नहीं होना चाहिए ?
- कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा
- कयामत की रात : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰
- कर्म फल की समस्या
- कर्मफल और मुक्ति का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य
- कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।
- कविता – ‘वीर वैरागी’ (बलिदान दिवस विशेष) ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰
- कविता – सारे संसार का उपकार करना , सत्यदेव प्रसाद आर्य मरुत,
- कविरत्न पं. अखिलानन्द शर्मा By Dr. Ashok Arya
- कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।
- काँग्रेस का पंजा किसका हाथ?:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- कार्य करने का निराला ढंग
- कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार
- काशी शाश्त्रार्थ नाटिका : ऋषि उद्यान अजमेर
- काशी शास्त्रार्थ का वृत्तान्त – राजेन्द्र जिज्ञासु
- काशी शास्त्रार्थ में वेदः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- काशी शास्त्रार्थ में वेदः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- कासगंज समाज का ऋणी हूँ :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- कासगंज समाज का ऋणी हूँ :– राजेन्द्र जिज्ञासु
- किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार
- किस प्रभु की उपासना करें हम
- किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार
- किसी व्यक्ति का दुर्घटना में अपंग हो जाना मात्र संयोग है अथवा किसी की गलती का परिणाम है अथवा व्यक्ति के पूर्व जन्म के किसी पाप का फल है?
- कुण्डली को सत्य मानने वालों से कुछ प्रश्न : Arya Great
- कुन फ़यकून इंसान व शैतान [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-४] ✍🏻 पण्डित चमूपति
- कुरआन की शिक्षाएं
- कुरआन के नामकरण में गफलतबाजी
- कुरआन में जन्नत अर्थात् स्वर्ग में सुन्दरी अछूती औरतों, गिलमों अर्थात् लोंडों व शराब आदि का प्रलोभन
- क़ुरआन में परिवर्तन
- क़ुरआन सीरियाई शब्द है, तो सम्पूर्ण क़ुरआन अरबी में कैसे ?
- कुरान समीक्षा : अरबी खुदा के जुल्मों का नमूना
- कुरान समीक्षा : इस्लाम की सीधी राह
- कुरान समीक्षा : कयामत करीब है
- कुरान समीक्षा : कयामत को लोग अन्धे, बहरे, और गूंगे होकर उठेंगे
- कुरान समीक्षा : कयामत को लोग देखते सुनते व बोलते हुए उठेंगे
- कुरान समीक्षा : कलमे में मुहम्मद को शरीफ अर्थात् शामिल कर लेने से उसका पढ़ना इस आयत के विरूद्ध क्यों न माना जावे?
- कुरान समीक्षा : कुरान जिब्रील फरिश्ता लाया था
- कुरान समीक्षा : कुरान में कोई ऐब नहीं है
- कुरान समीक्षा : कुरान में खुदा ने आयतें बदल डालीं
- कुरान समीक्षा : खुदा कुरान सुनने पर परदा लगा देता है
- कुरान समीक्षा : खुदा ने जुल्म करने को ही जालिम पैदा किये
- कुरान समीक्षा : बिना पहले पैगम्बर भेजे खुदा सजा नहीं देता है
- कुरान समीक्षा : मुश्रिक अर्थात् मूर्तिपूजक खुदा की मर्जी से बने थे
- कुरान समीक्षा : विवशतः खुदा ने चमत्कार भेजना बन्द कर दिया
- कुरान समीक्षा : सबका एक गिरोह बनाना खुदा को मन्जूर न था
- कुरान – ईश्वरीय वाणी है ?
- कुरान का उतरना
- कुरान का प्रारम्भ ही मिथ्या से : चमूपति जी
- कुरान खुदाई या शैतानी (Quran is written by god or devil)
- क़ुरान में नारी का रूप- चमूपति
- कुरान में नारी की दुर्दशा
- कुरान समीक्षा : खुदा ने शैतानों की मदद क्यों नहीं ली?
- कुरान समीक्षा : आसमान में दरवाजे और किवाडें भी हैं
- कुरान समीक्षा : आसमान में बुर्ज हैं
- कुरान समीक्षा : कुरान में दो खुदा
- कुरान समीक्षा : खुदा की कसम किसने खाई खुदा ने या पैगम्बर ने
- कुरान समीक्षा : खुदा ने आसमानों को अपने बाहुबल से बनाया था
- कुरान समीक्षा : खुदा ने मकर किया अर्थात् खुदा मक्कार है
- कुरान समीक्षा : खुदा सच्चा है या धोखेबाज?
- कुरान समीक्षा : जन्नत में सुबह शाम खाना मिलेगा
- कुरान समीक्षा : जमीन से एक जानवर निकलेगा
- कुरान समीक्षा : दोजख में आंतें गल जावेंगी
- कुरान समीक्षा : पहाड़ उड़ते फिरेंगे
- कुरान समीक्षा : सूरज चक्कर खाता है
- कुरान समीक्षा : ‘‘खुदा की कसम’’- कुरान में खाने वाला कौन था?
- कुरान समीक्षा : अप्राकृतिक व्यभिचार और हजरत लूत की बेटियाँ
- कुरान समीक्षा : अरबी खुदा ने लूटें कराई
- कुरान समीक्षा : अरबी में ही कुरान क्यों उतारा गया?
- कुरान समीक्षा : अल्लाह की मदद करो
- कुरान समीक्षा : असली कुरान से मुर्दे जी उठें-पहाड़ चलने लगें और जमीन फट जावेगी
- कुरान समीक्षा : आपस में अपनी बीबियाँ भी बदल सकते हो
- कुरान समीक्षा : आसपास के काफिरों से लड़ने का आदेश
- कुरान समीक्षा : आसमान का लपेटना तथा खुदा को सिज्दा करना
- कुरान समीक्षा : आसमान गिरने से रूका है
- कुरान समीक्षा : आसमान में ओलों के पहाड़ हैं
- कुरान समीक्षा : आसमान में चौकिदार भी हैं
- कुरान समीक्षा : आसमान व जमीन खुदा की बात सुनेंगे
- कुरान समीक्षा : आसमानों को ऊँचा खड़ा किया
- कुरान समीक्षा : इन्सान को बन्दर बना कर नगद सजा दी
- कुरान समीक्षा : इब्राहीम का नमाज पढ़ना (गलत है)
- कुरान समीक्षा : ईसा के बाद अहमद आवेगा
- कुरान समीक्षा : ईसा के बारे में गलत ब्यान
- कुरान समीक्षा : ईसा को सूली नहीं लगी थी
- कुरान समीक्षा : ईसा मसीह खुदा का बेटा नहीं था
- कुरान समीक्षा : ईसाई काफिर हैं
- कुरान समीक्षा : एक व दस सूरतें बनाने की शर्त
- कुरान समीक्षा : औरतों को चेली बनाने की स्वीकृति
- कुरान समीक्षा : कयामत का फैसला हजार साल में होगा
- कुरान समीक्षा : कयामत के दिन फैसला किताबों से होगा
- कुरान समीक्षा : कर्मों के अनुसार उनके दर्जें होंगे
- कुरान समीक्षा : कल्मा पढ़ने वाले सब गुनहगार हैं
- कुरान समीक्षा : कसमें तोड़ डालने का आदेश
- कुरान समीक्षा : काफिरों को दोस्त मत बनाओ
- कुरान समीक्षा : काफिरों से लड़ो- जजिया अर्थात टैक्स लो
- कुरान समीक्षा : कुरान आसान कर दिया है
- कुरान समीक्षा : कुरान को मुहम्मद ने खुद बनाना मान लिया
- कुरान समीक्षा : कुरान पुरानी खुदाई किताबों की तफसील अर्थात् व्याख्या है
- कुरान समीक्षा : कुरान फरिश्ते का पैगाम है
- कुरान समीक्षा : कुरान मक्का वालों को डराने के लिए उतारा था
- कुरान समीक्षा : कुरान मुहम्मद ने लिखा था
- कुरान समीक्षा : कुरान में जन्नत के नजारे
- कुरान समीक्षा : कुरान में झूठ का प्रवेश नहीं है
- कुरान समीक्षा : कुरान में सूद खाना पाप है
- कुरान समीक्षा : कुरान लोहे महफूज पर खुदा ने लिख रखा है
- कुरान समीक्षा : क्या इगलामबाजी से चालू हुई?
- कुरान समीक्षा : खुदा (मुन्सिफ)-वकील, गवाह और मुल्जिम?
- कुरान समीक्षा : खुदा अपनी पूजा का भूखा है
- कुरान समीक्षा : खुदा अर्श पर बैठता है उसका मालिक है और तख्त पानी पर था
- कुरान समीक्षा : खुदा कयामत के दिन का मालिक है
- कुरान समीक्षा : खुदा का अज्ञानी होना
- कुरान समीक्षा : खुदा का गुस्सा होना
- कुरान समीक्षा : खुदा का जमीन और आसमान से बाते करना
- कुरान समीक्षा : खुदा का दफ्तर भी है
- कुरान समीक्षा : खुदा का न थकने का बयान
- कुरान समीक्षा : खुदा का मकर करना
- कुरान समीक्षा : खुदा कितनी दूर रहता है
- कुरान समीक्षा : खुदा की ‘‘कुन’’ अर्थात् हो जा क्या बला है?
- कुरान समीक्षा : खुदा की शरारत
- कुरान समीक्षा : खुदा के तख्त को आठ फरिश्ते उठाये हुए होंगे
- कुरान समीक्षा : खुदा के दो हाथ हैं
- कुरान समीक्षा : खुदा के पास असल किताब है
- कुरान समीक्षा : खुदा के पास नेकी और बदी के पृथक-पृथक रजिस्टर रहते हैं
- कुरान समीक्षा : खुदा के प्रगट होने पर पहाड़ चूर-चूर हो गया
- कुरान समीक्षा : खुदा को कर्ज दो तो गुनाह माफ हो जायेंगे
- कुरान समीक्षा : खुदा को कर्ज दो बदले में दूना मिलेगा
- कुरान समीक्षा : खुदा को गूंगे-बहरों से घृणा है
- कुरान समीक्षा : खुदा क्या ईमानदार परीक्षक था?
- कुरान समीक्षा : खुदा घेर लिया जावेगा
- कुरान समीक्षा : खुदा चाहता तो सबको एक ही दीन पर कर देता
- कुरान समीक्षा : खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है
- कुरान समीक्षा : खुदा जमीन पर उतर कर आया
- कुरान समीक्षा : खुदा दिलों पर मुहर कर देता है
- कुरान समीक्षा : खुदा दोजख में खालें बदला करेगा
- कुरान समीक्षा : खुदा नहीं चाहता कि सब मुसलमान बनें
- कुरान समीक्षा : खुदा ने खालों के डेरे बनाये
- कुरान समीक्षा : खुदा ने खुद बहुत से लोग दोजख के ही लिये पैदा किये हैं
- कुरान समीक्षा : खुदा ने गुमराह किया
- कुरान समीक्षा : खुदा ने गोश्त पकाकर उतारा
- कुरान समीक्षा : खुदा ने फरिश्तों की फौजें भेजी
- कुरान समीक्षा : खुदा ने बेशुमार पैगम्बर भेजे थे
- कुरान समीक्षा : खुदा ने व्यभिचार के लिए औरतें भेंट की
- कुरान समीक्षा : खुदा ने सबको ठीक सूझ क्यों नहीं दी?
- कुरान समीक्षा : खुदा ने हर चीज किताब में लिख रक्खी है
- कुरान समीक्षा : खुदा ने हर बात लिख रखी है।
- कुरान समीक्षा : खुदा ने हलाल को हराम कर दिया
- कुरान समीक्षा : खुदा बहुत ऊँचा है
- कुरान समीक्षा : खुदा बिना कारण रोजी कम या ज्यादा करता है
- कुरान समीक्षा : खुदा शैतान पीछे लगा देता है
- कुरान समीक्षा : खुदा सर्वज्ञ अर्थात हर हाजिर नाजिर नहीं है
- कुरान समीक्षा : खुदा हर काफिर को ७० हाथ की जंजीर से बांधेगा
- कुरान समीक्षा : खुदा ही लोगों को भटकाता है
- कुरान समीक्षा : खुदाई दीन इस्लाम की प्रशंसा
- कुरान समीक्षा : गुनाह करने के लिए खुदा की ढील
- कुरान समीक्षा : गैर मुस्लिम का विश्वास न करो
- कुरान समीक्षा : गैर मुस्लिमों से जिहाद का हुक्म
- कुरान समीक्षा : चाहे जितनी औरतें रखो छूट है
- कुरान समीक्षा : चिड़ियों ने फौज को मार डाला
- कुरान समीक्षा : जन्नत में दूध-शराब और शहद की नहरें हैं
- कुरान समीक्षा : जन्नत में बालखाने मिलेंगे
- कुरान समीक्षा : जमीन आसमान का एक पिण्ड था
- कुरान समीक्षा : जमीन और पहाड़ उठाकर तोड़े जायेंगे
- कुरान समीक्षा : जमीन में पहाड़ गाड़े गये
- कुरान समीक्षा : झूठी कसमें खाने का आदेश
- कुरान समीक्षा : तारे टूटना शैतान को मारना है
- कुरान समीक्षा : दुनियाँ की जिन्दगी धोखे की है
- कुरान समीक्षा : पिछली जिन्दगी का विश्वास करो
- कुरान समीक्षा : पुरानी बातों को ही कुरान में दोहराया गया है
- कुरान समीक्षा : फरिश्ते उतरने की बात गलत है
- कुरान समीक्षा : फरिश्तों के पंख भी हैं
- कुरान समीक्षा : बाल बच्चे भी जन्नत में जायेंगे
- कुरान समीक्षा : बिना खुदा की मर्जी के कोई सीधे रास्ते पर नहीं आ सकता
- कुरान समीक्षा : बुराई का बदला अच्छे बर्ताव से दो
- कुरान समीक्षा : मां से निकाह का निषेध व समर्थन
- कुरान समीक्षा : मिट्टी मलने से पाक होना
- कुरान समीक्षा : मुसलमान, मुसलमान को न मारे
- कुरान समीक्षा : मुहम्मद की बीबियों को खुदा की धमकी
- कुरान समीक्षा : मुहम्मद साहब बे पढ़े लिखे थे
- कुरान समीक्षा : यहूदी व ईसाई मुसलमानों के खुले दुश्मन हैं
- कुरान समीक्षा : रोजा रखना जरूरी है
- कुरान समीक्षा : रोजों में सम्भोग करना जायज किया गया
- कुरान समीक्षा : लड़ें या वे मुसलमान हो जावें
- कुरान समीक्षा : लूट के माल मे खुदा व पैगम्बर का भी हिस्सा था
- कुरान समीक्षा : लोंडियों से व्यभिचार जायज
- कुरान समीक्षा : शराब की निन्दा
- कुरान समीक्षा : शरीर के अंग गवाही देंगे
- कुरान समीक्षा : शैतान की बनाई आयतों के चन्द नमूने
- कुरान समीक्षा : सजा या इनाम खुदा की मर्जी पर है
- कुरान समीक्षा : सबकी उम्र अल्लाह ने लिखी हुई है
- कुरान समीक्षा : सबके गले में खुदा ने भाग्य पत्र बांध रखा है
- कुरान समीक्षा : सूरज और चाँद जमा किये जायेंगे
- कुरान समीक्षा : सूरज के डूबने की जगह कीचड़ का तालाब है
- कुरान समीक्षा : सूरज के निकलने और डूबने की जगह है
- कुरान समीक्षा : सूरज चाँद को नहीं पकड़ सकता है
- कुरान समीक्षा : सूरज लपेटना और तारे झड़ना
- कुरान समीक्षा : सूरज, चाँद और तारे सब खुदा के फर्माबर्दार हैं
- कुरान समीक्षा : हर आदमी का हाल दो-दो फरिश्ते लिखते रहते हैं
- कुरान समीक्षा : हर बात रोशन किताब में लिखी है
- कुरान समीक्षा :ईसा को इन्जील सिखाने वाला खुदा का बयान गलत है
- कुरान समीक्षा: औरतों पर खुदाई जुल्म
- कुरान समीक्षा: खुदा ने अरबी जाहिलों को पैदा करके अपनी अकलमन्दी का सबूत दिया है या जहालत का?
- कुरानी जन्नत, दोजक और विज्ञान
- क़ुर्आन का प्रारम्भ ही मिथ्या से [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-१] । ✍🏻 पण्डित चमूपति
- कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?
- कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?
- कुर्बानी कुरान के विरुद्ध? -1
- कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- कृतज्ञता तथा अकृतज्ञता
- कृपया दैनिक यज्ञ के मन्त्र अलग से और साप्ताहिक यज्ञ के मन्त्र अलग से परोपकारी में सुधी पाठकों के लिए बताने का कष्ट करें। पूरा मन्त्र लिखकर कृतार्थ करें क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में, विभिन्न आर्यसमाजों में विभिन्न विद्वानों के द्वारा बताया गया, लिखाया गया, छपवाया गया यज्ञ पद्धति प्रचलन में है।
- कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।
- कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार
- के कसैलाई कसैले वरदान या श्राप दिनु सम्भव छ?
- के येशु स्वयं मरेर आफ्नो बलिदान दिएको र पुनः जीवित पनि भएको थियो?
- केरल के साठ वर्षीय वेद प्रचार का मूल्यांकन
- कैसा स्वतंत्रता दिवस? – धर्मवीर आर्य,
- कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार
- कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार
- कोई अकेले नहीं रहना चाहता
- कोहि पनि ठूलो-सानो छैन, सबै मानवव समान हौँ..!
- क्या अर्जुन के रथ पर हनुमान जी विद्यमान थे ?
- क्या अल्लाह ने भोले लोगों को बहकाने के लिए शैतान को भेजा …
- क्या आँखें खुल गईं ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती
- क्या आर्य बाहर से आये थे : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- क्या आर्य विदेशी थे ?
- क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?: अभिषेक कुमार
- क्या ईश्वर सब कुछ कर सकता है? क्योंकि उसे सर्वशक्तिमान् कहा गया है- आचार्य सोमदेव जी
- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी
- क्या ईसा मरकर अपना बलिदान दिया और पुनः जिन्दा भी हुए थे ?
- क्या ईसा मसीह कुंवारी से उत्पन्न हुए थे ?
- क्या किसी माता के गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंग में उत्पन्न दोष जैसे- दिल में छेद हो जाना, अन्धता आदि माता-पिता के शारीरिक दोष का परिणाम है अथवा माता, चिकित्सक आदि किसी की त्रुटि का परिणाम है अथवा दोनों है अथवा शिशु के पूर्व जन्म मे किये गये किसी पाप का फल है?
- क्या कुरान के अल्लाह को किसी की मदद लेनी पड़ती है ?
- क्या कुरान खुदा की बनाई हुयी है ?
- क्या क़ुरान खुदा की लिखी है …..
- क्या क़ुरान विश्वासी शिक्षक हो सकता है ?
- क्या खुदा ऊंटनी की सवारी करता है ?
- क्या धर्म से सुखी हो सकते हैं????? शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून मो.-8810005096
- क्या ध्यान बोद्धो की देन है वैदिक धर्म की
- क्या नाम व शब्द सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं?:- आचार्य सोमदेव
- क्या बिस्मिल्लाह कुरान में पारसियों की नकल से लिखा गया ?
- क्या बुद्ध तर्कवादी ओर जिज्ञासु थे
- क्या भारत में गोहत्या कभी पुण्यदा थी यश आर्य
- क्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?
- क्या माता सीता धरती से उत्पन्न हुई थी ? 🤔 ✍🏻 शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी
- क्या मुहम्मद का नाम अथर्ववेद में है
- क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?: आचार्य सोमदेव जी
- क्या यही हुतात्माओं का भारतवर्ष है? शिवदेव आर्य
- क्या रंतिदेव के रसोई में गौ वध होता था ?
- क्या राजा दशरथ शिकार के लिए गये थे ? क्या राजा दशरथ ने हिरण के धोखे में श्रवण कुमार को मार दिया था ?
- क्या वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित है |
- क्या वाकई ताजमहल है एक शिव मंदिर तेजोमहालय…..
- क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी ?
- क्या वेदो को ऋषि वेद व्यास ने लिखा था ? मिथक से सच्चाई की ओर
- क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..
- क्या वेदों में वर्णित जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ?(चार्वाक मत खंडन )
- क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?
- क्या शंकराचार्य जी ने बोद्ध धम्म को भारत से नष्ट करा था ?
- क्या शिवलिंग सचमुच रेडियोएक्टिव है?
- क्या श्री राम ने पशु वध किया था ??
- क्या समस्या का समाधान आरक्षण…?? शिवदेव आर्य
- क्या संविधान से ऊपर है सुप्रीम कोर्ट,
- क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?
- क्या हनुमान जी उड़कर समुद्र लांघ लंका पहुंचे थे ?
- क्या हनुमान जी सचमुच पर्वत उठा लाये थे ?
- क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?
- क्या हिन्दू गौ मांस खाते थे ?
- क्यों माने ईश्वर को?’ -मनमोहन कुमार आर्य
- क्रांतिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा – ऋषि उवाच
- क्रिकेट जीत गया और देश हार गया |
- क्रिसमस मनाउनु बाइबल अनुसार अनुचित र अधार्मिक कार्य…!
- क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः-स्वामी विष्वङ्
- क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं: पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय
- खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में
- खुदा के भी दुश्मन ! यह कैसा खुदा …..
- खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है:
- खुदा तख्त पर बैठता है
- खुदा फौज लेकर लड़ने गया
- खुदा या शैतान
- खुदाई जन्नत
- ग़जल
- गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः
- गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार
- गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- गांधी जी और शास्त्री जी में कुछ समानता, लेकिन ढेर सारी असमानता !
- गांधी वध क्यों ?
- गाय को माता क्यों मानते हो?
- गाय को माता क्यों मानते हो? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- गीता को समझो तो: राजेन्द्र जिज्ञासु
- गीता महाभारत का नवनीत : बी.के. श्रीवास्तव
- गुजरात प्रचार यात्रा का सन्देश : डॉ धर्मवीर
- गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?
- गुणका खानी- महर्षि दयानन्द सरस्वती
- गुमराही अल्लाह
- गुरुकुल
- गूञ्जा संसार सारा, स्वामी तेरा जयकार – राजेन्द्र जिज्ञासु
- गृह की शोभा गृहिणी से ही है
- गृह नक्षत्र और सितारों के गुलाम ( फलित ज्योतिष की पोल) – पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार
- गृहस्थ के दायित्व
- गृहस्थ ने मुझे छोड़ दिया
- गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय : डॉ. धर्मवीर
- गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय प्रो. रामसिंह एम.ए.
- गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें – कन्हैयालाल आर्य
- गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार
- गो-वध व मांसाहार का वेदों में कही भी नामोनिशान तक नहीं है: शिवदेव आर्य
- गोमांतक
- गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों? : डॉ धर्मवीर
- गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी
- गौ हत्या अभिशाप देश का
- गौ हत्यारालाई वेदमा छ मृत्युदण्डको विधान
- गौतम बुद्ध र वेद
- गौतम-अहिल्या और इन्द्र-वृत्रासुर की सत्यकथा । ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक
- ग्रंथों का ग्रंथ, ‘सत्यार्थप्रकाश’
- घमण्डी अल्लाह
- घर के अन्दर बैठे आतंकियों का क्या होगा? -शिवदेव आर्य
- घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
- चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार
- चतुर्भुज नारायण के दर्शन (एकादश समुल्लास)
- चन्द्र में कलङ्क पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- चन्द्रमा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ
- चलें यज्ञ की ओर…. शिवदेव आर्य, गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून
- चलो यहीं रह लेते हैं
- चातुर्वर्ण्य का मूल सिद्धांत : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- चाँदापुर का शास्त्रार्थः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार
- चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार
- चार्वाक दर्शन एवं वेद: – डॉ. वेद प्रकाश
- चिंत, मनन ही मन का कार्य
- चिंतन , मनन ही मन का कार्य
- चौदवीं का चाँद
- छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है
- छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है
- छ: दर्शनों की वेद मूलकता डॉ. धर्मवीर
- छली मुहम्मद
- छह मास का रोज़ा (उपवास)
- छात्र ने कहा – बाइबिल नहीं वन्देमातरम गाऊँगा .. बस , उसकी जिंदगी और कैरियर दोनों हो गए तबाह
- छान्दोग्य उपनिषद् में रहे ‘इतिहासपुराणम्॑ पाठ की मीमांसा
- छिद्र भर लें – रामनाथ विद्यालंकार
- छिपे हुए सच
- जगत मिथ्या हैन..
- जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार
- जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार
- जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार
- जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य
- जन्म-मरण के दु:खों से मुक्ति के विवेक व वैराग्य आदि चार साधन’
- जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- जब इजराइल निवासी चूहे बना दिए गए : अल्लाह का विचित्र कार्य
- जब ऋषिराज हुगली पधारे
- जब जागे तभी सवेरा परन्तु…..:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता
- जब मुंशीरामजी ने प्रतिज्ञा की
- जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं
- जमीन के बाद सात आसमान बनाये
- जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र
- जयंती, जन्मतिथि मनाये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण :- डॉ वेदपाल
- जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद
- जर्मन संस्कृत विवाद कितना उचित – डॉ धर्मवीर
- जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार
- ज़वाले हैदराबाद और पुलिस ऐक्शन’: राजेन्द्र जिज्ञासु
- जहाँ ज्युदाको कुनै मूल्य छैन..
- जहाँ शैतान करता है कानों में पेशाब
- जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ
- जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- जाकिर नाईक – देशद्रोही क्यों? डॉ. धर्मवीर
- जागरण की बात कर लें। – रामनिवास गुणग्राहक
- जात-पाँत तोड़क मण्डल का आर्यसमाज से आत्मीय सम्बन्ध: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री
- जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में
- जाति बनाम वर्ण व्यवस्था
- जाति-पाँति आदि रोग रहेंगे तो:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- जातिगत भेदभाव के कारण किराये का घर पाना भी दुर्लभ: कुशलदेव शास्त्री
- जातिनिर्मूलन और वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण: कुशलदेव शास्त्री
- जिगर का खून दे देकर ये पौधे हमने पाले हैंःराजेन्द्र जिज्ञासु
- जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान : – आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान :- आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान: – आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा समाधान – 104
- जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी
- जिज्ञासा: जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, …..आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा: यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ …..आचार्य सोमदेव
- जिंदगी एक किराये का घर है,
- जिनके हम ऋणी हैं
- जिसका जन्म उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु उसका जन्म होना अटल है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- जिसके प्रभु रक्षक हैं -रामनाथ विद्यालंकार
- जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले
- जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- जीने की हकीकत:-सोमेश पाठक
- जीव कर्म करने में स्वतन्त्र-विश्व ने मानाः-राजेन्द्र जिज्ञासु
- जीव फल भोगने में परतन्त्र क्यों? – इन्द्रजित् देव
- जीवन का प्रथम प्रश्न
- जीवन की रुलाती घड़ियों में
- जीवन की सुवास: स्वामी आत्मानन्द जी महाराज- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार
- जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें
- जीवनको नियम हो- अहिंसा:
- जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार
- जीवन्मुक्त की चित्रण -रामनाथ विद्यालंकार
- जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार
- जीवात्मा वा मनुष्य की मृत्यु और परलोक’ -मनमोहन कुमार आर्य
- जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार
- जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार
- जो डर गया वह मक्का गया
- जो भी संसार में है, उसका नाम व काम परमेश्वर द्वारा नियम किया हुआ है। कहा जाता है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, इसका हनन उपरोक्त कथन में होता है।
- ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- राजेन्द्र जिज्ञासु
- ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है
- ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें
- ज्योतिष-शिविर
- ज्वलन्त प्रश्न – तीन तलाक: – दिनेश
- झट क्षमा माँग-ली
- टाँगा किस लिए लाये?
- टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक
- टूटे पुतले-एक कहानी – महेन्द्र आर्य
- ट्रिपल तलाक: भड़कीं शाइस्ता अंबर बोलीं- एक रात की अय्याशी का सामान नहीं हैं मुस्लिम औरतें
- ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- ठाकुर शिवरत्न जी पातूर: राजेन्द्र जिज्ञासु
- ठाकुरजी घर कैसे लौटें?
- डा . अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह (आर्य समाज ) द्वारा
- डा अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह द्वारा भाग २
- डा अम्बेडकर के लेखन में परस्पर विरोध
- डा. अम्बेडकर द्वारा मनु के श्लोकों के अशुद्ध अर्थ करके उनसे विरोधी निष्कर्ष निकालना : डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डार्विनको विकासवाद एक नास्तिक सिद्धांत -३
- डार्विनको विकासवाद एक नास्तिक सिद्धांत हो
- डार्विनको विकासवाद एक नास्तिक सिद्धांत- भाग-२
- डॉ बालकृष्ण और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- डॉ अबेडकर का वर्णपरिवर्तन समर्थक मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अबेडकर द्वारा प्रस्तुत जातीय वर्णपरिवर्तन के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर का जाति उद्भव सबन्धी मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर के लेखन में परस्परविरोध: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर के साहित्य में किस मनु का विरोध है?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति एवं आर्य (हिन्दू) साहित्य के विरोध के कारण और उनकी समीक्षा: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर का वैदिक संस्कारों की ओर झुकाव : कुशलदेव शास्त्री
- डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन
- डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुप्रोक्त वर्णपरिवर्तन का समर्थन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुमत का समर्थन: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार मनु शूद्रों के भी आदिपुरुष व आदरणीय पूर्वज: डॉ. सुरेन्द कुमार
- डॉ. अम्बेडकरजी की लाला लाजपतराय जी को श्रद्धांजली
- डॉ० अम्बेडकर के मतानुसार मनुस्मृति और मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार
- डॉ0 अम्बेडकर द्वारा शूद्रों के आर्यत्व का समर्थन-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान
- ढोंगी बाबाओं की दौड़ में एक चेहरा ये भी मौलाना अग्निवेश
- तकदीर (भाग्य) [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-३] । ✍🏻 पण्डित चमूपति जी
- तनाव मुक्त र आनन्दित जीवन बिताउनको लागि सात्विक आहार अपनाउँ …!
- तनूपाः अग्नि से प्रार्थना
- तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
- तप से मेरा ह्रदय विशाल हो
- तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
- तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .- डॉ गुलाम जेलानी
- ताज महल ही बाक्की रह गया था !
- तारिक फतेह ने जय श्री राम लिख कर किया ट्वीट, बोले- जाओ जो उखाड़ना है उखाड़ लो
- तिथी को शुभ अशुभ मानने वालों से कुछ प्रश्न : Arya Great
- तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार
- तीर्थको वास्तविक अर्थ
- तीर्थराज पुष्कर में महर्षि के प्रचार का प्रभाव
- तुज़्हें याद हो कि न याद हो
- तुज़्हें याद हो कि न याद हो
- तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार
- तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार
- तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह
- तुहें याद हो कि न याद होः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो-रामनाथ विद्यालंकार
- तू विभू है, प्रवाहण है -रामनाथ विद्यालंकार
- तृतीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा
- ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः – १० – स्वामी विष्वङ्
- तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार
- तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार
- तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार
- तेरे अन्दर भी द्यावापृथिवी और अन्तरिक्ष हैं- रामनाथ विद्यालंकार
- तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े-रामनाथ विद्यालंकार
- तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा
- तो सब पैदल ही चलेंगे
- तो सेवा कौन करेगा
- त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार
- त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार
- त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार
- त्रैतवाद की चर्चा
- त्रैतवाद पर मौलिक तर्कः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- थाहा पाई राखौं, वेद-आज्ञा उन्लंघन गर्दाको कति भयङ्कर परिणाम हुन सक्छ?
- दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि
- दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि
- दंगल की जायरा वसीम अभिनेत्री को कश्मीर की अलगाववादियों की धमकी
- दंगल की दयनीय सोच… -शिवदेव आर्य
- दयानन्द थे भारत की शान -श्रीकृष्ण चन्द्र शर्मा
- दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी
- दयानन्द भक्त और क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा’ -मनमोहन कुमार आर्य
- दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो
- दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि
- दलितोद्धार में दयानन्द के देवदूतों और आर्यसमाज के स्वयंसेवकों की भूमिका
- दशम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार
- दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून (उ.ख.)
- दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य
- दानधर्म का विवेचन : पण्डित भीमसेन शर्मा
- दायभाग का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- दायभाग में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- दास प्रथा र बलि प्रथालाई बाइबलमा मान्यता:
- दासता के 66 वर्ष तिब्बत की दासता की व्यथा कथा निर्वासित सरकार के शब्दों में
- दिपावलीको वैदिक महत्व
- दिल्ली के दो प्राणवीरः- – राजेन्द्र जिज्ञासु
- दिल्ली के वे दीवाने धर्मवीरः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- दिल्ली से प्रकाशित निन्दनीय ऋषि-जीवन :प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी
- दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार
- दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार
- दीनानगर की जगदंबा: राजेन्द्र जिज्ञासु
- दुःख उसी को होता है जो नासमझ होता है। स्वामी विश्वंग
- दुःखानुशयी द्वेषः-८ – स्वामी विष्वङ्
- दूसरे मतों के प्रति मुसलमानों की असहनशीलता
- दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है – कन्हैयालाल आर्य
- देखें तो पण्डित लेखराम को क्या हुआ? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- देखें तो पण्डित लेखराम को ज़्या हुआ?
- देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार
- देव : पण्डित चमूपति जी
- देव दयानंद अकेला था
- देवता पुरुषार्थी के सहायक
- देश की परतन्त्रता में मूर्तिपूजा की भूमिका पर महर्षि दयानन्द का सन् 1874 में दिया एक हृदयग्राही ऐतिहासिक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- देश के कर्णधार हमारे शिक्षक व शिष्य कैसे हों?’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- देश को गुमराह करने की कोशिश न करें! -शिवदेव आर्य
- देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।
- देश व जाति के लिये जो जिए….. कृतिशील आर्य सेनानी – स्वामी स्वात्मानन्द – डॉ. नयनकुमार आचार्य
- देशभक्त और यशस्वी हों ..
- देशवासियों के आदर्श एवं प्रेरणास्रोत- ‘भारत के लौह पुरुष सरदार पटेल का कृतज्ञ हमारा भारत देश’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार
- दैनिक यज्ञ-प्रार्थना
- दो इस्लाम: डॉक्टर गुलाम जिलानी बर्क
- दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार
- दोजख का ईन्धन आदमी व पत्थर है
- दोस्त हो तो ऐसा -धर्मेन्द्र गौड़
- द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार
- द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर
- द्रौपदी किस पाण्डव की पत्नी थी और उसके पाँच पुत्र किसी एक के थे या उसके अतिरिक्त?
- द्वन्द्वों के सहन से परमपद की ओर….. शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
- द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- द्वितीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा
- द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री
- धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार
- धन्य थे वे आर्यसेवक
- धर्म अनिवार्य क्यों है? डॉ – धर्मवीर
- धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण ? स्वघोषित विद्वान का ज्ञान घोटाला
- धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन
- धर्म का स्वरुप – शिवदेव आर्य
- धर्म की आवश्यकता क्यों? – शिवदेव आर्य
- धर्म के लक्षणों की परस्पर उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा
- धर्म तर्क की कसौटी पर : प्रकृति के सिद्धान्त – आचार्य राम चन्द्र जी
- धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!
- धर्म बलिदान
- धर्म व नैतिक शिक्षा की आवश्यकता
- धर्म विषयक सत्य व यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करना व कराना कठिन कार्य है’ -मनमोहन कुमार आर्य
- धर्म शब्द के अर्थ का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा
- धर्मसारथी श्री कृष्ण
- धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे
- धर्मान्तरण (इतिहास के परिप्रेक्ष्य में) – – सत्येन्द्र सिंह आर्य
- ध्यान से मिलता है भगवान -वाशी पुरसवानी
- न जहर, न मांसाहार, दूध है अमृत
- न जान, न पहचान-फिर भी
- न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार
- नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर
- नकारात्मक प्रचार मत करो का जवाब : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- नमाज पढना नाजायज है : डॉ. गुलाम जिलानी बर्क , पाकिस्तान
- नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु
- नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव
- नव वर्ष विक्रम संवत्- २०७६ को हार्दिक शुभकामना
- नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये
- नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार
- नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार
- नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार
- नवम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- नहीं बचेगा अत्याचारी – पं. नन्दलाल निर्भय भजनोपदेशक
- नाइजीरिया में 92 वर्षीय एक मौलवी ने 107 शादियां की जिनमें से 97 बीवियां अभी जिंदा हैं और 185 बच्चे हैं
- नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- नारी उत्थान में महर्षि का योगदान : डॉ दिनेश
- नारी का नर्क इस्लाम
- नारी का परिवार में महत्त्व: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार
- नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द – डॉ. जगदेवसिंह विद्यालंकार
- नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार
- नास्तिकों के दावों का खण्डन
- नाहिदा चली थी 3 तलाक को टक्कर देने. बेचारी सदा के लिए कर दी गयी खामोश
- निराकार ईश्वर से साकार जगत की उत्पत्ति कैसे
- निर्दोष पशु-पंक्षीहरुको रक्षा गरौँ
- निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार
- निश्चिंत रहें सृष्टि अभी समाप्त नहीं होने वाली
- निश्चिन्त सिद्धांत
- नेतृत्वहीन दिशाहीन आर्यसमाज
- नेपाल आर्यसमाज
- नेपाल त्रासदी और हमारा कर्तव्य
- नेपाल संवत र यसको महत्व:
- नेपालमा बाइबल प्रतिबन्ध लाउनै पर्ने आवश्यक
- न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार
- पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का परामर्श: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं शिवपूजन सिंह और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कःराजेन्द्र जिज्ञासु
- पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- पं. नरेन्द्र जी (हैदराबाद)
- पं. पद्मसिंह शर्मा जी की दृष्टि में पं. लेखराम साहित्यः- प्रा लेखराम
- पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं. राजाराम शास्त्री
- पं. श्रद्धाराम फिलौरी विषयक गभीर प्रश्न :प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- पं. सुधाकर जी चतुर्वेदीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे
- पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी
- पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा
- पञ्च महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- पञ्चमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- पठन-पाठन में अनध्याय पर विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार
- पंडित काशीनाथ शास्त्री
- पंडित गुरुदत्तजी विद्यार्थी
- पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार का संछिप्त परिचय : मनमोहन कुमार आर्य
- पढ़े वेद अरु पढ़ावें – सतीश गुप्ता ‘‘द्रवित’’
- पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी
- पण्डित कालीचरण शर्मा
- पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी
- पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ
- पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- पण्डित नरदेव शास्त्री
- पण्डित प्रकाश वीर शास्त्री
- पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये
- पण्डित महेंद्र पाल जी के यथायोग्य वर्ताव का विचित्र तर्क गालियों की बारिश
- पण्डित महेन्द्रपाल जी से पण्डित लेखराम वैदिक मिशन हार गया
- पण्डित लेखराम ने कहाँ लिखा है? :राजेन्द्र जिज्ञासु
- पण्डित लेखराम वैदिक मिशन की गुरुवर वेदग्य देव धर्मवीर जी को श्रद्धांजली
- पण्डित लेखरामजी का भाई चल बसा, परन्तु
- पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए
- पति के मुंह से तलाक सुन टूटा मुस्लिम महिला का सब्र, सड़क पर दौड़ाकर की जूती से पिटाई
- पत्थर भी डर जाते हैं
- पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार
- परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं
- परम पुरुष को प्रसन्न और प्रत्यक्ष स्वरुप-रामनाथ विद्यालंकार
- परमपिता परमात्मा ने चार ऋषियों को चारो वेदो का प्रकश उनके आत्मा में किया था
- परमात्मा का शरीर कब बना? किससे बना? – राजेन्द्र जिज्ञासु
- परमात्मा का स्वरुप
- परमेश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म’ ही क्यों?: आचार्य धर्मवीर
- परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव :डॉ रामनाथ वेदालङ्कार
- परमेश्वर ने क्या दिया और क्या नहीं दिया ?
- परमेश्वर व्यापक अन्तर्यामी परमैश्वर्यवान् यथार्थश्रोता: -डॉ. कृष्णपाल सिंह
- परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव
- परस्पर पूरक सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज
- परात्मा नै सच्चा गणेश हो
- परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार
- परिवार को स्वर्गिक आनंद देने के उपाय
- परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें
- परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है
- परीक्षा में सफलता के 101 सूत्र : डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
- परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई
- परोपकारिणी सभा का शोध कार्यःराजेन्द्र जिज्ञासु
- परोपकारिणी सभा का शोध व प्रकाशन: राजेन्द्र जिज्ञासु
- परोपकारिणी सभा की (गुजरात) वेद प्रचार यात्रा (21-06-2015 से 09-07-2015) – श्री सत्येन्द्र सिंह आर्य
- परोपकारिणी सभा की एक देन क्यों भूल गये: राजेन्द्र जिज्ञासु
- परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान
- परोपकारी क्या है?
- परोपकारी महाशय रूपसिंहः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- पर्यावरण की समस्या – उसका वैदिक समाधान: डॉ धर्मवीर
- पर्यावरण शुद्ध रखें -रामनाथ विद्यालंकार
- पवित्रता की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार
- पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार
- पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द
- पादरियों की शंका या आपत्ति- राजेन्द्र जिज्ञासु
- पादरी लालबिहारी डे से शास्त्रार्थ : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- पादरी लालबिहारी दे से शास्त्रार्थ
- पादरी स्काट के बारे मेंःप्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार
- पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र व उनके अर्थ
- पाप-कर्म करने के धार्मिक दिन
- पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार
- पापों का मूल मांसभक्षण
- पापों से छुटकारा और महर्षि दयानन्द
- पारसी मत का मूल वैदिक धर्म(vedas are the root of parsiseem)
- पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार
- पारिवारिक सुख के लिए वेद
- पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- पितृ-यज्ञ
- पुत्र-पुत्री में भेदभाव नहीं: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार
- पुनरुत्थान युग का द्रष्टा – स्व. डॉ. रघुवंश
- पुनरुत्थान युग का द्रष्टा -2
- पुनरुत्थान युग का द्रष्टा- 3
- पुनरुत्थान युग का द्रष्टा-4
- पुनरोदय: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’
- पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार
- पुनर्जन्म या आवागमन किन आवश्यक छ?
- पुनर्जन्म वेद द्वारा प्रमाणित…
- पुराणले केहि भन्दैछन्…
- पुराणों के अग्राह्य विधानों पर स्वामी दयानन्द व स्वामी वेदानन्द के उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य
- पुरी में रहने वाले ‘पुरुष’ दो हैं
- पुरुष सम्राट होस् नहोस् नारी साम्राज्ञी हुन सक्छिन्
- पुस्तक – परिचय पुस्तक – जिज्ञासा समाधान
- पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम – वेद प्रतिष्ठा लेखक –आचार्य सत्यजित्
- पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- व्याख्यान शतक
- पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- सत्यार्थ प्रकाश दर्शन
- पुस्तक – परिचय पुस्तका का नाम – सत्यार्थ प्रकाश भाष्य
- पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – पुराण-तत्त्व-प्रकाश
- पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – भारतीय पारंपरिक समाज तन्त्र
- पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?
- पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – साहित्यिक जीवन की यात्रा
- पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम- सङ्कलचिता एवं अनुवादक श्री आनन्द कुमार
- पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम – ऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी
- पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम- आनन्द रस धारा
- पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम- आनन्द रस धारा
- पूज्य उपाध्यायजी की महानता
- पूज्य मीमांसक जी और परोपकारिणी सभा:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- पूज्य मीमांसक जी और परोपकारिणी सभा:- राजेन्द्र जिज्ञासु जी
- पूना प्रवचन में स्वयं कथित अपना जीवन वृत्तान्त पन्द्रहवां व्याख्यान (4 अगस्त 1875)
- पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अदुल कलाम का महाप्रयाण- सत्येन्द्र सिंह आर्य
- पूर्व राष्ट्रपति एवं आजीवन शिक्षक कलाम के प्रति श्रद्धाञ्जलि: डॉ धर्मवीर
- पूर्वजों का मनन-चिन्तन व युक्तियाँः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- पृथिवी आदि की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार
- पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी का आधार: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी का भ्रमण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार
- पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार
- पृथिवी गोल है: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज
- पृथिव्यादि भूतों के संयोग से शरीर में चेतनता उत्पन्न होती है: सत्येन्द्र सिंह आर्य
- पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों
- पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-११
- पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५
- पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६
- पेरियार रचित सच्ची रामायण की पोलखोल भाग-१४
- पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१३
- पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)
- प्रकृति का वरदान – मधुविद्या
- प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार
- प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें
- प्रत्युत्तर- ‘‘अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर’’
- प्रत्युत्तर-अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याख्यास्याम की माप तौल
- प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच
- प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार
- प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक
- प्रभात से रात हो गई
- प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बटाने वाला धन मिलता है
- प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है ,
- प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है
- प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार
- प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा
- प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- प्रभु का दर्शन कैसे करें
- प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
- प्रभु की समीपता से दिव्य गुणों की प्राप्ति
- प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं
- प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को
- प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
- प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक
- प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं
- प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार
- प्रभु प्रकाश को देखें
- प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक
- प्रभु प्रेरणा से हम परमेष्ठी बनें
- प्रभु भक्त का मन उतम
- प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण
- प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़
- प्रभु सब का कल्याण करते हैं
- प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें
- प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं
- प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं
- प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं
- प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं
- प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं
- प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे
- प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार
- प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः राजेन्द्र जिज्ञासु
- प्रशोधित (रिफाईन) तेलको सत्यता…!
- प्रश्न – यज्ञ के प्रारम्भ मे जल को हवन कुंड के किस दिशा मे रखना चाहिए ? आचार्य कपिल
- प्राचीन काल में यज्ञ में पशु बलि विचारधारा को पोषित करते स्वामी विवेकानंद और सत्य- ऋष्व आर्य
- प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य
- प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल
- प्राणोपासना – 3
- प्राणोपासना – तपेन्द्र कुमार
- प्राणोपासना-2
- प्रायश्चित्त का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- प्रारम्भ ही मिथ्या से – पंडित चमूपति जी
- प्रार्थना : सचिन शर्मा
- प्रार्थना: – नाथूराम शर्मा ‘शङ्कर’
- प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि
- प्रेमस्वरुप श्रीकृष्ण
- फलित होती अल्पसंयक व आरक्षण विष बेल : डॉ धर्मवीर
- फलित-योग
- बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार
- बच्चों का व्यापार – आचार्य अखिल विनय
- बड़ों का बड़पन
- बड़ों की सेवा के प्रेरक प्रसंगः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- बड़ों ने सिखायाःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- बड़ोदरा के आर्यनरेश द्वारा श्री अम्बेडकर को छात्रवृत्ति: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- बड़ौदा आर्य नरेश द्वारा मेधावी डॉ0 अम्बेडकर की शिक्षा: कुशलदेव शास्त्री
- बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार
- बलि प्रथा एक आसुरी प्रवृत्ति हो।
- बहुकुण्डी यज्ञ – एक विवेचना आचार्य सुनील शास्त्री
- बाइबल के अभद्रोपदेश
- बाइबल में परिवर्तन – राजेन्द्र जिज्ञासु
- बाइबल में यहोवा का भयंकर विज्ञान
- बाइबलको अभद्रोपदेश..
- बाइबिल और ईसाई पैगम्बरों की चरित्रहीन, पथभ्रष्ट और असामाजिक शिक्षा
- बाइबिल की परस्पर विपरीत शिक्षा – विरोधाभासी वचनो का संग्रह – बाइबिल
- बाइबिल के यहोवा का भयंकर विज्ञान
- बाईबिल मे अंतर्विरोध
- बाईबिल मे अन्तर्विरोध भाग2
- बांके वीर को प्रोत्साहन -रामनाथ विद्यालंकार
- बादल जो जमीन और आसमान के बीच में है।
- बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले विमान -रामनाथ विद्यालंकार
- बाबासाहब अम्बेडकर का आर्यसमाज बड़ोदरा में निवास (1913): डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- बाबासाहब के निर्माण में आर्यसमाज की त्रिमूत का अविस्मरणीय सहयोग:डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- बाबू कालीप्रसन्न चैटर्जी
- बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार
- बिना बाउको छोरालाई ईश्वर
- बिना मुख ईश्वर ने वेद ज्ञान कैसे दिया?
- बिस्मिल्लाह के चमत्कार
- बुखार होने का कारण : इस्लामी किताबों से
- बुतपरस्ती: पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब
- बुद्ध मत में अन्धविश्वास
- बुद्ध मत मे नारिया
- बृह्दारण्यक उपनिषद् और पुराणं शब्द
- बेजान अर्थात् मुर्दा इन्सान में जान (रूह) डाली
- बेपायतमा अंग्रेजीको विरोध
- बैठकर-निज मन से घंटों तक झगड़िए: आर्य संजीव ‘रूप’,
- बॉलीवुड इस्लामीकरण की ओर और रानी पद्मावती फिल्म की सच्चाई
- बोद्ध अष्टांग मार्ग की वैदिक सिद्धांतो से तुलना
- बोद्ध ग्रंथो में मासाहार (झूटी अंहिसावाद )
- बोधगीत: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’
- बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य
- बोली खंजर की धार
- ब्रह्मकुमारियों के षड़यंत्र से सावधान – स्वामी पूर्णानन्द
- ब्रह्मकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी
- ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार
- ब्रह्मा : इब्राहीम : कुरान : बाइबिल: – पं. शान्तिप्रकाश
- ब्रह्माकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी
- ब्रह्माकुमारी संस्था की ढोल की पोल : श्री स्वामी आनन्दबोध सरस्वती
- ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू-रामनाथ विद्यालंकार
- ब्राह्मण ग्रन्थ
- ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से वा कर्मों से किस प्रकार मानने चाहियें इत्यादि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन एवं गोरक्षा पर महर्षि दयानन्द के वेदसम्मत, देशहितकारी एवं मनुष्योचित विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य
- भक्ष्याभक्ष्य का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- भगवा
- भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे | रचयिता पं.स्त्यपाल पथिक
- भगवान मनु ओर दलित समाज
- भगवानों की सूची जारी करोः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- भजन कविता
- भयानक षडयन्त्र – राजन स्वामी
- भविष्य पुराण , कुंताप सूत्र में मोहमद का नाम
- भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व अध्याय १८ – क्यां ब्रह्माने अपनी पुत्री, विष्णुने अपनी माता, शिवने अपनी भगीनी तथा सूर्यने अपनी भतीजी से विवाह किया था?
- भस्मासुर बनते सन्त : आचार्य धर्मवीर जी
- भाई चारे का पर्व है मकर संक्रान्ति
- भागवत :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- भागो शैतान आया !
- भारत में वैदिक युग के सूत्रधार – स्वामी विरजानन्दजी दण्डी
- भारत की प्रथम धार्मिक व सामाजिक संस्था जिसने हिन्दी को धर्मभाषा के रूप में अपनाकर प्रचार किया।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- भारत की बेटी
- भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उदय और अन्त
- भारतीय इतिहास-परपरा में मनु का काल एवं आदिपुरुष: डॉ. सुरेन्द कुमार
- भारतीय जी की शोध व्यथा-कथा – ओममुनि वानप्रस्थी
- भारतीय वर्णव्यवस्था
- भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध) का महत्व
- भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः
- भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः एक अनुभव – ब्र. सत्यव्रत
- भारतीय साहित्य में मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार
- भावनाओं का स्वरूप : शिवदेव आर्य
- भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन : राजेंद्र जिज्ञासु जी
- भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य – कर्मवीर
- भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य:- कर्मवीर
- भृगुसंहिता के कर्ता कौन थे : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार
- मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद : शांति देवी आर्य
- मक्का में प्रसिद्ध मॉडल सोफिया हयात साथ हुई अश्लील हरकत
- मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
- मत्कृते कथं न?
- मदर टेरेसा संत या धोखा
- मदरसालाई आतंकवाद संग किन जोडिन्छ?
- मदरसालाई आतंकवाद संग किन जोडिन्छ? (भाग-१)
- मदरसालाई आतंकवाद संग किन जोडिन्छ? (भाग-२)
- मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है
- मन का व्यापक कार्यक्षेत्र
- मन की दृढ़ता -रामनाथ विद्यालंकार
- मन को चेतना बुद्धि से मिलती है
- मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं।
- मनलाई नियन्त्रण कसरि गरौँ ?
- मनसापरिक्रमा विषय
- मनु आदि-धर्मविशेषज्ञ और धर्मशास्त्र-प्रवक्ता: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनु आदियुग के सर्वजनशिक्षासमर्थक व प्रेरक राजर्षि: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु और मनुस्मृति की विश्व में प्रतिष्ठा : डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप: एक विचार: डॉ0 रामकृष्ण आर्य (वरुणमुनि वानप्रस्थी)
- मनु का विरोध क्यूँ ?
- मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनु की दण्डव्यवस्था और शूद्र: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था की विशेषताएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य और सवर्ण हैं:डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में भूलें व उसका यथार्थ स्वरूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान : डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनु की वर्णव्यवस्था में सबको वर्णपरिवर्तन का अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनु के आदिपुरुष होने में भाषाविज्ञान के तथा विदेशी प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनु नाम की महत्ता : पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय
- मनु यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक धर्मगुरु: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे – डॉ रामकृष्ण आर्य (वरुणमुनि वानप्रस्थी)
- मनु स्मृति का वैदिक साहित्य में प्रमाण : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मनु स्मृति के प्रथम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा :पण्डित भीमसेन शर्मा
- मनुप्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था
- मनुर्भव
- मनुवाद का सही अर्थ: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुष्य और अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म का कारण’ -मनमोहन कुमार आर्य
- मनुष्य का आहार क्या है
- मनुष्य का सैद्धांतिक और नीतिगत भोजन शाकाहार है, मांसाहार नहीं।
- मनुष्य की चहुंमुखी उन्नति का आधार अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि’ -मनमोहन कुमार आर्य
- मनुष्य के मुख्य कर्तव्य ईश्वर की उपासना और पर्यावरण की रक्षा
- मनुष्य जन्म की पृष्ठभूमि, कारण एवं परम उद्देश्य’ -मनमोहन कुमार आर्य
- मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?
- मनुष्य में संस्कार व गुणों का आधान ही समाज कल्याण है’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- मनुष्य व उसके कुछ प्रमुख कर्तव्य
- मनुष्य वाचक नामों के विषय में भ्रामक स्थापना: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता
- मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णाश्रम धर्म
- मनुस्मृति और मनुवाद : भ्रांतियों का जन्म : डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनुस्मृति और वेद : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मनुस्मृति की प्राचीनता विषयक चीनी साहित्य का प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था की वेदमूलकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज
- मनुस्मृति पर विदेशी विद्वानों का शोधकार्य और भाष्य: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल अन्तःसाक्ष्य के आधार पर: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल बाह्य साक्ष्य के आधार पर:डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल: डॉ. सुरेन्द कुमार
- मनुस्मृति में ‘जाति’ शब्द ‘वर्ण’ और ‘जन्म’ का पर्याय: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मनुस्मृति में स्त्रियों के शैक्षिक एवं धार्मिक अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- मन्त्र व्याख्या : पण्डित चमूपति जी
- मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जन्मकाल – वेटिकन चाटुकार अज्ञानी पाश्चात्य इतिहासकारों का खंडन
- मलाई दयानन्द किन प्रिय छन्?
- मस्जिद का मौलाना बोला – “इस्लाम कबूल कर लो अमित नहीं तो पूरे परिवार का करवा देंगे कत्लेआम”
- मस्जिद में चुपके से हुआ भगाई लड़की का निकाह. पहले हिन्दू संगठन पहुचे, फिर पहुची पुलिस. मौलवी हिरासत में
- मस्जिदों में होती हैं हिंदू विरोधी बातें, टीवी डिबेट पर चला दिया वीडियो
- महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- महर्षि जीकी फोटोज् सही हैं, किन-किन ने खेंची औरा कब-कब?
- महर्षि दयानंद और मनुस्मृति के वचनो पर आक्षेप का उत्तर
- महर्षि दयानन्द और अपमान
- महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य,
- महर्षि दयानन्द और शुद्धिः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- महर्षि दयानन्द का भारत के यथार्थ इतिहास पर महत्वपूर्ण उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन: – दिनेश
- महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या – इन्द्रजित्देव
- महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना
- महर्षि दयानन्द के विषपान पर प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार और सर्वांगीण धार्मिक व सामाजिक उन्नति के कार्यों से समस्त विश्व उनका ऋणी हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य
- महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार
- महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाव-भरित श्रद्धांजलि’
- महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व ऋषियों से भिन्न थे क्या देश काल परिस्थिति के अनुसार?
- महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व के ऋषियों से भी अधिक महान् थे क्या? कपिल, जैमिनि, गौतम आदि ऋषियों ने दर्शन प्रस्तुत किये हैं। ऋषि दयानन्द जी ने तो ऋग्वेद के छः मण्डल पूर्ण और सातवें मण्डल के कुछ मन्त्र तक और यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य किया है तो हम ऋषियों से भी अधिक ज्ञान में सामर्थ्य में महर्षि दयानन्द जी को महान् मान सकते हैं क्या?
- महर्षि दयानन्द जी और राधास्वामी समप्रदाय
- महर्षि दयानन्द जी के समय माईक का सिस्टम नहीं था, तो महर्षि जी हजारों लोगों के बीच में अपनी वाणी को कैसे प्रस्तुत करते थे?
- महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित आर्य समाज या आर्य समाज मन्दिर
- महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव : प्रो राजेंद्र जिज्ञासु
- महर्षि दयानन्द ने मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया’ -मनमोहन कुमार आर्य
- महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?
- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य
- महर्षि दयानन्द सरस्वती- सम्पूर्ण जीवन चरित्र: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य में ईश्वर-स्वरूप :-डॉ. कृष्णपाल सिंह
- महर्षि दयानन्दाष्टकम्
- महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- महर्षि मनु द्वारा निर्धारित वर्णों के अनिवार्य कर्तव्य-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- महर्षी वेद व्यास कृत पतंजलि योग दर्शन भाष्य
- महात्मा नारयण स्वामीजी लिखित आत्म कथा
- महात्मा नारायण स्वामी जी के दो ऑपरेशनः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- महात्मा बुद्ध ओर गौ संरक्षण
- महात्मा बुद्ध के प्राचीन ब्राह्मणों ,ऋषियों पर विचार
- महात्मा हंसराज के तीन कथनः : राजेन्द्र जिज्ञासु
- महान् आचार्य बलदेव जी महाराज
- महापुरुषों की रीति
- महाभारत की १८ अक्षोहिणी सेना और कुरुक्षेत्र का क्षेत्रफल
- महाभारत के अतिरिक्त और ग्रन्थों में वर्णित, यह मणि क्या वस्तु है और इसकी क्या चमत्कार थे
- महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था
- महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?
- महाभारत में वर्णित वर्णाश्रमधर्म
- महामृत्युंजय मन्त्र
- महाराजा रणवीर सिंह अथवा प्रताप सिंहः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- महिला ने कहा मैं देना चाहती हूं अपने शौहर को तीन तलाक, जो हक मर्द को है वो मुझे भी मिले
- महिलाओ के प्रति कुरान का दृष्टिकोण
- महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार
- माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- माई भगवती जीःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार
- माता भगवती का इतिहास में स्थानः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- माता भगवती का इतिहास में स्थानः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार
- मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार
- मानव की इन्द्रियां
- मानव की शरीर रचना और भोजन
- मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार
- मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मानव प्रतिदिन दो काल प्रभु के समीप बैठने वाले बनें ।
- मानवधर्म शास्त्र का सार: पण्डित भीमसेन
- मानवीय भोजन तथा उसका परिचरण – आचार्य शिवकुमार
- मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था
- मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था शिवदेव आर्य -कार्यकारी सम्पादक, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)
- मानसी और मैथुनी सृष्टि का भेद : पण्डित भीमसेन शर्मा
- मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !
- मार्क्सवाद र धर्म
- मांस के खाने न खाने का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मांस भक्षण और स्वामी विवेकानंद ऋष्व आर्य
- मांस मनुष्य का भोजन नहीं – स्वामी ओमानन्द सरस्वती
- मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं
- मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण
- मांसाहारी लोगों द्वारा हानि
- मांसाहारी वीर नहीं होते
- मांसाहारी साईं
- मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री
- मित्र और वरुण :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- मियाँजी की दाढ़ी एक आर्य के हाथ में
- मियाँजी की दाढ़ी एक आर्य के हाथ में : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी की शालीनता
- मिर्ज़ा साहब गर्भवती हो गए ………
- मिर्जाई मत की असलियत इस्लामी विद्वानों की दृष्टि में-
- मिलावट, हटावट, बनावट की रोकथामः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- मिशनरियों के प्रहार व प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- मुक्ति-महर्षि ने कर्म, उपासना, ज्ञान को मुक्ति का मार्ग बताया, जबकि कपिलमुनि ने ज्ञान से मुक्ति मानी है तथा गीता में कर्म और ज्ञान को मुक्ति का मार्ग बताया है। कृपया स्पष्ट करें कि ज्ञान मुक्ति का मार्ग है या कर्म-ज्ञान दोनों।
- मुझे चारपाई पर ले-चलिए
- मुझे यही अच्छा लगता है
- मुन्शी कन्हॆयालाल अलखधारी By Dr. Ashok Arya
- मुर्गे क्यों बांग देते हैं? गधे क्यों रेंकते हैं ?- इस्लाम के नज़रिए में :
- मुल्ला सतीश चंद गुप्ता को जवाब
- मुल्ला सतीशचंद गुप्ता के दूसरे लेख का उत्तर
- मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- मुंशी केवल कृष्ण
- मुंशी प्रेमचन्द और आर्यसमाज- राजेन्द्र जिज्ञासु
- मुसलमान बड़े मूर्तिपूजक
- मुसलमानों का ईमान एक झूठ
- मुस्लिम की जाती की लम्बी फेहरिश्त (सूचि )
- मुस्लिम महिला ने लिखी किताब, ‘हलाल गाइड टू माइंड ब्लोइंग सेक्स’
- मुस्लिम स्कूल की लाइब्रेरी में रखी किताबों की सीख: पति चाहे तो पत्नी के साथ करे मार-पीट
- मुहूर्तवादियों से कुछ प्रश्न: Arya Great
- मूक पशु भैंसों की हत्या रोकने पर महर्षि दयानन्द और उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह के बीच वार्तालाप और उसका शुभ परिणाम’
- मूर्ति पूजा ईश्वर प्राप्तिको साधन हैन
- मूर्तिपूजा : एक हास्य कथा
- मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द
- मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द
- मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2
- मूर्तिपूजा किसने और क्यों चलाई ? 🤔 [ देवीभागवत पुराण कहिन ]
- मूर्तिपूजा के इतिहास पर महर्षि दयानन्द का उपदेश: मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- मूर्तिपूजा खण्डन
- मूर्तिपूजा-अवैदिक
- मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- मृत-पितरों का श्राद्ध, तर्पण आदि: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मृतक श्राद्ध पर 21 प्रश्न
- मृत्यु के पश्चात् जीव की गति – रामनाथ विद्यालंकार
- मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा
- मृत्यु के बाद क्या? एक ऐसा प्रश्न है जो अधिकतर मनुष्यों के समक्ष कभी-न-कभी अवश्य ही जिज्ञासु भावना जगाता है, आप विद्वानों के व्याखयानों को सुनकर हमारी श्रद्धा निमन तीन स्थितियों पर टिकी है। प्रथम सामान्य जीव सूण्डी नामक कीड़े की भाँति नया जीवन प्राप्त करते हुए ही वर्त्तमान शरीर छोड़ता है। दूसरी स्थिति उस अत्यन्त विशिष्ट जीव की है, जिसको शरीर छोड़ते हुए योग्य माता-पिता (गर्भ) की अनुपलबधता में कुछ काल प्रतीक्षा करनी होती है और तीसरी स्थिति दग्ध संस्कार योगी की शरीर छोड़ते ही मोक्षावस्था की प्राप्ति है। अब प्रथम तो हमारी इस मान्यता में जो भी दोष है, उसे प्रगट करें। हमें बतायें। दूसरे ईश्वरीय वाणी वेद हमारे लिए सर्वोपरि है। अतः यजुर्वेद अध्याय-39 का मंत्र-6 शरीर छोड़ने वाले जीव के 12 दिन का कार्यक्रम वास्तव में क्या है? समझाने की कृपा करें। मंत्र के पदार्थ के अनुसार जीव प्रथम दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि को प्राप्त होता है। क्या सूर्य में अग्नि नहीं है? इसी प्रकार मंत्र का पदार्थ रहस्यमय दिखाई पड़ता है, जो स्पष्ट ही हमारी अज्ञानता के कारण है। पौराणिक बन्धु इस मंत्र को आधार मानकर देहान्त के 13 दिन बाद अपनी रस्म अदायगी करते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
- मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार
- मेरा बेटा कहाँ से आता?
- मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर
- मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर
- मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर
- मेरी कलम से..
- मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार
- मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार
- मेरी समपत्ति
- मेरी समपत्ति – 2
- मेरे अंतेवासी बन्धु : डॉ. धर्मवीर: -स्वामी वेदात्मवेश
- मेरे पिता जी
- मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो – रामनाथ विद्यालंकार
- मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो
- मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों
- मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार
- मेरे साथ बहुत लोग थे
- मेरे साथ बहुत लोग थे : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार
- मेहरचन्द महाजन by Dr. Ashok Arya
- मैं इनका ऋणी हूँ : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- मैं इनका ऋणी हूँ :- – राजेन्द्र जिज्ञासु
- मैं और मेरा देश’ -मन मोहन कुमार आर्य
- मैं और मेरा भगवान् : ड़ॉ गंगा प्रसाद उपाध्याय
- मैं कैसे कहूँ कि न पहनो
- मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा
- मैं दुःखी क्यों हूँ?
- मैं ब्रह्म नहीं, अल्प, चेतन व बद्ध जीवात्मा हूं’ -मनमोहन कुमार आर्य
- मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ
- मैक्समुलर के सफ़ेद झूठ…….
- मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सत मना ही की थी। कृपया स्पष्ट करें।
- मैंने इस्लाम क्यों छोड़ा………
- मोसुल से भागने के लिए ISIS आतंकी ने धरा महिला का रूप, बस दाढ़ी-मूंछ साफ करना भूल गया
- मौलवियों को १४०० साल लग गए लेकिन …….
- मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान
- यग्य करते हुये इन्द्रियों को विश्यमुक्त कर पवित्र बनें
- यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है
- यज्ञ : पण्डित चमूपति जी
- यज्ञ का क्रय-विक्रय – रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव
- यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव – धर्मवीर
- यज्ञ के ब्रह्मा द्वारा यज्ञ में तीन बार दक्षिणा लेना कहाँ तक उचित है?
- यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञ में पशु-वध वैदिक काल में नहीं था
- यज्ञ में मन्त्रों से आहुति क्यों? – शिवदेव आर्य
- यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी
- यज्ञ शेष : पण्डित चमूपति जी
- यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा
- यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा
- यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन
- यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार
- यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है
- यम यमी संवाद पर एक नजर
- यम-यमी का वैदिक स्वरूप -शिवदेव आर्य
- यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक
- यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः राजेन्द्र जिज्ञासु
- यह किसका प्रकाश है?
- यह कैसी अमानत ?
- यह देशद्रोह है
- यह दोहरा मापदण्ड क्यों?– – राजेन्द्र जिज्ञासु
- यह नर-नाहर कौन था?
- यह नर-नाहर कौन था? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है? आचार्य सोमदेव
- यह मन गढ़न्त गायत्री!
- यह मन गढ़न्त गायत्री!: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- यह मनु कौन थे: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है। प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- यह समाधि नहीं है
- यहां ‘तहर्रुश गेमिया’ खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप
- यहूदाको मृत्यु कसरि भयो?
- यहोवा का भूला बिसरा ज्ञान – ऊट पटांग विरोधी बातो से भरी बाइबिल
- याकूब मेमन को फाँसीः- – सत्येन्द्र सिंह आर्य
- यास्क और मन्त्रों के कर्ता ऋषि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
- युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार
- ये कैसा ईश्वरीय ज्ञान ! : शैतान खून की तरह शरीर में घूमता है
- ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
- ये पिंजरे की नारी
- ये प्रश्र कोई नये नहीं हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- ये प्रेरक प्रसंग, यह किया और यह दिया: राजेन्द्र जिज्ञासु
- येशु एक झुटो मसीह हो
- येशु परम ज्ञानी हैन, महा मूर्ख थियो.!
- योग
- योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर
- योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
- योग र यसका अंग
- योग रहस्य
- योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार
- योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार
- योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार
- योगेश्वर कृष्ण: -डॉ. आर.के.चौहान
- योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी
- योगेश्वर श्री कृष्ण र १६ कला तथा जन्माष्टमी
- योगेश्वर श्रीकृष्ण एक महान व्यक्तित्व
- योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार
- रक्त्साक्षी पंडित लेखराम ने क्या किया ? क्या दिया ? राजेन्द्र जिज्ञासु
- रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।
- रक्षोहाग्नि वेदों से
- रक्सिको लतबाट उत्पन्न हुने समस्या र छुटाउने घरेलू उपाय
- रंगीला गाँधी
- रचकर नया इतिहास कुछ : राजेन्द्र ‘जिज्ञासु
- रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा
- रहमान व रहीम वाला तर्कः: राजेन्द्र जिज्ञासु
- राज भाषा दिवस या मास मनाने का औचित्य-अनौचित्य
- राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार
- राजधर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार
- राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार
- राजर्षि मनु आदिराजा: डॉ. सुरेन्द कुमार
- राजा अपनी प्रजा के पिता समान हो
- राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार
- राजा गर्भस्थ माता के सामान प्रजा का पालन करे
- राजा से प्रजजनों की प्रार्थना-रामनाथ विद्यालंकार
- राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार
- राधा को थिइन् ?
- राधे माँ : पाखण्ड की पाखण्ड के विरुद्ध लड़ाई: धर्मवीर
- राम पाल का भण्डा फोड़
- रामका परम मित्र महावीर हनुमानको आदर्श तथा अनुकरणीय जीवन
- रामपाल का पतनः – राजेन्द्र जिज्ञासु
- रामायण में वर्णित लक्ष्मण रेखा का मिथक – सुलक्षण रेखा की सच्चाई
- रामायणमा उत्तर काण्ड प्रक्षिप्त भएको प्रमाण:
- राष्ट्र के उत्कर्ष का उद्योग कर – रामनाथ विद्यालंकार
- राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार
- राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार
- राष्ट्र निर्माता : स्वामी दयानन्द सरस्वती:- हरिकिशोर
- राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार
- राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार
- राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन – शिवदेव आर्य
- राष्ट्रीय पुस्तक क्या हो? डॉ धर्मवीर
- राहु र केतुको बारेमा पौराणिक तथा आर्य (वैदिक/वैज्ञानिक) मान्यता
- रैफरी ने आऊट कर दिया
- रोगी हिन्दू समाज के ये डाक्टरः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार
- रोगों का घर मांसाहार
- रोज़ा की बीवी
- रोम किस तरह मुसलमान हुआ ।
- रौँको छाला काढ्नु….
- लक्ष्मीनारायण जी बैरिस्टर : – राजेन्द्र जिज्ञासु
- लड़के लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा
- लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म
- लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….
- लव जिहाद कारण : निवारण
- लव जिहाद में फंसती लड़कियां
- लाइव टीवी डिबेट में एंकर से बोले मौलाना, हिंदुओं के घर में भी पढ़ेंगे नमाज
- लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन
- लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- लाला दीवानचन्द का महत्त्वपूर्ण लेखः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री
- लाला लाजपतराय की मनोवेदना और उनके ये लेख:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- लाला लाजपतरायजी भी फँसाये गये
- लिव इन रिलेशनशिप
- लेखमाला की अन्तिम मणियाँ
- लो चने! भूख लगी होगी
- लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव
- लोकतन्त्र की जीत: दिनेश
- लोकैषणा से दूर
- लोग ज़्या कहेंगे?
- वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें
- वन्दे मातरम् (संस्कृत में राष्ट्रगीत के ‘वन्दे’ शब्द की समीक्षा)
- वर्ण और जन्मना जाति व्यवस्था तथा हमारा वर्तमान समाज
- वर्ण व्यवस्था
- वर्ण व्यवस्था
- वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- वर्ण व्यवस्था, जन्मना जाति व्यवस्था और महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून
- वर्ण-चेतना
- वर्ण-विचार
- वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण
- वर्णधारण और वर्णपरिवर्तन आदि की प्रक्रिया: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णपतन तथा वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णमीमांसा
- वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णव्यवस्था का स्वरूप
- वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति
- वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण
- वर्णसंकर का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम
- वर्णों के नामों का अर्थ एवं व्युत्पत्ति-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्णों में जातियों की गणना नहीं-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक
- वर्तमान युग में वेदों की प्रासंगिकता : शिवदेव आर्य, पौन्धा, देहरादून
- वर्तमान समय में धर्मगुरुओं में ये भावना घर कर गई कि महर्षि जी इतने विद्वान् नहीं थे जितने हम हैं कृपया इस पर विस्तार से मार्ग दर्शन करनेकी कृपा करें।
- वर्षा और अग्निहोत्र (अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता )
- वशिष्ठ की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वसिष्ठ और अगस्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वसिष्ठ और चोरी :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वह ऐतिहासिक गीत : – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु
- वह कथनी को करनी का रूप न दे सके:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- वह कौन स्वामी आया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है
- वह महामानव कौन था जिसने भगत सिंह को शहीदे आज़म भगत सिंह बना दिया: -कन्हैयालाल आर्य
- वह विछोना वही ओढ़ना है- तर्ज-मनिहारी का वेष बनाया – पं. संजीव आर्य
- वह विछोना वही ओढ़ना है- – पं. संजीव आर्य
- वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार
- वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- वानप्रस्थ और संन्यास विषयक शंका-समाधान
- वानप्रस्थाश्रम प्रवेश – रामनाथ विद्यालंकार
- वामनावतार की कल्पना
- वामपंथ के इशारों पर हिन्दू
- वाह! जूता सिर पर उठा लिया
- वाह! प्यारे वीर पं. लेखराम: पं. त्रिलोकचन्द्र जी ‘अमर’ शास्त्री
- विकास की तुलना में मुफ्त की बिजली-पानी भारी : डॉ. धर्मवीर
- विकासवाद विज्ञान या परिकल्पना..?
- विचित्र शंका समाधानः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार
- विज्ञान और खुदा
- विज्ञान और परमात्मा
- विज्ञान से अनभिज्ञ खुदा
- विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार
- विदेशी लेखकों के मतानुसार मनु आदि-विधिप्रणेता: डॉ. सुरेन्द कुमार
- विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार
- विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक
- विद्यालयी शिक्षा में संस्कृत शिवदेव आर्य, देहरादून
- विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की बाल हकीकत राय पर प्रेरणादायक काव्यमय पंक्तियां
- विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार
- विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा
- विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ
- विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ
- विभिन्न विद्याओं के आदि प्रस्तुतकर्त्ता मनु: डॉ. सुरेन्द कुमार
- विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- विश्व का आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ और आदिविधि प्रणेता राजर्षि मनु: डॉ. सुरेन्द कुमार
- विश्व का आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ और आदिविधि प्रणेता राजर्षि मनु: डॉ0 अम्बेडकर का मत
- विश्व को ऋषी दयानन्द की देन – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- विश्व को बता दो, सुना दो, हिला दोःप्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन
- विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन
- विश्व शाकाहार दिवश: अक्टोबर-०१
- विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा मात्र सम्भव छ
- विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार
- विष ही महर्षि की मृत्यु का कारण डा. अशोक आर्य
- विष्णु के कर्म देखो -रामनाथ विद्यालंकार
- वीतराग स्वामी सर्वदानन्द
- वीर शिवाजी जी की मातृ-भक्ति से जुड़ी विश्व इतिहास की अपूर्व घटना’
- वीरो! अपना देश बचाओ
- वृद्धों की दिनचर्या: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- वे इतने सादगी पसन्द थे
- वे ऐसे धर्मानुरागी थे
- वे ऐसे व्यक्ति थे
- वे कितने महान् थे!
- वे कैसे चरित्रवान् थे
- वे दिल जले
- वे दिल जले : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- वे मनु कौन थे जिन्होंने इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया ? पण्डित भीमसेन शर्मा
- वे सगर्व झाड़ू लगाया करते थे
- वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे
- वे हँसी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे
- वेद एक है अथवा चार? डॉ धर्मवीर
- वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार
- वेद और ग्रहण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक
- वेद और मनुस्मृति का मूल
- वेद का सार्वभौमिक सिद्धांत बाइबिल में – आदम हव्वा का सिद्धांत झूठा है
- वेद ज्ञान वरों की खान है
- वेद पाठ: ऋग्वेद- १/३/१० (अन्तिम भाग)
- वेद पाठ: ऋग्वेद- १/३/१० (भाग-१)
- वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा
- वेद प्रतिपादित देवहित-आयु और उसका परिमाण – डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री
- वेद में इतिहास नहीं :प्रियरत्न आर्ष
- वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार
- वेद में मनु शब्द : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
- वेद में मांस भक्षण निषेध
- वेद में विमान की चर्चा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वेद विज्ञान के प्रचार-प्रसार में आकण्ठ डूबे एक हृदय रोग विशेषज्ञः डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा
- वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के अधिकारिक प्रतिनिधि व आदिस्रोत
- वेद, विज्ञानं, और सृष्टि उत्पति के युवा मनुष्य
- वेदज्ञ स्वामी वेदानन्द तीर्थ का सेवा-भाव
- वेदज्ञान मति पापाँ खाय
- वेदज्ञान मति पापाँ खाय : प्रा जिज्ञासु
- वेदप्रचार करो निष्ठा से
- वेदप्रचार की लगन ऐसी हो
- वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- वेदभाष्य (वेदार्थ) की कसौटियां । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
- वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार
- वेदमा गो हत्यारालाई मार्ने आदेश:
- वेदस्रोत से मानवीयमूल्य
- वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार
- वेदानुसार बहुकुन्डीय यज्ञ उचित है अथवा अनुचित?
- वेदानुसार यज्ञोपरान्त ब्रह्मा केमहिलाओं द्वारा स्वयमेव अथवा ब्रह्मा के आदेशानुसार चरण-स्पर्श क्या वैध है?
- वेदो ओर महाभारत मे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख (photosynthesis explaned in ved and mahabharat)
- वेदों का काल क्या है ?
- वेदों का महत्त्व: धर्मदेव विद्यामार्तण्ड
- वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या
- वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए
- वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
- वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
- वेदो की कुछ पर अतिज्ञानवर्धक मौलिक शिक्षाये :
- वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल
- वेदों में गुण, कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था
- वेदों में गौ की सुरक्षा
- वेदों में पदार्थ – विज्ञान :-ज्ञानचन्द्र
- वेदो में पर्यावरण चिंतन – शिवदेव आर्य
- वेदों में पृथिवी के नाम :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- वेदों में प्रातः भ्रमण
- वेदों में मनु का उल्लेख: डॉ. सुरेन्द कुमार
- वेदों में मांसाहार: गौरव आर्य
- वेदों में राष्ट्र की संकल्पना एवं राष्ट्रीय एकता का स्वरुप: संदीप कुमार उपाध्याय
- वेदों में शूद्रों एवं स्त्रियों को धार्मिक अधिकार: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वेदों में शूद्रों के प्रति सद्भाव : मनु का आदर्श: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- वेदों में सौर ऊर्जा विषय
- वेदोक्त सूर्य का स्वरूप और कार्य -वेदपाल वर्मा
- वेशों का ईद मुबारक : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था
- वैदिक ईश्वर
- वैदिक कालमा आकाश-मार्ग बाट आवागमन
- वैदिक त्रैतवाद (वेद मन्त्र भावार्थ)
- वैदिक दर्शन की विशेषताएँ – पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय
- वैदिक देवता पृथ्वी : मूर्तिपूजा की परिणति – देवर्षि कलानाथ शास्त्री
- वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी
- वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो? : डॉ. धर्मवीर
- वैदिक धर्म प्रेमी एवं दयानन्दभक्त श्री शिवनाथ आर्य’ -मनमोहन कुमार आर्य
- वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप
- वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप -2
- वैदिक धर्मी बन जाओ
- वैदिक परंपरा एवं कुरान की प्रमुख शिक्षाएं – संदीप कुमार उपाध्याय
- वैदिक पशुबन्ध इष्टि (यज्ञ) का वैज्ञानिक विवेचन (एक संक्षिप्त नोट) – डॉ. पुष्पा गुप्ता
- वैदिक प्रणालीको ईसाई निन्दा
- वैदिक मान्यतायें ही धर्म व इतर विचारधारायें मत-पन्थ-सम्प्रदाय
- वैदिक यन्त्र
- वैदिक वर्णव्यवस्था
- वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द
- वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल
- वैदिक संध्योपासना
- वैदिक समाज व्यवस्था
- वैदिक समाजवाद
- वैदिक साहित्य और संस्कृति पर मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण
- वैदिक सिद्धांत दर्पण : यशपाल सिद्धांतालंकार
- वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था
- वो बात ही क्या?- – सोमेश पाठक
- व्यक्तित्व विकास र राष्ट्र निर्माणको कुञ्जी – गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति:
- व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार
- व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर -रामनाथ विद्यालंकार
- व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
- व्रुपासि वास्त्रा वैदिक वाड्.मय में पृथिवी – प्रो.-छाया ठाकुर
- शबरी
- शम्बूक वध का सत्य
- शल्य चिकित्साका पितामह- महर्षि सुश्रुत
- शव का दाह-कर्म ही होगा
- शाकाहार अपनाऔं प्रसन्न रहौं..!
- शाकाहार बाट लाभैलाभ:
- शाकाहार संकल्प र पर्यावरण संरक्षण
- शाकाहार- कविता
- शादी के लिए इस्लामी दुआ
- शान्ति की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार
- शारीरिक रंग का वर्णों से सबन्ध : एक भ्रान्ति: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शालिग्राम पत्थरको वैज्ञानिक रहस्य
- शालिग्राम पत्थरको वैज्ञानिक रहस्य-२
- शालिग्राम पत्थरको वैज्ञानिक रहस्य-अन्तिम भाग
- शाश्वत-स्वर
- शाश्वत-स्वर
- शाश्वत-स्वर: – धर्मवीर
- शासन पद्धति और इसकी समस्याएँ : डा. अशोक आर्य
- शिक्षक
- शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका……
- शिक्षा – योगेन्द्र दमाणी
- शिक्षा समानता का आधार है: -धर्मवीर
- शिक्षा से देश कि उन्नति – शिवदेव आर्य
- शिवलिंग – ईश्वर के कल्याणकारी और मंगलमय होने का प्रमाण
- शिवलिंग उपासना की दारुवन कथा
- शिवाजी-भारतवर्षीय सिकन्दर
- शुद्धि का योग्य समय:किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए:डॉ अम्बेडकर
- शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है
- शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है
- शूद्र की पैरों से उत्पत्ति-विषयक आपत्ति का समाधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्र के अर्थ-विषयक गलत धारणाएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्र के प्रति मनु का मानवीय दृष्टिकोण-डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्र वर्ण में शूद्र जातियों का उल्लेख नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्रों के धर्माधिकार में मनुकालीन इतिहास और समाज -व्यवस्था के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- शूद्रों के धर्माधिकारों की अनवरत प्राचीन परंपरा : डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- शूद्रों के लिए दासता का विधान मनुकृत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शूद्रों के सभी विवादों का समाधान : वैदिक वर्णव्यवस्था में: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- शैक्षणिक केरल यात्रा का वृत्तान्तः एक अविस्मरणीय अनुभव
- शैक्षणिक यात्रा – एक यात्री
- शैतान कहाँ है?- प्रो राजेंद्र जिज्ञासु (कुछ तड़प-कुछ झड़प फरवरी द्वितीय २०१५)
- शैतानी किसने कर दी? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- शैल्डन पोलॉक का शोध- संस्कृति का शीर्षासन
- शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द
- शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” :गौरव आर्य
- शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” भाग -२ : गौरव आर्य
- श्यामभाई को मार दो!
- श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी
- श्रद्धेय आचार्य डॉ धर्मवीर को प्रथम पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि
- श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के आध्यात्मिक गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती – चन्दराम आर्य
- श्राद्ध और गरुड़ पुराण की वास्तविकता: डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा
- श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ? : पण्डित भीमसेन शर्मा
- श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान : पण्डित भीमसेन शर्मा
- श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?
- श्री कृष्ण चोर या महापुरुष
- श्री कृष्ण जी ने शपथ में कहा कि ‘‘अभिमन्यु का पुत्र जीवित हो जाये’’ तो क्या धर्मात्मा, योगी, महापुरुषों के शपथ या वरदान से मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो सकता है?
- श्री कृष्ण पर घृणित प्रहार की यह परम्परा:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- श्री डॉ. हेडगेवार की चेतावनीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- श्री तैलंग स्वामी की कहानीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- श्री दुलीचन्द जी जैलदार- शुद्धि सेना के अवैतनिक सिपाही
- श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखःराजेन्द्र जिज्ञासु
- श्री ब्रजराज जी आर्य – एक परिचय – ओममुनि वानप्रस्थी
- श्री महात्मा नारायण स्वामीजी द्वारा लिखित एक घटना
- श्री रंगपा मंगीशः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- श्री राम द्वारा वनवास के दौरान भरत को नीतिगत उपदेश
- श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- श्रीकृष्ण एक महान व्यक्तित्व (आर्य विचार)
- श्रीमद्भगवद्गीता व सत्यार्थप्रकाश के अनुसार जीवात्मा का यथार्थ स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य
- श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार’
- संगठन र एकताको शक्ति
- सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु
- सगुण-निर्गुण
- सघन-साधना-शिविर रोजड़ की मेरी अन्तर्यात्रा – ब्र. राजेन्द्रार्यः
- सचमुच वे बेधड़क थे
- सच्ची रामयण का खंडन भाग-१७
- सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०
- सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१
- सच्ची रामायण का खंडन भाग-२२
- सच्ची रामायण का खंडन- १०
- सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८
- सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९
- सच्ची रामायण की पोल खोल-५
- सच्ची रामायण की पोल खोल-६
- सच्ची रामायण की पोल खोल-७
- सच्ची रामायण की पोल खोल-९
- सच्चे ईश्वर की खोज : सचिन शर्मा
- सच्चे तीर्थ माता-पिता-आचार्य व आप्त विद्वानों के सदुपदेश आदि हैं।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- सच्चे-राम को ईश्वर बताने की झूठी-बैसाखी क्यों?:- – पं. आर्य प्रहलाद गिरि
- सत्पात्र बन सकूँ – रामनिवास गुणग्राहक
- सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक
- सत्य सनातन वैदिक धर्म आज की आवश्यकता- ‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991
- सत्य से ही कल्याण सम्भव
- सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें
- सत्यार्थ प्रकाश की अनमोल वचन
- सत्यार्थ प्रकाश
- सत्यार्थ प्रकाश – नेपाली र आर्योद्देश्यरत्नमाला-नेपाली
- सत्यार्थ प्रकाश – षष्ठसमुल्लास के विषय में फेलाये जा रहे दुष्प्रचार का खण्डन
- सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब Part 13
- सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु
- सत्संग स्वर्ग और कुसंग नरक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- सदा जागा रहनेहरुलाई नै वेदले चाहन्छ..!
- सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें
- सद्धर्मप्रचारक उर्दू हिन्दी का जन्म-भ्रान्ति निवारण- राजेन्द्र जिज्ञासु
- संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ?
- संध्योपासना क्यों?: – डॉ. धर्मवीर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर
- सनातन धर्म सम्बन्धि केहि मौलिक प्रश्नोत्तर:
- सन् 1857 का विप्लवः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- सन्ति सन्तः कियन्तः
- सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार
- सन्ध्याः- सच्चा स्थाई बीमा – श्री पं. चमूपति एम.ए.
- सन्ध्या-रहस्य का यह संस्करण – राजेन्द्र जिज्ञासु
- संन्यास की मर्यादा
- संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?
- सपिण्डता और स्त्रीदाय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- सप्तम तथा अष्टम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच
- सफलता के सहयोगी: -प्रकाश चौधरी
- सब के गुण अपनी हमेशा गलतियाँ देखा करो
- सब परस्पर मित्रदृष्टि से देखें – रामनाथ विद्यालंकार
- सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें
- सब मिल के नारी-नर करो उच्चार ओउम् का |
- सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो
- सब हष्टपुष्ट नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार
- सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..
- सभी चार आश्रमों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ गृहस्थाश्रम’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- सभी मौन साध लेते हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु
- समता के सेनानी:छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान
- समय पूर्व मृत्यु
- समर्पित से भी अधिक समर्पित डॉ. धर्मवीर जी
- समुदायों के वर्णपरिवर्तन एवं वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार
- सम्भूत्या अमृतम् अश्नुते: – आचार्य उदयवीर शास्त्री
- सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार
- सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार
- संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है
- संरक्षण औचित्य का, आरक्षण का नहीं: – डॉ. धर्मवीर
- सरमा पणि संवाद – एक विवेचन
- सर्गारम्भ में वेद का अर्थ । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु
- सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार
- सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु
- सर्वविध समानों से ऊपर महर्षि दयानन्द सरस्वती
- सलामतराय कौन थे: राजेन्द्र जिज्ञासु
- सवर्ण-असवर्ण जातियों में गोत्रों की एकरूपता का कारण ‘वर्णपरिवर्तन’: डॉ सुरेन्द्र कुमार
- संसार के निरामिषभोजी महापुरुष
- संसार भरिका विकासवादीहरु संग केहि प्रारम्भिक प्रश्न (अन्तिम भाग)
- संसार भरिका विकासवादीहरु संग केहि प्रारम्भिक प्रश्न:
- संसार में मनुष्यों के कर्तव्य संबंधी ज्ञान-विज्ञान का सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- संसारमा जे हुन्छ, के त्यो ईश्वरको इच्छा अनुसार हुन्छ ?
- संस्कृत एकमात्र वैज्ञानिक भाषा : सचिन शर्मा
- संस्कृत और संस्कृति-विनाश के चार अध्याय
- संस्कृत का विकास कैसे हो?
- संस्कृत की शब्द -सपदा – आचार्य आनन्दप्रकाश
- संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य
- संस्कृत भाषा की उन्नति के अवसर प्रो धर्मवीर
- संस्कृत वाङ्ग्मय में यमों के अंतर्गत अहिंसा का स्वरूप
- संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा
- संस्कृत साहित्य में मनु के आदिपुरुष होने के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार
- सस्कृति की नींव के पत्थर
- सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार
- साईँ भक्ति अर्थात लाश की उपासना !
- साईं – वैदिक धर्म के लिए अभिशाप
- सांई बाबा मत
- सांई बाबा मत 2
- सांख्यकार कपिल मुनि अनिश्वरवादी नही
- सामवेद प्रकाश : मेला राम वेदी
- सामान्यकर शास्त्र के विषय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था
- सारे संसार का उपकार करना- – सत्यदेव प्रसाद आर्य मरुत,
- सार्वभौम मानव धर्म
- सालिग्राम ने तो कुछ नहीं कहा
- सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और
- सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
- सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
- सुगन्धित वैदिक मुस्कान
- सुनहरागीत वह मीत कौन? – देवनारायण भारद्वाज
- सुशील नारी नै घरकी लक्ष्मी हुन्छिन्
- सुशील नारी ही गृह लक्ष्मी होती है
- सूक्ष्म ईश्वर स्थूल न होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता
- सूतकशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा
- सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार
- सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं
- सूर्य नमस्कारः सर्वोत्तम व्यायाम भी, धर्म भी : डॉ धर्मवीर
- सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार
- सूर्य-चन्द्र की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- सृष्टि का आदिकाल
- सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ? – आचार्य पं. उदयवीर जी शास्त्री
- सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ? – 2
- सृष्टि का आरम्भ और कृषि विज्ञान
- सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है’
- सृष्टि की उत्पत्ति किससे, कब व क्यों? -मनमोहन कुमार आर्य
- सृष्टि में मनुष्यों का प्रथम उत्पत्ति स्थान और आर्यों का मूल निवास’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- सृष्टि रचना पर प्रश्न करने वाले नास्तिक मित्र को आर्य मित्र का उत्तर
- सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द
- सृष्टि-प्रकरण का सामान्य विचार :पण्डित भीमसेन शर्मा
- सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा
- सृष्टि-विज्ञान :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ
- सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म
- सेक्युलरिज्म या इस्लामिक तुष्टिकरण
- सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार
- सेवा कर्म कमाते रहेः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- सेवाधन के धनी आर्य नेता वैद्य रविदत्त जीः- राजेन्द्र जिज्ञासु
- सोनू निगम का सिर मुंडवाने का ‘फतवा’, गायक ने पूछा- क्या ये धार्मिक गुंडागर्दी नहीं ?
- सोम का वास्तविक अर्थ और सोमरस का पाखंड
- सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
- सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार
- सोम रक्षण स परमात्मा का साक्षात्कार
- सोम रस ओर शराब
- सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं
- सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं
- सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है
- सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
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- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता
- स्तुता मया वरदा वेदमाता : डॉ धर्मवीर
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-
- स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर
- स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-११
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-12
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-14
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-15
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-16
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-17 समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समानेयोक्त्रे सह वो युनज्मि। सयञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।।
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-18
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-19
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-20 समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।।
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-21
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-30
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-34
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-५
- स्तुता मया वरदा वेदमाता-९
- स्तुता मया वरदा वेदमाता: आचार्य धर्मवीर जी
- स्तुता मया वरदा वेदमाता: डॉ. धर्मवीर जी
- स्त्रियों की सुरक्षा के विशेष नियम: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- स्त्रियों के प्रति मनु के दृष्टिकोण की समीक्षा: डॉ. सुरेन्द्र कुमार
- स्त्री और इस्लाम
- स्वतंत्रता-परतंत्रता
- स्वतंत्रतानन्द लेख माला
- स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व – वेदप्रकाश आर्य
- स्वतन्त्रता-दिवस पर ऋषि दयानन्द का उल्लेख न होना भय या अज्ञान
- स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित वर्णव्यवस्था
- स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः
- स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार
- स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेशः-९ – स्वामी विष्वङ्
- स्वराज्य वा स्वतन्त्रता के प्रथम मन्त्र-दाता महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार
- स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार
- स्वर्ग व मोक्ष का यथार्थ स्वरूप
- स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
- स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः राजेन्द्र जिज्ञासु
- स्वस्थ सुखी जीवन के कुछ रहस्य – डॉ. सुशीलरत्न मिगलानी
- स्वाधीनता को नमन – संयम वत्स ‘मनु’
- स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें
- स्वामी अग्निवेश आर्य नहीं अनार्य है
- स्वामी आत्मानन्द सरस्वती
- स्वामी आनन्दबोध
- स्वामी ओमानन्द सरस्वती
- स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व…………..
- स्वामी दयानन्द और हिन्दी’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
- स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?
- स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि, संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेद-धर्म प्रचारक हैं
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य का विद्वानों पर प्रभाव ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक
- स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मूर्ति सही या गलत : आचार्य सोमदेव जी
- स्वामी ध्रुवानन्द
- स्वामी भास्करानंद सरस्वती
- स्वामी रामदेव जी नौ प्राणायाम, भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम आदि बताते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने न तो इनका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में किया है, न ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में। उन्होंने रेचक, पूरक व कुभक का वर्णन किया है कि इनको कम से कम तीन बार व अधिक से अधिक 21 बार या जितनी अपनी क्षमता हो उतनी बार करें। इनमें कोन सी विधि ठीक है,
- स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती
- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती – संक्षिप्त परिचय
- स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म व संस्कृति के सर्वाधिक प्रेमी ऐतिहासिक देशवासी’ -मनमोहन कुमार आर्य
- स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)
- स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री
- स्वामी श्रद्धानन्द : जिन्होंने ‘मिस्टर गाँधी’ को ‘महात्मा गांधी’ बनाया
- स्वामी श्रद्धानन्द और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ. कुशलदेव शाश्त्री
- स्वामी श्रद्धानन्द जी का ९०वाँ बलिदान दिवस: – चान्दराम आर्य
- स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिये कहा क्या था?
- स्वामी श्रद्धानन्द संन्यास-दीक्षा शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
- स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का जवाब थे
- स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य
- स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है
- स्वास्तिक चिह्र (ओम् का प्राचीनतम रुप) :- श्री विरजानन्द देवकरणी जी
- स्वाहा: पण्डित चमूपति जी
- हटावट के नये उदाहरण :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी
- हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार
- हदीस : अल-अज़्ल
- हदीस : अन्य असमर्थताएं
- हदीस : अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)
- हदीस : उपवास
- हदीस : गुलामी के अपने फायदे भी हैं
- हदीस : गैर-मुसलमानों के लिए काबा बंद
- हदीस : जानवरों की कुर्बानी
- हदीस : निषेध
- हदीस : पति के अधिकार
- हदीस : परिक्रमा और पत्थर चूमना
- हदीस : पहिला पाप
- हदीस : पीना (पान)
- हदीस : बढ़ कर बोली लगाना (बदनी)
- हदीस : मत-त्याग और विद्रोह के लिए मृत्युदंड
- हदीस : मुहम्मद की शादियां
- हदीस : मुहम्मद क्षोभग्रस्त
- हदीस : व्यापारिक सौदे, विरासत, भेंट-उपहार, वसीयतें, प्रतिज्ञाएं और क़समें
- हदीस : सट्टेबाजी मना
- हदीस : हजामत: मुहम्मद के केश
- हदीस : ”इंशा अल्लाह“ की शर्त
- हदीस : अज़ान
- हदीस : अदला-बदली अमान्य
- हदीस : अनुचित कमाई
- हदीस : अन्य उपवास
- हदीस : अपने गुप्त अंगों को मत छुओ
- हदीस : असंतोष
- हदीस : अस्थायी शादी (मुताह)
- हदीस : आस्था (ईमान)
- हदीस : इमाम
- हदीस : इस्लाम से पूर्व के अरब लोग
- हदीस : उपदेशक के रूप में मुहम्मद
- हदीस : उपवास का पुण्य
- हदीस : एक अप्रिय कर
- हदीस : एक जमींदार के रूप में पैग़म्बर
- हदीस : एक बुतपरस्त विचार
- हदीस : एहराम की दशा
- हदीस : औरतें और मस्जिदें
- हदीस : औरतों के अधिकार
- हदीस : कंकड़ फैंकना
- हदीस : करार
- हदीस : क़र्जे
- हदीस : क़सम तोड़ना
- हदीस : क़सामाह
- हदीस : कानूनी वारिसों के लिए दो-तिहाई
- हदीस : क़िसास
- हदीस : कुछ परिस्थितयों में उपवास अनिवार्य नहीं
- हदीस : कुंवारी से ब्याह
- हदीस : केवल अल्लाह काफी नहीं
- हदीस : कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?
- हदीस : खतरे के वक्त प्रार्थना
- हदीस : ख़ारिज
- हदीस : गम्भीरता पक्ष
- हदीस : गुलाम की मुक्ति
- हदीस : गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?
- हदीस : गुलामों की मुक्ति
- हदीस : गुस्ल
- हदीस : गुस्ल –
- हदीस : गैर मुस्लिमों पर हमले
- हदीस : चोरी की सज़ा
- हदीस : चोरी, व्यभिचार, जन्नत
- हदीस : ज़कात मुहम्मद के परिवार के लिए नहीं
- हदीस : ज़कात-कोष का उपयोग
- हदीस : जिस औरत से तुम शादी करना चाहते हो उस पर एक नज़र डालो
- हदीस : ज़िहार और ईला
- हदीस : जुमे की नमाज़
- हदीस : तयम्मुम
- हदीस : तयम्मुम
- हदीस : तलाक
- हदीस : तलाक़ की पसन्द तलाक़ नहीं
- हदीस : तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं
- हदीस : तस्तहिद्दा
- हदीस : तासीर
- हदीस : तासीर
- हदीस : तीन घोषणाएं
- हदीस : तीर्थयात्रा
- हदीस : दांतों की सफाई (मिसवाक)
- हदीस : दान अपने घर से शुरू हो
- हदीस : दान और भेदभाव
- हदीस : दानार्थ कर (ज़कात)
- हदीस : दियत (हर्जाना)
- हदीस : दुष्ट विचार एवं दुष्कर्म
- हदीस : दैवी विधान
- हदीस : नाक साफ करना
- हदीस : नैतिक निष्ठाएं
- हदीस : पंचकर्म (फितरा)
- हदीस : पट्टे के काश्तकारी
- हदीस : पंथमीमांसा नैतिकता को विकृत करने वाली है
- हदीस : पहले भोजन, पीछे प्रार्थना
- हदीस : पैगम्बर के पिता और चाचा
- हदीस : प्रक्षालन (वुज़ू)
- हदीस : प्रतिज्ञाएं और क़समें
- हदीस : प्रार्थना (सलात)
- हदीस : प्रार्थना की समय मुद्रायें
- हदीस : प्रेरणाएं और दलीलें
- हदीस : फितरा –
- हदीस : फैसले का दिन
- हदीस : बन्दी बनाई गई औरतें
- हदीस : बार-बार मैथुन के बाद केवल एक स्नान
- हदीस : बीवियों के प्रति बर्ताव
- हदीस : भेंट-उपहार
- हदीस : भेंट-उपहार देकर ”दिल जीतना“
- हदीस : भोजन और वुजू
- हदीस : मातम
- हदीस : माफ़ी और मुनाफ़ा
- हदीस : मासिक धर्म (हैज़)
- हदीस : मुसलमान और मृत्युदंड
- हदीस : मुहम्मद का अपनी बीवियों से अलगाव
- हदीस : मुहम्मद की आखि़री वसीयत
- हदीस : मुहम्मद के लिए आशीष
- हदीस : मुहम्मद के वंशजों के लिए सम्यक् पाठ्यसामग्री
- हदीस : मुहम्मद द्वारा रात को जन्नत का सफर
- हदीस : मृतक के लिए रोना
- हदीस : मृतकों के लिए प्रार्थनाएं
- हदीस : मैले कपड़े
- हदीस : यहूदियों पर लानत
- हदीस : यीशु
- हदीस : युद्ध में लूटा गया माल
- हदीस : यौन-प्रदूषण एवं प्रक्षालन
- हदीस : रमज़ान के दौरान मैथुन की अनुमति
- हदीस : रातों के जश्न
- हदीस : रिबा
- हदीस : लियान (लानत भेजना)
- हदीस : वक़्फ
- हदीस : विधि और निषेध
- हदीस : विभिन्न अवसरों पर विहित प्रार्थनाएं
- हदीस : विरासत, भेंट-उपहार, और वसीयतें
- हदीस : विवाह और विच्छेद (अल-निकाह और अल-तलाक)
- हदीस : वीर्यपात के बाद स्नान
- हदीस : वुजू
- हदीस : शारीरिक ऊष्मा का संरक्षण
- हदीस : शारीरिक व्यापार
- हदीस : शिकार
- हदीस : शुद्धीकरण (तहारा)
- हदीस : संगीत, नृत्य और क्रीड़ाएं
- हदीस : सत्कर्म और दुष्कर्म
- हदीस : समझाना-बुझाना
- हदीस : सहस्नान
- हदीस : हदूद
- हदीस: औरत का दोजक्ख में होना क्यूंकि वह अपने शौहर का नाफ़रमानी करती है |
- हदीसों को बस हदीस ही समझेंः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- हनुमान आदि बन्दर नहीं थे ? – स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
- हनुमान जी बन्दर नहीं थे
- हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य
- हनूमान् का वास्तविक स्वरूप श्री हनूमान् की उत्पत्ति : डॉ. शिवपूजनसिंह कुशवाह एम. ए.
- हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं
- हम अपने शहंशाह – सुकामा आर्या
- हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार
- हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
- हम उत्तम बुद्धि व ज्ञान की वाणियों का सेवन करें
- हम उत्तम मन वाले बनें
- हम उत्तम सन्तानों वाले तथा वीर बनें
- हम कब सुधरेंगे ?
- हम कौन थे, क्या हो गये
- हम क्रोध, काम ओर असत्य कार्यों से बचें
- हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों
- हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
- हम दान देने में आनन्दित हों
- हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
- हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
- हम देशभक्त या देश द्रोही ?
- हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार
- हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों
- हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों
- हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार
- हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें
- हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें
- हम प्रात: सूर्य व वायु सेवन से स्वास्थ्य व विवेक प्राप्त करें
- हम यज्ञमय बनें तथा उत्तम कर्म करें
- हम रोजाना यह सुनते हैं लोगों से कि हर कार्य परमात्मा की इच्छा से होता है। उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता और हर एक प्राणी की आयु निश्चित है। क्या यह तथ्य सही है?
- हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें
- हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें
- हम शाकाहारी क्यों बनें?
- हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें
- हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
- हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें
- हम हिन्दू है वा आर्य ? । ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰
- हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला: – पं. जागेश्वर प्रसाद ‘निर्मल’
- हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार
- हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा फूले
- हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो
- हमारा परम मित्र – ईश्वर – सुकामा आर्या
- हमारा बनाने वाला
- हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार
- हमारी आकांक्षाएं सत्य हों -रामनाथ विद्यालंकार
- हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों
- हमारे बिछुड़े भाई
- हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों
- हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों
- हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार
- हमें चाहिए सस्ता सामान और चाहिए देश का विनाश
- हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ
- हरि का उपदेश – रामनाथ विद्यालंकार
- हरियाणा: हिन्दू लड़कों को नमाज पढ़ने के लिए किया मजबूर, मुस्लिम शिक्षकों पर गिरी गाज
- हलाल व हराम – चमूपति
- हलाला से कई औरतों की जिंदगी हराम हो रही है
- हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें
- हाँ, वेद में गो हत्यारे को मारने का आदेश है: डॉ. धर्मवीर
- हा! बीत गया वो स्वर्णिम युग
- हाल-ए-कश्मीर
- हिंदु युवक से शादी करने पर मुस्लिम युवती को जलाया जिंदा
- हिंदूइस्म धर्म या कलंक का प्रत्युतर
- हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्षरत एक अधिवक्ताः श्री इन्द्रदेव प्रसाद
- हिन्दी को समाप्त करने का षड़यन्त्र : डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा अजमेर
- हिन्दुओं का नरसंहार कर रहे दुर्दांत जेहादी दल PFI के मंच पर दिखे हामिद अंसारी.
- हिन्दुओं के साथ विश्वासघात
- हिन्दुस्तान किस तरह मुसलमान हुआ ?
- हिन्दुहरुको महा-कलंक: बलि प्रथा…
- हिन्दू कौन – हिन्दू की परिभाषा : डॉ. धर्मवीर
- हिन्दू जाति के रोग का वास्तविक कारण क्या है? -भाई परमानन्द
- हिन्दू शब्द का अर्थ – अरबी – फ़ारसी – लिपियों – व्याख्याकारों के संग्रह से –
- हिन्दू संस्कृति-हिन्दू धर्म व हिन्दू जाति :राजेन्द्र जिज्ञासु
- हीगल एवं कार्ल्स मार्क्स मूल तत्व से दूर थे |
- हीन कर्मों से वर्णपतन : डॉ सुरेन्द्र कुमार
- हुतात्मा महाशय राजपाल का बलिदान :डॉ अशोक आर्य
- हुतात्मा सरदार भगत सिंह
- हूरें : जन्नत का माल
- हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु
- हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार
- हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार
- हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार
- हे जीव! तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन
- हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन
- हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार
- हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों
- हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपल्ब्ध हों
- हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला
- हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो
- हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
- हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार
- हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार
- हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार
- हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार
- हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें
- हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार
- हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा मैं
- हॉटल का ईमानदार गरीब बालक
- होता का वरण-रामनाथ विद्यालंकार
- होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार
- होली – क्या, क्यों, कैसे?
- অর্জুনের রথের ধ্বজায় কি হনুমানজী বিদ্যমান ছিলেন?
- আধ্যাত্মবাদ
- কিভাবে সৃষ্টি হয়েছিল এ পৃথিবী?(বেদ ও বিজ্ঞান)
- গায়ত্রী মন্ত্রের ব্যাখ্যা ও বৈজ্ঞানিক তাৎপর্য।
- নমস্কার কি?
- নমস্কার কি?
- প্রশ্ন- আপনারা আর্যরা শুধু বেদ বেদ করেন অথচ গীতাতো বেদকে পুষ্পিত বাক্য বলেছে ও বিবেকবর্জিত লোকেরাই এর দ্বারা আসক্ত হয় বলেছে।
- বেদ ও দস্যু, আর্য আক্রমণ তথ্য একটি ভ্রান্ত ধারণা।
- বেদ কি কলি যুগে প্রযোজ্য নয়?
- বেদাঙ্গ (কল্প) ১ম পর্ব।
- বেদে গৌরাঙ্গের কথা একটি ভ্রান্ত ধারণা।
- ভাগবদ্ পুরাণ সমীক্ষা
- মনুস্মৃতি ও দন্ডব্যবস্থা।
- মনুস্মৃতি ও বর্ণ ব্যবস্থা
- যজ্ঞাদি কর্ম অধ্বর অর্থ্যাৎ অহিংসা কর্ম।
- রাধা কৃষ্ণের প্রেম সত্য নাকি কাল্পনিকচরিত্র?
- হিরণ্যকশিপু মিথ্যাচার (ভাগবতপুরাণ)
- എന്തുകൊണ്ട് ആര്യസമാജം? WHY ARYA SAMAJ?
- ജ്യോതിഷം സത്യവും മിഥ്യയും
- തന്ത്ര-മന്ത്രങ്ങള് : സത്യവും മിഥ്യയും THANTHRIK KRIYAS – THE TRUTH AND MYTH
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ആഗസ്റ്റ് 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ആഗസ്റ്റ് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഏപ്രില് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഏപ്രില് 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഒക്ടോബര് 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഒക്ടോബര് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജനുവരി 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജനുവരി 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജൂണ് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജൂണ് 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജൂലൈ 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജൂലൈ 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഡിസംബര് 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഡിസംബര് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം നവംബര് 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം നവംബര് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഫെബ്രുവരി 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം ഫെബ്രുവരി 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം മാര്ച്ച് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം മാര്ച്ച് 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം മെയ് 2015
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം മേയ് 2014
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം സപ്തംബര് 2013
- ദയാനന്ദ സന്ദേശം സപ്തംബര് 2014
- വൈദിക ഗുരുകുലത്തിലേക്ക് 2015-16 വര്ഷത്തേക്കുള്ള പ്രവേശനം ആരംഭിച്ചു ADMISSION STARTED FOR VEDIC MISSIONARY SCHOOL IN KERALA FOR YEAR 2015-16
- വൈദിക ധര്മ്മം എന്ത്? എങ്ങിനെ?
- സത്യാര്ത്ഥ പ്രകാശം മൊഴിമുത്തുകള് : പുരാണങ്ങള് സത്യവും മിഥ്യയും TEACHINGS FROM SATHYARTH PRAKASH : PURANAS : THE TRUTH AND FALSE
- 🔥 छत्रपति शिवाजी महाराज का पत्र आमेर नरेश राजा जयसिंह के नाम
Manusmriti
- अकन्येति तु यः कन्यां ब्रूयाद्द्वेषेण मानवः । स शतं प्राप्नुयाद्दण्डं तस्या दोषं अदर्शयन् ।
- अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति । कामतस्तु कृतं मोहात्प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः
- अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः । कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात् ।
- अकामतस्तु राजन्यं विनिपात्य द्विजोत्तमः । वृषभैकसहस्रा गा दद्यात्सुचरितव्रतः
- अकामस्य क्रिया का चिद्दृश्यते नेह कर्हि चित् । यद्यद्धि कुरुते किं चित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्
- अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः । वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवः स्वरितीति च ।
- अकारणे परित्यक्ता मातापित्रोर्गुरोस्तथा । ब्राह्मैर्यौनैश्च संबन्धैः संयोगं पतितैर्गतः । ।
- अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् । प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः ।
- अकृतं च कृतात्क्षेत्राद्गौरजाविकं एव च । हिरण्यं धान्यं अन्नं च पूर्वं पूर्वं अदोषवत्
- अकृता वा कृता वापि यं विन्देत्सदृशात्सुतम् । पौत्री मातामहस्तेन दद्यात्पिण्डं हरेद्धनम् ।
- अकृत्वा भैक्षचरणं असमिध्य च पावकम् । अनातुरः सप्तरात्रं अवकीर्णिव्रतं चरेत् ।
- अक्रोधनाः शौचपराः सततं ब्रह्मचारिणः । न्यस्तशस्त्रा महाभागाः पितरः पूर्वदेवताः । ।
- अक्रोधनान्सुप्रसादान्वदन्त्येतान्पुरातनान् । लोकस्याप्यायने युक्तान्श्राद्धदेवान्द्विजोत्तमान् । ।
- अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताधमयोनिजा । शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ।
- अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् । मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक्क्षितौ ।
- अक्षेत्रे बीजं उत्सृष्टं अन्तरैव विनश्यति । अबीजकं अपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत्
- अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी । समुद्रयायी बन्दी च तैलिकः कूटकारकः
- अगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः । समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत् । ।
- अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यात्सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम्
- अग्निं वाहारयेदेनं अप्सु चैनं निमज्जयेत् । पुत्रदारस्य वाप्येनं शिरांसि स्पर्शयेत्पृथक् ।
- अग्निदग्धानग्निदग्धान्काव्यान्बर्हिषदस्तथा । अग्निष्वात्तांश्च सौम्यांश्च विप्राणां एव निर्दिशेत्
- अग्निदान्भक्तदांश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान् । संनिधातॄंश्च मोषस्य हन्याच्चौरं इवेश्वरः
- अग्निपक्वाशनो वा स्यात्कालपक्वभुगेव वा । अश्मकुट्टो भवेद्वापि दन्तोलूखलिकोऽपि वा ।
- अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋग्यजुःसामलक्षणम्
- अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशोः सदा । दर्शेन चार्धमासान्ते पौर्णामासेन चैव हि । ।
- अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम् । ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः
- अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन्ब्राह्मणः कामकारतः । चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरहत्यासमं हि तत् ।
- अग्नीनात्मनि वैतानान्समारोप्य यथाविधि । अनग्निरनिकेतः स्यान्मुनिर्मूलफलाशनः ।
- अग्नीन्धनं भैक्षचर्यां अधःशय्यां गुरोर्हितम् । आ समावर्तनात्कुर्यात्कृतोपनयनो द्विजः । ।
- अग्नेः सोमयमाभ्यां च कृत्वाप्यायनं आदितः । हविर्दानेन विधिवत्पश्चात्संतर्पयेत्पितॄन् ।
- अग्नेः सोमस्य चैवादौ तयोश्चैव समस्तयोः । विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो धन्वन्तरय एव च ।
- अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यं उपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः । ।
- अग्न्यगारे गवां गोष्ठे ब्राह्मणानां च संनिधौ । स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिनं पाणिं उद्धरेत् ।
- अग्न्यभावे तु विप्रस्य पाणावेवोपपादयेत् । यो ह्यग्निः स द्विजो विप्रैर्मन्त्रदर्शिभिरुच्यते ।
- अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान् । यः करोति वृतो यस्य स तस्य र्त्विगिहोच्यते
- अग्र्याः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च । श्रोत्रियान्वयजाश्चैव विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः
- अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् । यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतां अन्नं विधीयते ।
- अङ्गावपीडनायां च व्रणशोनितयोस्तथा । समुत्थानव्ययं दाप्यः सर्वदण्डं अथापि वा
- अङ्गुलीर्ग्रन्थिभेदस्य छेदयेत्प्रथमे ग्रहे । द्वितीये हस्तचरणौ तृतीये वधं अर्हति । ।
- अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्मं तीर्थं प्रचक्षते । कायं अङ्गुलिमूलेऽग्रे देवं पित्र्यं तयोरधः
- अचक्षुर्विषयं दुर्गं न प्रपद्येत कर्हि चित् । न विण्मूत्रं उदीक्षेत न बाहुभ्यां नदीं तरेत्
- अच्छलेनैव चान्विच्छेत्तं अर्थं प्रीतिपूर्वकम् । विचार्य तस्य वा वृत्तं साम्नैव परिसाधयेत् । ।
- अजडश्चेदपोगण्डो विषये चास्य भुज्यते । भग्नं तद्व्यवहारेण भोक्ता तद्द्रव्यं अर्हति
- अजाविकं सैकशफं न जातु विषमं भजेत् । अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते । ।
- अजाविके तु संरुद्धे वृकैः पाले त्वनायति । यां प्रसह्य वृको हन्यात्पाले तत्किल्बिषं भवेत् ।
- अजीगर्तः सुतं हन्तुं उपासर्पद्बुभुक्षितः । न चालिप्यत पापेन क्षुत्प्रतीकारं आचरन् ।
- अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा । जीवेत्क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः ।
- अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंस्पृष्टं एव च । पुनः संस्कारं अर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः
- अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानात्कृत्वा कर्म विगर्हितम् । तस्माद्विमुक्तिं अन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्
- अज्ञानाद्वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुध्यति । मतिपूर्वं अनिर्देश्यं प्राणान्तिकं इति स्थितिः
- अज्ञेभ्यो ग्रन्थिनः श्रेष्ठा ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः । धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः । ।
- अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः । अज्ञं हि बालं इत्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ।
- अण्डाजाः पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपाः । यानि चैवंः प्रकाराणि स्थलजान्यौदकानि च ।
- अण्व्यो मात्रा विनाशिन्यो दशार्धानां तु याः स्मृताः । ताभिः सार्धं इदं सर्वं संभवत्यनुपूर्वशः ।
- अत ऊर्ध्वं तु छन्दांसि शुक्लेषु नियतः पठेत् । वेदाङ्गानि च सर्वाणि कृष्णपक्षेषु संपठेत् ।
- अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालं असंस्कृताः । सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ।
- अतः स्वल्पीयसि द्रव्ये यः सोमं पिबति द्विजः । स पीतसोमपूर्वोऽपि न तस्याप्नोति तत्फलम् ।
- अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः । अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति ।
- अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरजितात्मनः । संक्षिप्यते यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि
- अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् । संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति ।
- अतिक्रामेत्प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तं एव वा । सा त्रीन्मासान्परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा ।
- अतिथिं चाननुज्ञाप्य मारुते वाति वा भृशम् । रुधिरे च स्रुते गात्राच्छस्त्रेण च परिक्षते ।
- अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कं चन । न चेमं देहं आश्रित्य वैरं कुर्वीत केन चित्
- अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युर्निर्व्रणानि च । तेषां अद्भिः स्मृतं शौचं चमसानां इवाध्वरे ।
- अतोऽन्यतमं आस्थाय विधिं विप्रः समाहितः । ब्रह्महत्याकृतं पापं व्यपोहत्यात्मवत्तया ।
- अतोऽन्यतमया वृत्त्या जीवंस्तु स्नातको द्विजः । स्वर्गायुष्ययशस्यानि व्रताणीमानि धारयेत् ।
- अत्युष्णं सर्वं अन्नं स्याद्भुञ्जीरंस्ते च वाग्यताः । न च द्विजातयो ब्रूयुर्दात्रा पृष्टा हविर्गुणान् ।
- अत्र गाथा वायुगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः । यथा बीजं न वप्तव्यं पुंसा परपरिग्रहे । ।
- अथ मूलं अनाहार्यं प्रकाशक्रयशोधितः । अदण्ड्यो मुच्यते राज्ञा नाष्टिको लभते धनम्
- अदण्ड्यान्दण्डयन्राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति
- अदत्तानां उपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्
- अदत्त्वा तु य एतेभ्यः पूर्वं भुङ्क्तेऽविचक्षणः । स भुञ्जानो न जानाति श्वगृध्रैर्जग्धिं आत्मनः
- अदर्शयित्वा तत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत् । यावती संभवेद्वृद्धिस्तावतीं दातुं अर्हति
- अदातरि पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम् । पश्चात्प्रतिभुवि प्रेते परीप्सेत्केन हेतुना
- अदीयमाना भर्तारं अधिगच्छेद्यदि स्वयम् । नैनः किं चिदवाप्नोति न च यं साधिगच्छति
- अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा । मणीनां अपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः
- अदेश्यं यश्च दिशति निर्दिश्यापह्नुते च यः । यश्चाधरोत्तरानर्थान्विगीतान्नावबुध्यते ।
- अद्भिरेव द्विजाग्र्याणां कन्यादानं विशिष्यते । इतरेषां तु वर्णानां इतरेतरकाम्यया ।
- अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति । विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति
- अद्भिस्तु प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम् । प्रक्षालनेन त्वल्पानां अद्भिः शौचं विधीयते ।
- अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रं अश्मनो लोहं उत्थितम् । तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ।
- अद्यात्काकः पुरोडाशं श्वा च लिह्याद्धविस्तथा । स्वाम्यं च न स्यात्कस्मिंश्चित्प्रवर्तेताधरोत्तरम् ।
- अद्रोहेणैव भूतानां अल्पद्रोहेण वा पुनः । या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि
- अद्वारेण च नातीयाद्ग्रामं वा वेश्म वावृतम् । रात्रौ च वृक्षमूलानि दूरतः परिवर्जयेत् । ।
- अधमर्णार्थसिद्ध्यर्थं उत्तमर्णेन चोदितः । दापयेद्धनिकस्यार्थं अधमर्णाद्विभावितम् । ।
- अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्तिनाशनम् । अस्वर्ग्यं च परत्रापि तस्मात्तत्परिवर्जयेत्
- अधर्मप्रभवं चैव दुःखयोगं शरीरिणाम् । धर्मार्थप्रभवं चैव सुखसंयोगं अक्षयम् ।
- अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति । तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वाधिगच्छति ।
- अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान्जयति समूलस्तु विनश्यति । ।
- अधस्तान्नोपदध्याच्च न चैनं अभिलङ्घयेत् । न चैनं पादतः कुर्यान्न प्राणाबाधं आचरेत् ।
- अधार्मिकं त्रिभिर्न्यायैर्निगृह्णीयात्प्रयत्नतः । निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च ।
- अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् । हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखं एधते ।
- अधितिष्ठेन्न केशांस्तु न भस्मास्थिकपालिकाः । न कार्पासास्थि न तुषान्दीर्घं आयुर्जिजीविषुः
- अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकं एव च । आध्यात्मिकं च सततं वेदान्ताभिहितं च यत्
- अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद्रुषिता गृहात् । सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसंनिधौ ।
- अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः । इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्
- अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः । प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः
- अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः । शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतचरो द्विजः । ।
- अध्यक्षान्विविधान्कुर्यात्तत्र तत्र विपश्चितः । तेऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरन्नृणां कार्याणि कुर्वताम् ।
- अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि । भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् ।
- अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः । आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ।
- अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् ।
- अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्यग्रजन्मनः ।
- अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्
- अध्यापयां आस पितॄन्शिशुराङ्गिरसः कविः । पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्
- अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालं अतन्द्रितः । अधीष्व भो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति चारमेत् ।
- अध्येष्यमाणस्त्वाचान्तो यथाशास्त्रं उदङ्मुखः । ब्रह्माञ्जलिकृतोऽध्याप्यो लघुवासा जितेन्द्रियः
- अनग्निरनिकेतः स्याद्ग्रामं अन्नार्थं आश्रयेत् । उपेक्षकोऽसंकुसुको मुनिर्भावसमाहितः ।
- अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् । अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षं इच्छन्व्रजत्यधः
- अनन्तरं अरिं विद्यादरिसेविनं एव च । अरेरनन्तरं मित्रं उदासीनं तयोः परम् ।
- अनन्तरः सपिण्डाद्यस्तस्य तस्य धनं भवेत् । अत ऊर्ध्वं सकुल्यः स्यादाचार्यः शिष्य एव वा ।
- अनन्तरासु जातानां विधिरेष सनातनः । द्व्येकान्तरासु जातानां धर्म्यं विद्यादिमं विधिम् ।
- अनपत्यस्य पुत्रस्य माता दायं अवाप्नुयात् । मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माता हरेद्धनम् । ।
- अनपेक्षितमर्यादं नास्तिकं विप्रलुंपकम् । अरक्षितारं अत्तारं नृपं विद्यादधोगतिम् ।
- अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात् । आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ् जिघांसति
- अनर्चितं वृथामांसं अवीरायाश्च योषितः । द्विषदन्नं नगर्यन्नं पतितान्नं अवक्षुतम्
- अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा । उन्मत्तजडमूकाश्च ये च के चिन्निरिन्द्रियाः
- अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः । रोमाणि च रहस्यानि सर्वाण्येव विवर्जयेत् ।
- अनादेयं नाददीत परिक्षीणोऽपि पार्थिवः । न चादेयं समृद्धोऽपि सूक्ष्मं अप्यर्थं उत्सृजेत्
- अनादेयस्य चादानादादेयस्य च वर्जनात् । दौर्बल्यं ख्याप्यते राज्ञः स प्रेत्येह च नश्यति । ।
- अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत् । यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मः स्यादशङ्कितः
- अनारोग्यं अनायुष्यं अस्वर्ग्यं चातिभोजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् । । २
- अनार्यं आर्यकर्माणं आर्यं चानार्यकर्मिणम् । संप्रधार्याब्रवीद्धाता न समौ नासमाविति । ।
- अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता । पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम् ।
- अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात्तु यदृच्छया । ब्राह्मण्यां अप्यनार्यात्तु श्रेयस्त्वं क्वेति चेद्भवेत् ।
- अनाहिताग्निता स्तेयं ऋणानां अनपक्रिया । असच्छाष्ट्राधिगमनं कौशीलव्यस्य च क्रिया
- अनित्यो विजयो यस्माद्दृश्यते युध्यमानयोः । पराजयश्च संग्रामे तस्माद्युद्धं विवर्जयेत् ।
- अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा । निन्दितैर्निन्दिता नॄणां तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत् ।
- अनियुक्तासुतश्चैव पुत्रिण्याप्तश्च देवरात् । उभौ तौ नार्हतो भागं जारजातककामजौ ।
- अनिर्दशाया गोः क्षीरं औष्ट्रं ऐकशफं तथा । आविकं संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः
- अनिर्दशाहां गां सूतां वृषान्देवपशूंस्तथा । सपालान्वा विपालान्वा न दण्ड्यान्मनुरब्रवीत्
- अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानां अपनुत्तये । शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्
- अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिं अज्ञातिं एव च । स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति
- अनुपघ्नन्पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम् । स्वयं ईहितलब्धं तन्नाकामो दातुं अर्हति
- अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः । सारापराधो चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत्
- अनुभावी तु यः कश्चित्कुर्यात्साक्ष्यं विवादिनाम् । अन्तर्वेश्मन्यरण्ये वा शरीरस्यापि चात्यये ।
- अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः
- अनुरक्तः शुचिर्दक्षः स्मृतिमान्देशकालवित् । वपुष्मान्वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते ।
- अनुष्णाभिरफेनाभिरद्भिस्तीर्थेन धर्मवित् । शौचेप्सुः सर्वदाचामेदेकान्ते प्रागुदङ्मुखः
- अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च पैशुनम् । गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया
- अनृतं तु वदन्दण्ड्यः स्ववित्तस्यांशं अष्टमम् । तस्यैव वा निधानस्य संख्ययाल्पीयसीं कलाम् ।
- अनृतावृतुकाले च मन्त्रसंस्कारकृत्पतिः । सुखस्य नित्यं दातेह परलोके च योषितः
- अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राणां अकृत्वा कुलसंततिम् । ।
- अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः । स विधूयेह पाप्मानं परं ब्रह्माधिगच्छति ।
- अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः । गुरौ वसन्सञ्चिनुयाद्ब्रह्माधिगमिकं तपः
- अनेन तु विधानेन पुरा चक्रेऽथ पुत्रिकाः । विवृद्ध्यर्थं स्ववंशस्य स्वयं दक्षः प्रजापतिः ।
- अनेन नारी वृत्तेन मनोवाग्देहसंयता । इहाग्र्यां कीर्तिं आप्नोति पतिलोकं परत्र च
- अनेन विधिना नित्यं पञ्चयज्ञान्न हापयेत् । द्वितीयं आयुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्
- अनेन विधिना यस्तु गोघ्नो गां अनुगच्छति । स गोहत्याकृतं पापं त्रिभिर्मासैर्व्यपोहति ।
- अनेन विधिना राजा कुर्वाणः स्तेननिग्रहम् । यशोऽस्मिन्प्राप्नुयाल्लोके प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ।
- अनेन विधिना राजा मिथो विवदतां नृणाम् । साक्षिप्रत्ययसिद्धानि कार्याणि समतां नयेत् ।
- अनेन विधिना श्राद्धं त्रिरब्दस्येह निर्वपेत् । हेमन्तग्रीष्मवर्षासु पाञ्चयज्ञिकं अन्वहम् ।
- अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गाञ् शनैः शनैः । सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते । ।
- अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन्वेदशास्त्रवित् । व्यपेतकल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते ।
- अन्तर्गतशवे ग्रामे वृषलस्य च सन्निधौ । अनध्यायो रुद्यमाने समवाये जनस्य च ।
- अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी । तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम्
- अन्धो जडः पीठसर्पी सप्तत्या स्थविरश्च यः । श्रोत्रियेषूपकुर्वंश्च न दाप्याः केन चित्करम् ।
- अन्धो मत्स्यानिवाश्नाति स नरः कण्टकैः सह । यो भाषतेऽर्थवैकल्यं अप्रत्यक्षं सभां गतः
- अन्नं एषां पराधीनं देयं स्याद्भिन्नभाजने । रात्रौ न विचरेयुस्ते ग्रामेषु नगरेषु च । ।
- अन्नहर्तामयावित्वं मौक्यं वागपहारकः । वस्त्रापहारकः श्वैत्र्यं पङ्गुतां अश्वहारकः ।
- अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्यापचारिणी । गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम् ।
- अन्नाद्यजानां सत्त्वानां रसजानां च सर्वशः । फलपुष्पोद्भवानां च घृतप्राशो विशोधनम् ।
- अन्यदुप्तं जातं अन्यदित्येतन्नोपपद्यते । उप्यते यद्धि यद्बीजं तत्तदेव प्ररोहति ।
- अन्यां चेद्दर्शयित्वान्या वोढुः कन्या प्रदीयते । उभे त एकशुल्केन वहेदित्यब्रवीन्मनुः ।
- अन्यानपि प्रकुर्वीत शुचीन्प्राज्ञानवस्थितान् । सम्यगर्थसमाहर्तॄनमात्यान्सुपरीक्षितान् ।
- अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । अन्ये कलियुगे नॄणां युगह्रासानुरूपतः ।
- अन्येषां चैवमादीनां मद्यानां ओदनस्य च । पक्वान्नानां च सर्वेषां तन्मुल्याद्द्विगुणो दमः ।
- अन्येष्वपि तु कालेषु यदा पश्येद्ध्रुवं जयम् । तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ।
- अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः । एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः
- अन्वाधेयं च यद्दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत् । पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद्धनं भवेत्
- अपः शस्त्रं विषं मांसं सोमं गन्धांश्च सर्वशः । क्षीरं क्षौद्रं दधि घृतं तैलं मधु गुडं कुशान् ।
- अपः सुराभाजनस्था मद्यभाण्डस्थितास्तथा । पञ्चरात्रं पिबेत्पीत्वा शङ्खपुष्पीशृतं पयः
- अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणां आत्मनश्च ह ।
- अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारं अतिवर्तते । सेह निन्दां अवाप्नोति परलोकाच्च हीयते
- अपदिश्यापदेश्यं च पुनर्यस्त्वपधावति । सम्यक्प्रणिहितं चार्थं पृष्टः सन्नाभिनन्दति
- अपराजितां वास्थाय व्रजेद्दिशं अजिह्मगः । आ निपाताच्छरीरस्य युक्तो वार्यनिलाशनः
- अपराह्णस्तथा दर्भा वास्तुसंपादनं तिलाः । सृष्टिर्मृष्टिर्द्विजाश्चाग्र्याः श्राद्धकर्मसु संपदः ।
- अपसव्यं अग्नौ कृत्वा सर्वं आवृत्य विक्रमम् । अपसव्येन हस्तेन निर्वपेदुदकं भुवि ।
- अपह्नवेऽधमर्णस्य देहीत्युक्तस्य संसदि । अभियोक्ता दिशेद्देश्यं करणं वान्यदुद्दिशेत्
- अपां अग्नेश्च संयोगाद्धैमं रौप्यं च निर्बभौ । तस्मात्तयोः स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः
- अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिं आस्थितः । सावित्रीं अप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः ।
- अपाङ्क्तदाने यो दातुर्भवत्यूर्ध्वं फलोदयः । दैवे हविषि पित्र्ये वा तं प्रवक्स्याम्यशेषतः ।
- अपाङ्क्त्यो यावतः पङ्क्त्यान्भुञ्जानाननुपश्यति । तावतां न फलं तत्र दाता प्राप्नोति बालिशः
- अपाङ्क्त्योपहता पङ्क्तिः पाव्यते यैर्द्विजोत्तमैः । तान्निबोधत कार्त्स्न्येन द्विजाग्र्यान्पङ्क्तिपावनान् ।
- अपि नः स कुले भूयाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम् । पायसं मधुसर्पिर्भ्यां प्राक्छाये कुञ्जरस्य च
- अपि यत्सुकरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम् । विशेषतोऽसहायेन किं तु राज्यं महोदयम्
- अपुत्रायां मृतायां तु पुत्रिकायां कथं चन । धनं तत्पुत्रिकाभर्ता हरेतैवाविचारयन् । ।
- अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम् । यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्
- अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः । पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः
- अप्रणोद्योऽतिथिः सायं सूर्योढो गृहमेधिना । काले प्राप्तस्त्वकाले वा नास्यानश्नन्गृहे वसेत् ।
- अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः । शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः
- अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतं उच्यते । प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः ।
- अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणायोपपादयेत् । श्रुतवृत्तोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत्
- अप्सु भूमिवदित्याहुः स्त्रीणां भोगे च मैथुने । अब्जेषु चैव रत्नेषु सर्वेष्वश्ममयेषु च
- अबीजविक्रयी चैव बीजोत्कृष्टा तथैव च । मर्यादाभेदकश्चैव विकृतं प्राप्नुयाद्वधम्
- अब्दार्धं इन्द्रं इत्येतदेनस्वी सप्तकं जपेत् । अप्रशस्तं तु कृत्वाप्सु मासं आसीत भैक्षभुक्
- अब्राह्मणः संग्रहणे प्राणान्तं दण्डं अर्हति । चतुर्णां अपि वर्णानां दारा रक्ष्यतमाः सदा
- अब्राह्मणादध्यायनं आपत्काले विधीयते । अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्यायनं गुरोः
- अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः । सत्त्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभयदक्षिणम् । ।
- अभिचारेषु सर्वेषु कर्तव्यो द्विशतो दमः । मूलकर्मणि चानाप्तेः कृत्यासु विविधासु च ।
- अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः । अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बध्यते ।
- अभियोक्ता न चेद्ब्रूयाद्बध्यो दण्ड्यश्च धर्मतः । न चेत्त्रिपक्षात्प्रब्रूयाद्धर्मं प्रति पराजितः ।
- अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मो यशो बलम्
- अभिवादयेद्वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वकम् । कृताञ्जलिरुपासीत गच्छतः पृष्ठतोऽन्वियात्
- अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसं अभिवादयन् । असौ नामाहं अस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत्
- अभिशस्तस्य षण्ढस्य पुंश्चल्या दाम्भिकस्य च । शुक्तं पर्युषितं चैव शूद्रस्योच्छिष्टं एव च । ।
- अभिषह्य तु यः कन्यां कुर्याद्दर्पेण मानवः । तस्याशु कर्त्ये अङ्गुल्यौ दण्डं चार्हति षट्शतम्
- अभोज्यं अन्नं नात्तव्यं आत्मनः शुद्धिं इच्छता । अज्ञानभुक्तं तूत्तार्यं शोध्यं वाप्याशु शोधनैः । ।
- अभोज्यानां तु भुक्त्वान्नं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टं एव च । जग्ध्वा मांसं अभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान्पिबेत् ।
- अभ्यङ्गं अञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् । कामं क्रोधं च लोभं च नर्तनं गीतवादनम्
- अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनं एव च । गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम्
- अभ्रिं कार्ष्णायसीं दद्यात्सर्पं हत्वा द्विजोत्तमः । पलालभारकं षण्ढे सैसकं चैकमाषकम् ।
- अमत्यैतानि षड्जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् । यतिचान्द्रायाणं वापि शेषेषूपवसेदहः
- अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणां आवृदशेषतः । संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम् ।
- अमात्यमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्गतम् । स्थापयेदासने तस्मिन्खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम् ।
- अमात्यराष्ट्रदुर्गार्थ दण्डाख्याः पञ्च चापराः । प्रत्येकं कथिता ह्येताः संक्षेपेण द्विसप्ततिः ।
- अमात्याः प्राड्विवाको वा यत्कुर्युः कार्यं अन्यथा । तत्स्वयं नृपतिः कुर्यात्तान्सहस्रं च दण्डयेत् । । ९
- अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डे वैनयिकी क्रिया । नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते संधिविपर्ययौ ।
- अमानुषीषू पुरुष उदक्यायां अयोनिषु । रेतः सिक्त्वा जले चैव कृच्छ्रं सांतपनं चरेत् ।
- अमाययैव वर्तेत न कथं चन मायया । बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नित्यं सुसंवृतः ।
- अमावास्यां अष्टमीं च पौर्णमासीं चतुर्दशीम् । ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं अप्यृतौ स्नातको द्विजः
- अमावास्या गुरुं हन्ति शिष्यं हन्ति चतुर्दशी । ब्रह्माष्टकपौर्णमास्यौ तस्मात्ताः परिवर्जयेत् ।
- अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाप्युदाहरेत् । अकार्यं अन्यत्कुर्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ।
- अयं उक्तो विभागो वः पुत्राणां च क्रियाविधिः । क्रमशः क्षेत्रजादीनां द्यूतधर्मं निबोधत
- अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः । मनुष्याणां अपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति
- अयाज्ययाजनैश्चैव नास्तिक्येन च कर्मणाम् । कुलान्याशु विनश्यन्ति यानि हीनानि मन्त्रतः
- अयुध्यमानस्योत्पाद्य ब्राह्मणस्यासृगङ्गतः । दुःखं सुमहदाप्नोति प्रेत्याप्राज्ञतया नरः । । ४
- अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः । आत्मानं आत्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः
- अरक्षितारं राजानं बलिषड्भागहारिणम् । तं आहुः सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम् ।
- अरण्ये वा त्रिरभ्यस्य प्रयतो वेदसंहिताम् । मुच्यते पातकैः सर्वैः पराकैः शोधितस्त्रिभिः ।
- अराजके हि लोकेऽस्मिन्सर्वतो विद्रुतो भयात् । रक्षार्थं अस्य सर्वस्य राजानं असृजत्प्रभुः ।
- अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः । कृते त्रेतादिषु ह्येषां आयुर्ह्रसति पादशः
- अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ।
- अर्थसंपादनार्थं च पीड्यमानस्य शत्रुभिः । साधुषु व्यपदेशश्च द्विविधः संश्रयः स्मृतः ।
- अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत् । शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च पारिणाह्यस्य वेक्षणे । ।
- अर्थानर्थावुभौ बुद्ध्वा धर्माधर्मौ च केवलौ । वर्णक्रमेण सर्वाणि पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम् ।
- अर्थेऽपव्ययमानं तु करणेन विभावितम् । दापयेद्धनिकस्यार्थं दण्डलेशं च शक्तितः
- अलंकृतश्च संपश्येदायुधीयं पुनर्जनम् । वाहनानि च सर्वाणि शस्त्राण्याभरणानि च ।
- अलङ्कारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा । मातृकं भ्रातृदत्तं वा स्तेना स्याद्यदि तं हरेत् ।
- अलब्धं इच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया । रक्षितं वर्धयेद्वृद्ध्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ।
- अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत्प्रयत्नतः । रक्षितं वर्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ।
- अलाबुं दारुपात्रं च मृण्मयं वैदलं तथा । एताणि यतिपात्राणि मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् ।
- अलाभे न विषदी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासङ्गाद्विनिर्गतः ।
- अलिङ्गी लिङ्गिवेषेण यो वृत्तिं उपजीवति । स लिङ्गिनां हरत्येनस्तिर्यग्योनौ च जायते ।
- अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः । तं अपीह गुरुं विद्याच्छ्रुतोपक्रियया तया ।
- अल्पान्नाभ्यवहारेण रहःस्थानासनेन च । ह्रियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत् ।
- अवकाशेषु चोक्षेषु जलतीरेषु चैव हि । विविक्तेषु च तुष्यन्ति दत्तेन पितरः सदा
- अवकीर्णी तु काणेन गर्दभेन चतुष्पथे । पाकयज्ञविधानेन यजेत निरृतिं निशि ।
- अवगूर्य चरेत्कृच्छ्रं अतिकृच्छ्रं निपातने । कृच्छ्रातिकृच्छ्रौ कुर्वीत विप्रस्योत्पाद्य शोणितम्
- अवगूर्य त्वब्दशतं सहस्रं अभिहत्य च । जिघांसया ब्राह्मणस्य नरकं प्रतिपद्यते ।
- अवनिष्ठीवतो दर्पाद्द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः । अवमूत्रयतो मेढ्रं अवशर्धयतो गुदम् ।
- अवहार्यो भवेच्चैव सान्वयः षट्शतं दमम् । निरन्वयोऽनपसरः प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् । ।
- अवाक्शिरास्तमस्यन्धे किल्बिषी नरकं व्रजेत् । यः प्रश्नं वितथं ब्रूयात्पृष्टः सन्धर्मनिश्चये । ।
- अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत् । भोभवत्पूर्वकं त्वेनं अभिभाषेत धर्मवित् ।
- अविद्यानां तु सर्वेषां ईहातश्चेद्धनं भवेत् । समस्तत्र विभागः स्यादपित्र्य इति धारणा
- अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् । प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।
- अविद्वांसं अलं लोके विद्वांसं अपि वा पुनः । प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम् ।
- अवेक्षेत गतीर्नॄणां कर्मदोषसमुद्भवाः । निरये चैव पतनं यातनाश्च यमक्षये ।
- अवेदयानो नष्टस्य देशं कालं च तत्त्वतः । वर्णं रूपं प्रमाणं च तत्समं दण्डं अर्हति
- अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम् । तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीं उद्वहेत्स्त्रियम् ।
- अव्रतानां अमन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम् । सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते ।
- अव्रतैर्यद्द्विजैर्भुक्तं परिवेत्रादिभिस्तथा । अपाङ्क्तेयैर्यदन्यैश्च तद्वै रक्षांसि भुञ्जते । ।
- अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्तुं द्विजन्मनाम् । पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्कारुककर्मभिः
- अशासंस्तस्करान्यस्तु बलिं गृह्णाति पार्थिवः । तस्य प्रक्षुभ्यते राष्ट्रं स्वर्गाच्च परिहीयते ।
- अश्मनोऽस्थीनि गोवालांस्तुषान्भस्म कपालिकाः । करीषं इष्टकाङ्गारांश्शर्करा वालुकास्तथा ।
- अश्रोत्रियः पिता यस्य पुत्रः स्याद्वेदपारगः । अश्रोत्रियो वा पुत्रः स्यात्पिता स्याद्वेदपारगः ।
- अश्लीकं एतत्साधूनां यत्र जुह्वत्यमी हविः । प्रतीपं एतद्देवानां तस्मात्तत्परिवर्जयेत्
- अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम् । षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च ।
- अष्टावष्टौ समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने स्थिते । नियतात्मा हविष्याशी यतिचान्द्रायणं चरन् ।
- अष्टौ मासान्यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः । तथा हरेत्करं राष्ट्रान्नित्यं अर्कव्रतं हि तत् ।
- असकृद्गर्भवासेषु वासं जन्म च दारुणम् । बन्धनानि च काष्ठानि परप्रेष्यत्वं एव च
- असंख्या मूर्तयस्तस्य निष्पतन्ति शरीरतः । उच्चावचानि भूतानि सततं चेष्टयन्ति याः
- असंदितानां संदाता संदितानां च मोक्षकः । दासाश्वरथहर्ता च प्राप्तः स्याच्चोरकिल्बिषम्
- असपिण्डं द्विजं प्रेतं विप्रो निर्हृत्य बन्धुवत् । विशुध्यति त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान् ।
- असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने
- असंभाष्ये साक्षिभिश्च देशे संभाषते मिथः । निरुच्यमानं प्रश्नं च नेच्छेद्यश्चापि निष्पतेत् ।
- असंभोज्या ह्यसंयाज्या असंपाठ्याऽविवाहिनः । चरेयुः पृथिवीं दीनाः सर्वधर्मबहिष्कृताः ।
- असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः । शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणाः पण्ययोषितः
- असंस्कृतप्रमीतानां त्यागिनां कुलयोषिताम् । उच्छिष्टं भागधेयं स्याद्दर्भेषु विकिरश्च यः ।
- असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदा चन । मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिं आस्थितः
- असाक्षिकेषु त्वर्थेषु मिथो विवादमानयोः । अविन्दंस्तत्त्वतः सत्यं शपथेनापि लम्भयेत्
- अस्थिमतां तु सत्त्वानां सहस्रस्य प्रमापणे । पूर्णे चानस्यनस्थ्नां तु शूद्रहत्याव्रतं चरेत्
- अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् । चर्मावनद्धं दुर्गन्धि पूर्णं मूत्रपुरीषयोः
- अस्मिन्धर्मोऽखिलेनोक्तो गुणदोषौ च कर्मणाम् । चतुर्णां अपि वर्णानां आचारश्चैव शाश्वतः ।
- अस्रं गमयति प्रेतान्कोपोऽरीननृतं शुनः । पादस्पर्शस्तु रक्षांसि दुष्कृतीनवधूननम् ।
- अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम् । विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे
- अस्वामिना कृतो यस्तु दायो विक्रय एव वा । अकृतः स तु विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थितिः ।
- अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् । पतीन्प्रजानां असृजं महर्षीनादितो दश ।
- अहन्यहन्यवेक्षेत कर्मान्तान्वाहनानि च । आयव्ययौ च नियतावाकरान्कोशं एव च ।
- अहार्यं ब्राह्मणद्रव्यं राज्ञा नित्यं इति स्थितिः । इतरेषां तु वर्णानां सर्वाभावे हरेन्नृपः
- अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः । तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ।
- अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् । वाक्चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्मं इच्छता
- अहिंसा सत्यं अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनुः
- अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतं एव च । ब्राह्म्यं हुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते
- अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके । रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणां अहः
- अह्ना चैकेन रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः । शवस्पृशो विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः ।
- अह्ना रात्र्या च याञ् जन्तून्हिनस्त्यज्ञानतो यतिः । तेषां स्नात्वा विशुद्ध्यर्थं प्राणायामान्षडाचरेत् ।
- आ षोदशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते । आ द्वाविंशात्क्षत्रबन्धोरा चतुर्विंशतेर्विशः
- आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम् । स गच्छत्यञ्जसा विप्रो ब्रह्मणः सद्म शाश्वतम् । । २
- आ समुद्रात्तु वै पूर्वादा समुद्राच्च पश्चिमात् । तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ।
- आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः । यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायं शक्तितोऽन्वहम्
- आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ।
- आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः । बलवाञ् जायते वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः
- आकाशेशास्तु विज्ञेया बालवृद्धकृशातुराः । भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्रः स्वका तनुः
- आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयावुभौ । विचार्य सर्वपण्यानां कारयेत्क्रयविक्रयौ ।
- आगःसु ब्राह्मणस्यैव कार्यो मध्यमसाहसः । विवास्यो वा भवेद्राष्ट्रात्सद्रव्यः सपरिच्छदः
- आचम्य प्रयतो नित्यं उभे संध्ये समाहितः । शुचौ देशे जपञ् जप्यं उपासीत यथाविधि ।
- आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने । सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः
- आचम्योदक्परावृत्य त्रिरायम्य शनैरसून् । षडृतूंश्च नमस्कुर्यात्पितॄनेव च मन्त्रवत् ।
- आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः
- आचारहीनः क्लीबश्च नित्यं याचनकस्तथा । कृषिजीवी श्लीपदी च सद्भिर्निन्दित एव च ।
- आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलं अश्नुते । आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाज्भवेत् ।
- आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः । आचाराद्धनं अक्षय्यं आचारो हन्त्यलक्षणम् । । ४
- आचार्यं च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम् । न हिंस्याद्ब्राह्मणान्गाश्च सर्वांश्चैव तपस्विनः ।
- आचार्यं स्वं उपाध्यायं पितरं मातरं गुरुम् । निर्हृत्य तु व्रती प्रेतान्न व्रतेन वियुज्यते । ।
- आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः । आप्तः शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः
- आचार्यश्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः । नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः
- आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः । उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साजरामरा ।
- आचार्ये तु खलु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते । गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुवद्वृत्तिं आचरेत् ।
- आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः । माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मनः
- आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्ये पिता प्रभुः । अतिथिस्त्विन्द्रलोकेशो देवलोकस्य च र्त्विजः
- आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् । आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ।
- आतुरां अभिशस्तां वा चौरव्याघ्रादिभिर्भयैः । पतितां पङ्कलग्नं वा सर्वोपायैर्विमोचयेत् ।
- आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे । स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन्धर्मेण न दुष्यति
- आत्मनो यदि वान्येषां गृहे क्षेत्रेऽथ वा खले । भक्षयन्तीं न कथयेत्पिबन्तं चैव वत्सकम् ।
- आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वं आत्मन्यवस्थितम् । आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम् ।
- आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः । मावमंस्थाः स्वं आत्मानं नृणां साक्षिणं उत्तमम्
- आददीत न शूद्रोऽपि शुल्कं दुहितरं ददन् । शुल्कं हि गृह्णन्कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम् ।
- आददीताथ षड्भागं द्रुमांसमधुसर्पिषाम् । गन्धौषधिरसानां च पुष्पमूलफलस्य च ।
- आददीताथ षड्भागं प्रनष्टाधिगतान्नृपः । दशमं द्वादशं वापि सतां धर्मं अनुस्मरन्
- आदानं अप्रियकरं दानं च प्रियकारकम् । अभीप्सितानां अर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते । ।
- आदाननित्याच्चादातुराहरेदप्रयच्छतः । तथा यशोऽस्य प्रथते धर्मश्चैव प्रवर्धते । ।
- आदिष्टी नोदकं कुर्यादा व्रतस्य समापनात् । समाप्ते तूदकं कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति ।
- आद्यं यत्त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन्प्रतिष्ठिता । स गुह्योऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित् ।
- आद्याद्यस्य गुणं त्वेषां अवाप्नोति परः परः । यो यो यावतिथश्चैषां स स तावद्गुणः स्मृतः ।
- आधिः सीमा बालधनं निक्षेपोपनिधिः स्त्रियः । राजस्वं श्रोत्रियस्वं च न भोगेन प्रणश्यति । ।
- आधिश्चोपनिधिश्चोभौ न कालात्ययं अर्हतः । अवहार्यौ भवेतां तौ दीर्घकालं अवस्थितौ
- आपः शुद्धा भूमिगता वैतृष्ण्यं यासु गोर्भवेत् । अव्याप्ताश्चेदमेध्येन गन्धवर्णरसान्विताः ।
- आपत्कल्पेन यो धर्मं कुरुतेऽनापदि द्विजः । स नाप्नोति फलं तस्य परत्रेति विचारितम्
- आपदर्थं धनं रक्षेद्दारान्रक्षेद्धनैरपि । आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ।
- आपद्गतोऽथ वा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा । परिभाषणं अर्हन्ति तच्च शोध्यं इति स्थितिः
- आपो नरा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ।
- आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्याः कार्येषु साक्षिणः । सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत् ।
- आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे वृशल्या सह मोदते । दातुर्यद्दुष्कृतं किं चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते ।
- आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत् । अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः ।
- आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः । अतीते कार्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते । ।
- आयुष्मन्तं सुतं सूते यशोमेधासमन्वितम् । धनवन्तं प्रजावन्तं सात्त्विकं धार्मिकं तथा ।
- आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने । अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः
- आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः । श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते ह्युदङ्मुखः ।
- आयोगवश्च क्षत्ता च चण्डालश्चाधमो नृणाम् । प्रातिलोम्येन जायन्ते शूद्रादपसदास्त्रयः
- आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना । स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि
- आरण्यांश्च पशून्सर्वान्दंष्ट्रिणश्च वयांसि च । मद्यं नीलिं च लाक्षां च सर्वांश्चैकशफांस्तथा । ।
- आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः । कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते ।
- आरम्भरुचिताधैर्यं असत्कार्यपरिग्रहः । विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम् ।
- आर्तस्तु कुर्यात्स्वस्थः सन्यथाभाषितं आदितः । स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम् ।
- आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घं आयुरवाप्नुयात् ।
- आर्धिकः कुलमित्रं च गोपालो दासनापितौ । एते शूद्रेषु भोज्यान्ना याश्चात्मानं निवेदयेत्
- आर्यता पुरुषज्ञानं शौर्यं करुणवेदिता । स्थौललक्ष्यं च सततं उदासीनगुणोदयः । ।
- आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः । ।
- आर्षे गोमिथुनं शुल्कं के चिदाहुर्मृषैव तत् । अल्पोऽप्येवं महान्वापि विक्रयस्तावदेव सः
- आवृत्तानां गुरुकुलाद्विप्राणां पूजको भवेत् । नृपाणां अक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्मोऽभिधीयते ।
- आश्रमादाश्रमं गत्वा हुतहोमो जितेन्द्रियः । भिक्षाबलिपरिश्रान्तः प्रव्रजन्प्रेत्य वर्धते ।
- आश्रमेषु द्विजातीनां कार्ये विवदतां मिथः । न विब्रूयान्नृपो धर्मं चिकीर्षन्हितं आत्मनः
- आसनं चैव यानं च संधिं विग्रहं एव च । कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयं एव च । ।
- आसनावसथौ शय्यां अनुव्रज्यां उपासनाम् । उत्तमेषूत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम्
- आसनाशनशय्याभिरद्भिर्मूलफलेन वा । नास्य कश्चिद्वसेद्गेहे शक्तितोऽनर्चितोऽतिथिः
- आसनेषूपक्ल्प्तेषु बर्हिष्मत्सु पृथक्पृथक् । उपस्पृष्टोदकान्सम्यग्विप्रांस्तानुपवेशयेत् ।
- आसपिण्डक्रियाकर्म द्विजातेः संस्थितस्य तु । अदैवं भोजयेच्छ्राद्धं पिण्डं एकं च निर्वपेत्
- आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वान्यतमया तनुम् । वीतशोकभयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते
- आसीता मरणात्क्सान्ता नियता ब्रह्मचारिणी । यो धर्म एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती तं अनुत्तमम्
- आसीदिदं तमोभूतं अप्रज्ञातं अलक्षणम् । अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं प्रसुप्तं इव सर्वतः
- आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः । प्रत्युद्गम्य त्वाव्रजतः पश्चाद्धावंस्तु धावतः ।
- आहरेत्त्रीणि वा द्वे वा कामं शूद्रस्य वेश्मनः । न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति परिग्रहः ।
- आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः । युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः । ।
- आहृताभ्युद्यतां भिक्षां पुरस्तादप्रचोदिताम् । मेने प्रजापतिर्ग्राह्यां अपि दुष्कृतकर्मणः
- इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः
- इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहं आगतान् । प्रकृत्यान्नं यथाशक्ति भोजयेत्सह भार्यया
- इतरे कृतवन्तस्तु पापान्येतान्यकामतः । सर्वस्वहारं अर्हन्ति कामतस्तु प्रवासनम्
- इतरेषां तु पण्यानां विक्रयादिह कामतः । ब्राह्मणः सप्तरात्रेण वैश्यभावं नियच्छति ।
- इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः । जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः ।
- इतरेषु त्वपाङ्क्त्येषु यथोद्दिष्टेष्वसाधुषु । मेदोऽसृङ्मांसमज्जास्थि वदन्त्यन्नं मनीषिणः ।
- इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु । एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च
- इतरेष्वागमाद्धर्मः पादशस्त्ववरोपितः । चौरिकानृतमायाभिर्धर्मश्चापैति पादशः
- इत्येतत्तपसो देवा महाभाग्यं प्रचक्षते । सर्वस्यास्य प्रपश्यन्तस्तपसः पुण्यं उत्तमम् ।
- इत्येतदेनसां उक्तं प्रायश्चित्तं यथाविधि । अत ऊर्ध्वं रहस्यानां प्रायश्चित्तं निबोधत
- इत्येतन्मानवं शास्त्रं भृगुप्रोक्तं पठन्द्विजः । भवत्याचारवान्नित्यं यथेष्टां प्राप्नुयाद्गतिम्
- इदं तु वृत्तिवैकल्यात्त्यजतो धर्मनैपुणम् । विट्पण्यं उद्धृतोद्धारं विक्रेयं वित्तवर्धनम् ।
- इदं शरणं अज्ञानां इदं एव विजानताम् । इदं अन्विच्छतां स्वर्गं इदं आनन्त्यं इच्छताम् ।
- इदं शास्त्रं अधीयानो ब्राह्मणः शंसितव्रतः । मनोवाग्गेहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते ।
- इदं शास्त्रं तु कृत्वासौ मां एव स्वयं आदितः । विधिवद्ग्राहयां आस मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन् ।
- इदं स्वस्त्ययनं श्रेष्ठं इदं बुद्धिविवर्धनम् । इदं यशस्यं आयुष्यं इदं निःश्रेयसं परम् ।
- इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च । चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोवृत्तं नृपश्चरेत् ।
- इन्द्रानिलयमार्काणां अग्नेश्च वरुणस्य च । चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ।
- इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद्दिवानिशम् । जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः
- इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम्
- इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेशक्षयेण च । अहिंसया च भूतानां अमृतत्वाय कल्पते ।
- इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषं ऋच्छत्यसंशयम् । संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं निगच्छति
- इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च । पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः
- इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नं आतिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम् ।
- इन्द्रियाणि यशः स्वर्गं आयुः कीर्तिं प्रजाः पशून् । हन्त्यल्पदक्षिणो यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो यजेत्
- इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु न प्रसज्येत कामतः । अतिप्रसक्तिं चैतेषां मनसा संनिवर्तयेत् ।
- इन्धनार्थं अशुष्काणां द्रुमाणां अवपातनम् । आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा
- इमं लोकं मातृभक्त्या पितृभक्त्या तु मध्यमम् । गुरुशुश्रूषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते ।
- इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्मं उत्तमम् । यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि ।
- इमान्नित्यं अनध्यायानधीयानो विवर्जयेत् । अध्यापनं च कुर्वाणः शिष्याणां विधिपूर्वकम् ।
- इयं भूमिर्हि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते । न च योनिगुणान्कांश्चिद्बीजं पुष्यति पुष्टिषु ।
- इयं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो द्विजम् । कामतो ब्राह्मणवधे निष्कृतिर्न विधीयते
- इष्टिं वैश्वानरीं नित्यं निर्वपेदब्दपर्यये । क्ल्प्तानां पशुसोमानां निष्कृत्यर्थं असंभवे । ।
- इह चामुत्र वा काम्यं प्रवृत्तं कर्म कीर्त्यते । निष्कामं ज्ञातपूर्वं तु निवृत्तं उपदिश्यते ।
- इह दुश्चरितैः के चित्के चित्पूर्वकृतैस्तथा । प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा रूपविपर्ययम् ।
- ईशो दण्डस्य वरुणो राज्ञां दण्डधरो हि सः । ईशः सर्वस्य जगतो ब्राह्मणो वेदपारगः ।
- उक्त्वा चैवानृतं साक्ष्ये प्रतिरुध्य गुरुं तथा । अपहृत्य च निःक्षेपं कृत्वा च स्त्रीसुहृद्वधम् ।
- उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयां अकृतात्मभिः । ध्यानयोगेन संपश्येद्गतिं अस्यान्तरात्मनः
- उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च । पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः
- उच्छिष्टेन तु संस्पृष्टो द्रव्यहस्तः कथं चन । अनिधायैव तद्द्रव्यं आचान्तः शुचितां इयात् ।
- उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकाल्यै च पादतः । ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत् ।
- उच्छेषणं तु तत्तिष्ठेद्यावद्विप्रा विसर्जिताः । ततो गृहबलिं कुर्यादिति धर्मो व्यवस्थितः
- उच्छेषणां भूमिगतं अजिह्मस्याशठस्य च । दासवर्गस्य तत्पित्र्ये भागधेयं प्रचक्षते । ।
- उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च । अप्राप्तां अपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथाविधि
- उत्कोचकाश्चाउपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा । मङ्गलादेशवृत्ताश्च भद्राश्चेक्षणिकैः सह
- उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधं अर्हति । शुल्कं दद्यात्सेवमानः समां इच्छेत्पिता यदि ।
- उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् । सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः । ।
- उत्तमानुत्तमानेव गच्छन्हीनांस्तु वर्जयन् । ब्राह्मणः श्रेष्ठतां एति प्रत्यवायेन शूद्रताम्
- उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं संबन्धानाचरेत्सह । निनीषुः कुलं उत्कर्षं अधमानधमांस्त्यजेत् ।
- उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः । हुताग्निर्ब्राह्मणांश्चार्च्य प्रविशेत्स शुभां सभाम् ।
- उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः । पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम् ।
- उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती । स हि धर्मार्थं उत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते
- उत्पद्यते गृहे यस्तु न च ज्ञायेत कस्य सः । स गृहे गूढ उत्पन्नस्तस्य स्याद्यस्य तल्पजः
- उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानि चित् । तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च । ।
- उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः पिता । ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्
- उत्पादनं अपत्यस्य जातस्य परिपालनम् । प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम् । ।
- उत्सादनं च गात्राणां स्नापनोच्छिष्टभोजने । न कुर्याद्गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् ।
- उदकं निनयेच्छेषं शनैः पिण्डान्तिके पुनः । अवजिघ्रेच्च तान्पिण्डान्यथान्युप्तान्समाहितः
- उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकाकुशान् । आहरेद्यावदर्थानि भैक्षं चाहरहश्चरेत् ।
- उदके मध्यरात्रे च विण्मूत्रस्य विसर्जने । उच्छिष्टः श्राद्धभुक्चैव मनसापि न चिन्तयेत्
- उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा । सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः
- उदितोऽयं विस्तरशो मिथो विवादमानयोः । अष्टादशसु मार्गेषु व्यवहारस्य निर्णयः । ।
- उद्धारो न दशस्वस्ति संपन्नानां स्वकर्मसु । यत्किं चिदेव देयं तु ज्यायसे मानवर्धनम् ।
- उद्धृते दक्षिने पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः । सव्ये प्राचीनावीती निवीती कण्ठसज्जने ।
- उद्बबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम् । मनसश्चाप्यहंकारं अभिमन्तारं ईश्वरम् । । १.१४ । । महान्तं एव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च । विषयाणां ग्रहीतॄणि शनैः पञ्चेन्द्रियाणि च ।
- उद्बबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम् । मनसश्चाप्यहंकारं अभिमन्तारं ईश्वरम् । । १.१४ । । महान्तं एव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च । विषयाणां ग्रहीतॄणि शनैः पञ्चेन्द्रियाणि च ।
- उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः । ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः । ।
- उद्यतैराहवे शस्त्रैः क्षत्रधर्महतस्य च । सद्यः संतिष्ठते यज्ञस्तथाशौचं इति स्थितिः
- उद्वर्तनं अपस्नानं विण्मूत्रे रक्तं एव च । श्लेश्मनिष्ठ्यूतवान्तानि नाधितिष्ठेत्तु कामतः ।
- उन्मत्तं पतितं क्लीबं अबीजं पापरोगिणम् । न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम्
- उपचारक्रिया केलिः स्पर्शो भूषणवाससाम् । सह खट्वासनं चैव सर्वं संग्रहणं स्मृतम्
- उपछन्नानि चान्यानि सीमालिङ्गानि कारयेत् । सीमाज्ञाने नृणां वीक्ष्य नित्यं लोके विपर्ययम् ।
- उपजप्यानुपजपेद्बुध्येतैव च तत्कृतम् । युक्ते च दैवे युध्येत जयप्रेप्सुरपेतभीः ।
- उपधाभिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः । ससहायः स हन्तव्यः प्रकाशं विविधैर्वधैः ।
- उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचं आदितः । आचारं अग्निकार्यं च संध्योपासनं एव च । ।
- उपनीय तु तत्सर्वं शनकैः सुसमाहितः । परिवेषयेत प्रयतो गुणान्सर्वान्प्रचोदयन्
- उपनीय तु यः शिष्यं वेदं अध्यापयेद्द्विजः । सकल्पं सरहस्यं च तं आचार्यं प्रचक्षते
- उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्त्रिमः । स हरेतैव तद्रिक्थं संप्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः ।
- उपपातकसंयुक्तो गोघ्नो मासं यवान्पिबेत् । कृतवापो वसेद्गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः
- उपरुध्यारिं आसीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत् । दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम् ।
- उपवासकृशं तं तु गोव्रजात्पुनरागतम् । प्रणतं प्रति पृच्छेयुः साम्यं सौम्येच्छसीति किम् ।
- उपवेश्य तु तान्विप्रानासनेष्वजुगुप्सितान् । गन्धमाल्यैः सुरभिभिरर्चयेद्दैवपूर्वकम् ।
- उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते । पिता प्रधानं प्रजने तस्माद्धर्मेण तं भजेत् ।
- उपस्थं उदरं जिह्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम् । चक्षुर्नासा च कर्णौ च धनं देहस्तथैव च
- उपस्पृशंस्त्रिषवणं पितॄन्देवांश्च तर्पयेत् । तपश्चरंश्चोग्रतरं शोषयेद्देहं आत्मनः ।
- उपस्पृश्य द्विजो नित्यं अन्नं अद्यात्समाहितः । भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत्
- उपाकर्मणि चोत्सर्गे त्रिरात्रं क्षेपणं स्मृतम् । अष्टकासु त्वहोरात्रं ऋत्वन्तासु च रात्रिषु ।
- उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते
- उपानहौ च वासश्च धृतं अन्यैर्न धारयेत् । उपवीतं अलङ्कारं स्रजं करकं एव च । ।
- उपासते ये गृहस्थाः परपाकं अबुद्धयः । तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनः ।
- उपेतारं उपेयं च सर्वोपायांश्च कृत्स्नशः । एतत्त्रयं समाश्रित्य प्रयतेतार्थसिद्धये
- उभयोर्हस्तयोर्मुक्तं यदन्नं उपनीयते । तद्विप्रलुम्पन्त्यसुराः सहसा दुष्टचेतसः ।
- उभाभ्यां अप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत् । कृषिगोरक्षं आस्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम् ।
- उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह । विप्लुतौ शूद्रवद्दण्ड्यौ दग्धव्यौ वा कटाग्निना
- उष्ट्रयानं समारुह्य खरयानं तु कामतः । स्नात्वा तु विप्रो दिग्वासाः प्राणायामेन शुध्यति
- उष्णे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भृशम् । न कुर्वीतात्मनस्त्राणं गोरकृत्वा तु शक्तितः ।
- ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः । अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयनादृते ।
- ऊर्ध्वं नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः । तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखं उक्तं स्वयंभुवा
- ऊर्ध्वं नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्वशः । यान्यधस्तान्यमेध्यानि देहाच्चैव मलाश्च्युताः
- ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम् । भजेरन्पैतृकं रिक्थं अनीशास्ते हि जीवतोः ।
- ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति । प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ।
- ऊर्ध्वं विभागाज्जातस्तु पित्र्यं एव हरेद्धनम् । संसृष्टास्तेन वा ये स्युर्विभजेत स तैः सह
- ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत् । तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनं एव च ।
- ऋक्संहितां त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः । साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
- ऋग्वेदविद्यजुर्विच्च सामवेदविदेव च । त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये ।
- ऋग्वेदो देवदैवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः । सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः
- ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च । एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित् ।
- ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणाः सौम्यदर्शनाः । अनुद्वेगकरा नॄणां सत्वचोऽनग्निदूषिताः ।
- ऋणं दातुं अशक्तो यः कर्तुं इच्छेत्पुनः क्रियाम् । स दत्त्वा निर्जितां वृद्धिं करणं परिवर्तयेत्
- ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः
- ऋणे देये प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतं अर्हति । अपह्नवे तद्द्विगुणं तन्मनोरनुशासनम् । ।
- ऋणे धने च सर्वस्मिन्प्रविभक्ते यथाविधि । पश्चाद्दृश्येत यत्किं चित्तत्सर्वं समतां नयेत्
- ऋतं उञ्छशिलं ज्ञेयं अमृतं स्यादयाचितम् । मृतं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ।
- ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा । सत्यानृताभ्यां अपि वा न श्ववृत्त्या कदा चन । ।
- ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः । चतुर्भिरितरैः सार्धं अहोभिः सद्विगर्हितैः । ।
- ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा । पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया । ।
- ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः । बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसंबन्धिबान्धवैः ।
- ऋत्विग्यदि वृतो यज्ञे स्वकर्म परिहापयेत् । तस्य कर्मानुरूपेण देयोऽंशः सहकर्तृभिः
- ऋत्विजं यस्त्यजेद्याज्यो याज्यं च र्त्विक्त्यजेद्यदि । शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम् ।
- ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा । आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता
- ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः । तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
- ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घं आयुरवाप्नुयुः । प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसं एव च ।
- ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव गृहस्थैरेव सेविताः । विद्यातपोविवृद्ध्यर्थं शरीरस्य च शुद्धये
- ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः । देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः
- ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा । नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्
- एकं अप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पाञ्चयज्ञिके । न चैवात्राशयेत्किं चिद्वैश्वदेवं प्रति द्विजम् ।
- एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थं असहायवान् । सिद्धिं एकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते । ।
- एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् । एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया । ।
- एकं एव दहत्यग्निर्नरं दुरुपसर्पिणम् । कुलं दहति राजाग्निः सपशुद्रव्यसंचयम् ।
- एक एव सुहृद्धर्मो निधानेऽप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाशं सर्वं अन्यद्धि गच्छति ।
- एक एवाउरसः पुत्रः पित्र्यस्य वसुनः प्रभुः । शेषाणां आनृशंस्यार्थं प्रदद्यात्तु प्रजीवनम्
- एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः । कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते ।
- एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते । एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतं एक एव च दुष्कृतम्
- एकं वृषभं उद्धारं संहरेत स पूर्वजः । ततोऽपरे ज्येष्ठवृषास्तदूनानां स्वमातृतः
- एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः । शतं दशसहस्राणि तस्माद्दुर्गं विधीयते । ।
- एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्क्व चित् । कामाद्धि स्कन्दयन्रेतो हिनस्ति व्रतं आत्मनः ।
- एककालं चरेद्भैक्षं न प्रसज्जेत विस्तरे । भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति ।
- एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् । जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः
- एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः । योऽध्यापयति वृत्त्यर्थं उपाध्यायः स उच्यते
- एकरात्रं तु निवसन्नतिथिर्ब्राह्मणः स्मृतः । अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते ।
- एका लिङ्गे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश । उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धिं अभीप्सता ।
- एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यदृच्छया । संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानं उच्यते ।
- एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितं आत्मनः । एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति
- एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः । सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ।
- एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम् । यस्मिन्जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ ।
- एकादशेन्द्रियाण्याहुर्यानि पूर्वे मनीषिणः । तानि सम्यक्प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः । । २
- एकाधिकं हरेज्ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्धं ततोऽनुजः । अंशं अंशं यवीयांस इति धर्मो व्यवस्थितः ।
- एकान्तरे त्वानुलोम्यादम्बष्ठोग्रौ यथा स्मृतौ । क्षत्तृवैदेहकौ तद्वत्प्रातिलोम्येऽपि जन्मनि
- एकैकं अपि विद्वांसं दैवे पित्र्ये च भोजयेत् । पुष्कलं फलं आप्नोति नामन्त्रज्ञान्बहूनपि
- एकैकं ग्रासं अश्नीयात्त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत् । त्र्यहं चोपवसेदन्त्यं अतिकृच्छ्रं चरन्द्विजः
- एकैकं ह्रासयेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत् । उपस्पृशंस्त्रिषवणं एतच्चाण्द्रायणं स्मृतम्
- एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद्द्विजोत्तमः । स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानां उदितोऽयुतैः ।
- एकोऽलुब्धस्तु साक्षी स्याद्बह्व्यः शुच्योऽपि न स्त्रियः । स्त्रीबुद्धेरस्थिरत्वात्तु दोषैश्चान्येऽपि ये वृताः ।
- एकोऽहं अस्मीत्यात्मानं यस्त्वं कल्याण मन्यसे । नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः ।
- एतं एके वदन्त्यग्निं मनुं अन्ये प्रजापतिम् । इन्द्रं एके परे प्राणं अपरे ब्रह्म शाश्वतम्
- एतं एव विधिं कृत्स्नं आचरेद्यवमध्यमे । शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम्
- एतच्चतुर्विधं विद्यात्पुरुषार्थप्रयोजनम् । अस्य नित्यं अनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः
- एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं स्याद्वनस्थानां यतीनां तु चतुर्गुणम् ।
- एतत्तु न परे चक्रुर्नापरे जातु साधवः । यदन्यस्य प्रतिज्ञाय पुनरन्यस्य दीयते ।
- एतत्त्रयं हि पुरुषं निर्दहेदवमानितम् । तस्मादेतत्त्रयं नित्यं नावमन्येत बुद्धिमान्
- एतदक्षरं एतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकाम् । संध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते
- एतदन्तास्तु गतयो ब्रह्माद्याः समुदाहृताः । घोरेऽस्मिन्भूतसंसारे नित्यं सततयायिनि ।
- एतदुक्तं द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यं अशेषतः । मांसस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने ।
- एतदेव चरेदब्दं प्रायश्चित्तं द्विजोत्तमः । प्रमाप्य वैश्यं वृत्तस्थं दद्याच्चैकशतं गवाम् ।
- एतदेव विधिं कुर्याद्योषित्सु पतितास्वपि । वस्त्रान्नपानं देयं तु वसेयुश्च गृहान्तिके ।
- एतदेव व्रतं कुर्युरुपपातकिनो द्विजाः । अवकीर्णिवर्ज्यं शुद्ध्यर्थं चान्द्रायणं अथापि वा
- एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासाञ् शूद्रहा चरेत् । वृषभैकादशा वापि दद्याद्विप्राय गाः सिताः
- एतद्दण्डविधिं कुर्याद्धार्मिकः पृथिवीपतिः । ग्रामजातिसमूहेषु समयव्यभिचारिणाम् ।
- एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः
- एतद्धि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः । प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा
- एतद्रुद्रास्तथादित्या वसवश्चाचरन्व्रतम् । सर्वाकुशलमोक्षाय मरुतश्च महर्षिभिः
- एतद्वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम् । अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्मं आपदि ।
- एतद्विदन्तो विद्वांसो ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः । न राज्ञः प्रतिगृह्णन्ति प्रेत्य श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः । ।
- एतद्विद्वन्तो विद्वांसस्त्रयीनिष्कर्षं अन्वहम् । क्रमतः पूर्वं अभ्यस्य पश्चाद्वेदं अधीयते
- एतद्विधानं आतिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः । अस्वस्थः सर्वं एतत्तु भृत्येषु विनियोजयेत् ।
- एतद्विधानं आतिष्ठेद्धार्मिकः पृथिवीपतिः । स्वामिनां च पशूनां च पालानां च व्यतिक्रमे ।
- एतद्विधानं विज्ञेयं विभागस्यैकयोनिषु । बह्वीषु चैकजातानां नानास्त्रीषु निबोधत
- एतद्वोऽभिहितं शौचं सपिण्डेषु द्विजोत्तमाः । असपिण्डेषु सर्वेषु प्रेतशुद्धिं निबोधत ।
- एतद्वोऽभिहितं सर्वं निःश्रेयसकरं परम् । अस्मादप्रच्युतो विप्रः प्राप्नोति परमां गतिम्
- एतद्वोऽभिहितं सर्वं विधानं पाञ्चयज्ञिकम् । द्विजातिमुख्यवृत्तीनां विधानं श्रूयतां इति
- एतद्वोऽयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेसतः । एतद्धि मत्तोऽधिजगे सर्वं एषोऽखिलं मुनिः
- एतया र्चा विसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया । ब्रह्मक्षत्रियविश्योनिर्गर्हणां याति साधुषु
- एतस्मिन्नेनसि प्राप्ते वसित्वा गर्दभाजिनम् । सप्तागारांश्चरेद्भैक्षं स्वकर्म परिकीर्तयन् ।
- एता दृष्ट्वास्य जीवस्य गतीः स्वेनैव चेतसा । धर्मतोऽधर्मतश्चैव धर्मे दध्यात्सदा मनः ।
- एताः प्रकृतयो मूलं मण्डलस्य समासतः । अष्टौ चान्याः समाख्याता द्वादशैव तु ताः स्मृताः ।
- एताण् द्विजातयो देशान्संश्रयेरन्प्रयत्नतः । शूद्रस्तु यस्मिन्कस्मिन्वा निवसेद्वृत्तिकर्शितः
- एतानाहुः कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान्दण्डान्मनीषिभिः । धर्मस्याव्यभिचारार्थं अधर्मनियमाय च ।
- एतानेके महायज्ञान्यज्ञशास्त्रविदो जनाः । अनीहमानाः सततं इन्द्रियेष्वेव जुह्वति
- एतान्दोषानवेक्ष्य त्वं सर्वाननृतभाषणे । यथाश्रुतं यथादृष्टं सर्वं एवाञ्जसा वद
- एतान्येनांसि सर्वाणि यथोक्तानि पृथक्पृथक् । यैर्यैर्व्रतैरपोह्यन्ते तानि सम्यङ्निबोधत । ।
- एतान्विगर्हिताचारानपाङ्क्तेयान्द्विजाधमान् । द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्र विवर्जयेत् । ।
- एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह । विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सा स्मृताङ्गना ।
- एताश्चान्याश्च लोकेऽस्मिन्नपकृष्टप्रसूतयः । उत्कर्षं योषितः प्राप्ताः स्वैः स्वैर्भर्तृगुणैः शुभैः ।
- एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन् । विविधाश्चाउपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः
- एतास्तिस्रस्तु भार्यार्थे नोपयच्छेत्तु बुद्धिमान् । ज्ञातित्वेनानुपेयास्ताः पतति ह्युपयन्नधः ।
- एतांस्त्वभ्युदितान्विद्याद्यदा प्रादुष्कृताग्निषु । तदा विद्यादनध्यायं अनृतौ चाभ्रदर्शने
- एते चतुर्णां वर्णानां आपद्धर्माः प्रकीर्तिताः । यान्सम्यगनुतिष्ठन्तो व्रजन्ति परमं गतिम् ।
- एते मनूंस्तु सप्तान्यानसृजन्भूरितेजसः । देवान्देवनिकायांश्च महर्षींश्चामितौजसः
- एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रछन्नतस्कराः । विकर्मक्रियया नित्यं बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः
- एते षट्सदृशान्वर्णाञ् जनयन्ति स्वयोनिषु । मातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवारासु च योनिषु
- एतेभ्यो हि द्विजाग्र्येभ्यो देयं अन्नं सदक्षिणम् । इतरेभ्यो बहिर्वेदि कृतान्नं देयं उच्यते
- एतेषां निग्रहो राज्ञः पञ्चानां विषये स्वके । सांराज्यकृत्सजात्येषु लोके चैव यशस्करः
- एतेष्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान् । प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद्देहं आत्मनः
- एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यं अतन्द्रितः । स्तेनान्राजा निगृह्णीयात्स्वराष्ट्रे पर एव च ।
- एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः । अनाविष्कृतपापांस्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत्
- एतैर्लिङ्गैर्नयेत्सीमां राजा विवदमानयोः । पूर्वभुक्त्या च सततं उदकस्यागमेन च
- एतैर्विवादान्संत्यज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते । एतैर्जितैश्च जयति सर्वांल्लोकानिमान्गृही
- एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः । अगम्यागमनीयं तु व्रतैरेभिरपानुदेत्
- एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः । गुरुस्त्रीगमनीयं तु व्रतैरेभिरपानुदेत्
- एतैर्व्रतैरपोहेयुर्महापातकिनो मलम् । उपपातकिनस्त्वेवं एभिर्नानाविधैर्व्रतैः
- एतैर्व्रतैरपोह्यं स्यादेनो हिंसासमुद्भवम् । ज्ञानाज्ञानकृतं कृत्स्नं शृणुतानाद्यभक्षणे
- एधोदकं मूलफलं अन्नं अभ्युद्यतं च यत् । सर्वतः प्रतिगृह्णीयान्मध्वथाभयदक्षिणाम्
- एनसां स्थूलसूक्ष्माणां चिकीर्षन्नपनोदनम् । अवेत्यृचं जपेदब्दं यत्किं चेदं इतीति वा ।
- एनस्विभिरनिर्णिक्तैर्नार्थं किं चित्सहाचरेत् । कृतनिर्णेजनांश्चैव न जुगुप्सेत कर्हि चित्
- एवं आचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम् । सर्वस्य तपसो मूलं आचारं जगृहुः परम् ।
- एवं एतैरिदं सर्वं मन्नियोगान्महात्मभिः । यथाकर्म तपोयोगात्सृष्टं स्थावरजङ्गमम् ।
- एवं कर्मविशेषेण जायन्ते सद्विगर्हिताः । जडमूकान्धबधिरा विकृताकृतयस्तथा ।
- एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः । वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः
- एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यं अविप्लुतः । स गच्छत्युत्तमस्थानं न चेह जायते पुनः
- एवं चरन्सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः । हितेषु चैव लोकस्य सर्वान्भृत्यान्नियोजयेत्
- एवं दृढव्रतो नित्यं ब्रह्मचारी समाहितः । समाप्ते द्वादशे वर्षे ब्रह्महत्यां व्यपोहति ।
- एवं धर्म्याणि कार्याणि सम्यक्कुर्वन्महीपतिः । देशानलब्धांल्लिप्सेत लब्धांश्च परिपालयेत् ।
- एवं निर्वपणं कृत्वा पिण्डांस्तांस्तदनन्तरम् । गां विप्रं अजं अग्निं वा प्राशयेदप्सु वा क्षिपेत् ।
- एवं प्रयत्नं कुर्वीत यानशय्यासनाशने । स्नाने प्रसाधने चैव सर्वालङ्कारकेषु च ।
- एवं यः सर्वभूतानि ब्राह्मणो नित्यं अर्चति । स गच्छति परं स्थानं तेजोमूर्तिः पथा र्जुना
- एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानं आत्मना । स सर्वसमतां एत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्
- एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्मं अनुतिष्ठताम् । कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो
- एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्
- एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः । तानानयेद्वशं सर्वान्सामादिभिरुपक्रमैः ।
- एवं वृत्तां सवर्णां स्त्रीं द्विजातिः पूर्वमारिणीम् । दाहयेदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित् । ।
- एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यां इदं सर्वं चराचरम् । संजीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः
- एवं स भगवान्देवो लोकानां हितकाम्यया । धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वं उक्तवान् ।
- एवं संचिन्त्य मनसा प्रेत्य कर्मफलोदयम् । मनोवाङ्गूर्तिभिर्नित्यं शुभं कर्म समाचरेत् ।
- एवं संन्यस्य कर्माणि स्वकार्यपरमोऽस्पृहः । संन्यासेनापहत्यैनः प्राप्नोति परमं गतिम् ।
- एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान्प्रकल्पयेत् । उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषां इयं स्यादंशकल्पना
- एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम् । इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्
- एवं सर्वं इदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः । व्यायम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुं अन्तःपुरं विशेत्
- एवं सर्वं विधायेदं इतिकर्तव्यं आत्मनः । युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः ।
- एवं सर्वं स सृष्ट्वेदं मां चाचिन्त्यपराक्रमः । आत्मन्यन्तर्दधे भूयः कालं कालेन पीडयन् ।
- एवं सर्वानिमान्राजा व्यवहारान्समापयन् । व्यपोह्य किल्बिषं सर्वं प्राप्नोति परमां गतिम्
- एवं सह वसेयुर्वा पृथग्वा धर्मकाम्यया । पृथग्विवर्धते धर्मस्तस्माद्धर्म्या पृथक्क्रिया ।
- एवं स्वभावं ज्ञात्वासां प्रजापतिनिसर्गजम् । परमं यत्नं आतिष्ठेत्पुरुषो रक्षणं प्रति । ।
- एवमादीन्विजानीयात्प्रकाशांल्लोककण्टकान् । निगूढचारिणश्चान्याननार्यानार्यलिङ्गिनः ।
- एवंविधान्नृपो देशान्गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः । तस्करप्रतिषेधार्थं चारैश्चाप्यनुचारयेत् ।
- एवंवृत्तस्य नृपतेः शिलोञ्छेनापि जीवतः । विस्तीर्यते यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि
- एष दण्डविधिः प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम् ।
- एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः । अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम् । ।
- एष धर्मो गवाश्वस्य दास्युष्ट्राजाविकस्य च । विहंगमहिषीणां च विज्ञेयः प्रसवं प्रति । ।
- एष धर्मोऽखिलेनोक्तो वेतनादानकर्मणः । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धर्मं समयभेदिनाम् ।
- एष धर्मोऽनुशिष्टो वो यतीनां नियतात्मनाम् । वेदसंन्यासिकानां तु कर्मयोगं निबोधत ।
- एष नौयायिनां उक्तो व्यवहारस्य निर्णयः । दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः
- एष प्रोक्तो द्विजातीनां औपनायनिको विधिः । उत्पत्तिव्यञ्जकः पुण्यः कर्मयोगं निबोधत ।
- एष वै प्रथमः कल्पः प्रदाने हव्यकव्ययोः । अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेयः सदा सद्भिरनुष्ठितः ।
- एष वोऽभिहितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः । पुण्योऽक्षयफलः प्रेत्य राज्ञां धर्मं निबोधत
- एष शौचस्य वः प्रोक्तः शरीरस्य विनिर्णयः । नानाविधानां द्रव्याणां शुद्धेः शृणुत निर्णयम्
- एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फलोदयः । नैःश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं निबोधत । ।
- एष सर्वः समुद्दिष्टस्त्रिप्रकारस्य कर्मणः । त्रिविधस्त्रिविधः कृत्स्नः संसारः सार्वभौतिकः
- एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः । जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत् ।
- एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः । आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायधर्मं निबोधत ।
- एषां अन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यं अनृतं वदेत् । तस्य दण्डविशेषांस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।
- एषां अन्यतमो यस्य भुञ्जीत श्राद्धं अर्चितः । पितॄणां तस्य तृप्तिः स्याच्छाश्वती साप्तपौरुषी
- एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता । संभवश्चास्य सर्वस्य वर्णधर्मान्निबोधत ।
- एषा पापकृतां उक्ता चतुर्णां अपि निष्कृतिः । पतितैः संप्रयुक्तानां इमाः शृणुत निष्कृतीः
- एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य निष्कृतिः । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सुवर्णस्तेयनिष्कृतिम्
- एषां शौचविधिः कृत्स्नो द्रव्यशुद्धिस्तथैव च । उक्तो वः सर्ववर्णानां स्त्रीणां धर्मान्निबोधत ।
- एषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम् । धर्मं शाश्वतं आश्रित्य कुर्यात्कार्यविनिर्णयम् ।
- एषोदिता गृहस्थस्य वृत्तिर्विप्रस्य शाश्वती । स्नातकव्रतकल्पश्च सत्त्ववृद्धिकरः शुभः
- एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा । प्रेत्येह च सुखोदर्कान्प्रजाधर्मान्निबोधत । ।
- एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः । इमं कर्मविधिं विद्यात्क्रमशो वैश्यशूद्रयोः । ।
- एषोऽखिलेनाभिहितो दण्डपारुष्यनिर्णयः । स्तेनस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं दण्डविनिर्णये
- एषोऽखिलेनाभिहितो धर्मः सीमाविनिर्णये । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वाक्पारुष्यविनिर्णयम्
- एषोऽनाद्यादनस्योक्तो व्रतानां विविधो विधिः । स्तेयदोषापहर्तॄणां व्रतानां श्रूयतां विधिः ।
- एषोऽनापदि वर्णानां उक्तः कर्मविधिः शुभः । आपद्यपि हि यस्तेषां क्रमशस्तन्निबोधत
- एषोऽनुपस्कृतः प्रोक्तो योधधर्मः सनातनः । अस्माद्धर्मान्न च्यवेत क्षत्रियो घ्नन्रणे रिपून्
- एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः । आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमं गतिम्
- ऐन्द्रं स्थानं अभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयं अव्ययम् । नोपेक्षेत क्षणं अपि राजा साहसिकं नरम् ।
- ओंकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः । त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम् ।
- ओघवाताहृतं बीजं यस्य क्षेत्रे प्ररोहति । क्षेत्रिकस्यैव तद्बीजं न वप्ता लभते फलम् ।
- ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः
- औरभ्रिको माहिषिकः परपूर्वापतिस्तथा । प्रेतनिर्यापकश्चैव वर्जनीयाः प्रयत्नतः ।
- औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च । गूढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट्
- औरसक्षेत्रजौ पुत्रौ पितृरिक्थस्य भागिनौ । दशापरे तु क्रमशो गोत्ररिक्थांशभागिनः
- औषधान्यगदो विद्या दैवी च विविधा स्थितिः । तपसैव प्रसिध्यन्ति तपस्तेषां हि साधनम्
- कणान्वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा सकृन्निशि । सुरापानापनुत्त्यर्थं वालवासा जटी ध्वजी ।
- कन्यां भजन्तीं उत्कृष्टं न किं चिदपि दापयेत् । जघन्यं सेवमानां तु संयतां वासयेद्गृहे ।
- कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियेत यदि शुल्कदः । देवराय प्रदातव्या यदि कन्यानुमन्यते ।
- कन्याया दूषणं चैव वार्धुष्यं व्रतलोपनम् । तडागारामदाराणां अपत्यस्य च विक्रयः
- कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्द्विशतो दमः । शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिफाश्चैवाप्नुयाद्दश
- कपालं वृक्षमूलानि कुचेलं असहायता । समता चैव सर्वस्मिन्नेतन्मुक्तस्य लक्षणम् ।
- कर्णश्रवेऽनिले रात्रौ दिवा पांसुसमूहने । एतौ वर्षास्वनध्यायावध्यायज्ञाः प्रचक्षते ।
- कर्णौ चर्म च वालांश्च बस्तिं स्नायुं च रोचनाम् । पशुषु स्वामिनां दद्यान्मृतेष्वङ्कानि दर्शयेत्
- कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत् । द्वन्द्वैरयोजयच्चेमाः सुखदुःखादिभिः प्रजाः
- कर्मणापि समं कुर्याद्धनिकायाधमर्णिकः । समोऽवकृष्टजातिस्तु दद्याच्छ्रेयांस्तु तच्छनैः ।
- कर्मात्मनां च देवानां सोऽसृजत्प्राणिनां प्रभुः । साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञं चैव सनातनम् ।
- कर्मारस्य निषादस्य रङ्गावतारकस्य च । सुवर्णकर्तुर्वेणस्य शस्त्रविक्रयिणस्तथा ।
- कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् । सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके ।
- कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद्द्वापरं युगम् । कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम् ।
- कल्पयित्वास्य वृत्तिं च रक्षेदेनं समन्ततः । राजा हि धर्मषड्भागं तस्मात्प्राप्नोति रक्षितात्
- काणं वाप्यथ वा खञ्जं अन्यं वापि तथाविधम् । तथ्येनापि ब्रुवन्दाप्यो दण्डं कार्षापणावरम्
- कानीनश्च सहोढश्च क्रीतः पौनर्भवस्तथा । स्वयंदत्तश्च शौद्रश्च षडदायादबान्धवाः
- कामं आ मरणात्तिष्ठेद्गृहे कन्या र्तुमत्यपि । न चैवैनां प्रयच्चेत्तु गुणहीनाय कर्हि चित्
- कामं उत्पाद्य कृष्यां तु स्वयं एव कृषीवलः । विक्रीणीत तिलाञ् शूद्रान्धर्मार्थं अचिरस्थितान् ।
- कामं तु क्सपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः । न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु ।
- कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि । विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहं इति ब्रुवन्
- कामं श्राद्धेऽर्चयेन्मित्रं नाभिरूपं अपि त्वरिम् । द्विषता हि हविर्भुक्तं भवति प्रेत्य निष्फलम् । । ३
- कामक्रोधौ तु संयम्य योऽर्थान्धर्मेण पश्यति । प्रजास्तं अनुवर्तन्ते समुद्रं इव सिन्धवः ।
- कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः । वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु
- कामतो रेतसः सेकं व्रतस्थस्य द्विजन्मनः । अतिक्रमं व्रतस्याहुर्धर्मज्ञा ब्रह्मवादिनः ।
- कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता । काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः
- कामाद्दशगुणं पूर्वं क्रोधात्तु त्रिगुणं परम् । अज्ञानाद्द्वे शते पूर्णे बालिश्याच्छतं एव तु ।
- कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथः । संभूतिं तस्य तां विद्याद्यद्योनावभिजायते
- कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेन्धने । ब्राह्मणाभ्युपपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् ।
- कारावरो निषादात्तु चर्मकारः प्रसूयते । वैदेहिकादन्ध्रमेदौ बहिर्ग्रामप्रतिश्रयौ ।
- कारुकाञ् शिल्पिनश्चैव शूद्रांस्चात्मोपजीविनः । एकैकं कारयेत्कर्म मासि मासि महीपतिः ।
- कारुकान्नं प्रजां हन्ति बलं निर्णेजकस्य च । गणान्नं गणिकान्नं च लोकेभ्यः परिकृन्तति
- कार्पासं उपवीतं स्याद्विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्
- कार्पासकीटजोर्णानां द्विशफैकशफस्य च । पक्षिगन्धौषधीनां च रज्ज्वाश्चैव त्र्यहं पयः
- कार्यं सोऽवेक्ष्य शक्तिं च देशकालौ च तत्त्वतः । कुरुते धर्मसिद्ध्यर्थं विश्वरूपं पुनः पुनः ।
- कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः । तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रं इति धारणा ।
- कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः । वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च । ।
- कालं कालविभक्तीश्च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा । सरितः सागराञ् शैलान्समानि विषमानि च ।
- कालशाकं महाशल्काः खङ्गलोहामिषं मधु । आनन्त्यायैव कल्प्यन्ते मुन्यन्नानि च सर्वशः
- कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन्पतिः । मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता ।
- किं चिदेव तु दाप्यः स्यात्संभाषां ताभिराचरन् । प्रैष्यासु चैकभक्तासु रहः प्रव्रजितासु च ।
- किं चिदेव तु विप्राय दद्यादस्थिमतां वधे । अनस्थ्नां चैव हिंसायां प्राणायामेन शुध्यति
- कितवान्कुशीलवान्क्रूरान्पाषण्डस्थांश्च मानवान् । विकर्मस्थान्शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत्पुरात्
- किन्नरान्वानरान्मत्स्यान्विविधांश्च विहङ्गमान् । पशून्मृगान्मनुष्यांश्च व्यालांश्चोभयतोदतः
- कीताश्चाहिपतंगाश्च पशवश्च वयांसि च । स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपोबलात्
- कीनाशो गोवृषो यानं अलङ्कारश्च वेश्म च । विप्रस्याउद्धारिकं देयं एकांशश्च प्रधानतः ।
- कुटुम्बार्थेऽध्यधीनोऽपि व्यवहारं यं आचरेत् । स्वदेशे वा विदेशे वा तं ज्यायान्न विचालयेत् ।
- कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः । एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः
- कुरुक्षेत्रांश्च मत्स्यांश्च पञ्चालाञ् शूरसेनजान् । दीर्घांल्लघूंश्चैव नरानग्रानीकेषु योजयेत् ।
- कुर्यादहरहः श्राद्धं अन्नाद्येनोदकेन वा । पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिं आवहन् ।
- कुर्याद्घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्पिष्टपशुं तथा । न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुं इच्छेत्कदा चन
- कुलजे वृत्तसंपन्ने धर्मज्ञे सत्यवादिनि । महापक्षे धनिन्यार्ये निक्षेपं निक्षिपेद्बुधः
- कुले मुख्येऽपि जातस्य यस्य स्याद्योनिसंकरः । संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पं अपि वा बहु ।
- कुविवाहैः क्रियालोपैर्वेदानध्ययनेन च । कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च
- कुशीलवोऽवकीर्णी च वृषलीपतिरेव च । पौनर्भवश्च काणश्च यस्य चोपपतिर्गृहे । ।
- कुसीदवृद्धिर्द्वैगुण्यं नात्येति सकृदाहृता । धान्ये सदे लवे वाह्ये नातिक्रामति पञ्चताम् ।
- कुसूलधान्यको वा स्यात्कुम्भीधान्यक एव वा । त्र्यहैहिको वापि भवेदश्वस्तनिक एव वा
- कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च । सह द्यावापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्ततः
- कूटशासनकर्तॄंश्च प्रकृतीनां च दूषकान् । स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद्द्विट्सेविनस्तथा
- कूष्माण्डैर्वापि जुहुयाद्घृतं अग्नौ यथाविधि । उदित्यृचा वा वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा
- कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च । राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगं उच्यते
- कृतदारोऽपरान्दारान्भिक्षित्वा योऽधिगच्छति । रतिमात्रं फलं तस्य द्रव्यदातुस्तु संततिः । ।
- कृतवापनो निवसेद्ग्रामान्ते गोव्रजेऽपि वा । आश्रमे वृक्षमूले वा गोब्राह्मणहिते रतः
- कृतानुसारादधिका व्यतिरिक्ता न सिध्यति । कुसीदपथं आहुस्तं पञ्चकं शतं अर्हति ।
- कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशनं इष्यते । ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम् ।
- कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते । नैवं कुर्यां पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः ।
- कृत्वा मूत्रं पुरीषं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत् । वेदं अध्येष्यमाणश्च अन्नं अश्नंश्च सर्वदा ।
- कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि । उपगृह्यास्पदं चैव चारान्सम्यग्विधाय च ।
- कृत्वैतद्बलिकर्मैवं अतिथिं पूर्वं आशयेत् । भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद्ब्रह्मचारिणे । ।
- कृत्स्नं चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गं च तत्त्वतः । अनुरागापरागौ च प्रचारं मण्डलस्य च ।
- कृमिकीटपतङ्गानां विड्भुजां चैव पक्षिणाम् । हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणो व्रजेत्
- कृमिकीटपतङ्गांश्च यूकामक्षिकमत्कुणम् । सर्वं च दंशमशकं स्थावरं च पृथग्विधम् ।
- कृमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनम् । फलैधःकुसुमस्तेयं अधैर्यं च मलावहम् ।
- कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा वृत्तिः सद्विगर्हिताः । भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठं अयोमुखम् ।
- कृष्टजानां ओषधीनां जातानां च स्वयं वने । वृथालम्भेऽनुगच्छेद्गां दिनं एकं पयोव्रतः
- कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् । श्राद्धे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतराः
- कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः । स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः
- केतितस्तु यथान्यायं हव्ये कव्ये द्विजोत्तमः । कथं चिदप्यतिक्रामन्पापः सूकरतां व्रजेत्
- केशग्रहान्प्रहारांश्च शिरस्येतान्विवर्जयेत् । शिरःस्नातश्च तैलेन नाङ्गं किं चिदपि स्पृशेत्
- केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते । राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके मतः
- केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणतः । ललाटसम्मितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः
- केशेषु गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् । पादयोर्दाढिकायां च ग्रीवायां वृषणेषु च ।
- कोष्ठागारायुधागार देवतागारभेदकान् । हस्त्यश्वरथहर्तॄंश्च हन्यादेवाविचारयन् ।
- कौटसाक्ष्यं तु कुर्वाणांस्त्रीन्वर्णान्धार्मिको नृपः । प्रवासयेद्दण्डयित्वा ब्राह्मणं तु विवासयेत् ।
- कौत्सं जप्त्वाप इत्येतद्वसिष्ठं च प्रतीत्यृचम् । माहित्रं शुद्धवत्यश्च सुरापोऽपि विशुध्यति ।
- कौशेयं तित्तिरिर्हृत्वा क्षौमं हृत्वा तु दर्दुरः । कार्पासतान्तवं क्रौञ्चो गोधा गां वाग्गुदो गुडम्
- कौशेयाविकयोरूषैः कुतपानां अरिष्टकैः । श्रीफलैरंशुपट्टानां क्षौमाणां गौरसर्षपैः ।
- क्रयविक्रयं अध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम् । योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजो दापयेत्करान् ।
- क्रव्यादसूकरोष्ट्राणां कुक्कुटानां च भक्षणे । नरकाकखराणां च तप्तकृच्छ्रं विशोधनम्
- क्रव्यादाञ् शकुनान्सर्वांस्तथा ग्रामनिवासिनः । अनिर्दिष्टांश्चैकशफांष्टिट्टिभं च विवर्जयेत् ।
- क्रव्यादांस्तु मृगान्हत्वा धेनुं दद्यात्पयस्विनीम् । अक्रव्यादान्वत्सतरीं उष्ट्रं हत्वा तु कृष्णलम्
- क्रियाभ्युपगमात्त्वेतद्बीजार्थं यत्प्रदीयते । तस्येह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च ।
- क्रीणीयाद्यस्त्वपत्यार्थं मातापित्रोर्यं अन्तिकात् । स क्रीतकः सुतस्तस्य सदृशोऽसदृशोऽपि वा ।
- क्रीत्वा विक्रीय वा किं चिद्यस्येहानुशयो भवेत् । सोऽन्तर्दशाहात्तद्द्रव्यं दद्याच्चैवाददीत वा
- क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतं एव वा । देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति
- क्रुद्ध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचं अनृतां वदेत् ।
- क्ल्प्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान् । विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन् ।
- क्ल्प्तकेशनखश्मश्रुर्दान्तः शुक्लाम्बरः शुचिः । स्वाध्याये चैव युक्तः स्यान्नित्यं आत्महितेषु च
- क्षत्तुर्जातस्तथोग्रायां श्वपाक इति कीर्त्यते । वैदेहकेन त्वम्बष्ठ्यां उत्पन्नो वेण उच्यते ।
- क्षत्त्रुग्रपुक्कसानां तु बिलौकोवधबन्धनम् । धिग्वणानां चर्मकार्यं वेणानां भाण्डवादनम् ।
- क्षत्रविट्शूद्रयोनिस्तु दण्डं दातुं अशक्नुवन् । आनृण्यं कर्मणा गच्छेद्विप्रो दद्याच्छनैः शनैः ।
- क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान्प्रति सर्वशः । ब्रह्मैव संनियन्तृ स्यात्क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् ।
- क्षत्रियं चैव वैश्यं च ब्राह्मणो वृत्तिकर्शितौ । बिभृयादानृशंस्येन स्वानि कर्माणि कारयेत् ।
- क्षत्रियं चैव सर्पं च ब्राह्मणं च बहुश्रुतम् । नावमन्येत वै भूष्णुः कृशानपि कदा चन ।
- क्षत्रियस्य परो धर्मः प्राजानां एव पालनम् । निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ।
- क्षत्रियाच्छूद्रकन्यायां क्रूराचारविहारवान् । क्षत्रशूद्रवपुर्जन्तुरुग्रो नाम प्रजायते ।
- क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः । वैश्यान्मागधवैदेहौ राजविप्राङ्गनासुतौ ।
- क्षत्रियायां अगुप्तायां वैश्ये पञ्चशतं दमः । मूत्रेण मौण्ड्यं इच्छेत्तु क्षत्रियो दण्डं एव वा
- क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदं आत्मनः । धनेन वैश्यशूद्रौ तु जपहोमैर्द्विजोत्तमः ।
- क्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् । बालवृद्धातुराणां च कुर्वता हितं आत्मनः
- क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोतियजतिक्रियाः । अक्षरं दुष्करं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः ।
- क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः । प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ।
- क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात्पूर्वकृतेन वा । मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतं आसनम् । ।
- क्षुद्रकाणां पशूनां तु हिंसायां द्विशतो दमः । पञ्चाशत्तु भवेद्दण्डः शुभेषु मृगपक्षिषु
- क्षुधार्तश्चात्तुं अभ्यागाद्विश्वामित्रः श्वजाघनीम् । चण्डालहस्तादादाय धर्माधर्मविचक्षणः ।
- क्षेत्रं हिरण्यं गां अश्वं छत्रोपानहं आसनम् । धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिं आवहेत् ।
- क्षेत्रकूपतडागानां आरामस्य गृहस्य च । सामन्तप्रत्ययो ज्ञेयः सीमासेतुविनिर्णयः । ।
- क्षेत्रजादीन्सुतानेतानेकादश यथोदितान् । पुत्रप्रतिनिधीनाहुः क्रियालोपान्मनीषिणः
- क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् । क्षेत्रबीजसमायोगात्संभवः सर्वदेहिनाम् । ।
- क्षेत्रियस्यात्यये दण्डो भागाद्दशगुणो भवेत् । ततोऽर्धदण्डो भृत्यानां अज्ञानात्क्षेत्रिकस्य तु
- क्षेत्रेष्वन्येषु तु पशुः सपादं पणं अर्हति । सर्वत्र तु सदो देयः क्षेत्रिकस्येति धारणा ।
- क्षौमवच्छङ्खशृङ्गाणां अस्थिदन्तमयस्य च । शुद्धिर्विजानता कार्या गोमूत्रेणोदकेन वा
- क्सेम्यां सस्यप्रदां नित्यं पशुवृद्धिकरीं अपि । परित्यजेन्नृपो भूमिं आत्मार्थं अविचारयन् ।
- खं संनिवेशयेत्खेषु चेष्टनस्पर्शनेऽनिलम् । पक्तिदृष्ट्योः परं तेजः स्नेहेऽपो गां च मूर्तिषु
- खञ्जो वा यदि वा काणो दातुः प्रेष्योऽपि वा भवेत् । हीनातिरिक्तगात्रो वा तं अप्यपनयेत्पुनः
- खट्वाङ्गी चीरवासा वा श्मश्रुलो विजने वने । प्राजापत्यं चरेत्कृच्छ्रं अब्दं एकं समाहितः ।
- खराश्वोष्ट्रमृगेभानां अजाविकवधस्तथा । संकरीकरणं ज्ञेयं मीनाहिमहिषस्य च
- खलात्क्षेत्रादगाराद्वा यतो वाप्युपलभ्यते । आख्यातव्यं तु तत्तस्मै पृच्छते यदि पृच्छति
- ख्यापनेनानुतापेन तपसाध्ययनेन च । पापकृन्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि ।
- गत्वा कक्षान्तरं त्वन्यत्समनुज्ञाप्य तं जनम् । प्रविशेद्भोजनार्थं च स्त्रीवृतोऽन्तःपुरं पुनः ।
- गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये । तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः । ।
- गर्धभाजाविकानां तु दण्डः स्यात्पञ्चमाषिकः । माषिकस्तु भवेद्दण्डः श्वसूकरनिपातने । ।
- गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः ।
- गर्भिणी तु द्विमासादिस्तथा प्रव्रजितो मुनिः । ब्राह्मणा लिङ्गिनश्चैव न दाप्यास्तारिकं तरे ।
- गवा चान्नं उपघ्रातं घुष्टान्नं च विशेषतः । गणान्नं गणिकान्नं च विदुषा च जुगुप्सितम्
- गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौडमौञ्जीनिबन्धनैः । बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानां अपमृज्यते
- गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रसादं वा रहोगतः । अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः ।
- गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः । बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च । ।
- गुणांश्च सूपशाकाद्यान्पयो दधि घृतं मधु । विन्यसेत्प्रयतः पूर्वं भूमावेव समाहितः ।
- गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । आततायिनं आयान्तं हन्यादेवाविचारयन्
- गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि । उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् ।
- गुरुतल्पव्रतं कुर्याद्रेतः सिक्त्वा स्वयोनिषु । सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु कुमारीष्वन्त्यजासु च ।
- गुरुतल्पे भगः कार्यः सुरापाने सुराध्वजः । स्तेये च श्वपदं कार्यं ब्रह्महण्यशिराः पुमान् ।
- गुरुतल्प्यभिभाष्यैनस्तप्ते स्वप्यादयोमये । सूर्मीं ज्वलन्तीं स्वाश्लिष्येन्मृत्युना स विशुध्यति
- गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्येह पादयोः । पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता
- गुरुवत्प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरुयोषितः । असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः
- गुरुषु त्वभ्यतीतेषु विना वा तैर्गृहे वसन् । आत्मनो वृत्तिं अन्विच्छन्गृह्णीयात्साधुतः सदा ।
- गुरून्भृत्यांश्चोज्जिहीर्षन्नर्चिष्यन्देवतातिथीन् । सर्वतः प्रतिगृह्णीयान्न तु तृप्येत्स्वयं ततः ।
- गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु । अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत्
- गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् । प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति
- गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिं आचरेत् । न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान्गुरूनभिवादयेत्
- गुरोर्यत्र परिवादो निन्दा वापि प्रवर्तते । कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः । ।
- गुल्मान्वेणूंश्च विविधान्शमीवल्लीस्थलानि च । शरान्कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति । ।
- गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान्कृतसंज्ञान्समन्ततः । स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिणः ।
- गृहं तडागं आरामं क्षेत्रं वा भीषया हरन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादज्ञानाद्द्विशतो दमः
- गृहस्थस्तु यथा पश्येद्वलीपलितं आत्मनः । अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्
- गृहिणः पुत्रिणो मौलाः क्षत्रविश्शूद्रयोनयः । अर्थ्युक्ताः साक्ष्यं अर्हन्ति न ये के चिदनापदि ।
- गृहीत्वा मुसलं राजा सकृद्धन्यात्तु तं स्वयम् । वधेन शुध्यति स्तेनो ब्राह्मणस्तपसैव तु ।
- गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः । नावेदविहितां हिंसां आपद्यपि समाचरेत् । ।
- गोत्ररिक्थे जनयितुर्न हरेद्दत्त्रिमः क्व चित् । गोत्ररिक्थानुगः पिण्डो व्यपैति ददतः स्वधा
- गोपः क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद्दशतो वराम् । गोस्वाम्यनुमते भृत्यः सा स्यात्पालेऽभृते भृतिः
- गोमूत्रं अग्निवर्णं वा पिबेदुदकं एव वा । पयो घृतं वा मरणाद्गोशकृद्रसं एव वा ।
- गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम् । ।
- गोरक्षकान्वाणिजिकांस्तथा कारुकुशीलवान् । प्रेष्यान्वार्धुषिकांश्चैव विप्रान्शूद्रवदाचरेत् ।
- गोवधोऽयाज्यसंयाज्यं पारदार्यात्मविक्रयः । गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्यायाग्न्योः सुतस्य च ।
- गोषु ब्राह्मणसंस्थासु छुरिकायाश्च भेदने । पशूनां हरणे चैव सद्यः कार्योऽर्धपादिकः ।
- गोऽश्वोष्ट्रयानप्रासाद प्रस्तरेषु कटेषु च । आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलकनौषु च
- गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः । ।
- ग्रहीता यदि नष्टः स्यात्कुटुम्बार्थे कृतो व्ययः । दातव्यं बान्धवैस्तत्स्यात्प्रविभक्तैरपि स्वतः
- ग्रामघाते हिताभङ्गे पथि मोषाभिदर्शने । शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः ।
- ग्रामदोषान्समुत्पन्नान्ग्रामिकः शनकैः स्वयम् । शंसेद्ग्रामदशेशाय दशेशो विंशतीशिने ।
- ग्रामस्याधिपतिं कुर्याद्दशग्रामपतिं तथा । विंशतीशं शतेशं च सहस्रपतिं एव च ।
- ग्रामादाहृत्य वाश्नीयादष्टौ ग्रासान्वने वसन् । प्रतिगृह्य पुटेनैव पाणिना शकलेन वा
- ग्रामीयककुलानां च समक्षं सीम्नि साक्षिणः । प्रष्टव्याः सीमलिङ्गानि तयोश्चैव विवादिनोः
- ग्रामेष्वपि च ये के चिच्चौराणां भक्तदायकाः । भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपि घातयेत् ।
- ग्रीष्मे पञ्चतपास्तु स्याद्वर्षास्वभ्रावकाशिकः । आर्द्रवासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्धयंस्तपः ।
- घृतकुम्भं वराहे तु तिलद्रोणं तु तित्तिरौ । शुके द्विहायनं वत्सं क्रौञ्चं हत्वा त्रिहायनम्
- घ्राणेन सूकरो हन्ति पक्षवातेन कुक्कुटः । श्वा तु दृष्टिनिपातेन स्पर्शेणावरवर्णजः ।
- चक्रवृद्धिं समारूढो देशकालव्यवस्थितः । अतिक्रामन्देशकालौ न तत्फलं अवाप्नुयात्
- चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः । स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च ।
- चण्डालश्वपचानां तु बहिर्ग्रामात्प्रतिश्रयः । अपपात्राश्च कर्तव्या धनं एषां श्वगर्दभम् ।
- चण्डालात्पाण्डुसोपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान् । आहिण्डिको निषादेन वैदेह्यां एव जायते ।
- चण्डालान्त्यस्त्रियो गत्वा भुक्त्वा च प्रतिगृह्य च । पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात्साम्यं तु गच्छति
- चण्डालेन तु सोपाको मूलव्यसनवृत्तिमान् । पुक्कस्यां जायते पापः सदा सज्जनगर्हितः । ।
- चतुरः प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः समाहितः । चतुरोऽस्तं इते सूर्ये शिशुचान्द्रायणं स्मृत
- चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान्प्रशस्तान्कवयो विदुः । राक्षसं क्षत्रियस्यैकं आसुरं वैश्यशूद्रयोः
- चतुरोऽंशान्हरेद्विप्रस्त्रीनंशान्क्षत्रियासुतः । वैश्यापुत्रो हरेद्द्व्यंशं अंशं शूद्रासुतो हरेत्
- चतुर्णां अपि चैतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम् । ज्यायान्परः परो ज्ञेयो धर्मतो लोकजित्तमः
- चतुर्णां अपि चैतेषां प्रायश्चित्तं अकुर्वताम् । शारीरं धनसंयुक्तं दण्डं धर्म्यं प्रकल्पयेत् ।
- चतुर्णां अपि वर्णानं प्रेत्य चेह हिताहितान् । अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत ।
- चतुर्थं आददानोऽपि क्षत्रियो भागं आपदि । प्रजा रक्षन्परं शक्त्या किल्बिषात्प्रतिमुच्यते ।
- चतुर्थं आयुषो भागं उषित्वाद्यं गुरौ द्विजाः । द्वितीयं आयुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत् ।
- चतुर्थकालं अश्नीयादक्षारलवणं मितम् । गोमूत्रेणाचरेत्स्नानं द्वौ मासौ नियतेन्द्रियः ।
- चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात् । षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले
- चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यं आश्रमिभिर्द्विजैः । दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः ।
- चतुष्पात्सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे । नाधर्मेणागमः कश्चिन्मनुष्यान्प्रति वर्तते ।
- चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्साणां तत्कृतं युगम् । तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः
- चराणां अन्नं अचरा दंष्ट्रिणां अप्यदंष्ट्रिणः । अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः
- चरितव्यं अतो नित्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये । निन्द्यैर्हि लक्षणैर्युक्ता जायन्तेऽनिष्कृतैनसः
- चरूणां स्रुक्स्रुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा । स्फ्यशूर्पशकटानां च मुसलोलूखलस्य च ।
- चर्मचार्मिकभाण्डेषु काष्ठलोष्टमयेषु । मूल्यात्पञ्चगुणो दण्डः पुष्पमूलफलेषु च । ।
- चाण्डालश्च वराहश्च कुक्कुटः श्वा तथैव च । रजस्वला च षण्ढश्च नेक्षेरन्नश्नतो द्विजान्
- चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति
- चातुर्वर्ण्यस्य कृत्स्नोऽयं उक्तो धर्मस्त्वयानघः । कर्मणां फलनिर्वृत्तिं शंस नस्तत्त्वतः पराम् ।
- चान्द्रायणं वा त्रीन्मासानभ्यस्येन्नियतेन्द्रियः । हविष्येण यवाग्वा वा गुरुतल्पापनुत्तये ।
- चान्द्रायणविधानैर्वा शुक्लकृष्णे च वर्तयेत् । पक्षान्तयोर्वाप्यश्नीयाद्यवागूं क्वथितां सकृत्
- चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः । रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः
- चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम् । स्वशक्तिं परशक्तिं च नित्यं विद्यान्महीपतिः
- चिकित्सकस्य मृगयोः क्रूरस्योच्छिष्टभोजिनः । उग्रान्नं सूतिकान्नं च पर्याचान्तं अनिर्दशम्
- चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्याप्रचरतां दमः । अमानुषेषु प्रथमो मानुषेषु तु मध्यमः
- चिकित्सकान्देवलकान्मांसविक्रयिणस्तथा । विपणेन च जीवन्तो वर्ज्याः स्युर्हव्यकव्ययोः । ।
- चिरस्थितं अपि त्वाद्यं अस्नेहाक्तं द्विजातिभिः । यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया ।
- चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषां एव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात्
- चैत्यद्रुमश्मशानेषु शैलेषूपवनेषु च । वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः
- चैलवच्चर्मणां शुद्धिर्वैदलानां तथैव च । शाकमूलफलानां च धान्यवच्छुद्धिरिष्यते ।
- चोदितो गुरुणा नित्यं अप्रचोदित एव वा । कुर्यादध्ययने यत्नं आचार्यस्य हितेषु च
- चोरैरुपद्रुते ग्रामे संभ्रमे चाग्निकारिते । आकालिकं अनध्यायं विद्यात्सर्वाद्भुतेषु च
- चौरैर्हृतं जलेनोढं अग्निना दग्धं एव वा । न दद्याद्यदि तस्मात्स न संहरति किं चन
- छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम् । पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद्द्विजः
- छाया स्वो दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम् । तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेतासंज्वरः सदा
- छायायां अन्धकारे वा रात्रावहनि वा द्विजः । यथासुखमुखः कुर्यात्प्राणबाधभयेषु च
- छिन्ननास्ये भग्नयुगे तिर्यक्प्रतिमुखागते । अक्षभङ्गे च यानस्य चक्रभङ्गे तथैव च ।
- छुच्छुन्दरिः शुभान्गन्धान्पत्रशाकं तु बर्हिणः । श्वावित्कृतान्नं विविधं अकृतान्नं तु शल्यकः
- छेदने चैव यन्त्राणां योक्त्ररश्म्योस्तथैव च । आक्रन्दे चाप्यपैहीति न दण्डं मनुरब्रवीत् ।
- जगतश्च समुत्पत्तिं संस्कारविधिं एव च । व्रतचर्योपचारं च स्नानस्य च परं विधिम् ।
- जटिलं चानधीयानं दुर्बालं कितवं तथा । याजयन्ति च ये पूगांस्तांश्च श्राद्धे न भोजयेत् । ।
- जडमूकान्धबधिरांस्तैर्यग्योनान्वयोऽतिगान् । स्त्रीम्लेच्छव्याधितव्यङ्गान्मन्त्रकालेऽपसारयेत्
- जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः । भजेरन्मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः ।
- जन्मज्येष्ठेन चाह्वानं सुब्रह्मण्यास्वपि स्मृतम् । यमयोश्चैव गर्भेषु जन्मतो ज्येष्ठता स्मृता ।
- जन्मप्रभृति यत्किं चित्पुण्यं भद्र त्वया कृतम् । तत्ते सर्वं शुनो गच्छेद्यदि ब्रूयास्त्वं अन्यथा ।
- जपन्वान्यतमं वेदं योजनानां शतं व्रजेत् । ब्रह्महत्यापनोदाय मितभुङ्नियतेन्द्रियः ।
- जपहोमैरपैत्येनो याजनाध्यापनैः कृतम् । प्रतिग्रहनिमित्तं तु त्यागेन तपसैव च
- जपित्वा त्रीणि सावित्र्याः सहस्राणि समाहितः । मासं गोष्ठे पयः पीत्वा मुच्यतेऽसत्प्रतिग्रहात्
- जपोऽहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलिः । ब्राह्म्यं हुतं द्विजाग्र्यार्चा प्राशितं पितृतर्पणम् ।
- जप्येनैव तु संसिध्येद्ब्राह्मणो नात्र संशयः । कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते
- जरां चैवाप्रतीकारां व्याधिभिश्चोपपीडनम् । क्लेशांश्च विविधांस्तांस्तान्मृत्युं एव च दुर्जयम्
- जराशोकसमाविष्टं रोगायतनं आतुरम् । रजस्वलं अनित्यं च भूतावासं इमं त्यजेत् ।
- जाङ्गलं सस्यसंपन्नं आर्यप्रायं अनाविलम् । रम्यं आनतसामन्तं स्वाजीव्यं देशं आवसेत्
- जातिजानपदान्धर्मान्श्रेणीधर्मांश्च धर्मवित् । समीक्ष्य कुलधर्मांश्च स्वधर्मं प्रतिपादयेत् । ।
- जातिभ्रंशकरं कर्म कृत्वान्यतमं इच्छया । चरेत्सांतपनं कृच्छ्रं प्राजापत्यं अनिच्छया ।
- जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद्ब्राह्मणब्रुवः । धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न तु शूद्रः कथं चन
- जातो नार्यां अनार्यायां आर्यादार्यो भवेद्गुणैः । जातोऽप्यनार्यादार्यायां अनार्य इति निश्चयः ।
- जातो निषादाच्छूद्रायां जात्या भवति पुक्कसः । शूद्राज्जातो निषाद्यां तु स वै कुक्कुटकः स्मृतः ।
- जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः । तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।
- जामयोऽप्सरसां लोके वैश्वदेवस्य बान्धवाः । संबन्धिनो ह्यपां लोके पृथिव्यां मातृमातुलौ ।
- जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ।
- जित्वा संपूजयेद्देवान्ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान् । प्रदद्यात्परिहारार्थं ख्यापयेदभयानि च ।
- जीनकार्मुकबस्तावीन्पृथग्दद्याद्विशुद्धये । चतुर्णां अपि वर्णानां नारीर्हत्वानवस्थिताः
- जीर्णोद्यानान्यरण्यानि कारुकावेशनानि च । शून्यानि चाप्यगाराणि वनान्युपवनानि च
- जीवन्तीनां तु तासां ये तद्धरेयुः स्वबान्धवाः । ताञ् शिष्याच्चौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः
- जीवसंज्ञोऽन्तरात्मान्यः सहजः सर्वदेहिनाम् । येन वेदयते सर्वं सुखं दुःखं च जन्मसु ।
- जीवितात्ययं आपन्नो योऽन्नं अत्ति ततस्ततः । आकाशं इव पङ्केन न स पापेन लिप्यते ।
- जीवेदेतेन राजन्यः सर्वेणाप्यनयं गतः । न त्वेव ज्यायंसीं वृत्तिं अभिमन्येत कर्हि चित् । ।
- ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः । कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते
- ज्ञातिसंबन्धिभिस्त्वेते त्यक्तव्याः कृतलक्षणाः । निर्दया निर्नमस्कारास्तन्मनोरनुशासनम्
- ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनो वार्युपाञ्जनम् । वायुः कर्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तॄणि देहिनाम् ।
- ज्ञाननिष्ठा द्विजाः के चित्तपोनिष्ठास्तथापरे । तपःस्वाध्यायनिष्ठाश्च कर्मनिष्ठास्तथापरे ।
- ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्नतः । हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेव चतुर्ष्वपि ।
- ज्ञानेनैवापरे विप्रा यजन्त्येतैर्मखैः सदा । ज्ञानमूलां क्रियां एषां पश्यन्तो ज्ञानचक्षुषा
- ज्ञानोत्कृष्टाय देयानि कव्यानि च हवींषि च । न हि हस्तावसृग्दिग्धौ रुधिरेणैव शुध्यतः
- ज्यायांसं अनयोर्विद्याद्यस्य स्याच्छ्रोत्रियः पिता । मन्त्रसंपूजनार्थं तु सत्कारं इतरोऽर्हति ।
- ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात्पित्र्यं धनं अशेषतः । शेषास्तं उपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा
- ज्येष्ठः कुलं वर्धयति विनाशयति वा पुनः । ज्येष्ठः पूज्यतमो लोके ज्येष्ठः सद्भिरगर्हितः
- ज्येष्ठता च निवर्तेत ज्येष्ठावाप्यं च यद्धनम् । ज्येष्ठांशं प्राप्नुयाच्चास्य यवीयान्गुणतोऽधिकः
- ज्येष्ठश्चैव कनिष्ठश्च संहरेतां यथोदितम् । येऽन्ये ज्येष्ठकनिष्ठाभ्यां तेषां स्यान्मध्यमं धनम्
- ज्येष्ठस्तु जातो ज्येष्ठायां हरेद्वृषभषोडशाः । ततः स्वमातृतः शेषा भजेरन्निति धारणा
- ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद्वरम् । ततोऽर्धं मध्यमस्य स्यात्तुरीयं तु यवीयसः ।
- ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः । पितॄणां अनृणश्चैव स तस्मात्सर्वं अर्हति
- ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान्वाग्रजस्त्रियम् । पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि
- ज्योतिषश्च विकुर्वाणादापो रसगुणाः स्मृताः । अद्भ्यो गन्धगुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः ।
- झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः । द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः ।
- झल्लो मल्लश्च राजन्याद्व्रात्यान्निच्छिविरेव च । नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च ।
- डिम्भाहवहतानां च विद्युता पार्थिवेन च । गोब्राह्मणस्य चैवार्थे यस्य चेच्छति पार्थिवः ।
- त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः । त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः
- तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं कामचारतः । निम्लोचेद्वाप्यविज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम् ।
- तं देशकालौ शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः । यथार्हतः संप्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु ।
- तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः । स्रग्विणं तल्प आसीनं अर्हयेत्प्रथमं गवा ।
- तं यस्तु द्वेष्टि संमोहात्स विनश्यत्यसंशयम् । तस्य ह्याशु विनाशाय राजा प्रकुरुते मनः
- तं राजा प्रणयन्सम्यक्त्रिवर्गेणाभिवर्धते । कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते
- तं हि स्वयंभूः स्वादास्यात्तपस्तप्त्वादितोऽसृजत् । हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये ।
- तडागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन वा । यद्वापि प्रतिसंस्कुर्याद्दाप्यस्तूत्तमसाहसम् ।
- तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च ।सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च ।
- ततः प्रभृति यो मोहात्प्रमीतपतिकां स्त्रियम् । नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति साधवः ।
- ततः स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः
- ततस्तथा स तेनोक्तो महर्षिमनुना भृगुः । तानब्रवीदृषीन्सर्वान्प्रीतात्मा श्रूयतां इति
- ततो दुर्गं च राष्ट्रं च लोकं च सचराचरम् । अन्तरिक्षगतांश्चैव मुनीन्देवांश्च पीडयेत् ।
- ततो भुक्तवतां तेषां अन्नशेषं निवेदयेत् । यथा ब्रूयुस्तथा कुर्यादनुज्ञातस्ततो द्विजैः ।
- तत्प्राज्ञेन विनीतेन ज्ञानविज्ञानवेदिना । आयुष्कामेन वप्तव्यं न जातु परयोषिति ।
- तत्र भुक्त्वा पुनः किं चित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तं यथाकालं उत्तिष्ठेच्च गतक्लमः
- तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किं चिदात्मनि लक्षयेत् । प्रशान्तं इव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत् । । १
- तत्र यद्ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।
- तत्र ये भोजनीयाः स्युर्ये च वर्ज्या द्विजोत्तमाः । यावन्तश्चैव यैश्चान्नैस्तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।
- तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत् । विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः ।
- तत्रात्मभूतैः कालज्ञैरहार्यैः परिचारकैः । सुपरीक्षितं अन्नाद्यं अद्यान्मन्त्रैर्विषापहैः
- तत्रापरिवृतं धान्यं विहिंस्युः पशवो यदि । न तत्र प्रणयेद्दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणाम् ।
- तत्रासीनः स्थितो वापि पाणिं उद्यम्य दक्षिणम् । विनीतवेषाभरणः पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम्
- तत्समुत्थो हि लोकस्य जायते वर्णसंकरः । येन मूलहरोऽधर्मः सर्वनाशाय कल्पते
- तत्सहायैरनुगतैर्नानाकर्मप्रवेदिभिः । विद्यादुत्सादयेच्चैव निपुणैः पूर्वतस्करैः
- तत्स्यादायुधसंपन्नं धनधान्येन वाहनैः । ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च ।
- तथा च श्रुतयो बह्व्यो निगीता निगमेष्वपि । स्वालक्षण्यपरीक्षार्थं तासां शृणुत निष्कृतीः
- तथा धरिममेयानां शतादभ्यधिके वधः । सुवर्णरजतादीनां उत्तमानां च वाससाम्
- तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ । यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्
- तथाऐव सप्तमे भक्ते भक्तानि षडनश्नता । अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हीनकर्मणः
- तथैवाक्षेत्रिणो बीजं परक्षेत्रप्रवापिणः । कुर्वन्ति क्षेत्रिणां अर्थं न बीजी लभते फलम् ।
- तदण्डं अभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः
- तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् । कुले महति संभूतां हृद्यां रूपगुणान्वीताम् ।
- तदा तु यानं आतिष्ठेदरिराष्ट्रं प्रति प्रभुः । तदानेन विधानेन यायादरिपुरं शनैः ।
- तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः । मनश्चावयवैः सूक्ष्मैः सर्वभूतकृदव्ययम् ।
- तद्वदन्धर्मतोऽर्थेषु जानन्नप्यन्य्था नरः । न स्वर्गाच्च्यवते लोकाद्दैवीं वाचं वदन्ति ताम् ।
- तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यं अहर्विदुः । रात्रिं च तावतीं एव तेऽहोरात्रविदो जनाः ।
- तन्तुवायो दशपलं दद्यादेकपलाधिकम् । अतोऽन्यथा वर्तमानो दाप्यो द्वादशकं दमम् । ।
- तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानं उच्यते । द्वापरे यज्ञं एवाहुर्दानं एकं कलौ युगे
- तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च । न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्
- तपसापनुनुत्सुस्तु सुवर्णस्तेयजं मलम् । चीरवासा द्विजोऽरण्ये चरेद्ब्रह्महणो व्रतम्
- तपसैव विशुद्धस्य ब्राह्मणस्य दिवौकसः । इज्याश्च प्रतिगृह्णन्ति कामान्संवर्धयन्ति च
- तपस्तप्त्वासृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट् । तं मां वित्तास्य सर्वस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः ।
- तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधं एव च । सृष्टिं ससर्ज चैवेमां स्रष्टुं इच्छन्निमाः प्रजाः
- तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम् । तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययामृतं अश्नुते ।
- तपोबीजप्रभावैस्तु ते गच्छन्ति युगे युगे । उत्कर्षं चापकर्षं च मनुष्येष्विह जन्मतः ।
- तपोमूलं इदं सर्वं दैवमानुषकं सुखम् । तपोमध्यं बुधैः प्रोक्तं तपोऽन्तं वेददर्शिभिः
- तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च विधिचोदितैः । वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना ।
- तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान् । प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः ।
- तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना । अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।
- तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते । सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यं एषां यथोत्तरम्
- तमोऽयं तु समाश्रित्य चिरं तिष्ठति सेन्द्रियः । न च स्वं कुरुते कर्म तदोत्क्रामति मूर्तितः ।
- तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा । तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते ।
- तस्मादविद्वान्बिभियाद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात् । स्वल्पकेनाप्यविद्वान्हि पङ्के गौरिव सीदति ।
- तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः । भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्करेषूत्सवेषु च ।
- तस्माद्धर्मं यं इष्टेषु स व्यवस्येन्नराधिपः । अनिष्टं चाप्यनिष्टेषु तं धर्मं न विचालयेत्
- तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः । धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्
- तस्माद्यम इव स्वामी स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये । वर्तेत याम्यया वृत्त्या जितक्रोधो जितेन्द्रियः
- तस्मिन्देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः । वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।
- तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् । स्वयं एवात्मनो ध्यानात्तदण्डं अकरोद्द्विधा
- तस्मिन्स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः । स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिं ऋच्छति । । १
- तस्य कर्मविवेकार्थं शेषाणां अनुपूर्वशः । स्वायंभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रं अकल्पयत् ।
- तस्य भृत्यजनं ज्ञात्वा स्वकुटुम्बान्महीपतिः । श्रुतशीले च विज्ञाय वृत्तिं धर्म्यां प्रकल्पयेत् ।
- तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद्गृहं आत्मनः । गुप्तं सर्वर्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम् ।
- तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च । भयाद्भोगाय कल्पन्ते स्वधर्मान्न चलन्ति च
- तस्य सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते । प्रतिबुद्धश्च सृजति मनः सदसदात्मकम् ।
- तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्मं आत्मजम् । ब्रह्मतेजोमयं दण्डं असृजत्पूर्वं ईश्वरः
- तस्याहुः संप्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम् । समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम् ।
- तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः । दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्प्रवर्तकम् ।
- तां विवर्जयतस्तस्य रजसा समभिप्लुताम् । प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रवर्धते ।
- ताडयित्वा तृणेनापि कण्ठे वाबध्य वाससा । विवादे वा विनिर्जित्य प्रणिपत्य प्रसादयेत् । ।
- ताडयित्वा तृणेनापि संरम्भान्मतिपूर्वकम् । एकविंशतीं आजातीः पापयोनिषु जायते
- तान्प्रजापतिराहैत्य मा कृध्वं विषमं समम् । श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतं अश्रद्धयेतरत् ।
- तान्विदित्वा सुचरितैर्गूढैस्तत्कर्मकारिभिः । चारैश्चानेकसंस्थानैः प्रोत्साद्य वशं आनयेत् ।
- तान्सर्वानभिसंदध्यात्सामादिभिरुपक्रमैः । व्यस्तैश्चैव समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च
- तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः । नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः
- तापसेष्वेव विप्रेषु यात्रिकं भैक्षं आहरेत् । गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेषु वनवासिषु । ।
- ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमिं च निर्ममे । मध्ये व्योम दिशश्चाष्टावपां स्थानं च शाश्वतम् ।
- तामिस्रं अन्धतामिस्रं महारौरवरौरवौ । नरकं कालसूत्रं च महानरकं एव च ।
- तामिस्रादिषु चोग्रेषु नरकेषु विवर्तनम् । असिपत्रवनादीनि बन्धनछेदनानि च ।
- ताम्रायःकांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च । शौचं यथार्हं कर्तव्यं क्षाराम्लोदकवारिभिः
- तावुभावप्यसंस्कार्याविति धर्मो व्यवस्थितः । वैगुण्याज्जन्मनः पूर्व उत्तरः प्रतिलोमतः
- तावुभौ भूतसंपृक्तौ महान्क्षेत्रज्ञ एव च । उच्चावचेषु भूतेषु स्थितं तं व्याप्य तिष्ठतः
- तासां आद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या । त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः ।
- तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्ल्प्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।
- तासां चेदवरुद्धानां चरन्तीनां मिथो वने । यां उत्प्लुत्य वृको हन्यान्न पालस्तत्र किल्बिषी ।
- तिरस्कृत्योच्चरेत्काष्ठ लोष्ठपत्रतृणादिना । नियम्य प्रयतो वाचं संवीताङ्गोऽवगुण्ठितः ।
- तिलैर्व्रीहियवैर्माषैरद्भिर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं तृप्यन्ति विधिवत्पितरो नृनाम् ।
- तिष्ठन्तीष्वनुतिष्ठेत्तु व्रजन्तीष्वप्यनुव्रजेत् । आसीनासु तथासीनो नियतो वीतमत्सरः
- तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः । तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राज भवति सम्मतः ।
- तीरितं चानुशिष्टं च यत्र क्व चन यद्भवेत् । कृतं तद्धर्मतो विद्यान्न तद्भूयो निवर्तयेत् । ।
- तुरीयो ब्रह्महत्यायाः क्षत्रियस्य वधे स्मृतः । वैश्येऽष्टमांशो वृत्तस्थे शूद्रे ज्ञेयस्तु षोडशः
- तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात्सुलक्षितम् । षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्
- तृणकाष्ठद्रुमाणां च शुष्कान्नस्य गुडस्य च । चेलचर्मामिषाणां च त्रिरात्रं स्यादभोजनम् ।
- तृणगुल्मलतानां च क्रव्यादां दंष्ट्रिणां अपि । क्रूरकर्मकृतां चैव शतशो गुरुतल्पगः ।
- तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता । एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदा चन
- ते चापि बाह्यान्सुबहूंस्ततोऽप्यधिकदूषितान् । परस्परस्य दारेषु जनयन्ति विगर्हितान् ।
- ते तं अर्थं अपृच्छन्त देवानागतमन्यवः । देवाश्चैतान्समेत्योचुर्न्याय्यं वः शिशुरुक्तवान्
- ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः समस्ताः सीम्नि निश्चयम् । निबध्नीयात्तथा सीमां सर्वांस्तांश्चैव नामतः
- ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः सीमासंधिषु लक्षणम् । तत्तथा स्थापयेद्राजा धर्मेण ग्रामयोर्द्वयोः
- ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः । कार्षापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः
- तेन यद्यत्सभृत्येन कर्तव्यं रक्षता प्रजाः । तत्तद्वोऽहं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ।
- तेनानुभूय ता यामीः शरीरेणेह यातनाः । तास्वेव भूतमात्रासु प्रलीयन्ते विभागशः
- तेभ्यो लब्धेन भैक्षेण वर्तयन्नेककालिकम् । उपस्पृशंस्त्रिषवणं त्वब्देन स विशुध्यति ।
- तेभ्योऽधिगच्छेद्विनयं विनीतात्मापि नित्यशः । विनीतात्मा हि नृपतिर्न विनश्यति कर्हि चित्
- तेषां अनुपरोधेन पारत्र्यं यद्यदाचरेत् । तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ।
- तेषां अर्थे नियुञ्जीत शूरान्दक्षान्कुलोद्गतान् । शुचीनाकरकर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने ।
- तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः । संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च
- तेषां आरक्षभूतं तु पूर्वं दैवं नियोजयेत् । रक्सांसि विप्रलुम्पन्ति श्राद्धं आरक्षवर्जितम्
- तेषां इदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम् । सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्यः संभवत्यव्ययाद्व्ययम्
- तेषां उदकं आनीय सपवित्रांस्तिलानपि । अग्नौ कुर्यादनुज्ञातो ब्राह्मणो ब्राह्मणैः सह
- तेषां ग्राम्याणि कार्यानि पृथक्कार्याणि चैव हि । राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः
- तेषां तु समावेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ । राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक्
- तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप उच्यते । न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्मं अन्यं समाचरेत् ।
- तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान्षण्णां अप्यमितौजसाम् । संनिवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे ।
- तेषां दत्त्वा तु हस्तेषु सपवित्रं तिलोदकम् । तत्पिण्डाग्रं प्रयच्छेत स्वधैषां अस्त्विति ब्रुवन् ।
- तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कर्मणि तत्त्वतः । कुर्वीत शासनं राजा सम्यक्सारापराधतः
- तेषां न दद्याद्यदि तु तद्धिरण्यं यथाविधि । उभौ निगृह्य दाप्यः स्यादिति धर्मस्य धारणा ।
- तेषां वेदविदो ब्रूयुस्त्रयोऽप्येनः सुनिष्कृतिम् । सा तेषां पावनाय स्यात्पवित्रा विदुषां हि वाक् ।
- तेषां सततं अज्ञानां वृषलाग्न्युपसेविनाम् । पदा मस्तकं आक्रम्य दाता दुर्गाणि संतरेत्
- तेषां स्वं स्वं अभिप्रायं उपलभ्य पृथक्पृथक् । समस्तानां च कार्येषु विदध्याद्धितं आत्मनः ।
- तेषु तेषु तु कृत्येषु तत्तदङ्गं विशिष्यते । येन यत्साध्यते कार्यं तत्तस्मिञ् श्रेष्ठं उच्यते
- तेषु सम्यग्वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम् । यथा संकल्पितांश्चेह सर्वान्कामान्समश्नुते ।
- तेऽभ्यासात्कर्मणां तेषां पापानां अल्पबुद्धयः । संप्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु तास्विह योनिषु ।
- तैः सार्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं संधिविग्रहम् । स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च ।
- तैजसानां मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च । भस्मनाद्भिर्मृदा चैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः । ।
- तौ तु जातौ परक्षेत्रे प्राणिनौ प्रेत्य चेह च । दत्तानि हव्यकव्यानि नाशयन्ति प्रदायिनाम्
- तौ धर्मं पश्यतस्तस्य पापं चातन्द्रितौ सह । याभ्यां प्राप्नोति संपृक्तः प्रेत्येह च सुखासुखम्
- त्यजेदाश्वयुजे मासि मुन्यन्नं पूर्वसंचितम् । जीर्णानि चैव वासांसि शाकमूलफलानि च ।
- त्रयः परार्थे क्लिश्यन्ति साक्षिणः प्रतिभूः कुलम् । चत्वारस्तूपचीयन्ते विप्र आढ्यो वणिङ्नृपः ।
- त्रयाणां अपि चैतेषां गुणानां त्रिषु तिष्ठताम् । इदं सामासिकं ज्ञेयं क्रमशो गुणलक्षणम्
- त्रयाणां अपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः । अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेष
- त्रयाणां अप्युपायानां पूर्वोक्तानां असंभवे । तथा युध्येत संपन्नो विजयेत रिपून्यथा ।
- त्रयाणां उदकं कार्यं त्रिषु पिण्डः प्रवर्तते । चतुर्थः संप्रदातैषां पञ्चमो नोपपद्यते ।
- त्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति । अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रहः ।
- त्रसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः । ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः ।
- त्रिणाचिकेतः पञ्चाग्निस्त्रिसुपर्णः षडङ्गवित् । ब्रह्मदेयात्मसन्तानो ज्येष्ठसामग एव च ।
- त्रिण्याद्यान्याश्रितास्त्वेषां मृगगर्ताश्रयाप्चराः । त्रीण्युत्तराणि क्रमशः प्लवंगमनरामराः ।
- त्रिदण्डं एतन्निक्षिप्य सर्वभूतेषु मानवः । कामक्रोधौ तु संयम्य ततः सिद्धिं नियच्छति ।
- त्रिपक्षादब्रुवन्साक्ष्यं ऋणादिषु नरोऽगदः । तदृणं प्राप्नुयात्सर्वं दशबन्धं च सर्वतः ।
- त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादं अदूदुहत् । तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः
- त्रिरह्नस्त्रिर्निशायां च सवासा जलं आविशेत् । स्त्रीशूद्रपतितांश्चैव नाभिभाषेत कर्हि चित्
- त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम् । खानि चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च ।
- त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम् । शरीरं शौचं इच्छन्हि स्त्री शूद्रस्तु सकृत्सकृत्
- त्रिरात्रं आहुराशौचं आचार्ये संस्थिते सति । तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रं इति स्थितिः ।
- त्रिवारं प्रतिरोद्धा वा सर्वस्वं अवजित्य वा । विप्रस्य तन्निमित्ते वा प्राणालाभे विमुच्यते
- त्रिविधा त्रिविधैषा तु विज्ञेया गौणिकी गतिः । अधमा मध्यमाग्र्या च कर्मविद्याविशेषतः
- त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् । त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ।
- त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम् । दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च
- त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रीन्लोकान्विजयेद्गृही । दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते । ।
- त्रिष्वेतेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते । एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते ।
- त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानां अकल्पयन् । अदृष्टं अद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते ।
- त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती । ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्
- त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः । त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचं अक्रोधं अत्वराम्
- त्रींस्तु तस्माद्धविःशेषात्पिण्डान्कृत्वा समाहितः । औदकेनैव विधिना निर्वपेद्दक्षिणामुखः । ।
- त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम् । आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकतः
- त्रैविद्यो हेतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः । त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्स्याद्दशावरा
- त्र्यब्दं चरेद्वा नियतो जटी ब्रह्महणो व्रतम् । वसन्दूरतरे ग्रामाद्वृक्षमूलनिकेतनः ।
- त्र्यंशं दायाद्धरेद्विप्रो द्वावंशौ क्षत्रियासुतः । वैश्याजः सार्धं एवांशं अंशं शूद्रासुतो हरेत् । ।
- त्र्यहं तूपवसेद्युक्तस्त्रिरह्नोऽभ्युपयन्नपः । मुच्यते पातकैः सर्वैस्त्रिर्जपित्वाघमर्षणम् ।
- त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहं अद्यादयाचितम् । त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः
- त्वं एको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः । अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो
- त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः । मांसभेत्ता तु षण्निष्कान्प्रवास्यस्त्वस्थिभेदकः
- दक्षिणासु च दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् । कृत्स्नं एव लभेतांशं अन्येनैव च कारयेत् ।
- दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत् । पश्चिमोत्तरपूर्वैस्तु यथायोगं द्विजन्मनः
- दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः
- दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा । वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा ।
- दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे । क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टं एतत्त्रिकं सदा ।
- दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धरश्चाकृतात्मभिः । धर्माद्विचलितं हन्ति नृपं एव सबान्धवम् ।
- दत्तस्यैषोदिता धर्म्या यथावदनपक्रिया । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वेतनस्यानपक्रियाम् ।
- दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम् । पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे ।
- ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश । सोमाय राज्ञे सत्कृत्य प्रीतात्मा सप्तविंशतिम् ।
- दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम् । यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः ।
- दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते । अशुद्धा बान्धवाः सर्वे सूतके च तथोच्यते
- दर्भाः पवित्रं पूर्वाह्णो हविष्याणि च सर्वशः । पवित्रं यच्च पूर्वोक्तं विज्ञेया हव्यसंपदः ।
- दर्शनप्रातिभाव्ये तु विधिः स्यात्पूर्वचोदितः । दानप्रतिभुवि प्रेते दायादानपि दापयेत्
- दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च । व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् । ।
- दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् । ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयत्येनसः पितॄन्
- दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्राः समधीयते । अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम् ।
- दश सूणासहस्राणि यो वाहयति सौनिकः । तेन तुल्यः स्मृतो राजा घोरस्तस्य प्रतिग्रहः ।
- दश स्थानानि दण्डस्य मनुः स्वयंभुवोऽब्रवीत् । त्रिषु वर्णेषु यानि स्युरक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् ।
- दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु ।
- दशलक्षणकं धर्मं अनुतिष्ठन्समाहितः । वेदान्तं विधिवच्छ्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः ।
- दशसूनासमं चक्रं दशचक्रसमो ध्वजः । दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो नृपः । ।
- दशाब्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलाभृताम् । त्र्यब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु
- दशावरा वा परिषद्यं धर्मं परिकल्पयेत् । त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत् । ।
- दशाहं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते । अर्वाक्संचयनादस्थ्नां त्र्यहं एकाहं एव वा
- दशी कुलं तु भुञ्जीत विंशी पञ्च कुलानि च । ग्रामं ग्रामशताध्यक्षः सहस्राधिपतिः पुरम् ।
- दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः । तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् । ।
- दातव्यं सर्ववर्णेभ्यो राज्ञा चौरैर्हृतं धनम् । राजा तदुपयुञ्जानश्चौरस्याप्नोति किल्बिषम्
- दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः संततिरेव च । श्रद्धा च नो मा व्यगमद्बहुदेयं च नोऽस्त्विति ।
- दातॄन्प्रतिग्रहीतॄंश्च कुरुते फलभागिनः । विदुषे दक्षिणां दत्त्वा विधिवत्प्रेत्य चेह च ।
- दानधर्मं निषेवेत नित्यं ऐष्टिकपौर्तिकम् । परितुष्टेन भावेन पात्रं आसाद्य शक्तितः
- दानेन वधनिर्णेकं सर्पादीनां अशक्नुवन् । एकैकशश्चरेत्कृच्छ्रं द्विजः पापापनुत्तये । ।
- दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते । परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः
- दाराधिगमनं चैव विवाहानां च लक्षणम् । महायज्ञविधानं च श्राद्धकल्पं च शाश्वतम्
- दासी घटं अपां पूर्णं पर्यस्येत्प्रेतवत्पदा । अहोरात्रं उपासीरन्नशौचं बान्धवैः सह ।
- दास्यं तु कारयंल्लोभाद्ब्राह्मणः संस्कृतान्द्विजान् । अनिच्छतः प्राभवत्याद्राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् ।
- दास्यां वा दासदास्यां वा यः शूद्रस्य सुतो भवेत् । सोऽनुज्ञातो हरेदंशं इति धर्मो व्यवस्थितः
- दिवा चरेयुः कार्यार्थं चिह्निता राजशासनैः । अबान्धवं शवं चैव निर्हरेयुरिति स्थितिः ।
- दिवा वक्तव्यता पाले रात्रौ स्वामिनि तद्गृहे । योगक्षेमेऽन्यथा चेत्तु पालो वक्तव्यतां इयात् ।
- दिवाकीर्तिं उदक्यां च पतितं सूतिकां तथा । शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति
- दिवानुगच्छेद्गास्तास्तु तिष्ठन्नूर्ध्वं रजः पिबेत् । शुश्रूषित्वा नमस्कृत्य रात्रौ वीरासनं वसेत्
- दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत् । नदीतीरेषु तद्विद्यात्समुद्रे नास्ति लक्षणम्
- दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ।
- दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः । सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात् ।
- दूत एव हि संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान् । दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवः ।
- दूतं चैव प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम् । इङ्गिताकारचेष्टज्ञं शुचिं दक्षं कुलोद्गतम्
- दूतसंप्रेषणं चैव कार्यशेषं तथैव च । अन्तःपुरप्रचारं च प्रणिधीनां च चेष्टितम्
- दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः । यानासनस्थश्चैवैनं अवरुह्याभिवादयेत् । ।
- दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् । उच्छिष्टान्ननिषेकं च दूरादेव समाचरेत् ।
- दूरादाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्विहायसि । सायंः प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निं अतन्द्रितः
- दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणं वेदपारगम् । तीर्थं तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोऽतिथिः स्मृतः
- दूषितोऽपि चरेद्धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः । समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ।
- दृढकारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन् । अहिंस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः ।
- दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।
- देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां आत्मनश्च यः । न निर्वपति पञ्चानां उच्छ्वसन्न स जीवति
- देवतानां गुरो राज्ञः स्नातकाचार्ययोस्तथा । नाक्रामेत्कामतश्छायां बभ्रुणो दीक्षितस्य च ।
- देवताभ्यस्तु तद्धुत्वा वन्यं मेध्यतरं हविः । शेषं आत्मनि युञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम् ।
- देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः । तिर्यक्त्वं तामसा नित्यं इत्येषा त्रिविधा गतिः ।
- देवदत्तां पतिर्भार्यां विन्दते नेच्छयात्मनः । तां साध्वीं बिभृयान्नित्यं देवानां प्रियं आचरन् ।
- देवदानवगन्धर्वा रक्षांसि पतगोरगाः । तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनैव निपीडिताः
- देवब्राह्मणसांनिध्ये साक्ष्यं पृच्छेदृतं द्विजान् । उदङ्मुखान्प्राङ्मुखान्वा पूर्वाह्णे वै शुचिः शुचीन्
- देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया । प्रजेप्सिताआधिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये ।
- देवस्वं ब्राह्मणस्वं वा लोभेनोपहिनस्ति यः । स पापात्मा परे लोके गृध्रोच्छिष्टेन जीवति ।
- देवानृषीन्मनुष्यांश्च पितॄन्गृह्याश्च देवताः । पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थः शेषभुग्भवेत् ।
- देशधर्माञ् जातिधर्मान्कुलधर्मांश्च शाश्वतान् । पाषण्डगणधर्मांश्च शास्त्रेऽस्मिन्नुक्तवान्मनुः
- देहादुत्क्रमणं चाष्मात्पुनर्गर्भे च संभवम् । योनिकोटिसहस्रेषु सृतीश्चास्यान्तरात्मनः ।
- दैत्यदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् । सुपर्णकिन्नराणां च स्मृता बर्हिषदोऽत्रिजाः
- दैवकार्याद्द्विजातीनां पितृकार्यं विशिष्यते । दैवं हि पितृकार्यस्य पूर्वं आप्यायनं स्मृतम् ।
- दैवतान्यभिगच्छेत्तु धार्मिकांश्च द्विजोत्तमान् । ईश्वरं चैव रक्षार्थं गुरूनेव च पर्वसु । ।
- दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु । नाश्नन्ति पितृदेवास्तन्न च स्वर्गं स गच्छति ।
- दैवाद्यन्तं तदीहेत पित्राद्यन्तं न तद्भवेत् । पित्राद्यन्तं त्वीहमानः क्षिप्रं नश्यति सान्वयः
- दैविकानां युगानां तु सहस्रं परिसंख्यया । ब्राह्मं एकं अहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिं एव च
- दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः । अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्
- दैवोढाजः सुतश्चैव सप्त सप्त परावरान् । आर्षोढाजः सुतस्त्रींस्त्रीन्षट्षट्कायोढजः सुतः ।
- दौहित्रो ह्यखिलं रिक्थं अपुत्रस्य पितुर्हरेत् । स एव दद्याद्द्वौ पिण्डौ पित्रे मातामहाय च
- द्यूतं एतत्पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं महत् । तस्माद्द्यूतं न सेवेत हास्यार्थं अपि बुद्धिमान् ।
- द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम् । स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भं उपघातं परस्य च
- द्यूतं समाह्वयं चैव यः कुर्यात्कारयेत वा । तान्सर्वान्घातयेद्राजा शूद्रांश्च द्विजलिङ्गिनः
- द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रान्निवारयेत् । राजान्तकरणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवीक्षिताम्
- द्यौर्भूमिरापो हृदयं चन्द्रार्काग्नियमानिलाः । रात्रिः संध्ये च धर्मश्च वृत्तज्ञाः सर्वदेहिनाम् ।
- द्रवाणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम् । प्रोक्षणं संहतानां च दारवाणां च तक्षणम् ।
- द्रव्याणां अल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्यवेश्मतः । चरेत्सांतपनं कृच्छ्रं तन्निर्यात्यात्मशुद्धये । ।
- द्रव्याणि हिंस्याद्यो यस्य ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा । स तस्योत्पादयेत्तुष्टिं राज्ञे दद्याच्च तत्समम् ।
- द्वयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः । तं यत्नेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ
- द्वयोस्त्रयाणां पञ्चानां मध्ये गुल्मं अधिष्ठितम् । तथा ग्रामशतानां च कुर्याद्राष्ट्रस्य संग्रहम् ।
- द्वावेव वर्जयेन्नित्यं अनध्यायौ प्रयत्नतः । स्वाध्यायभूमिं चाशुद्धं आत्मानं चाशुचिं द्विजः । ।
- द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पञ्चकं च शतं समम् । मासस्य वृद्धिं गृह्णीयाद्वर्णानां अनुपूर्वशः । ।
- द्विकं शतं वा गृह्णीयात्सतां धर्मं अनुस्मरन् । द्विकं शतं हि गृह्णानो न भवत्यर्थकिल्बिषी
- द्विजातयः सवर्णासु जनयन्त्यव्रतांस्तु यान् । तान्सावित्रीपरिभ्रष्टान्व्रात्यानिति विनिर्दिशेत् ।
- द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिर्द्वाविक्षू द्वे च मूलके । आददानः परक्षेत्रान्न दण्डं दातुं अर्हति ।
- द्वितीयं एके प्रजनं मन्यन्ते स्त्रीषु तद्विदः । अनिर्वृतं नियोगार्थं पश्यन्तो धर्मतस्तयोः
- द्विधा कृत्वात्मनो देहं अर्धेन पुरुषोऽभवत् । अर्धेन नारी तस्यां स विराजं असृजत्प्रभुः ।
- द्विविधांस्तस्करान्विद्यात्परद्रव्यापहारकान् । प्रकाशांश्चाप्रकाशांश्च चारचक्षुर्महीपतिः
- द्वौ तु यौ विवदेयातां द्वाभ्यां जातौ स्त्रिया धने । तयोर्यद्यस्य पित्र्यं स्यात्तत्स गृह्णीत नेतरः
- द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकं उभयत्र वा । भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे
- द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान्हारिणेन तु । औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै
- धनं यो बिभृयाद्भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियं एव च । सोऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात्तस्यैव तद्धनम् ।
- धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत् । वेदवित्सु विविक्तेषु प्रेत्य स्वर्गं समश्नुते
- धनुःशतं परीहारो ग्रामस्य स्यात्समन्ततः । शम्यापातास्त्रयो वापि त्रिगुणो नगरस्य तु
- धनुःशराणां कर्ता च यश्चाग्रेदिधिषूपतिः । मित्रध्रुग्द्यूतवृत्तिश्च पुत्राचार्यस्तथैव च । ।
- धन्वदुर्गं महीदुर्गं अब्दुर्गं वार्क्षं एव वा । नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत्पुरम्
- धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः । चतुःसौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः ।
- धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्
- धर्मं शनैः संचिनुयाद्वल्मीकं इव पुत्तिकाः । परलोकसहायार्थं सर्वभूतान्यपीडयन् ।
- धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिं एव च । अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते
- धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भकः । बैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसंधकः
- धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्बिषम् । परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।
- धर्मस्य ब्राह्मणो मूलं अग्रं राजन्य उच्यते । तस्मात्समागमे तेषां एनो विख्याप्य शुध्यति
- धर्मार्थं येन दत्तं स्यात्कस्मै चिद्याचते धनम् । पश्चाच्च न तथा तत्स्यान्न देयं तस्य तद्भवेत् ।
- धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थौ धर्म एव च । अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः
- धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा वापि तद्विधा । तत्र विद्या न वप्तव्या शुभं बीजं इवोषरे
- धर्मासनं अधिष्ठाय संवीताङ्गः समाहितः । प्रणम्य लोकपालेभ्यः कार्यदर्शनं आरभेत्
- धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नं उत्तमम् । दद्याच्च सर्वभूतानां अन्नं एव प्रयत्नतः
- धर्मेण व्यवहारेण छलेनाचरितेन च । प्रयुक्तं साधयेदर्थं पञ्चमेन बलेन च ।
- धर्मेणाधिगतो यैस्तु वेदः सपरिबृंहणः । ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः
- धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां वृत्तं अनुष्ठिताः । मन्त्रवर्ज्यं न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च ।
- धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते । शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः
- धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणां अस्य कुर्वतः । तप्तं आसेचयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः
- धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः । शेषेऽप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद्धनम्
- धान्यं हृत्वा भवत्याखुः कांस्यं हंसो जलं प्लवः । मधु दंशः पयः काको रसं श्वा नकुलो घृतम् ।
- धान्यकुप्यपशुस्तेयं मद्यपस्त्रीनिषेवणम् । स्त्रीशूद्रविट्क्षत्रवधो नास्तिक्यं चोपपातकम् ।
- धान्यान्नधनचौर्याणि कृत्वा कामाद्द्विजोत्तमः । स्वजातीयगृहादेव कृच्छ्राब्देन विशुध्यति ।
- धान्येऽष्टमं विशां शुल्कं विंशं कार्षापणावरम् । कर्मोपकरणाः शूद्राः कारवः शिल्पिनस्तथा
- धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।
- ध्यानिकं सर्वं एवैतद्यदेतदभिशब्दितम् । न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलं उपाश्नुते
- ध्यायत्यनिष्टं यत्किं चित्पाणिग्राहस्य चेतसा । तस्यैष व्यभिचारस्य निह्नवः सम्यगुच्यते
- ध्रियमाणे तु पितरि पूर्वेषां एव निर्वपेत् । विप्रवद्वापि तं श्राद्धे स्वकं पितरं आशयेत्
- ध्वजाहृतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्त्रिमौ । पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ।
- न कदा चिद्द्विजे तस्माद्विद्वानवगुरेदपि । न ताडयेत्तृणेनापि न गात्रात्स्रावयेदसृक् । ।
- न कन्यायाः पिता विद्वान्गृह्णीयाच्छुल्कं अण्वपि । गृह्णञ् शुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी
- न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम् । एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम् ।
- न कुर्वीत वृथाचेष्टां न वार्यञ्जलिना पिबेत् । नोत्सङ्गे भक्षयेद्भक्ष्यान्न जातु स्यात्कुतूहली । ।
- न कूटैरायुधैर्हन्याद्युध्यमानो रणे रिपून् । न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततेजनैः
- न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति । वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन ।
- न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम् । न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्
- न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्गविद्यया । नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत कर्हि चित्
- न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।
- न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम् । राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनं अक्षतम् ।
- न तं स्तेना न चामित्रा हरन्ति न च नश्यति । तस्माद्राज्ञा निधातव्यो ब्राह्मणेष्वक्षयो निधिः
- न तथैतानि शक्यन्ते संनियन्तुं असेवया । विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः
- न तस्मिन्धारयेद्दण्डं धार्मिकः पृथिवीपतिः । क्षत्रियस्य हि बालिश्याद्ब्राह्मणः सीदति क्षुधा
- न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः । यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः
- न तापसैर्ब्राह्मणैर्वा वयोभिरपि वा श्वभिः । आकीर्णं भिक्षुकैर्वान्यैरगारं उपसंव्रजेत् । । ६
- न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् । स शूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद्द्विजकर्मणः ।
- न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः । यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः
- न तैः समयं अन्विच्छेत्पुरुषो धर्मं आचरन् । व्यवहारो मिथस्तेषां विवाहः सदृशैः सह ।
- न त्वेवाधौ सोपकारे कौसीदीं वृद्धिं आप्नुयात् । न चाधेः कालसंरोधान्निसर्गोऽस्ति न विक्रयः । ।
- न दत्त्वा कस्य चित्कन्यां पुनर्दद्याद्विचक्षणः । दत्त्वा पुनः प्रयच्छन्हि प्राप्नोति पुरुषानृतम् ।
- न द्रव्याणां अविज्ञाय विधिं धर्म्यं प्रतिग्रहे । प्राज्ञः प्रतिग्रहं कुर्यादवसीदन्नपि क्षुधा ।
- न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत् । व्रतेन पापं प्रच्छाद्य कुर्वन्स्त्रीशूद्रदम्भनम् । ।
- न निर्हारं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद्बहुमध्यगात् । स्वकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया ।
- न निष्क्रयविसर्गाभ्यां भर्तुर्भार्या विमुच्यते । एवं धर्मं विजानीमः प्राक्प्रजापतिनिर्मितम्
- न नृत्येदथ वा गायेन्न वादित्राणि वादयेत्] । नास्फोटयेन्न च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरावयेत्
- न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलोऽनृजुः । न स्याद्वाक्चपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः ।
- न पादौ धावयेत्कांस्ये कदा चिदपि भाजने । न भिन्नभाण्डे भुञ्जीत न भावप्रतिदूषिते ।
- न पूर्वं गुरवे किं चिदुपकुर्वीत धर्मवित् । स्नास्यंस्तु गुरुणाज्ञप्तः शक्त्या गुर्वर्थं आहरेत् ।
- न पैतृयज्ञियो होमो लौकिकेऽग्नौ विधीयते । न दर्शेन विना श्राद्धं आहिताग्नेर्द्विजन्मनः ।
- न फालकृष्टं अश्नीयादुत्सृष्टं अपि केन चित् । न ग्रामजातान्यार्तोऽपि मूलाणि च फलानि च
- न फालकृष्टे न जले न चित्यां न च पर्वते । न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदा चन
- न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित् । पित्र्ये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नतः ।
- न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः । कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते ।
- न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि । तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत् ।
- न ब्राह्मणस्य त्वतिथिर्गृहे राजन्य उच्यते । वैश्यशूद्रौ सखा चैव ज्ञातयो गुरुरेव च । ।
- न ब्राह्मणो वेदयेत किं चिद्राजनि धर्मवित् । स्ववीर्येणैव ताञ् शिष्यान्मानवानपकारिणः
- न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् । न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते
- न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान् । भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान्सर्वान्पञ्चनखांस्तथा
- न भुञ्जीतोद्धृतस्नेहं नातिसौहित्यं आचरेत् । नातिप्रगे नातिसायं न सायं प्रातराशितः
- न भोक्तव्यो बलादाधिर्भुञ्जानो वृद्धिं उत्सृजेत् । मूल्येन तोषयेच्चैनं आधिस्तेनोऽन्यथा भवेत् ।
- न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत् । भोजनार्थं हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः
- न भ्रातरो न पितरः पुत्रा रिक्थहराः पितुः । पिता हरेदपुत्रस्य रिक्थं भ्रातर एव च
- न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागं अर्हति । त्यजन्नपतितानेतान्राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्
- न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।
- न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वा धनागमात् । समुत्सृजेत्साहसिकान्सर्वभूतभयावहान् ।
- न मृल्लोष्ठं च मृद्नीयान्न छिन्द्यात्करजैस्तृणम् । न कर्म निष्फलं कुर्यान्नायत्यां असुखोदयम्
- न यज्ञार्थं धनं शूद्राद्विप्रो भिक्षेत कर्हि चित् । यजमानो हि भिक्षित्वा चण्डालः प्रेत्य जायते । ।
- न राज्ञः प्रतिगृह्णीयादराजन्यप्रसूतितः । सूनाचक्रध्वजवतां वेशेनैव च जीवताम् ।
- न राज्ञां अघदोषोऽस्ति व्रतिनां न च सत्त्रिणाम् । ऐन्द्रं स्थानं उपासीना ब्रह्मभूता हि ते सदा
- न र्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम् । न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषननामिकाम्
- न लङ्घयेद्वत्सतन्त्रीं न प्रधावेच्च वर्षति । न चोदके निरीक्षेत स्वरूपं इति धारणा ।
- न लोकवृत्तं वर्तेत वृत्तिहेतोः कथं चन । अजिह्मां अशथां शुद्धां जीवेद्ब्राह्मणजीविकाम्
- न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः । न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत्
- न वारयेद्गां धयन्तीं न चाचक्षीत कस्य चित् । न दिवीन्द्रायुधं दृष्ट्वा कस्य चिद्दर्शयेद्बुधः । ।
- न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रतिके द्विजे । न बकव्रतिके पापे नावेदविदि धर्मवित्
- न विगर्ह्य कथां कुर्याद्बहिर्माल्यं न धारयेत् । गवां च यानं पृष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम् ।
- न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत् । अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता ।
- न विवादे न कलहे न सेनायां न संगरे । न भुक्तमात्रे नाजीर्णे न वमित्वा न शुक्तके ।
- न विस्मयेत तपसा वदेदिष्ट्वा च नानृतम् । नार्तोऽप्यपवदेद्विप्रान्न दत्त्वा परिकीर्तयेत् ।
- न वृथा शपथं कुर्यात्स्वल्पेऽप्यर्थे नरो बुधः । वृथा हि शपथं कुर्वन्प्रेत्य चेह च नश्यति । ।
- न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः । होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा । ।
- न वै तान्स्नातकान्विद्याद्ब्राह्मणान्धर्मभिक्षुकान् । निःस्वेभ्यो देयं एतेभ्यो दानं विद्याविशेषतः ।
- न वै स्वयं तदश्नीयादतिथिं यन्न भोजयेत् । धन्यं यशस्यं आयुष्यं स्वर्ग्यं वातिथिपूजनम्
- न शूद्रराज्ये निवसेन्नाधार्मिकजनावृते । न पाषण्डिगणाक्रान्ते नोपस्षृटेऽन्त्यजैर्नृभिः
- न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् । न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतं आदिशेत् ।
- न शूद्रे पातकं किं चिन्न च संस्कारं अर्हति । नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम्
- न श्राद्धे भोजयेन्मित्रं धनैः कार्योऽस्य संग्रहः । नारिं न मित्रं यं विद्यात्तं श्राद्धे भोजयेद्द्विजम् ।
- न संभाषां परस्त्रीभिः प्रतिषिद्धः समाचरेत् । निषिद्धो भाषमाणस्तु सुवर्णं दण्डं अर्हति
- न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालैर्न पुल्कसैः । न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः
- न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन्नपि न स्थितः । न नदीतीरं आसाद्य न च पर्वतमस्तके
- न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः । न स्पृशेच्चैतदुच्छिष्टो न च स्नायाद्विना ततः
- न साक्षी नृपतिः कार्यो न कारुककुशीलवौ । न श्रोत्रियो न लिङ्गस्थो न सङ्गेभ्यो विनिर्गतः
- न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् । अधार्मिकानां पापानां आशु पश्यन्विपर्ययम् ।
- न सीदेत्स्नातको विप्रः क्षुधा शक्तः कथं चन । न जीर्णमलवद्वासा भवेच्च विभवे सति
- न सुप्तं न विसंनाहं न नग्नं न निरायुधम् । नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम् ।
- न स्कन्दते न व्यथते न विनश्यति कर्हि चित् । वरिष्ठं अग्निहोत्रेभ्यो ब्राह्मणस्य मुखे हुतम् ।
- न स्नानं आचरेद्भुक्त्वा नातुरो न महानिशि । न वासोभिः सहाजस्रं नाविज्ञाते जलाशये । ।
- न स्पृशेत्पाणिनोच्छिष्टो विप्रो गोब्राह्मणानलाण् । न चापि पश्येदशुचिः सुस्थो ज्योतिर्गणान्दिवा ।
- न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद्विमुच्यते । निसर्गजं हि तत्तस्य कस्तस्मात्तदपोहति ।
- न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः । ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्
- न हि दण्डादृते शक्यः कर्तुं पापविनिग्रहः । स्तेनानां पापबुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ ।
- न हीदृशं अनायुष्यं लोके किं चन विद्यते । यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् । ।
- न होढेन विना चौरं घातयेद्धार्मिको नृपः । सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन् । ।
- नक्तं चान्नं समश्नीयाद्दिवा वाहृत्य शक्तितः । चतुर्थकालिको वा स्यात्स्याद्वाप्यष्टमकालिकः
- नगरे नगरे चैकं कुर्यात्सर्वार्थचिन्तकम् । उच्चैःस्थानं घोररूपं नक्षत्राणां इव ग्रहम् ।
- नग्नो मुण्डः कपालेन च भिक्षार्थी क्षुत्पिपासितः । अन्धः शत्रुकुलं गच्छेद्यः साक्ष्यं अनृतं वदेत् ।
- नदीकूलं यथा वृक्षो वृक्षं वा शकुनिर्यथा । तथा त्यजन्निमं देहं कृच्छ्राद्ग्राहाद्विमुच्यते ।
- नदीषु देवखातेषु तडागेषु सरःसु च । स्नानं समाचरेन्नित्यं गर्तप्रस्रवणेषु च ।
- नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च यस्य तत् । तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः ।
- नवेनानर्चिता ह्यस्य पशुहव्येन चाग्नयः । प्राणानेवात्तुं इच्छन्ति नवान्नामिषगर्धिनः
- नश्यतीषुर्यथा विद्धः खे विद्धं अनुविध्यतः । तथा नश्यति वै क्षिप्रं बीजं परपरिग्रहे । ।
- नश्यन्ति हव्यकव्यानि नराणां अविजानताम् । भस्मीभूतेषु विप्रेषु मोहाद्दत्तानि दातृभिः
- नष्टं विनष्टं कृमिभिः श्वहतं विषमे मृतम् । हीनं पुरुषकारेण प्रदद्यात्पाल एव तु
- नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसं उत्पद्यते क्व चित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्
- नाक्षैर्दीव्येत्कदा चित्तु स्वयं नोपानहौ हरेत् । शयनस्थो न भुञ्जीत न पाणिस्थं न चासने
- नाग्निं मुखेनोपधमेन्नग्नां नेक्षेत च स्त्रियम् । नामेध्यं प्रक्षिपेदग्नौ न च पादौ प्रतापयेत् ।
- नाञ्जयन्तीं स्वके नेत्रे न चाभ्यक्तां अनावृताम् । न पश्येत्प्रसवन्तीं च तेजस्कामो द्विजोत्तमः ।
- नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन । प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युं ऋच्छति
- नातिकल्यं नातिसायं नातिमध्यंदिने स्थिते । नाज्ञातेन समं गच्छेन्नैको न वृषलैः सह । । ४.
- नातिसांवत्सरीं वृद्धिं न चादृष्टां पुनर्हरेत् । चक्रवृद्धिः कालवृद्धिः कारिता कायिका च या
- नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च । ।
- नात्मानं अवमन्येत पुर्वाभिरसमृद्धिभिः । आ मृत्योः श्रियं अन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ।
- नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया । जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापि कृते सति । ।
- नाददीत नृपः साधुर्महापातकिनो धनम् । आददानस्तु तल्लोभात्तेन दोषेण लिप्यते
- नाद्याच्छूद्रस्य पक्वान्नं विद्वानश्राद्धिनो द्विजः । आददीतामं एवास्मादवृत्तावेकरात्रिकम् । ।
- नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः । जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेतस्तैरद्यतेऽवशः ।
- नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । शनैरावर्त्यमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति
- नाधर्मिके वसेद्ग्रामे न व्याधिबहुले भृशम् । नैकः प्रपद्येताध्वानं न चिरं पर्वते वसेत् ।
- नाधीयीत श्मशानान्ते ग्रामान्ते गोव्रजेऽपि वा । वसित्वा मैथुनं वासः श्राद्धिकं प्रतिगृह्य च । ।
- नाधीयीताश्वं आरूढो न वृक्षं न च हस्तिनम् । न नावं न खरं नोष्ट्रं नेरिणस्थो न यानगः ।
- नाध्यधीनो न वक्तव्यो न दस्युर्न विकर्मकृत् । न वृद्धो न शिशुर्नैको नान्त्यो न विकलेन्द्रियः
- नाध्यापनाद्याजनाद्वा गर्हिताद्वा प्रतिग्रहात् । दोषो भवति विप्राणां ज्वलनाम्बुसमा हि ते ।
- नानिष्ट्वा नवसस्येष्ट्या पशुना चाग्निमान्द्विजः । नवान्नं अद्यान्मांसं वा दीर्घं आयुर्जिजीविषुः
- नानुशुश्रुम जात्वेतत्पूर्वेष्वपि हि जन्मसु । शुल्कसंज्ञेन मूल्येन छन्नं दुहितृविक्रयम् ।
- नान्नं अद्यादेकवासा न नग्नः स्नानं आचरेत् । न मूत्रं पथि कुर्वीत न भस्मनि न गोव्रजे ।
- नान्यदन्येन संसृष्ट रूपं विक्रयं अर्हति । न चासारं न च न्यूनं न दूरेण तिरोहितम् ।
- नान्यस्मिन्विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः । अन्यस्मिन्हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम् ।
- नान्योत्पन्ना प्रजास्तीह न चाप्यन्यपरिग्रहे । न द्वितीयश्च साध्वीनां क्व चिद्भर्तोपदिश्यते
- नापृष्टः कस्य चिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः । जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ।
- नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठीवनं वा समुत्सृजेत् । अमेध्यलिप्तं अन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा ।
- नाब्रह्म क्षत्रं ऋध्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते । ब्रह्म क्षत्रं च संपृक्तं इह चामुत्र वर्धते ।
- नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासं आत्यन्तिकं वसेत् । ब्राह्मणे वाननूचाने काङ्क्षन्गतिं अनुत्तमाम् । ।
- नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् । कालं एव प्रतीक्षेत निर्वेशं भृतको यथा ।
- नाभिव्याहारयेद्ब्रह्म स्वधानिनयनादृते । शूद्रेण हि समस्तावद्यावद्वेदे न जायते
- नामजातिग्रहं त्वेषां अभिद्रोहेण कुर्वतः । निक्षेप्योऽयोमयः शङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः । ।
- नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् । पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते
- नामधेयस्य ये के चिदभिवादं न जानते । तान्प्राज्ञोऽहं इति ब्रूयात्स्त्रियः सर्वास्तथैव च ।
- नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः । न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।
- नायुधव्यसनप्राप्तं नार्तं नातिपरिक्षतम् । न भीतं न परावृत्तं सतां धर्मं अनुस्मरन् ।
- नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति । आचम्यैव तु निःस्नेहं गां आलभ्यार्कं ईक्ष्य वा
- नारुंतुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः । ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तां उदीरयेत् ।
- नार्तो न मत्तो नोन्मत्तो न क्षुत्तृष्णोपपीडितः । न श्रमार्तो न कामार्तो न क्रुद्धो नापि तस्करः
- नार्थसंबन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः । न दृष्टदोषाः कर्तव्या न व्याध्यार्ता न दूषिताः
- नाविनीतैर्भजेद्धुर्यैर्न च क्षुध्व्याधिपीडितैः । न भिन्नशृङ्गाक्षिखुरैर्न वालधिविरूपितैः
- नाविस्पष्टं अधीयीत न शूद्रजनसन्निधौ । न निशान्ते परिश्रान्तो ब्रह्माधीत्य पुनः स्वपेत् ।
- नाश्नन्ति पितरस्तस्य दशवर्षाणि पञ्च च । न च हव्यं वहत्यग्निर्यस्तां अभ्यवमन्यते ।
- नाश्नीयात्संधिवेलायां न गच्छेन्नापि संविशेत् । न चैव प्रलिखेद्भूमिं नात्मनोऽपहरेत्स्रजम् ।
- नाश्नीयाद्भार्यया सार्धं नैनां ईक्षेत चाश्नतीम् । क्षुवतीं जृम्भमाणां वा न चासीनां यथासुखम् ।
- नाश्रोत्रियतते यज्ञे ग्रामयाजिकृते तथा । स्त्रिया क्लीबेन च हुते भुञ्जीत ब्राह्मणः क्व चित्
- नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः । निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्योऽनृतं इति स्थितिः
- नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् । पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते ।
- नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम् । द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत् । ।
- नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्योदकक्रिया । अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहं एव तु
- नास्य छिद्रं परो विद्याद्विद्याच्छिद्रं परस्य च । गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरं आत्मनः ।
- नास्रं आपातयेज्जातु न कुप्येन्नानृतं वदेत् । न पादेन स्पृशेदन्नं न चैतदवधूनयेत् । ।
- निक्षिप्तस्य धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च । राजा विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन्न्यासधारिणम् । ।
- निक्षेपस्यापहरणं नराश्वरजतस्य च । भूमिवज्रमणीनां च रुक्मस्तेयसमं स्मृतम्
- निक्षेपस्यापहर्तारं अनिक्षेप्तारं एव च । सर्वैरुपायैरन्विच्छेच्छपथैश्चैव वैदिकैः
- निक्षेपस्यापहर्तारं तत्समं दापयेद्दमम् । तथोपनिधिहर्तारं अविशेषेण पार्थिवः ।
- निक्षेपेष्वेषु सर्वेषु विधिः स्यात्परिसाधने । समुद्रे नाप्नुयात्किं चिद्यदि तस्मान्न संहरेत्
- निक्षेपो यः कृतो येन यावांश्च कुलसंनिधौ । तावानेव स विज्ञेयो विब्रुवन्दण्डं अर्हति । ।
- निक्षेपोपनिधी नित्यं न देयौ प्रत्यनन्तरे । नश्यतो विनिपाते तावनिपाते त्वनाशिनौ
- निगृह्य दापयेच्चैनं समयव्यभिचारिणम् । चतुःसुवर्णान्षण्निष्कांश्छतमानं च राजकम् । ।
- निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद्योऽरिबलस्य च । उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा ।
- निग्रहेण हि पापानां साधूनां संग्रहेण च । द्विजातय इवेज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः
- नित्यं आस्यं शुचि स्त्रीणां शकुनिः फलपातने । प्रस्रवे च शुचिर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः
- नित्यं उद्धृतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंवृतः । आस्यतां इति चोक्तः सन्नासीताभिमुखं गुरोः ।
- नित्यं उद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः । नित्यं संवृतसंवार्यो नित्यं छिद्रानुसार्यरेः । । ७
- नित्यं उद्यतदण्डस्य कृत्स्नं उद्विजते जगत् । तस्मात्सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत्
- नित्यं तस्मिन्समाश्वस्तः सर्वकार्याणि निःक्षिपेत् । तेन सार्धं विनिश्चित्य ततः कर्म समारभेत् ।
- नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम् । ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यं इति स्थितिः
- नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानं एव च ।
- नित्यानध्याय एव स्याद्ग्रामेषु नगरेषु च । धर्मनैपुण्यकामानां पूतिगन्धे च सर्वदा
- निधीनां तु पुराणानां धातूनां एव च क्षितौ । अर्धभाग्रक्षणाद्राजा भूमेरधिपतिर्हि सः ।
- निन्दितेभ्यो धनादानं वाणिज्यं शूद्रसेवनम् । अपात्रीकरणं ज्ञेयं असत्यस्य च भाषणम् ।
- निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन् । ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन् । । ३.
- निमन्त्रितान्हि पितर उपतिष्ठन्ति तान्द्विजान् । वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते ।
- निमन्त्रितो द्विजः पित्र्ये नियतात्मा भवेत्सदा । न च छन्दांस्यधीयीत यस्य श्राद्धं च तद्भवेत् । । ३
- निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला । त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ।
- नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः । स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ।
- नियुक्तायां अपि पुमान्नार्यां जातोऽविधानतः । नैवार्हः पैतृकं रिक्थं पतितोत्पादितो हि सः ।
- नियुक्तौ यौ विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः । तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषागगुरुतल्पगौ ।
- निरस्य तु पुमाञ् शुक्रं उपस्पृस्यैव शुध्यति । बैजिकादभिसंबन्धादनुरुन्ध्यादघं त्र्यहम् ।
- निरादिष्टधनश्चेत्तु प्रतिभूः स्यादलंधनः । स्वधनादेव तद्दद्यान्निरादिष्ट इति स्थितिः
- निर्घाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने । एतानाकालिकान्विद्यादनध्यायानृतावपि । ।
- निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च । सवासा जलं आप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः
- निर्भयं तु भवेद्यस्य राष्ट्रं बाहुबलाश्रितम् । तस्य तद्वर्धते नित्यं सिच्यमान इव द्रुमः
- निर्लेपं काञ्चनं भाण्डं अद्भिरेव विशुध्यति । अब्जं अश्ममयं चैव राजतं चानुपस्कृतम्
- निर्वर्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः । तावतोऽतन्द्रितान्दक्षान्प्रकुर्वीत विचक्षणान्
- निवर्तेरंश्च तस्मात्तु संभाषणसहासने । दायाद्यस्य प्रदानं च यात्रा चैव हि लौकिकी ।
- निषादस्त्री तु चण्डालात्पुत्रं अन्त्यावसायिनम् । श्मशानगोचरं सूते बाह्यानां अपि गर्हितम् ।
- निषादो मार्गवं सूते दासं नौकर्मजीविनम् । कैवर्तं इति यं प्राहुरार्यावर्तनिवासिनः । ।
- निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः । तस्य शास्त्रेऽधिकारोऽस्मिञ् ज्ञेयो नान्यस्य कस्य चित् ।
- निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि । संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते
- निष्पद्यन्ते च सस्यानि यथोप्तानि विशां पृथक् । बालाश्च न प्रमीयन्ते विकृतं च न जायते
- नीचं शय्यासनं चास्य नित्यं स्याद्गुरुसन्निधौ । गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् । ।
- नीहारे बाणशब्दे च संध्ययोरेव चोभयोः । अमावास्याचतुर्दश्योः पौर्णमास्यष्टकासु च ।
- नृणां अकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता । निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते ।
- नेक्षेतोद्यन्तं आदित्यं नास्तं यान्तं कदा चन । नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम् ।
- नेहेतार्थान्प्रसङ्गेन न विरुद्धेन कर्मणा । न विद्यमानेष्वर्थेषु नार्त्यां अपि यतस्ततः
- नेहेतार्थान्प्रसङ्गेन न विरुद्धेन कर्मणा । न विद्यमानेष्वर्थेषु नार्त्यां अपि यतस्ततः ।
- नैकः सुप्याच्छून्यगेहे न श्रेयांसं प्रबोधयेत् । नोदक्ययाभिभाषेत यज्ञं गच्छेन्न चावृतः ।
- नैकग्रामीणं अतिथिं विप्रं साङ्गतिकं तथा । उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोऽपि वा । ।
- नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः । सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते । ।
- नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हि चित् । ब्राह्मान्यौनांश्च संबन्धान्नाचरेद्ब्राह्मणः सह
- नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्त्रं हि तत्स्मृतम् । ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यं अनध्यायवषट्कृतम् । ।
- नैःश्रेयसं इदं कर्म यथोदितं अशेषतः । मानवस्यास्य शास्त्रस्य रहस्यं उपदिश्यते
- नैष चारणदारेषु विधिर्नात्मोपजीविषु । सज्जयन्ति हि ते नारीर्निगूढाश्चारयन्ति च
- नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णया । उच्छिन्दन्ह्यात्मनो मूलं आट्मानं तांश्च पीदयेत्
- नोच्छिष्टं कस्य चिद्दद्यान्नाद्यादेतत्तथान्तरा । न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्व चिद्व्रजेत्
- नोच्छिष्टं कुर्वते मुख्या विप्रुषोऽङ्गं न यान्ति याः । न श्मश्रूणि गतान्यास्यं न दन्तान्तरधिष्ठितम् ।
- नोत्पादयेत्स्वयं कार्यं राजा नाप्यस्य पुरुषः । न च प्रापितं अन्येन ग्रसेदर्थं कथं चन
- नोदाहरेदस्य नाम परोक्षं अपि केवलम् । न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम् । ।
- नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गीं न रोगिणीम् । नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटां न पिङ्गलाम् ।
- नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्व चित् । न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः । ।
- नोन्मत्ताया न कुष्ठिन्या न च या स्पृष्टमैथुना । पूर्वं दोषानभिख्याप्य प्रदाता दण्डं अर्हति
- नोपगच्छेत्प्रमत्तोऽपि स्त्रियं आर्तवदर्शने । समानशयने चैव न शयीत तया सह ।
- न्युप्य पिण्डांस्ततस्तांस्तु प्रयतो विधिपूर्वकम् । तेषु दर्भेषु तं हस्तं निर्मृज्याल्लेपभागिनाम् ।
- पक्षिजग्धं गवा घ्रातं अवधूतं अवक्षुतम् । दूषितं केशकीटैश्च मृत्प्रक्षेपेण शुध्यति । ।
- पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते । शतं अश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ।
- पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।
- पञ्चभ्य एव मात्राभ्यः प्रेत्य दुष्कृतिनां नृणाम् । शरीरं यातनार्थीयं अन्यदुत्पद्यते ध्रुवम्
- पञ्चरात्रे पञ्चरात्रे पक्षे पक्षेऽथ वा गते । कुर्वीत चैषां प्रत्यक्षं अर्घसंस्थापनं नृपः ।
- पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ स्मृताविह । पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदा चन ।
- पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च । यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः शूद्रोऽपि दशमीं गतः ।
- पञ्चाशतस्त्वभ्यधिके हस्तच्छेदनं इष्यते । शेषे त्वेकादशगुणं मूल्याद्दण्डं प्रकल्पयेत् ।
- पञ्चाशद्ब्राह्मणो दण्ड्यः क्षत्रियस्याभिशंसने । वैश्ये स्यादर्धपञ्चाशच्छूद्रे द्वादशको दमः
- पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः । धान्यानां अष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा । ।
- पञ्चैतान्यो महाअयज्ञान्न हापयति शक्तितः । स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ।
- पणं यानं तरे दाप्यं पौरुषोऽर्धपणं तरे । पादं पशुश्च योषिच्च पादार्धं रिक्तकः पुमान् ।
- पणानां द्वे शते सार्धे प्रथमः साहसः स्मृतः । मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः ।
- पणो देयोऽवकृष्टस्य षडुत्कृष्टस्य वेतनम् । षाण्मासिकस्तथाच्छादो धान्यद्रोणस्तु मासिकः ।
- पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता । सा भर्तृलोकानाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ।
- पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयुता । सा भर्तृलोकं आप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते
- पतिं हित्वापकृष्टं स्वं उत्कृष्टं या निषेवते । निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते
- पतितस्योदकं कार्यं सपिण्डैर्बान्धवैर्बहिः । निन्दितेऽहनि सायाह्ने ज्ञातिर्त्विग्गुरुसंनिधौ
- पतिर्भार्यां संप्रविश्य गर्भो भूत्वेह जायते । जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः
- पतिव्रता धर्मपत्नी पितृपूजनतत्परा । मध्यमं तु ततः पिण्डं अद्यात्सम्यक्सुतार्थिनी
- पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलङ्कारो धृतो भवेत् । न तं भजेरन्दायादा भजमानाः पतन्ति ते ।
- पत्रशाकतृणानां च चर्मणां वैदलस्य च । मृन्मयानां च भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च
- पथि क्षेत्रे परिवृते ग्रामान्तीयेऽथ वा पुनः । सपालः शतदण्डार्हो विपालान्वारयेत्पशून् ।
- पयः पिबेत्त्रिरात्रं वा योजनं वाध्वनो व्रजेत् । उपस्पृशेत्स्रवन्त्यां वा सूक्तं वाब्दैवतं जपेत्
- परकीयनिपानेषु न स्नायाद्धि कदा चन । निपानकर्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते
- परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान्नॄन्महीपतिः । उद्वेजनकरैर्दण्डैश्छिन्नयित्वा प्रवासयेत्
- परदारेषु जायेते द्वौ सुतौ कुण्डगोलकौ । पत्यौ जीवति कुण्डः स्यान्मृते भर्तरि गोलकः
- परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्
- परपत्नी तु या स्त्री स्यादसंबन्धा च योनितः । तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च
- परमं यत्नं आतिष्ठेत्स्तेनानां निग्रहे नृपः । स्तेनानां निग्रहादस्य यशो राष्ट्रं च वर्धते
- परस्त्रियं योऽभिवदेत्तीर्थेऽरण्ये वनेऽपि वा । नदीनां वापि संभेदे स संग्रहणं आप्नुयात्
- परस्परविरुद्धानां तेषां च समुपार्जनम् । कन्यानां संप्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम् ।
- परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैनं निपातयेत् । अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्ट्यर्थं ताडयेत्तु तौ
- परस्य पत्न्या पुरुषः संभाषां योजयन्रहः । पूर्वं आक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्
- परां अप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत् । ते ह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम्
- पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम् । प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः ।
- परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ । धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकसंक्रुष्टं एव च ।
- परिपूतेषु धान्येषु शाकमूलफलेषु च । निरन्वये शतं दण्डः सान्वयेऽर्धशतं दमः ।
- परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः । तथा प्रकृतयो यस्मिन्स चान्द्रव्रतिको नृपः
- परिवित्तिः परिवेत्ता यया च परिविद्यते । सर्वे ते नरकं यान्ति दातृयाजकपञ्चमाः । ।
- परिवित्तितानुजेऽनूढे परिवेदनं एव च । तयोर्दानं च कन्यायास्तयोरेव च याजनम्
- परीक्षिताः स्त्रियश्चैनं व्यजनोदकधूपनैः । वेषाभरणसंशुद्धाः स्पृशेयुः सुसमाहिताः ।
- परीवादात्खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः । परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी ।
- परेण तु दशाहस्य न दद्यान्नापि दापयेत् । आददानो ददत्चैव राज्ञा दण्ड्यौ शतानि षट्
- पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश । द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः
- पशवश्च मृगाश्चैव व्यालाश्चोभयतोदतः । रक्षांसि च पिशाचाश्च मनुष्याश्च जरायुजाः ।
- पशुमण्डूकमार्जार श्वसर्पनकुलाखुभिः । अन्तरागमने विद्यादनध्यायं अहर्निशम् ।
- पशुषु स्वामिनां चैव पालानां च व्यतिक्रमे । विवादं संप्रवक्ष्यामि यथावद्धर्मतत्त्वतः । ।
- पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च
- पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः । राजीवान्सिंहतुण्डाश्च सशल्काश्चैव सर्वशः
- पाणिं उद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनं अर्हति । पादेन प्रहरन्कोपात्पादच्छेदनं अर्हति
- पाणिग्रहणसंस्कारः सवर्णासूपदिश्यते । असवर्णास्वयं ज्ञेयो विधिरुद्वाहकर्मणि ।
- पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः । नाकन्यासु क्व चिन्नॄणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः
- पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् । तेषां निष्ठा तु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ।
- पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा । पतिलोकं अभीप्सन्ती नाचरेत्किं चिदप्रियम् ।
- पाणिभ्यां तूपसंगृह्य स्वयं अन्नस्य वर्धितम् । विप्रान्तिके पितॄन्ध्यायन्शनकैरुपनिक्षिपेत् ।
- पात्रस्य हि विशेषेण श्रद्दधानतयैव च । अल्पं वा बहु वा प्रेत्य दानस्य फलं अश्नुते
- पादोऽधर्मस्य कर्तारं पादः साक्षिणं ऋच्छति । पादः सभासदः सर्वान्पादो राजानं ऋच्छति ।
- पानं अक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम् । एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे ।
- पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम् । स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्
- पारुष्यं अनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्
- पार्ष्णिग्राहं च संप्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले । मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलं अवाप्नुयात् ।
- पाषण्डं आश्रितानां च चरन्तीनां च कामतः । गर्भभर्तृद्रुहां चैव सुरापीनां च योषिताम् । ।
- पाषाण्डिनो विकर्मस्थान्बैडालव्रतिकाञ् शठान् । हैतुकान्बकवृत्तींश्च वाङ्गात्रेणापि नार्चयेत् ।
- पांसुवर्षे दिशां दाहे गोमायुविरुते तथा । श्वखरोष्ट्रे च रुवति पङ्क्तौ च न पठेद्द्विजः
- पिण्डनिर्वपणं के चित्परस्तादेव कुर्वते । वयोभिः खादयन्त्यन्ये प्रक्षिपन्त्यनलेऽप्सु वा
- पिण्डेभ्यस्त्वल्पिकां मात्रां समादायानुपूर्वशः । तानेव विप्रानासीनान्विधिवत्पूर्वं आशयेत्
- पिता यस्य निवृत्तः स्याज्जीवेच्चापि पितामहः । पितुः स नाम सङ्कीर्त्य कीर्तयेत्प्रपितामहम् ।
- पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यं अर्हति ।
- पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी । ।
- पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः । नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति
- पितामहो वा तच्छ्राद्धं भुञ्जीतेत्यब्रवीन्मनुः । कामं वा समनुज्ञातः स्वयं एव समाचरेत् । ।
- पितुर्भगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि । मातृवद्वृत्तिं आतिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी ।
- पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम् । अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रं इति स्थितिः
- पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा । पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणं ईप्सुभिः
- पितृयज्ञं तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान् । पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम् ।
- पितृवेश्मनि कन्या तु यं पुत्रं जनयेद्रहः । तं कानीनं वदेन्नाम्ना वोढुः कन्यासमुद्भवम् ।
- पितॄणां मासिकं श्राद्धं अन्वाहार्यं विदुर्बुधाः । तच्चामिषेणा कर्तव्यं प्रशस्तेन प्रयत्नतः
- पितेव पालयेत्पूत्रान्ज्येष्ठो भ्रातॄण् यवीयसः । पुत्रवच्चापि वर्तेरन्ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः
- पित्रा भर्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहं आत्मनः । एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले । ।
- पित्रा विवदमानश्च कितवो मद्यपस्तथा । पापरोग्यभिशस्तश्च दाम्भिको रसविक्रयी ।
- पित्रे न दद्याच्छुल्कं तु कन्यां ऋतुमतीं हरन् । स च स्वाम्यादतिक्रामेदृतूनां प्रतिरोधनात्
- पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयं एव वा । न कथं चन दुर्योनिः प्रकृतिं स्वां नियच्छति
- पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः । कर्मचेष्टास्वहः कृष्णः शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी
- पित्र्ये स्वदितं इत्येव वाच्यं गोष्ठे तु सुशृतम् । संपन्नं इत्यभ्युदये दैवे रुचितं इत्यपि ।
- पिशुनः पौतिनासिक्यं सूचकः पूतिवक्त्रताम् । धान्यचौरोऽङ्गहीनत्वं आतिरैक्यं तु मिश्रकः
- पिशुनानृतिनोश्चान्नं क्रतुविक्रयिणस्तथा । शैलूषतुन्नवायान्नं कृतघ्नस्यान्नं एव च
- पीडनानि च सर्वाणि व्यसनानि तथैव च । आरभेत ततः कार्यं संचिन्त्य गुरुलाघवम् ।
- पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः । न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथं चन ।
- पुत्रः कनिष्ठो ज्येष्ठायां कनिष्ठायां च पूर्वजः । कथं तत्र विभागः स्यादिति चेत्संशयो भवेत् ।
- पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः । विश्वजन्यं इमं पुण्यं उपन्यासं निबोधत ।
- पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजाः क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम् । ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते । ।
- पुत्रान्द्वादश यानाह नॄणां स्वायंभुवो मनुः । तेषां षड्बन्धुदायादाः षडदायादबान्धवाः । । ९.१५८ । ।
- पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते । समस्तत्र विभागः स्याज्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः ।
- पुत्रेण लोकाञ् जयति पौत्रेणानन्त्यं अश्नुते । अथ पुत्रस्य पौत्रेण ब्रध्नस्याप्नोति विष्टपम्
- पुनाति पङ्क्तिं वंश्यांश्च सप्तसप्त परावरान् । पृथिवीं अपि चैवेमां कृत्स्नां एकोऽपि सोऽर्हति
- पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयं एव स्वयंभुवा ।
- पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः । समेऽपुमान्पुं स्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः ।
- पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्त आयसे । अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत्
- पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः । संयोगे विप्रयोगे च धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान्
- पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः । मुख्यानां चैव रत्नानां हरणे वधं अर्हति
- पुरोहितं च कुर्वीत वृणुयादेव च र्त्विजः । तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च ।
- पुष्पमूलफलैर्वापि केवलैर्वर्तयेत्सदा । कालपक्वैः स्वयं शीर्णैर्वैखानसमते स्थितः ।
- पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्मवल्लीनगेषु च । अन्येष्वपरिपूतेषु दण्डः स्यात्पञ्चकृष्णलः
- पुष्ये तु छन्दसां कुर्याद्बहिरुत्सर्जनं द्विजः । माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णे प्रथमेऽहनि ।
- पूजयेदशनं नित्यं अद्याच्चैतदकुत्सयन् । दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः
- पूजितं ह्यशनं नित्यं बलं ऊर्जं च यच्छति । अपूजितं तु तद्भुक्तं उभयं नाशयेदिदम् ।
- पूयं चिकित्सकस्यान्नं पुंश्चल्यास्त्वन्नं इन्द्रियम् । विष्ठा वार्धुषिकस्यान्नं शस्त्रविक्रयिणो मलम् ।
- पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशं एनो व्यपोहति । पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ।
- पूर्वां संध्यां जपांस्तिष्ठेत्सावित्रीं आर्कदर्शनात् । पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात्
- पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा श्राद्धकर्मण्युपस्थिते । निमन्त्रयेत त्र्यवरान्सम्यग्विप्रान्यथोदितान् ।
- पृथक्पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ । गान्धर्वो राक्षसश्चैव धर्म्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ
- पृथुस्तु विनयाद्राज्यं प्राप्तवान्मनुरेव च । कुबेरश्च धनैश्वर्यं ब्राह्मण्यं चैव गाधिजः ।
- पृथोरपीमां पृथिवीं भार्यां पूर्वविदो विदुः । स्थाणुच्छेदस्य केदारं आहुः शाल्यवतो मृगम्
- पृष्ट्वा स्वदितं इत्येवं तृप्तानाचामयेत्ततः । आचान्तांश्चानुजानीयादभितो रम्यतां इति ।
- पृष्ठतस्तु शरीरस्य नोत्तमाङ्गे कथं चन । अतोऽन्यथा तु प्रहरन्प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् ।
- पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये । पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत् ।
- पैतृकं तु पिता द्रव्यं अनवाप्तं यदाप्नुयात् । न तत्पुत्रैर्भजेत्सार्धं अकामः स्वयं अर्जितम् ।
- पैतृस्वसेयीं भगिनीं स्वस्रीयां मातुरेव च । मातुश्च भ्रातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेत् ।
- पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् । वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः ।
- पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः । पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ।
- पौत्रदौहित्रयोर्लोके न विशेषोऽस्ति धर्मतः । तयोर्हि मातापितरौ संभूतौ तस्य देहतः । ।
- पौत्रदौहित्रयोर्लोके विशेषो नोपपद्यते । दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत्
- पौर्विकीं संस्मरन्जातिं ब्रह्मैवाभ्यस्यते पुनः । ब्रह्माभ्यासेन चाजस्रं अनन्तं सुखं अश्नुते ।
- पौंश्चल्याच्चलचित्ताच्च नैस्नेह्याच्च स्वभावतः । रक्षिता यत्नतोऽपीह भर्तृष्वेता विकुर्वते ।
- प्रकल्प्या तस्य तैर्वृत्तिः स्वकुटुम्बाद्यथार्हतः । शक्तिं चावेक्ष्य दाक्ष्यं च भृत्यानां च परिग्रहम् ।
- प्रकाशं एतत्तास्कर्यं यद्देवनसमाह्वयौ । तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान्भवेत् ।
- प्रकाशवञ्चकास्तेषां नानापण्योपजीविनः । प्रच्छन्नवञ्चकास्त्वेते ये स्तेनाटविकादयः ।
- प्रक्साल्य हस्तावाचाम्य ज्ञातिप्रायं प्रकल्पयेत् । ज्ञातिभ्यः सत्कृतं दत्त्वा बान्धवानपि भोजयेत् ।
- प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा तन्निषेवेत यो नरः । तस्य दण्डविकल्पः स्याद्यथेष्टं नृपतेस्तथा ।
- प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः । स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन
- प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः संतानार्थं च मानवः । तस्मात्साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः ।
- प्रजानां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ।
- प्रजापतिरिदं शास्त्रं तपसैवासृजत्प्रभुः । तथैव वेदानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे ।
- प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् । ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः ।
- प्रणष्टस्वामिकं रिक्थं राजा त्र्यब्दं निधापयेत् । अर्वाक्त्र्यब्दाद्धरेत्स्वामी परेण नृपतिर्हरेत् ।
- प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात्पापकर्मसु । दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्
- प्रतिकूलं वर्तमाना बाह्या बाह्यतरान्पुनः । हीना हीनान्प्रसूयन्ते वर्णान्पञ्चदशैव तु ।
- प्रतिगृह्य द्विजो विद्वानेकोद्दिष्टस्य केतनम् । त्र्यहं न कीर्तयेद्ब्रह्म राज्ञो राहोश्च सूतके । । ४
- प्रतिगृह्याप्रतिग्राह्यं भुक्त्वा चान्नं विगर्हितम् । जपंस्तरत्समन्दीयं पूयते मानवस्त्र्यहात्
- प्रतिगृह्येप्सितं दण्डं उपस्थाय च भास्करम् । प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरेद्भैक्षं यथाविधि ।
- प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसङ्गं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेजः प्रशाम्यति ।
- प्रतिग्रहाद्याजनाद्वा तथैवाध्यापनादपि । प्रतिग्रहः प्रत्यवरः प्रेत्य विप्रस्य गर्हितः ।
- प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह । असंश्रवे चैव गुरोर्न किं चिदपि कीर्तयेत् ।
- प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशतिद्विजे । अर्हावभोजयन्विप्रो दण्डं अर्हति माषकम् ।
- प्रतिश्रावणसंभाषे शयानो न समाचरेत् । नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः
- प्रतिषिद्धापि चेद्या तु मद्यं अभ्युदयेष्वपि । प्रेक्षासमाजं गच्छेद्वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट् ।
- प्रतुदाञ् जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान् । निमज्जतश्च मत्स्यादान्सौनं वल्लूरं एव च
- प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम् । त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिं अभीप्सता ।
- प्रत्यग्निं प्रतिसूर्यं च प्रतिसोमोदकद्विजम् । प्रतिगु प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः
- प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः । अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक्
- प्रथिता प्रेतकृत्यैषा पित्र्यं नाम विधुक्षये । तस्मिन्युक्तस्यैति नित्यं प्रेतकृत्यैव लौकिकी ।
- प्रनष्टाधिगतं द्रव्यं तिष्ठेद्युक्तैरधिष्ठितम् । यांस्तत्र चौरान्गृह्णीयात्तान्राजेभेन घातयेत्
- प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते । न सांपरायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् ।
- प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्मान्यथोदितान् । रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह ।
- प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः । तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतं एतद्धि मारुतम् ।
- प्रवृत्तं कर्म संसेव्यं देवानां एति साम्यताम् । निवृत्तं सेवमानस्तु भूतान्यत्येति पञ्च वै
- प्रशासितारं सर्वेषां अणीयांसं अणोरपि । रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् । ।
- प्रसाधनोपचारज्ञं अदासं दासजीवनम् । सैरिन्ध्रं वागुरावृत्तिं सूते दस्युरयोगवे
- प्रहर्षयेद्बलं व्यूह्य तांश्च सम्यक्परीक्षयेत् । चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन्योधयतां अपि ।
- प्राकारस्य च भेत्तारं परिखाणां च पूरकम् । द्वाराणां चैव भङ्क्तारं क्षिप्रं एव प्रवासयेत्
- प्राक्कूलान्पर्युपासीनः पवित्रैश्चैव पावितः । प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओंकारं अर्हति
- प्राङ्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते । मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम् ।
- प्राचीनावीतिना सम्यगपसव्यं अतन्द्रिणा । पित्र्यं आ निधनात्कार्यं विधिवद्दर्भपाणिना ।
- प्राजकश्चेद्भवेदाप्तः प्राजको दण्डं अर्हति । युग्यस्थाः प्राजकेऽनाप्ते सर्वे दण्ड्याः शतं शतम् ।
- प्राजापत्यं अदत्त्वाश्वं अग्न्याधेयस्य दक्षिणाम् । अनाहिताग्निर्भवति ब्राह्मणो विभवे सति ।
- प्राजापत्यं निरुप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् । आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात् ।
- प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारं एव च । कृतज्ञं धृतिमन्तं च कष्टं आहुररिं बुधाः
- प्राणस्यान्नं इदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् । स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम्
- प्राणायमैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् । प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्
- प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः । व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः ।
- प्राणि वा यदि वाप्राणि यत्किं चिच्छ्राद्धिकं भवेत् । तदालभ्याप्यनध्यायः पाण्यास्यो हि द्विजः स्मृतः
- प्रातिभाव्यं वृथादानं आक्षिकं सौरिकां च यत् । दण्डशुल्कावशेषं च न पुत्रो दातुं अर्हति । ।
- प्रादुष्कृतेष्वग्निषु तु विद्युत्स्तनितनिःस्वने । सज्योतिः स्यादनध्यायः शेषे रात्रौ यथा दिवा ।
- प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः । ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेषां अप्येतदादिशेत्
- प्रायश्चित्तं तु कुर्वाणाः सर्ववर्णा यथोदितम् । नाङ्क्या राज्ञा ललाटे स्युर्दाप्यास्तूत्तमसाहसम्
- प्रायश्चित्ते तु चरिते पूर्णकुम्भं अपां नवम् । तेनैव सार्धं प्रास्येयुः स्नात्वा पुण्ये जलाशये
- प्रायो नाम तप: प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते तपो निश्चयसंयुक्तं प्रायश्चितमिति स्मृतं
- प्रियेषु स्वेषु सुकृतं अप्रियेषु च दुष्कृतम् । विसृज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माभ्येति सनातनम् ।
- प्रेतशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च । चतुर्णां अपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः ।
- प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः । अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नं अनूचाने तथा गुरौ
- प्रेत्येह चेदृशा विप्रा गर्ह्यन्ते ब्रह्मवादिभिः । छद्मना चरितं यच्च व्रतं रक्षांसि गच्छति
- प्रेष्यो ग्रामस्य राज्ञश्च कुनखी श्यावदन्तकः । प्रतिरोद्धा गुरोश्चैव त्यक्ताग्निर्वार्धुषिस्तथा
- प्रोक्षणात्तृणकाष्ठं च पलालं चैव शुध्यति । मार्जनोपाञ्जनैर्वेश्म पुनःपाकेन मृन्मयम् ।
- प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया । यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानां एव चात्यये
- प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः । विद्यार्थं षड्यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्
- फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् । न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति ।
- फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा । प्रत्यक्षं क्षेत्रिणां अर्थो बीजाद्योनिर्गलीयसी ।
- फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यं ऋक्शतम् । गुल्मवल्लीलतानां च पुष्पितानां च वीरुधाम्
- फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः । न तत्फलं अवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ।
- बकं चैव बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम् । मत्स्यादान्विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः
- बकवच्चिन्तयेदर्थान्सिंहवच्च पराक्रमे । वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्
- बको भवति हृत्वाग्निं गृहकारी ह्युपस्करम् । रक्तानि हृत्वा वासांसि जायते जीवजीवकः ।
- बन्धनानि च सर्वाणि राजा मार्गे निवेशयेत् । दुःखिता यत्र दृश्येरन्विकृताः पापकारिणह् । ।
- बन्धुप्रियवियोगांश्च संवासं चैव दुर्जनैः । द्रव्यार्जनं च नाशं च मित्रामित्रस्य चार्जनम्
- बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् । पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ।
- बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये । द्विविधं कीर्त्यते द्वैधं षाड्गुण्यगुणवेदिभिः ।
- बलाद्दत्तं बलाद्भुक्तं बलाद्यच्चापि लेखितम् । सर्वान्बलकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् । ।
- बहवोऽविनयान्नष्टा राजानः सपरिच्छदाः । वनस्था अपि राज्यानि विनयात्प्रतिपेदिरे
- बहुत्वं परिगृह्णीयात्साक्षिद्वैधे नराधिपः । समेषु तु गुणोत्कृष्टान्गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान् ।
- बहून्वर्षगणान्घोरान्नरकान्प्राप्य तत्क्षयात् । संसारान्प्रतिपद्यन्ते महापातकिनस्त्विमान् ।
- बालः समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि । अध्यापयन्गुरुसुतो गुरुवन्मानं अर्हति । ।
- बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः । शरणागतहन्तॄंश्च स्त्रीहन्तॄंश्च न संवसेत् ।
- बालदायादिकं रिक्थं तावद्राजानुपालयेत् । यावत्स स्यात्समावृत्तो यावच्चातीतशैशवः ।
- बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता । न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किं चिद्कार्यं गृहेष्वपि । ।
- बालवृद्धातुराणां च साक्ष्येषु वदतां मृषा । जानीयादस्थिरां वाचं उत्सिक्तमनसां तथा
- बालातपः प्रेतधूमो वर्ज्यं भिन्नं तथासनम् । न छिन्द्यान्नखरोमाणि दन्तैर्नोत्पाटयेन्नखान्
- बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते । सवासा जलं आप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति ।
- बालोऽपि नावमान्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः । महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ।
- बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने । पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतन्त्रताम्
- बाह्यैर्विभावयेल्लिङ्गैर्भावं अन्तर्गतं नृणाम् । स्वरवर्णेङ्गिताकारैश्चक्षुषा चेष्टितेन च ।
- बिडालकाकाखूच्छिष्टं जग्ध्वा श्वनकुलस्य च । केशकीटावपन्नं च पिबेद्ब्रह्मसुवर्चलाम् ।
- बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् । तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्
- बीजं एके प्रशंसन्ति क्षेत्रं अन्ये मनीषिणः । बीजक्षेत्रे तथैवान्ये तत्रेयं तु व्यवस्थितिः
- बीजस्य चैव योन्याश्च बीजं उत्कृष्टं उच्यते । सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ।
- बीजानां उप्तिविच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च । मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः । ।
- बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि च हितानि च । नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान् ।
- बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः । कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्वादीनि प्रचक्षते ।
- बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम् । तथा प्रयत्नं आतिष्ठेद्यथात्मानं न पीडयेत्
- ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातं अधीयानादवाप्नुयात् । स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते
- ब्रह्मघ्नो ये स्मृता लोका ये च स्त्रीबालघातिनः । मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य ते ते स्युर्ब्रुवतो मृषा ।
- ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा । एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः
- ब्रह्मचारी तु योऽश्नीयान्मधु मांसं कथं चन । स कृत्वा प्राकृतं कृच्छ्रं व्रतशेषं समापयेत् ।
- ब्रह्मणः संभवेनैव देवानां अपि दैवतम् । प्रमाणं चैव लोकस्य ब्रह्मात्रैव हि कारणम् ।
- ब्रह्मनः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा । स्रवत्यनोंकृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यति
- ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यो विप्रस्य पञ्चमे । राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ।
- ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह
- ब्रह्महा च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः । एते सर्वे पृथग्ज्ञेया महापातकिनो नराः
- ब्रह्महा द्वादश समाः कुटीं कृत्वा वने वसेत् । भैक्षाश्यात्मविशुद्ध्यर्थं कृत्वा शवशिरो ध्वजम्
- ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तं एव च । उत्तमां सात्त्विकीं एतां गतिं आहुर्मनीषिणः
- ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा । संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः
- ब्रह्मोज्झता वेदनिन्दा कौटसाक्ष्यं सुहृद्वधः । गर्हितानाद्ययोर्जग्धिः सुरापानसमानि षट्
- ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि । सर्वस्यास्य यथान्यायं कर्तव्यं परिरक्षणम्
- ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुं अनामयम् । वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं आरोग्यं एव च ।
- ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वृद्धिं नैव प्रयोजयेत् । कामं तु खलु धर्मार्थं दद्यात्पापीयसेऽल्पिकाम् ।
- ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ।
- ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् । पितापुत्रौ विजानीयाद्ब्राह्मणस्तु तयोः पिता
- ब्राह्मणं भिक्षुकं वापि भोजनार्थं उपस्थितम् । ब्राह्मणैरभ्यनुज्ञातः शक्तितः प्रतिपूजयेत्
- ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रापुत्रो न रिक्थभाक् । यदेवास्य पिता दद्यात्तदेवास्य धनं भवेत्
- ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां तु दण्डः कार्यो विजानता । ब्राह्मणे साहसः पूर्वः क्षत्रिये त्वेव मध्यमः । ।
- ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धं आघ्राय सोमपः । प्राणानप्सु त्रिरायम्य घृतं प्राश्य विशुध्यति ।
- ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वापि शतं भवेत् । द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि सः
- ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् । वैश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम्
- ब्राह्मणस्य रुजः कृत्वा घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः । जैह्म्यं च मैथुनं पुंसि जातिभ्रंशकरं स्मृतम् ।
- ब्राह्मणस्यानुपूर्व्येण चतस्रस्तु यदि स्त्रियः । तासां पुत्रेषु जातेषु विभागेऽयं विधिः स्मृतः
- ब्राह्मणस्यैव कर्मैतदुपदिष्टं मनीषिभिः । राजन्यवैश्ययोस्त्वेवं नैतत्कर्म विधीयते
- ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं क्षत्रियेण कदा चन । दस्युनिष्क्रिययोस्तु स्वं अजीवन्हर्तुं अर्हति ।
- ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः । ते सम्यगुपजीवेयुः षट्कर्माणि यथाक्रमम् ।
- ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते । आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।
- ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायां अम्बष्ठो नाम जायते । निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते ।
- ब्राह्मणान्पर्युपासीत प्रातरुत्थाय पार्थिवः । त्रैविद्यवृद्धान्विदुषस्तिष्ठेत्तेषां च शासने
- ब्राह्मणान्बाधमानं तु कामादवरवर्णजम् । हन्याच्चित्रैर्वधोपायैरुद्वेजनकरैर्नृपः
- ब्राह्मणायावगुर्यैव द्विजातिर्वधकाम्यया । शतं वर्षाणि तामिस्रे नरके परिवर्तते ।
- ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा देहत्यागोऽनुपस्कृतः । स्त्रीबालाभ्युपपत्तौ च बाह्यानां सिद्धिकारणम्
- ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा सद्यः प्राणान्परित्यजेत् । मुच्यते ब्रह्महत्याया गोप्ता गोर्ब्राह्मणस्य च
- ब्राह्मणीं यद्यगुप्तां तु गच्छेतां वैश्यपार्थिवौ । वैश्यं पञ्चशतं कुर्यात्क्षत्रियं तु सहस्रिणम् । ।
- ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः । कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिनः
- ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते । ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये ।
- ब्राह्मणो त्वनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति । तस्मै हव्यं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते ।
- ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ । पैलवाउदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः ।
- ब्राह्मदैवार्षगान्धर्व प्राजापत्येषु यद्वसु । अप्रजायां अतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते ।
- ब्राह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता । बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः ।
- ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः । एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत ।
- ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः । ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः
- ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत् । कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदतत्त्वार्थं एव च
- ब्राह्मेण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालं उपस्पृशेत् । कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदा चन ।
- ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । ।
- ब्रूहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम् । गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः
- ब्रूहीत्युक्तश्च न ब्रूयादुक्तं च न विभावयेत् । न च पूर्वापरं विद्यात्तस्मादर्थात्स हीयते ।
- भक्ष्यं भोज्यं च विविधं मूलानि च फलानि च । हृद्यानि चैव मांसानि पानानि सुरभीणि च ।
- भक्ष्यभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्य च । पुष्पमूलफलानां च पञ्चगव्यं विशोधनम्
- भक्ष्यभोज्योपदेशैश्च ब्राह्मणानां च दर्शनैः । शौर्यकर्मापदेशैश्च कुर्युस्तेषां समागमम् ।
- भगवन्सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः । अन्तरप्रभवानां च धर्मान्नो वक्तुं अर्हसि ।
- भद्रं भद्रं इति ब्रूयाद्भद्रं इत्येव वा वदेत् । शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केन चित्सह ।
- भरद्वाजः क्षुधार्तस्तु सपुत्रो विजने वने । बह्वीर्गाः प्रतिजग्राह वृधोस्तक्ष्णो महातपाः
- भर्तरि पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु कर्तरि । आहुरुत्पादकं के चिदपरे क्षेत्रिणं विदुः । ।
- भर्तारं लङ्घयेद्या तु स्त्री ज्ञातिगुणदर्पिता । तां श्वभिः खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंस्थिते
- भर्तुः शरीरशुश्रूषां धर्मकार्यं च नैत्यकम् । स्वा चैव कुर्यात्सर्वेषां नास्वजातिः कथं चन ।
- भवत्पूर्वं चरेद्भैक्षं उपनीतो द्विजोत्तमः । भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम् । ।
- भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं दाप्यानि सारतः । रिक्तभाण्डानि यत्किं चित्पुमांसश्चापरिच्छदाः
- भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः । यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ।
- भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्रात्रा च सोदरः । प्राप्तापराधास्ताड्याः स्यू रज्ज्वा वेणुदलेन वा ।
- भार्यायै पूर्वमारिण्यै दत्त्वाग्नीनन्त्यकर्मणि । पुनर्दारक्रियां कुर्यात्पुनराधानं एव च । ।
- भिक्षां अप्युदपात्रं वा सत्कृत्य विधिपूर्वकम् । वेदतत्त्वार्थविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत् । ।
- भिक्षुका बन्दिनश्चैव दीक्षिताः कारवस्तथा । संभाषनं सह स्त्रीभिः कुर्युरप्रतिवारिताः ।
- भिन्दन्त्यवमता मन्त्रं तैर्यग्योनास्तथैव च । स्त्रियश्चैव विशेषेण तस्मात्तत्रादृतो भवेत् ।
- भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा । समवस्कन्दयेच्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा ।
- भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि । भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती
- भुक्तवान्विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह । विहृत्य तु यथाकालं पुनः कार्याणि चिन्तयेत् ।
- भुक्त्वातोऽन्यतं अस्यान्नं अमत्या क्षपणं त्र्यहम् । मत्या भुक्त्वाचरेत्कृच्छ्रं रेतोविण्मूत्रं एव च ।
- भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः
- भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः । नानारूपाणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः । ।
- भूमिदो भूमिं आप्नोति दीर्घं आयुर्हिरण्यदः । गृहदोऽग्र्याणि वेश्मानि रूप्यदो रूपं उत्तमम्
- भूमौ विपरिवर्तेत तिष्ठेद्वा प्रपदैर्दिनम् । स्थानासनाभ्यां विहरेत्सवनेषूपयन्नपः ।
- भृतकाध्यापको यश्च भृतकाध्यापितस्तथा । शूद्रशिष्यो गुरुश्चैव वाग्दुष्टः कुण्डगोलकौ । ।
- भृतो नार्तो न कुर्याद्यो दर्पात्कर्म यथोदितम् । स दण्ड्यः कृष्णलान्यष्टौ न देयं चास्य वेतनम्
- भृत्यानां उपरोधेन यत्करोत्यौर्ध्वदेहिकम् । तद्भवत्यसुखोदर्कं जीवतश्च मृतस्य च । ।
- भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नृणाम् । द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयं एव च
- भोजनाभ्यञ्जनाद्दानाद्यदन्यत्कुरुते तिलैः । कृमिभूतः श्वविष्ठायां पितृभिः सह मज्जति ।
- भोःशब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने । नाम्नां स्वरूपभावो हि भोभाव ऋषिभिः स्मृतः ।
- भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या या गुरुपत्न्यनुजस्य सा । यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता
- भ्रातुर्भार्योपसंग्राह्या सवर्णाहन्यहन्यपि । विप्रोष्य तूपसंग्राह्या ज्ञातिसंबन्धियोषितः ।
- भ्रातुर्मृतस्य भार्यायां योऽनुरज्येत कामतः । धर्मेणापि नियुक्तायां स ज्ञेयो दिधिषूपतिः ।
- भ्रातॄणां अविभक्तानां यद्युत्थानं भवेत्सह । न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात्कथं चन
- भ्रातॄणां एकजातानां एकश्चेत्पुत्रवान्भवेत् । सर्वांस्तांस्तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ।
- भ्रातॄणां यस्तु नेहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा । स निर्भाज्यः स्वकादंशात्किं चिद्दत्त्वोपजीवनम्
- भ्रामरी गन्डमाली च श्वित्र्यथो पिशुनस्तथा । उन्मत्तोऽन्धश्च वर्ज्याः स्युर्वेदनिन्दक एव च ।
- भ्रूणघ्नावेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्युदक्यया । पतत्रिणावलीढं च शुना संस्पृष्टं एव च । ।
- मक्षिका विप्रुषश्छाया गौरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्च स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ।
- मङ्गलाचारयुक्तः स्यात्प्रयतात्मा जितेन्द्रियः । जपेच्च जुहुयाच्चैव नित्यं अग्निं अतन्द्रितः
- मङ्गलाचारयुक्तानां नित्यं च प्रयतात्मनाम् । जपतां जुह्वतां चैव विनिपातो न विद्यते । ।
- मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः । प्रयुज्यते विवाहे तु प्रदानं स्वाम्यकारणम्
- मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम् । वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ।
- मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च । अयःकांस्योपलानां च द्वादशाहं कणान्नता
- मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च । गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम् ।
- मणिमुक्ताप्रवालानि हृत्वा लोभेन मानवः । विविधाणि च रत्नानि जायते हेमकर्तृषु ।
- मत्तक्रुद्धातुराणां च न भुञ्जीत कदा चन । केशकीटावपन्नं च पदा स्पृष्टं च कामतः
- मत्तोन्मत्तार्ताध्यधीनैर्बालेन स्थविरेण वा । असंबद्धकृतश्चैव व्यावहारो न सिध्यति । ।
- मत्स्यघातो निषादानां त्वष्टिस्त्वायोगवस्य च । मेदान्ध्रचुञ्चुमद्गूनां आरण्यपशुहिंसनम्
- मत्स्यानां पक्षिणां चैव तैलस्य च घृतस्य च । मांसस्य मधुनश्चैव यच्चान्यत्पशुसंभवम् ।
- मद्यपासाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत् । व्याधिता वाधिवेत्तव्या हिंस्रार्थघ्नी च सर्वदा ।
- मद्यैर्मूत्रैः पुरीषैर्वा ष्ठीवनैह्पूयशोणितैः । संस्पृष्टं नैव शुद्ध्येत पुनःपाकेन मृन्मयम्
- मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः ।
- मध्यंदिनेऽर्धरात्रे च श्राद्धं भुक्त्वा च सामिषम् । संध्ययोरुभयोश्चैव न सेवेत चतुष्पथम् ।
- मध्यंदिनेऽर्धरात्रे वा विश्रान्तो विगतक्लमः । चिन्तयेद्धर्मकामार्थान्सार्धं तैरेक एव वा ।
- मध्यमस्य प्रचारं च विजीगिषोश्च चेष्टितम् । उदासीनप्रचारं च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः ।
- मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया । आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः
- मनसीन्दुं दिशः श्रोत्रे क्रान्ते विष्णुं बले हरम् । वाच्यग्निं मित्रं उत्सर्गे प्रजने च प्रजापतिम्
- मनुं एकाग्रं आसीनं अभिगम्य महर्षयः । प्रतिपूज्य यथान्यायं इदं वचनं अब्रुवन् ।
- मनुष्यमारणे क्षिप्रं चौरवत्किल्बिषं भवेत् । प्राणभृत्सु महत्स्वर्धं गोगजोष्ट्रहयादिषु । ।
- मनुष्याणां तु हरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहस्य च । कूपवापीजलानां च शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम्
- मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति । यथा यथा महद्दुःखं दण्डं कुर्यात्तथा तथा ।
- मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादयः सुताः । तेषां ऋषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणाः स्मृताः
- मन्त्रतस्तु समृद्धानि कुलान्यल्पधनान्यपि । कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः
- मन्त्रैः शाकलहोमीयैरब्दं हुत्वा घृतं द्विजः । सुगुर्वप्यपहन्त्येनो जप्त्वा वा नम इत्यृचम्
- मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश्यतीति नः । तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः ।
- मन्येतारिं यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम् । तदा द्विधा बलं कृत्वा साधयेत्कार्यं आत्मनः ।
- मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च । क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः
- ममायं इति यो ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः । तस्याददीत षड्भागं राजा द्वादशं एव वा ।
- ममेदं इति यो ब्रूयात्सोऽनुयोज्यो यथाविधि । संवाद्य रूपसंख्यादीन्स्वामी तद्द्रव्यं अर्हति
- मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् । प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च । ।
- मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि । वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्
- महर्षिपितृदेवानां गत्वानृण्यं यथाविधि । पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थ्यं आश्रितः ।
- महर्षिभिश्च देवैश्च कार्यार्थं शपथाः कृताः । वसिष्ठश्चापि शपथं शेपे पैजवने नृपे । ।
- महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः । स्त्रीसंबन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत् । ।
- महापशूनां हरणे शस्त्राणां औषधस्य च । कालं आसाद्य कार्यं च दण्डं राजा प्रकल्पयेत् ।
- महापातकसंयुक्तोऽनुगच्छेद्गाः समाहितः । अभ्यस्याब्दं पावमानीर्भैक्षाहारो विशुध्यति
- महापातकिनश्चैव शेषाश्चाकार्यकारिणः । तपसैव सुतप्तेन मुच्यन्ते किल्बिषात्ततः
- महाव्याहृतिभिर्होमः कर्तव्यः स्वयं अन्वहम् । अहिंसा सत्यं अक्रोधं आर्जवं च समाचरेत् ।
- मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः
- मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम् । आक्षारयञ् शतं दाप्यः पन्थानं चाददद्गुरोः
- मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम् । भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ।
- माता पिता वा दद्यातां यं अद्भिः पुत्रं आपदि । सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्त्रिमः सुतः
- मातापितृभ्यां उत्सृष्टं तयोरन्यतरेण वा । यं पुत्रं परिगृह्णीयादपविद्धः स उच्यते ।
- मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया । दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत् । ।
- मातापितृविहीनो यस्त्यक्तो वा स्यादकारणात् । आत्मानं अर्पयेद्यस्मै स्वयंदत्तस्तु स स्मृतः
- मातामहं मातुलं च स्वस्रीयं श्वशुरं गुरुम् । दौहित्रं विट्पतिं बन्धुं ऋत्विग्याज्यौ च भोजयेत् ।
- मातुः प्रथमतः पिण्डं निर्वपेत्पुत्रिकासुतः । द्वितीयं तु पितुस्तस्यास्तृतीयं तत्पितुः पितुः ।
- मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धने । तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् ।
- मातुलांश्च पितृव्यांश्च श्वशुरानृत्विजो गुरून् । असावहं इति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवीयसः
- मातुस्तु यौतकं यत्स्यात्कुमारीभाग एव सः । दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम् ।
- मातृश्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृश्वसा । संपूज्या गुरुपत्नीवत्समास्ता गुरुभार्यया
- मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसं अपि कर्षति ।
- मानसं मनसैवायं उपभुङ्क्ते शुभाशुभम् । वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्
- मारुतं पुरुहूतं च गुरुं पावकं एव च । चतुरो व्रतिनोऽभ्येति ब्राह्मं तेजोऽवकीर्णिनः
- मार्गशीर्षे शुभे मासि यायाद्यात्रां महीपतिः । फाल्गुनं वाथ चैत्रं वा मासौ प्रति यथाबलम्
- मार्जनं यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि । चमसानां ग्रहाणां च शुद्धिः प्रक्षालनेन तु
- मार्जारनकुलौ हत्वा चाषं मण्डूकं एव च । श्वगोधोलूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं चरेत् ।
- मांसं गृध्रो वपां मद्गुस्तैलं तैलपकः खगः । चीरीवाकस्तु लवणं बलाका शकुनिर्दधि
- मासिकान्नं तु योऽश्नीयादसमावर्तको द्विजः । स त्रीण्यहान्युपवसेदेकाहं चोदके वसेत् ।
- मिथो दायः कृतो येन गृहीतो मिथ एव वा । मिथ एव प्रदातव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः ।
- मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः । म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः
- मुञ्जालाभे तु कर्तव्याः कुशाश्मन्तकबल्वजैः । त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा
- मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथ वा स्याच्छिखाजटः । नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेत्सूर्यो नाभ्युदियात्क्व चित् । ।
- मुन्यन्नानि पयः सोमो मांसं यच्चानुपस्कृतम् । अक्सारलवणं चैव प्रकृत्या हविरुच्यते ।
- मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा । एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद्विधिपूर्वकम् ।
- मूत्रोच्चारसमुत्सर्गं दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ संध्यायोश्च यथा दिवा
- मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः । तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः । ।
- मृतं शरीरं उत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ । विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तं अनुगच्छति ।
- मृतवस्त्रभृत्स्व्नारीषु गर्हितान्नाशनासु च । भवन्त्यायोगवीष्वेते जातिहीनाः पृथक्त्रयः ।
- मृते भर्तरि साढ्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता । स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः ।
- मृत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति । रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः
- मृदं गां दैवतं विप्रं घृतं मधु चतुष्पथम् । प्रदक्षिणानि कुर्वीत प्रज्ञातांश्च वनस्पतीन् ।
- मृष्यन्ति ये चोपपतिं स्त्रीजितानां च सर्वशः । अनिर्दशं च प्रेतान्नं अतुष्टिकरं एव च । ।
- मेखलां अजिनं दण्डं उपवीतं कमण्डलुम् । अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत् ।
- मैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनं अञ्जनम् । पूर्वाह्ण एव कुर्वीत देवतानां च पूजनम् ।
- मैत्राक्षज्योतिकः प्रेतो वैश्यो भवति पूयभुक् । चैलाशकश्च भवति शूद्रो धर्मात्स्वकाच्च्युतः
- मैत्रेयकं तु वैदेहो माधूकं संप्रसूयते । नॄन्प्रशंसत्यजस्रं यो घण्टाताडोऽरुणोदये
- मैथुनं तु समासेव्य पुंसि योषिति वा द्विजः । गोयानेऽप्सु दिवा चैव सवासाः स्नानं आचरेत् ।
- मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया । सोऽचिराद्भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः ।
- मौञ्जी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला । क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतान्तवी ।
- मौण्ड्यं प्राणान्तिकं दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते । इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्
- मौलाञ् शास्त्रविदः शूरांल्लब्धलक्षान्कुलोद्भवान् । सचिवान्सप्त चाष्टौ वा प्रकुर्वीत परीक्षितान् ।
- म्रियमाणोऽप्याददीत न राजा श्रोत्रियात्करम् । न च क्षुधास्य संसीदेच्छ्रोत्रियो विषये वसन् । ।
- य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ । स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कदा चन
- यं इद्धो न दहत्यग्निरापो नोन्मज्जयन्ति च । न चार्तिं ऋच्छति क्षिप्रं स ज्ञेयः शपथे शुचिः
- य एते तु गणा मुख्याः पितॄणां परिकीर्तिताः । तेषां अपीह विज्ञेयं पुत्रपौत्रं अनन्तकम् ।
- य एतेऽन्ये त्वभोज्यान्नाः क्रमशः परिकीर्तिताः । तेषां त्वगस्थिरोमाणि वदन्त्यन्नं मनीषिणः ।
- य एतेऽभिहिताः पुत्राः प्रसङ्गादन्यबीजजाः । यस्य ते बीजतो जातास्तस्य ते नेतरस्य तु ।
- यं एव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम् । तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने
- यः कश्चित्कस्य चिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः
- यः क्षिप्तो मर्षयत्यार्तैस्तेन स्वर्गे महीयते । यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरकं तेन गच्छति ।
- यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः । स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः ।
- यं तु पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ । तस्माद्द्विजेभ्यो दत्त्वार्धं अर्धं कोशे प्रवेशये
- यं ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादयेत्सुतम् । स पारयन्नेव शवस्तस्मात्पारशवः स्मृतः ।
- यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि
- यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा धर्मं अतद्विदः । तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तॄननुगच्छति ।
- यः संगतानि कुरुते मोहाच्छ्राद्धेन मानवः । स स्वर्गाच्च्यवते लोकाच्छ्राद्धमित्रो द्विजाधमः ।
- यः साधयन्तं छन्देन वेदयेद्धनिकं नृपे । स राज्ञा तच्चतुर्भागं दाप्यस्तस्य च तद्धनम् ।
- यः स्वयं साधयेदर्थं उत्तमर्णोऽधमर्णिकात् । न स राज्ञाभियोक्तव्यः स्वकं संसाधयन्धनम् ।
- यः स्वाध्यायं अधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः । तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु
- यः स्वामिनाननुज्ञातं आधिं भूङ्क्तेऽविचक्षणः । तेनार्धवृद्धिर्मोक्तव्या तस्य भोगस्य निष्कृतिः ।
- यक्षरक्षःपिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् । तद्ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानां अश्नता हविः
- यक्षरक्षःपिशाचांश्च गन्धर्वाप्सरसोऽसुरान् । नागान्सर्पान्सुपर्णांश्च पितॄणांश्च पृथग्गणम्
- यक्ष्मी च पशुपालश्च परिवेत्ता निराकृतिः । ब्रह्मद्विट्परिवित्तिश्च गणाभ्यन्तर एव च ।
- यच्चास्य सुकृतं किं चिदमुत्रार्थं उपार्जितम् । भर्ता तत्सर्वं आदत्ते परावृत्तहतस्य तु ।
- यजेत राजा क्रतुभिर्विविधैराप्तदक्षिणैः । धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान्धनानि च
- यजेत वाश्वमेधेन स्वर्जिता गोसवेन वा । अभिजिद्विश्वजिद्भ्यां वा त्रिवृताग्निष्टुतापि वा ।
- यज्ञश्चेत्प्रतिरुद्धः स्यादेकेनाङ्गेन यज्वनः । ब्राह्मणस्य विशेषेन धार्मिके सति राजनि
- यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः । अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ।
- यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः
- यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः । भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थं अगस्त्यो ह्याचरत्पुरा
- यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते । अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ।
- यज्ञोऽनृतेन क्षरति तपः क्षरति विस्मयात् । आयुर्विप्रापवादेन दानं च परिकीर्तनात् ।
- यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः । पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः
- यतश्च भयं आशङ्केत्ततो विस्तारयेद्बलम् । पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम् । ।
- यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहं अभोजनम् । पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः
- यत्करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनाद्द्विजः । तद्भैक्षभुग्जपन्नित्यं त्रिभिर्वर्षैर्व्यपोहति
- यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्
- यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति । तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम् ।
- यत्किं चित्पितरि प्रेते धनं ज्येष्ठोऽधिगच्छति । भागो यवीयसां तत्र यदि विद्यानुपालिनः
- यत्किं चित्स्नेहसंयुक्तं भक्ष्यं भोज्यं अगर्हितम् । तत्पर्युषितं अप्याद्यं हविःशेषं च यद्भवेत् ।
- यत्किं चिदपि दातव्यं याचितेनानसूयया । उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यत्तारयति सर्वतः
- यत्किं चिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम् । व्यवहारेण जीवन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम् ।
- यत्किं चिदेनः कुर्वन्ति मनोवाङ्गूर्तिभिर्जनाः । तत्सर्वं निर्दहन्त्याशु तपसैव तपोधनाः
- यत्किं चिन्मधुना मिश्रं प्रदद्यात्तु त्रयोदशीम् । तदप्यक्षयं एव स्याद्वर्षासु च मघासु च
- यत्तत्कारणं अव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् । तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते ।
- यत्तु दुःखसमायुक्तं अप्रीतिकरं आत्मनः । तद्रजो प्रतीपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम्
- यत्तु वाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद्भवेत् । भस्मनीव हुतं द्रव्यं तथा पौनर्भवे द्विजे
- यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तं अव्यक्तं विषयात्मकम् । अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्
- यत्त्वस्याः स्याद्धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु । अप्रजायां अतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते ।
- यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे बह्वृचं वेदपारगम् । शाखान्तगं अथाध्वर्युं छन्दोगं तु समाप्तिकम् । ।
- यत्पुण्यफलं आप्नोति गां दत्त्वा विधिवद्गुरोः । तत्पुण्यफलं आप्नोति भिक्षां दत्त्वा द्विजो गृही । ।
- यत्र त्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः । राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रं एव विनश्यति
- यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च । हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ।
- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः
- यत्र वर्जयते राजा पापकृद्भ्यो धनागमम् । तत्र कालेन जायन्ते मानवा दीर्घजीविनः
- यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा । प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति ।
- यत्रानिबद्धोऽपीक्षेत शृणुयाद्वापि किं चन । पृष्टस्तत्रापि तद्ब्रूयाद्यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।
- यत्रापवर्तते युग्यं वैगुण्यात्प्राजकस्य तु । तत्र स्वामी भवेद्दण्ड्यो हिंसायां द्विशतं दमम्
- यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन् । येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम् ।
- यथा कथं चित्पिण्डानां तिस्रोऽशीतीः समाहितः । मासेनाश्नन्हविष्यस्य चन्द्रस्यैति सलोकताम् । ।
- यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः । यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति ।
- यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति । तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति । ।
- यथा गोऽश्वोष्ट्रदासीषु महिष्यजाविकासु च । नोत्पादकः प्रजाभागी तथैवान्याङ्गनास्वपि ।
- यथा चैवापरः पक्षः पूर्वपक्षाद्विशिष्यते । तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णादपराह्णो विशिष्यते
- यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान् । तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषं आत्मनः
- यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते । आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।
- यथा दुर्गाश्रितानेतान्नोपहिंसन्ति शत्रवः । तथारयो न हिंसन्ति नृपं दुर्गसमाश्रितम् ।
- यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।
- यथा नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम् । नयेत्तथानुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम्
- यथा प्लवेनाउपलेन निमज्जत्युदके तरन् । तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ ।
- यथा फलेन युज्येत राजा कर्ता च कर्मणाम् । तथावेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत्सततं करान् ।
- यथा महाह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति । तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति ।
- यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वानुभाषते । तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते
- यथा यथा निषेवन्ते विषयान्विषयात्मकाः । तथा तथा कुशलता तेषां तेषूपजायते ।
- यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति । तथा तथा शरीरं तत्तेनाधर्मेण मुच्यते । ।
- यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति । तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते
- यथा यथा हि सद्वृत्तं आतिष्ठत्यनसूयकः । तथा तथेमं चामुं च लोकं प्राप्नोत्यनिन्दितः
- यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति । तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम् ।
- यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये । स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः
- यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः । तथा गृहस्थं आश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः
- यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला । यथा चाज्ञेऽफलं दानं तथा विप्रोऽनृचोऽफलः । ।
- यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् । तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम्
- यथार्हं एतानभ्यर्च्य ब्राह्मणैः सह पार्थिवः । सान्त्वेन प्रशमय्यादौ स्वधर्मं प्रतिपादयेत् ।
- यथाल्पाल्पं अदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः । तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः
- यथाविध्यधिगम्यैनां शुक्लवस्त्रां शुचिव्रताम् । मिथो भजेता प्रसवात्सकृत्सकृदृतावृतौ ।
- यथाशास्त्रं तु कृत्वैवं उत्सर्गं छन्दसां बहिः । विरमेत्पक्षिणीं रात्रिं तदेवैकं अहर्निशम्
- यथाश्वमेधः क्रतुराट्सर्वपापापनोदनः । तथाघमर्षणं सूक्तं सर्वपापापनोदनम्
- यथेदं उक्तवाञ् शास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया । तथेदं यूयं अप्यद्य मत्सकाशान्निबोधत ।
- यथेदं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते । जननेऽप्येवं एव स्यान्निपुणं शुद्धिं इच्छताम् ।
- यथेरिणे बीजं उप्त्वा न वप्ता लभते फलम् । तथानृचे हविर्दत्त्वा न दाता लभते फलम् ।
- यथैधस्तेजसा वह्निः प्राप्तं निर्दहति क्षणात् । तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदवित्
- यथैनं नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः । तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः ।
- यथैव शूद्रो ब्राह्मण्यां बाह्यं जन्तुं प्रसूयते । तथा बाह्यतरं बाह्यश्चातुर्वर्ण्ये प्रसूयते ।
- यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा । तस्यां आत्मनि तिष्ठन्त्यां कथं अन्यो धनं हरेत्
- यथोक्तं आर्तः सुस्थो वा यस्तत्कर्म न कारयेत् । न तस्य वेतनं देयं अल्पोनस्यापि कर्मणः ।
- यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्तमः । आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान्
- यथोक्तेन नयन्तस्ते पूयन्ते सत्यसाक्षिणः । विपरीतं नयन्तस्तु दाप्याः स्युर्द्विशतं दमम् ।
- यथोदितेन विधिना नित्यं छन्दस्कृतं पठेत् । ब्रह्म छन्दस्कृतं चैव द्विजो युक्तो ह्यनापदि
- यथोद्धरति निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति । तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्रं हन्याच्च परिपन्थिनः
- यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदर्चति । तस्य षड्भागभाग्राजा सम्यग्भवति रक्षणात्
- यदन्यगोषु वृषभो वत्सानां जनयेच्छतम् । गोमिनां एव ते वत्सा मोघं स्कन्दितं आर्षभम्
- यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च । तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन् ।
- यदा परबलानां तु गमनीयतमो भवेत् । तदा तु संश्रयेत्क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम्
- यदा प्रहृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम् । अत्युच्छ्रितं तथात्मानं तदा कुर्वीत विग्रहम् ।
- यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः । तदा सुखं अवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ।
- यदा मन्येत भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम् । परस्य विपरीतं च तदा यायाद्रिपुं प्रति ।
- यदा स देवो जागर्ति तदेवं चेष्टते जगत् । यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति ।
- यदा स्वयं न कुर्यात्तु नृपतिः कार्यदर्शनम् । तदा नियुञ्ज्याद्विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने ।
- यदाणुमात्रिको भूत्वा बीजं स्थास्नु चरिष्णु च । समाविशति संसृष्टस्तदा मूर्तिं विमुञ्चति ।
- यदावगच्छेदायत्यां आधिक्यं ध्रुवं आत्मनः । तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा संधिं समाश्रयेत्
- यदि तत्रापि संपश्येद्दोषं संश्रयकारितम् । सुयुद्धं एव तत्रापि निर्विशङ्कः समाचरेत् । ।
- यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते धर्मं अल्पशः । तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः प्राप्नोति यातनाः
- यदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः । दण्डेनैव प्रसह्यैताञ् शनकैर्वशं आनयेत्
- यदि त्वतिथिधर्मेण क्षत्रियो गृहं आव्रजेत् । भुक्तवत्सु च विप्रेषु कामं तं अपि भोजयेत् ।
- यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरोः कुले । युक्तः परिचरेदेनं आ शरीरविमोक्षणात् । ।
- यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः । शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः
- यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पुत्रेषु नप्तृषु । न त्वेव तु कृतोऽधर्मः कर्तुर्भवति निष्फलः
- यदि संशय एव स्याल्लिङ्गानां अपि दर्शने । साक्षिप्रत्यय एव स्यात्सीमावादविनिर्णयः
- यदि संसाधयेत्तत्तु दर्पाल्लोभेन वा पुनः । राज्ञा दाप्यः सुवर्णं स्यात्तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः
- यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किं चित्समाचरेत् । तत्सर्वं आचरेद्युक्तो यत्र चास्य रमेन्मनः
- यदि स्वाश्चापराश्चैव विन्देरन्योषितो द्विजाः । तासां वर्णक्रमेण स्याज्ज्येष्ठ्यं पूजा च वेश्म च । ।
- यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत् । अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्तते ।
- यदेतत्परिसंख्यातं आदावेव चतुर्युगम् । एतद्द्वादशसाहस्रं देवानां युगं उच्यते
- यदेव तर्पयत्यद्भिः पितॄन्स्नात्वा द्विजोत्तमः । तेनैव कृत्स्नं आप्नोति पितृयज्ञक्रियाफलम् ।
- यद्गर्हितेनार्जयन्ति कर्मणा ब्राह्मणा धनम् । तस्योत्सर्गेण शुध्यन्ति जप्येन तपसैव च
- यद्दुस्तरं यद्दुरापं यद्दुर्गं यच्च दुष्करम् । सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ।
- यद्द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिंश्चेष्टितं मिथः । तद्ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता ।
- यद्धनं यज्ञशीलानां देवस्वं तद्विदुर्बुधाः । अयज्वनां तु यद्वित्तं आसुरस्वं तदुच्यते
- यद्ध्यायति यत्कुरुते रतिं बध्नाति यत्र च । तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किं चन ।
- यद्प्राग्द्वादशसाहस्रं उदितं दैविकं युगम् । तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरं इहोच्यते
- यद्भक्ष्यं स्याद्ततो दद्याद्बलिं भिक्षां च शक्तितः । अम्मूलफलभिक्षाभिरर्चयेदाश्रमागतान् ।
- यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत् । यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः ।
- यद्यद्ददाति विधिवत्सम्यक्श्रद्धासमन्वितः । तत्तत्पितॄणां भवति परत्रानन्तं अक्षयम्
- यद्यद्रोचेत विप्रेभ्यस्तत्तद्दद्यादमत्सरः । ब्रह्मोद्याश्च कथाः कुर्यात्पितॄणां एतदीप्सितम् ।
- यद्यन्नं अत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति । अनदन्नन्नं अह्नैव न चेत्तस्मिन्गृहे वसेत्
- यद्यपि स्यात्तु सत्पुत्रोऽप्यसत्पुत्रोऽपि वा भवेत् । नाधिकं दशमाद्दद्याच्छूद्रापुत्राय धर्मतः ।
- यद्यर्थिता तु दारैः स्यात्क्लीबादीनां कथं चन । तेषां उत्पन्नतन्तूनां अपत्यं दायं अर्हति
- यद्यस्य विहितं चर्म यत्सूत्रं या च मेखला । यो दण्डो यच्च वसनं तत्तदस्य व्रतेष्वपि ।
- यद्याचरति धर्मं स प्रायशोऽधर्मं अल्पशः । तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गे सुखं उपाश्नुते ।
- यद्येकरिक्थिनौ स्यातां औरसक्षेत्रजौ सुतौ । यस्य यत्पैतृकं रिक्थं स तद्गृह्णीत नेतरः ।
- यद्राष्ट्रं शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्तं अद्विजम् । विनश्यत्याशु तत्कृत्स्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम्
- यद्वा तद्वा परद्रव्यं अपहृत्य बलान्नरः । अवश्यं याति तिर्यक्त्वं जग्ध्वा चैवाहुतं हविः
- यद्वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यद्भुङ्क्ते दक्षिणामुखः । सोपानत्कश्च यद्भुङ्क्ते तद्वै रक्षांसि भुञ्जते ।
- यन्नावि किं चिद्दाशानां विशीर्येतापराधतः । तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतोऽंशतः ।
- यन्मूर्त्यवयवाः सूक्ष्मास्तानीमान्याश्रयन्ति षट् । तस्माच्छरीरं इत्याहुस्तस्य मूर्तिं मनीषिणः ।
- यन्मे माता प्रलुलुभे विचरन्त्यपतिव्रता । तन्मे रेतः पिता वृङ्क्तां इत्यस्यैतन्निदर्शनम् । ।
- यमान्सेवेत सततं न नित्यं नियमान्बुधः । यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान्केवलान्भजन् । ।
- यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थितः । तेन चेदविवादस्ते मा गङ्गां मा कुरून्गमः ।
- यवीयाञ् ज्येष्ठभार्यायां पुत्रं उत्पादयेद्यदि । समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः
- यश्चापि धर्मसमयात्प्रच्युतो धर्मजीवनः । दण्डेनैव तं अप्योषेत्स्वकाद्धर्माद्धि विच्युतम् ।
- यश्चैतान्प्राप्नुयात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत् । प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते
- यस्तल्पजः प्रमीतस्य क्लीबस्य व्याधितस्य वा । स्वधर्मेण नियुक्तायां स पुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः ।
- यस्तु तत्कारयेन्मोहात्सजात्या स्थितयान्यया । यथा ब्राह्मणचाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः । ।
- यस्तु दोषवतीं कन्यां अनाख्याय प्रयच्छति । तस्य कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान्
- यस्तु दोषवतीं कन्यां अनाख्यायोपपादयेत् । तस्य तद्वितथं कुर्यात्कन्यादातुर्दुरात्मनः ।
- यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं हरेत् । आगमं वाप्यपां भिन्द्यात्स दाप्यः पूर्वसाहसम् ।
- यस्तु भीतः परावृत्तः संग्रामे हन्यते परैः । भर्तुर्यद्दुष्कृतं किं चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते । ।
- यस्तु रज्जुं घटं कूपाद्धरेद्भिन्द्याच्च यः प्रपाम् । स दण्डं प्राप्नुयान्माषं तच्च तस्मिन्समाहरेत्
- यस्त्वधर्मेण कार्याणि मोहात्कुर्यान्नराधिपः । अचिरात्तं दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः ।
- यस्त्वनाक्षारितः पूर्वं अभिभाषते कारणात् । न दोषं प्राप्नुयात्किं चिन्न हि तस्य व्यतिक्रमः ।
- यस्त्वेतान्युपक्ल्प्तानि द्रव्याणि स्तेनयेन्नरः । तं आद्यं दण्डयेद्राजा यश्चाग्निं चोरयेद्गृहात्
- यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।
- यस्मादण्वपि भूतानां द्विजान्नोत्पद्यते भयम् । तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ।
- यस्मादुत्पत्तिरेतेषां सर्वेषां अप्यशेषतः । ये च यैरुपचर्याः स्युर्नियमैस्तान्निबोधत ।
- यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः । तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा
- यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोऽभवन् । पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते
- यस्मिन्कर्मणि यास्तु स्युरुक्ताः प्रत्यङ्गदक्षिणाः । स एव ता आदिदीत भजेरन्सर्व एव वा
- यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम् । तस्मिंस्तावत्तपः कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं भवेत् ।
- यस्मिन्देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान्ब्रह्मणस्तां सभां विदुः
- यस्मिन्नृणं संनयति येन चानन्त्यं अश्नुते । स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान्विदुः ।
- यस्मिन्यस्मिन्कृते कार्ये यस्येहानुशयो भवेत् । तं अनेन विधानेन धर्म्ये पथि निवेशयेत्
- यस्मिन्यस्मिन्विवादे तु कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत् । तत्तत्कार्यं निवर्तेत कृतं चाप्यकृतं भवेत्
- यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां भ्राता वानुमते पितुः । तं शुश्रूषेत जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत् ।
- यस्य कायगतं ब्रह्म मद्येनाप्लाव्यते सकृत् । तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वं च स गच्छति । ।
- यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये । अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुं अर्हति
- यस्य दृश्येत सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः । रोगोऽग्निर्ज्ञातिमरणं ऋणं दाप्यो दमं च सः ।
- यस्य प्रसादे पद्मा श्रीर्विजयश्च पराक्रमे । मृत्युश्च वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः ।
- यस्य मन्त्रं न जानन्ति समागम्य पृथग्जनाः । स कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः ।
- यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च । तस्य प्रेत्य फलं नास्ति श्राद्धेषु च हविःषु च
- यस्य राज्ञस्तु विषये श्रोत्रियः सीदति क्षुधा । तस्यापि तत्क्षुधा राष्ट्रं अचिरेनैव सीदति
- यस्य वाङ्गनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा । स वै सर्वं अवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ।
- यस्य विद्वान्हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते । तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः
- यस्य शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम् । तस्य सीदति तद्राष्ट्रं पङ्के गौरिव पश्यतः
- यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् । न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् ।
- यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः । तां अनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः ।
- यस्यास्तु न भवेद्भ्राता न विज्ञायेत वा पिता । नोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिकाधर्मशङ्कया
- यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः । कव्यानि चैव पितरः किं भूतं अधिकं ततः ।
- या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताज्ञातापि वा सती । वोढुः स गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते ।
- या तु कन्यां प्रकुर्यात्स्त्री सा सद्यो मौण्ड्यं अर्हति । अङ्गुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा
- या नियुक्तान्यतः पुत्रं देवराद्वाप्यवाप्नुयात् । तं कामजं अरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते
- या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वयेच्छया । उत्पादयेत्पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते ।
- यां यां योनिं तु जीवोऽयं येन येनेह कर्मणा । क्रमशो याति लोकेऽस्मिंस्तत्तत्सर्वं निबोधत ।
- या रोगिणी स्यात्तु हिता संपन्ना चैव शीलतः । सानुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हि चित्
- या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः । सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ।
- या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे । अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ
- याजनाध्यापने नित्यं क्रियेते संस्कृतात्मनाम् । प्रतिग्रहस्तु क्रियते शूद्रादप्यन्त्यजन्मनः ।
- याज्ञार्थं अर्थं भिक्षित्वा यो न सर्वं प्रयच्छति । स याति भासतां विप्रः काकतां वा शतं समाः ।
- यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः । अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ।
- यादृग्गुणेन भर्त्रा स्त्री संयुज्येत यथाविधि । तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणेव निम्नगा
- यादृशं तूप्यते बीजं क्षेत्रे कालोपपादिते । तादृग्रोहति तत्तस्मिन्बीजं स्वैर्व्यञ्जितं गुणैः
- यादृशं फलं आप्नोति कुप्लवैः संतरञ् जलम् । तादृशं फलं आप्नोति कुपुत्रैः संतरंस्तमः
- यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम् । तस्मात्प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत्प्रयत्नतः
- यादृशा धनिभिः कार्या व्यवहारेषु साक्षिणः । तादृशान्संप्रवक्ष्यामि यथा वाच्यं ऋतं च तैः ।
- यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते । तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलं उपाश्नुते
- यादृशोऽस्य भवेदात्मा यादृशं च चिकीर्षितम् । यथा चोपचरेदेनं तथात्मानं निवेदयेत् ।
- यानशय्याप्रदो भार्यां ऐश्वर्यं अभयप्रदः । धान्यदः शाश्वतं सौख्यं ब्रह्मदो ब्रह्मसार्ष्टिताम् ।
- यानशय्यासनान्यस्य कूपोद्यानगृहाणि च । अदत्तान्युपयुञ्जान एनसः स्यात्तुरीयभाक्
- यानस्य चैव यातुश्च यानस्वामिन एव च । दशातिवर्तनान्याहुः शेषे दण्डो विधीयते ।
- यानि चैवंप्रकाराणि कालाद्भूमिर्न भक्षयेत् । तानि संधिषु सीमायां अप्रकाशानि कारयेत्
- यानि राजप्रदेयानि प्रत्यहं ग्रामवासिभिः । अन्नपानेन्धनादीनि ग्रामिकस्तान्यवाप्नुयात् । ।
- यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा । ब्रह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात्ताञ् जिजीविषुः
- यामीस्ता यातनाः प्राप्य स जीवो वीतकल्मषः । तान्येव पञ्च भूतानि पुनरप्येति भागशः ।
- यावतः संस्पृशेदङ्गैर्ब्राह्मणाञ् शूद्रयाजकः । तावतां न भवेद्दातुः फलं दानस्य पौर्तिकम् ।
- यावतो ग्रसते ग्रासान्हव्यकव्येष्वमन्त्रवित् । तावतो ग्रसते प्रेतो दीप्तशूलर्ष्ट्ययोगुडान् ।
- यावतो बान्धवान्यस्मिन्हन्ति साक्ष्येऽनृतं वदन् । तावतः संख्यया तस्मिन्शृणु सौम्यानुपूर्वशः
- यावत्त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत् । तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात्प्रियहिते रतः ।
- यावदुष्मा भवत्यन्नं यावदश्नन्ति वाग्यताः । पितरस्तावदश्नन्ति यावन्नोक्ता हविर्गुणाः ।
- यावदेकानुदिष्टस्य गन्धो लेपश्च तिष्ठति । विप्रस्य विदुषो देहे तावद्ब्रह्म न कीर्तयेत् ।
- यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् । वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।
- यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद्गन्धो लेपश्च तत्कृतः । तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु ।
- यावानवध्यस्य वधे तावान्वध्यस्य मोक्षणे । अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः ।
- यासां नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः । अर्हणं तत्कुमारीणां आनृशंस्यं च केवलम्
- यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासां अपि यथार्हतः । मातामह्या धनात्किं चित्प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम्
- युक्षु कुर्वन्दिनर्क्षेषु सर्वान्कामान्समश्नुते । अयुक्षु तु पितॄन्सर्वान्प्रजां प्राप्नोति पुष्कलाम् ।
- युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन्महात्मनि । तदायं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः
- युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु । तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्
- ये कार्यिकेभ्योऽर्थं एव गृह्णीयुः पापचेतसः । तेषां सर्वस्वं आदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्
- ये तत्र नोपसर्पेयुर्मूलप्रणिहिताश्च ये । तान्प्रसह्य नृपो हन्यात्समित्रज्ञातिबान्धवान्
- ये द्विजानां अपसदा ये चापध्वंसजाः स्मृताः । ते निन्दितैर्वर्तयेयुर्द्विजानां एव कर्मभिः ।
- ये नियुक्तास्तु कार्येषु हन्युः कार्याणि कार्यिणाम् । धनोष्मणा पच्यमानास्तान्निःस्वान्कारयेन्नृपः
- ये पाकयज्ञास्चत्वारो विधियज्ञसमन्विताः । सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
- ये बकव्रतिनो विप्रा ये च मार्जारलिङ्गिनः । ते पतन्त्यन्धतामिस्रे तेन पापेन कर्मणा । ।
- ये शूद्रादधिगम्यार्थं अग्निहोत्रं उपासते । ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिषु गर्हिताः
- ये स्तेनपतितक्लीबा ये च नास्तिकवृत्तयः । तान्हव्यकव्ययोर्विप्राननर्हान्मनुरब्रवीत् । ।
- येन केन चिदङ्गेन हिंस्याच्चेच्छ्रेष्ठं अन्त्यजः । छेत्तव्यं तद्तदेवास्य तन्मनोरनुशासनम् । ।
- येन यस्तु गुणेनैषां संसरान्प्रतिपद्यते । तान्समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य यथाक्रमम्
- येन येन तु भावेन यद्यद्दानं प्रयच्छति । तत्तत्तेनैव भावेन प्राप्नोति प्रतिपूजितः ।
- येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टते । तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः
- येनास्मिन्कर्मना लोके ख्यातिं इच्छति पुष्कलाम् । न च शोचत्यसंपत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम् । ।
- येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः । तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यति ।
- येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः । म्रियेतान्यतरो वापि तस्य भागो न लुप्यते । ।
- येषां तु यादृषं कर्म भूतानां इह कीर्तितम् । तत्तथा वोऽभिधास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि ।
- येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि । तांश्चारयित्वा त्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्
- येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः । ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्व चित्
- यैः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः । तानि कारुककर्माणि शिल्पानि विविधानि च
- यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः । क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत्प्रकोप्य तान्
- यैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति । तान्वोऽभ्युपायान्वक्ष्यामि देवर्षिपितृसेवितान् ।
- यैर्यैरुपायैरर्थं स्वं प्राप्नुयादुत्तमर्णिकः । तैर्तैरुपायैः संगृह्य दापयेदधमर्णिकम्
- यो ग्रामदेशसंघानां कृत्वा सत्येन संविदम् । विसंवदेन्नरो लोभात्तं राष्ट्राद्विप्रवासयेत् ।
- यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान्मातेव स पितेव सः । अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात्स संपूज्यस्तु बन्धुवत्
- यो ज्येष्ठो विनिकुर्वीत लोभाद्भ्रातॄन्यवीयसः । सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः ।
- यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात् । तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः
- यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम् । नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः
- यो निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते । तावुभौ चौरवच्छास्यौ दाप्यौ वा तत्समं दमम् ।
- यो निक्षेपं याच्यमानो निक्षेप्तुर्न प्रयच्छति । स याच्यः प्राड्विवाकेन तन्निक्षेप्तुरसंनिधौ
- यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति । स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखं अत्यन्तं अश्नुते
- यो यथा निक्षिपेद्धस्ते यं अर्थं यस्य मानवः । स तथैव ग्रहीतव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः
- यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते । स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्
- यो यस्य धर्म्यो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ । तद्वः सर्वं प्रवक्ष्यामि प्रसवे च गुणागुणान् ।
- यो यस्य प्रतिभूस्तिष्ठेद्दर्शनायेह मानवः । अदर्शयन्स तं तस्य प्रयच्छेत्स्वधनादृणम्
- यो यस्य मांसं अश्नाति स तन्मांसाद उच्यते । मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत्
- यो यस्यैषां विवाहानां मनुना कीर्तितो गुणः । सर्वं शृणुत तं विप्राः सर्वं कीर्तयतो मम
- यो यावन्निह्नुवीतार्थं मिथ्या यावति वा वदेत् । तौ नृपेण ह्यधर्मज्ञौ दाप्यो तद्द्विगुणं दमम् ।
- यो येन पतितेनैषां संसर्गं याति मानवः । स तस्यैव व्रतं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये
- यो राज्ञः प्रतिगृह्णाति लुब्धस्योच्छास्त्रवर्तिनः । स पर्यायेण यातीमान्नरकानेकविंशतिम् । ।
- यो लोभादधमो जात्या जीवेदुत्कृष्टकर्मभिः । तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रं एव प्रवासयेत् ।
- यो वैश्यः स्याद्बहुपशुर्हीनक्रतुरसोमपः । कुटुम्बात्तस्य तद्द्रव्यं आहरेद्यज्ञसिद्धये ।
- यो ह्यस्य धर्मं आचष्टे यश्चैवादिशति व्रतम् । सोऽसंवृतं नाम तमः सह तेनैव मज्जति ।
- योगाधमनविक्रीतं योगदानप्रतिग्रहम् । यत्र वाप्युपधिं पश्येत्तत्सर्वं विनिवर्तयेत् ।
- योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधं अर्हति । सकामां दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः ।
- योऽदत्तादायिनो हस्ताल्लिप्सेत ब्राह्मणो धनम् । याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः ।
- योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म परं अभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ।
- योऽनधीत्य द्विजो वेदं अन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शूद्रत्वं आशु गच्छति सान्वयः
- योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः । तयोरपि कुटुम्बाभ्यां आहरेदविचारयन्
- योऽन्यथा सन्तं आत्मानं अन्यथा सत्सु भाषते । स पापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः ।
- योऽरक्षन्बलिं आदत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः । प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं व्रजेत् ।
- योऽर्चितं प्रतिगृह्णाति ददात्यर्चितं एव वा । तावुभौ गच्छतः स्वर्गं नरकं तु विपर्यये ।
- योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः । स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः
- योऽसाधुभ्योऽर्थं आदाय साधुभ्यः संप्रयच्छति । स कृत्वा प्लवं आत्मानं संतारयति तावुभौ
- योऽसावतीन्द्रियग्राह्यः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः । सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः स एव स्वयं उद्बभौ ।
- योऽस्यात्मनः कारयिता तं क्षेत्रज्ञं प्रचक्षते । यः करोति तु कर्माणि स भूतात्मोच्यते बुधैः
- योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवांश्च मृतश्चैव न क्व चित्सुखं एधते
- रक्षनादार्यवृत्तानां कण्टकानां च शोधनात् । नरेन्द्रास्त्रिदिवं यान्ति प्रजापालनतत्प
- रक्षन्धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन् । यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः
- रजसाभिप्लुतां नारीं नरस्य ह्युपगच्छतः । प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रहीयते । ।
- रथं हरेत्चाध्वर्युर्ब्रह्माधाने च वाजिनम् । होता वापि हरेदश्वं उद्गाता चाप्यनः क्रये ।
- रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः । सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्
- रसा रसैर्निमातव्या न त्वेव लवणं रसैः । कृतान्नं च कृतान्नेन तिला धान्येन तत्समाः
- राजतैर्भाजनैरेषां अथो वा रजतान्वितैः । वार्यपि श्रद्धया दत्तं अक्षयायोपकल्पते ।
- राजतो धनं अन्विच्छेत्संसीदन्स्नातकः क्षुधा । याज्यान्तेवासिनोर्वापि न त्वन्यत इति स्थितिः
- राजधर्मान्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः । संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा
- राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गं आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ।
- राजर्त्विक्स्नातकगुरून्प्रियश्वशुरमातुलान् । अर्हयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरात्पुनः
- राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च । प्रत्यहं कल्पयेद्वृत्तिं स्थानं कर्मानुरूपतः ।
- राजा च श्रोत्रियश्चैव यज्ञकर्मण्युपस्थितौ । मधुपर्केण संपूज्यौ न त्वयज्ञ इति स्थितिः
- राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः । एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते
- राजा स्तेनेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता । आचक्षाणेन तत्स्तेयं एवंकर्मास्मि शाधि माम् ।
- राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः । वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः ।
- राजान्नं तेज आदत्ते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम् । आयुः सुवर्णकारान्नं यशश्चर्मावकर्तिनः ।
- राज्ञः कोशापहर्तॄंश्च प्रतिकूलेषु च स्थितान् । घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोपजापकान् ।
- राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिषिद्धानि यानि च । ताणि निर्हरतो लोभात्सर्वहारं हरेन्नृपः ।
- राज्ञश्च दद्युरुद्धारं इत्येषा वैदिकी श्रुतिः । राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यं अपृथग्जितम्
- राज्ञो महात्मिके स्थाने सद्यःशौचं विधीयते । प्रजानां परिरक्षार्थं आसनं चात्र कारणम्
- राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः । भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः ।
- रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति । रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला ।
- रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा । संध्ययोरुभयोश्चैव सूर्ये चैवाचिरोदिते ।
- राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानं इदं आचरेत् । सुसंगृहीतराष्ट्रे हि पार्थिवः सुखं एधते ।
- राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान्सामन्तांश्चैव चोदितान् । अभ्याघातेषु मध्यस्थाञ् शिष्याच्चौरानिव द्रुतम् । ।
- रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः । पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः
- रेतःसेकः स्वयोनीषु कुमारीष्वन्त्यजासु च । सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु गुरुतल्पसमं विदुः ।
- लक्ष्यं शस्त्रभृतां वा स्याद्विदुषां इच्छयात्मनः । प्रास्येदात्मानं अग्नौ वा समिद्धे त्रिरवाक्शिराः ।
- लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च । अभक्ष्याणि द्विजातीनां अमेध्यप्रभवानि च
- लूताहिसरटानां च तिरश्चां चाम्बुचारिणाम् । हिंस्राणां च पिशाचानां स्तेनो विप्रः सहस्रशः
- लोकसंव्यवहारार्थं याः संज्ञाः प्रथिता भुवि । ताम्ररूप्यसुवर्णानां ताः प्रवक्ष्याम्यशेषतः
- लोकानन्यान्सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः । देवान्कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात् । ।
- लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः । ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ।
- लोकेशाधिष्ठितो राजा नास्याशौचं विधीयते । शौचाशौचं हि मर्त्यानां लोकेभ्यः प्रभवाप्ययौ ।
- लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता । याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम् ।
- लोभात्सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात्पूर्वं तु साहसम् । भयाद्द्वौ मध्यमौ दण्डौ मैत्रात्पूर्वं चतुर्गुणम्
- लोभान्मोहाद्भयान्मैत्रात्कामात्क्रोधात्तथैव च । अज्ञानाद्बालभावाच्च साक्ष्यं वितथं उच्यते ।
- लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः । स विनाशं व्रजत्याशु सूचकाशुचिरेव च
- लोहशङ्कुं ऋजीषं च पन्थानं शाल्मलीं नदीम् । असिपत्रवनं चैव लोहदारकं एव च ।
- लोहितान्वृक्षनिर्यासान्वृश्चनप्रभवांस्तथा । शेलुं गव्यं च पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत्
- लौकिकं वैदिकं वापि तथाध्यात्मिकं एव वा । आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वं अभिवादयेत् ।
- वत्सस्य ह्यभिशस्तस्य पुरा भ्रात्रा यवीयसा । नाग्निर्ददाह रोमापि सत्येन जगतः स्पशः ।
- वधेनापि यदा त्वेतान्निग्रहीतुं न शक्नुयात् । तदैषु सर्वं अप्येतत्प्रयुञ्जीत चतुष्टयम् ।
- वध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाज्ञया । वध्यवासांसि गृह्णीयुः शय्याश्चाभरणानि च ।
- वनस्पतीनां सर्वेषां उपभोगो यथा यथा । यथा तथा दमः कार्यो हिंसायां इति धारणा ।
- वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागं आयुषः । चतुर्थं आयुषो भागं त्यक्वा सङ्गान्परिव्रजेत्
- वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याऽअब्दे दशमे तु मृतप्रजा । एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी ।
- वपनं मेखला दण्डो भैक्षचर्या व्रतानि च । निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनःसंस्कारकर्मणि ।
- वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च । वेषवाग्बुद्धिसारूप्यं आचरन्विचरेदिह
- वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः । परधर्मेण जीवन्हि सद्यः पतति जातितः ।
- वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते । तथा पापान्निगृह्णीयाद्व्रतं एतद्धि वारुणम् । ।
- वर्जयेन्मधु मांसं च गन्धं माल्यं रसान्स्त्रियः । शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ।
- वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवकानि च । भूस्तृणं शिग्रुकं चैव श्लेश्मातकफलानि च । ।
- वर्णापेतं अविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम् । आर्यरूपं इवानार्यं कर्मभिः स्वैर्विभावयेत् ।
- वर्तयंश्च शिलोञ्छाभ्यां अग्निहोत्रपरायणः । इष्टीः पार्वायणान्तीयाः केवला निर्वपेत्सदा ।
- वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम्
- वशापुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं निष्कुलासु च । पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च
- वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा । सर्वान्संसाधयेदर्थानक्षिण्वन्योगतस्तनुम् ।
- वसा शुक्रं असृङ्मज्जा मूत्रविट्घ्राणकर्णविट् । श्लेश्म अश्रु दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः
- वसिष्ठविहितां वृद्धिं सृजेद्वित्तविवर्धिनीम् । अशीतिभागं गृह्णीयान्मासाद्वार्धुषिकः शते
- वसीत चर्म चीरं वा सायं स्नायात्प्रगे तथा । जटाश्च बिभृयान्नित्यं श्मश्रुलोमनखानि च
- वसून्वदन्ति तु पितॄन्रुद्रांश्चैव पितामहान् । प्रपितामहांस्तथादित्यान्श्रुतिरेषा सनातनी
- वस्त्रं पत्रं अलङ्कारं कृतान्नं उदकं स्त्रियः । योगक्षेमं प्रचारं च न विभाज्यं प्रचक्षते ।
- वाग्गैवत्यैश्च चरुभिर्यजेरंस्ते सरस्वतीम् । अनृतस्यैनसस्तस्य कुर्वाणा निष्कृतिं पराम्
- वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम् । तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डं अतः परम्
- वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च । यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदण्डीति स उच्यते
- वाग्दुष्टात्तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः । साहसस्य नरः कर्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः ।
- वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्गूला वाग्विनिःसृताः । तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः
- वाच्येके जुह्वति प्राणं प्राणे वाचं च सर्वदा । वाचि प्राणे च पश्यन्तो यज्ञनिर्वृत्तिं अक्षयाम् ।
- वाणिज्यं कारयेद्वैश्यं कुसीदं कृषिं एव च । पशूनां रक्षणं चैव दास्यं शूद्रं द्विजन्मनाम्
- वानस्पत्यं मूलफलं दार्वग्न्यर्थं तथैव च । तृणं च गोभ्यो ग्रासार्थं अस्तेयं मनुरब्रवीत् ।
- वान्ताश्युल्कामुखः प्रेतो विप्रो धर्मात्स्वकाच्च्युतः । अमेध्यकुणपाशी च क्षत्रियः कटपूतनः
- वान्तो विरिक्तः स्नात्वा तु घृतप्राशनं आचरेत् । आचामेदेव भुक्त्वान्नं स्नानं मैथुनिनः स्मृतम् ।
- वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णु तमोनुदम् । ज्योतिरुत्पद्यते भास्वत्तद्रूपगुणं उच्यते
- वाय्वग्निविप्रं आदित्यं अपः पश्यंस्तथैव गाः । न कदा चन कुर्वीत विण्मूत्रस्य विसर्जनम्
- वारिदस्तृप्तिं आप्नोति सुखं अक्षय्यं अन्नदः । तिलप्रदः प्रजां इष्टां दीपदश्चक्षुरुत्तमम् । ।
- वार्षिकांश्चतुरो मासान्यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति । तथाभिवर्षेत्स्वं राष्ट्रं कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ।
- वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयं आहृतैः । पुरोडाशांश्चरूंश्चैव विधिवन्निर्वपेत्पृथक् ।
- वासांसि मृतचैलानि भिन्नभाण्डेषु भोजनम् । कार्ष्णायसं अलङ्कारः परिव्रज्या च नित्यशः
- वासो दद्याद्धयं हत्वा पञ्च नीलान्वृषान्गजम् । अजमेषावनड्वाहं खरं हत्वैकहायनम्
- वासोदश्चन्द्रसालोक्यं अश्विसालोक्यं अश्वदः । अनडुहः श्रियं पुष्टां गोदो ब्रध्नस्य विष्टपम्
- विक्रयाद्यो धनं किं चिद्गृह्णीयत्कुलसंनिधौ । क्रयेण स विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम्
- विक्रीणीते परस्य स्वं योऽस्वामी स्वाम्यसम्मतः । न तं नयेत साक्ष्यं तु स्तेनं अस्तेनमानिनम् ।
- विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्ह्रियन्ते दस्युभिः प्रजाः । संपश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति
- विगतं तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम् । यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् ।
- विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं वामृतभोजनः । विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्
- विघुष्य तु हृतं चौरैर्न पालो दातुं अर्हति । यदि देशे च काले च स्वामिनः स्वस्य शंसति ।
- विट्शूद्रयोरेवं एव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः । छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्येति विनिश्चयः । ।
- विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयोः । प्राश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्
- विण्मूत्रोत्सर्गशुद्ध्यर्थं मृद्वार्यादेयं अर्थवत् । दैहिकानां मलानां च शुद्धिषु द्वादशस्वपि ।
- वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी । एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ।
- विदुषा ब्राह्मणेनेदं अध्येतव्यं प्रयत्नतः । शिश्येभ्यश्च प्रवक्तव्यं सम्यङ्नान्येन केन चित् ।
- विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना । आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनां इरिणे वपेत् । ।
- विद्या ब्राह्मणं एत्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम् । असूयकाय मां मादास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा
- विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः । धृतिर्भैक्षं कुसीदं च दश जीवनहेतवः
- विद्यागुरुष्वेवं एव नित्या वृत्तिः स्वयोनिषु । प्रतिषेधत्सु चाधर्माद्धितं चोपदिशत्स्वपि ।
- विद्यातपःसमृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु । निस्तारयति दुर्गाच्च महतश्चैव किल्बिषात् ।
- विद्याधनं तु यद्यस्य तत्तस्यैव धनं भवेत् । मैत्र्यं औद्वाहिकं चैव माधुपर्किकं एव च ।
- विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च । उल्कानिर्घातकेतूंश्च ज्योतींष्युच्चावचानि च
- विद्युत्स्तनितवर्षेषु महोल्कानां च संप्लवे । आकालिकं अनध्यायं एतेषु मनुरब्रवीत् । ।
- विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यं अद्वेषरागिभिः । हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत ।
- विद्वांस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्वा पूर्वोपनिहितं निधिम् । अशेषतोऽप्याददीत सर्वस्याधिपतिर्हि सः ।
- विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि । एकं उत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथं चन ।
- विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि । गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम् ।
- विधाता शासिता वक्ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते । तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरं ईरयेत् ।
- विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियमं आस्थिता । प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः
- विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत्कार्यवान्नरः । अवृत्तिकर्शिता हि स्त्री प्रदुष्येत्स्थितिमत्यपि । ।
- विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः । उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः
- विधिवत्प्रतिगृह्यापि त्यजेत्कन्यां विगर्हिताम् । व्याधितां विप्रदुष्टां वा छद्मना चोपपादिताम् ।
- विधूमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने । वृत्ते शरावसंपाते भिक्षां नित्यं यतिश्चरेत् ।
- विनाद्भिरप्सु वाप्यार्तः शारीरं संनिषेव्य च । सचैलो बहिराप्लुत्य गां आलभ्य विशुध्यति
- विनीतैस्तु व्रजेन्नित्यं आशुगैर्लक्षणान्वितैः । वर्णरूपोपसंपन्नैः प्रतोदेनातुदन्भृशम् ।
- विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम् । वैश्यः प्रतोदं रश्मीन्वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः ।
- विप्रदुष्टां स्त्रियं भर्ता निरुन्ध्यादेकवेश्मनि । यत्पुंसः परदारेषु तच्चैनां चारयेद्व्रतम् ।
- विप्रयोगं प्रियैश्चैव संयोगं च तथाप्रियैः । जरया चाभिभवनं व्याधिभिश्चोपपीडनम् ।
- विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते । यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम् ।
- विप्रस्य त्रिषु वर्णेषु नृपतेर्वर्णयोर्द्वयोः । वैश्यस्य वर्णे चैकस्मिन्षडेतेऽपसदाः स्मृताः ।
- विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः । वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणां एव जन्मतः
- विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् । शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः
- विप्रोष्य पादग्रहणं अन्वहं चाभिवादनम् । गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्मं अनुस्मरन् । ।
- विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन्पुनर्यदि । समस्तत्र विभागः स्याज्ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते
- विराट्सुताः सोमसदः साध्यानां पितरः स्मृताः । अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः ।
- विविधाश्चैव संपीडाः काकोलूकैश्च भक्षणम् । करम्भवालुकातापान्कुम्भीपाकांश्च दारुणान्
- विंशतीशस्तु तत्सर्वं शतेशाय निवेदयेत् । शंसेद्ग्रामशतेशस्तु सहस्रपतये स्वयम् । ।
- विशिष्टं कुत्र चिद्बीजं स्त्रीयोनिस्त्वेव कुत्र चित् । उभयं तु समं यत्र सा प्रसूतिः प्रशस्यते । ।
- विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः । उपचार्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः
- विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो बलिं आकाश उत्क्षिपेत् । दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तंचारिभ्य एव च ।
- विश्वैश्च देवैः साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः । आपत्सु मरणाद्भीतैर्विधेः प्रतिनिधिः कृतः
- विषघ्नैरगदैश्चास्य सर्वद्रव्याणि योजयेत् । विषघ्नानि च रत्नानि नियतो धारयेत्सदा ।
- विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् । अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि काञ्चनम्
- विसृज्य ब्राह्मणांस्तांस्तु नियतो वाग्यतः शुचिः । दक्षिणां दिशं आकाङ्क्षन्याचेतेमान्वरान्पितॄन्
- विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्राद्द्रव्योपादानं आचरेत् । न हि तस्यास्ति किं चित्स्वं भर्तृहार्यधनो हि सः । ।
- वीक्ष्यान्धो नवतेः काणः षष्टेः श्वित्री शतस्य तु । पापरोगी सहस्रस्य दातुर्नाशयते फलम् । । ३.१
- वृको मृगेभं व्याघ्रोऽश्वं फलमूलं तु मर्कटः । स्त्रीं ऋक्षः स्तोकको वारि यानान्युष्ट्रः पशूनजः
- वृतिं तत्र प्रकुर्वीत यां उष्ट्रो न विलोकयेत् । छिद्रं च वारयेत्सर्वं श्वसूकरमुखानुगम् ।
- वृत्तीनां लक्षणं चैव स्नातकस्य व्रतानि च । भक्ष्याभक्ष्यं च शौचं च द्रव्याणां शुद्धिं एव च
- वृथा कृसरसंयावं पायसापूपं एव च । अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च ।
- वृथासंकरजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् । आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया
- वृद्धांश्च नित्यं सेवेत विप्रान्वेदविदः शुचीन् । वृद्धसेवी हि सततं रक्षोभिरपि पूज्यते
- वृषभैकादशा गाश्च दद्यात्सुचरितव्रतः । अविद्यमाने सर्वस्वं वेदविद्भ्यो निवेदयेत् ।
- वृषलीफेनपीतस्य निःश्वासोपहतस्य च । तस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते ।
- वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् । वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्
- वेणुवैदलभाण्डानां लवणानां तथैव च । मृण्मयानां च हरणे मृदो भस्मन एव च
- वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः । क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः ।
- वेदं एव सदाभ्यस्येत्तपस्तप्स्यन्द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परं इहोच्यते ।
- वेदं एवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालं अतन्द्रितः । तं ह्यस्याहुः परं धर्मं उपधर्मोऽन्य उच्यते ।
- वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।
- वेदप्रदानादाचार्यं पितरं परिचक्षते । न ह्यस्मिन्युज्यते कर्म किञ् चिदा मौञ्जिबन्धनात् ।
- वेदयज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु । ब्रह्मचार्याहरेद्भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम् ।
- वेदविच्चापि विप्रोऽस्य लोभात्कृत्वा प्रतिग्रहम् । विनाशं व्रजति क्षिप्रं आमपात्रं इवाम्भसि
- वेदविद्याव्रतस्नाताञ् श्रोत्रियान्गृहमेधिनः । पूजयेद्धव्यकव्येन विपरीतांश्च वर्जयेत् ।
- वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् । इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते । ।
- वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम् । अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रमं आवसेत् ।
- वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं इन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ।
- वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम् ।
- वेदाभ्यासेन सततं शौचेन तपसैव च । अद्रोहेण च भूतानां जातिं स्मरति पौर्विकीम् ।
- वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम् । वार्ताकर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु ।
- वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा । नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि
- वेदार्थवित्प्रवक्ता च ब्रह्मचारी सहस्रदः । शतायुश्चैव विज्ञेया ब्राह्मणाः पङ्क्तिपावनाः ।
- वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छति कर्हि चित् ।
- वेदोक्तं आयुर्मर्त्यानां आशिषश्चैव कर्मणाम् । फलन्त्यनुयुगं लोके प्रभावश्च शरीरिणाम्
- वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रितः । तद्धि कुर्वन्यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम् ।
- वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे । स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तं अभोजनम् ।
- वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके । नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि
- वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च ।
- वेनो विनष्टोऽविनयान्नहुषश्चैव पार्थिवः । सुदाः पैजवनश्चैव सुमुखो निमिरेव च ।
- वैणवीं धारयेद्यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम् । यज्ञोपवीतं वेदं च शुभं रौक्मे च कुण्डले । ।
- वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि । दर्शं अस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः
- वैदिके कर्मयोगे तु सर्वाण्येतान्यशेषतः । अन्तर्भवन्ति क्रमशस्तस्मिंस्तस्मिन्क्रियाविधौ
- वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम् । कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च
- वैरिणं नोपसेवेत सहायं चैव वैरिणः । अधार्मिकं तस्करं च परस्यैव च योषितम् ।
- वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि । पञ्चयज्ञविधानं च पक्तिं चान्वाहिकीं गृही ।
- वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ।
- वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात् । संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः
- वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थितिः । न तौ प्रति हि तान्धर्मान्मनुराह प्रजापतिः
- वैश्यः सर्वस्वदण्डः स्यात्संवत्सरनिरोधतः । सहस्रं क्षत्रियो दण्ड्यो मौण्ड्यं मूत्रेण चार्हति ।
- वैश्यवृत्तिं अनातिष्ठन्ब्राह्मणः स्वे पथि स्थितः । अवृत्तिकर्षितः सीदन्निमं धर्मं समाचरेत् ।
- वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा । हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।
- वैश्यशूद्रावपि प्राप्तौ कुटुम्बेऽतिथिधर्मिणौ । भोजयेत्सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्
- वैश्यशूद्रोपचारं च संकीर्णानां च संभवम् । आपद्धर्मं च वर्णानां प्रायश्चित्तविधिं तथा
- वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत् । तौ हि च्युतौ स्वकर्मभ्यः क्षोभयेतां इदं जगत् ।
- वैश्यश्चेत्क्षत्रियां गुप्तां वैश्यां वा क्षत्रियो व्रजेत् । यो ब्राह्मण्यां अगुप्तायां तावुभौ दण्डं अर्हतः ।
- वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम् । वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात्पशूनां चैव रक्षणे ।
- वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च । कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च
- वैश्यान्मागधवैदेहौ क्षत्रियात्सूत एव तु । प्रतीपं एते जायन्ते परेऽप्यपसदास्त्रयः । ।
- वैश्योऽजीवन्स्वधर्मेण शूद्रवृत्त्यापि वर्तयेत् । अनाचरन्नकार्याणि निवर्तेत च शक्तिमान् ।
- वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम् । आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होमं अन्वहम्
- वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते यद्यन्योऽतिथिराव्रजेत् । तस्याप्यन्नं यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरे
- व्यत्यस्तपाणिना कार्यं उपसंग्रहणं गुरोः । सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः
- व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ।
- व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । सृगालयोनिं चाप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते । ।
- व्यभिचारेण वर्णानां अवेद्यावेदनेन च । स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः
- व्यवहारान्दिदृक्षुस्तु ब्राह्मणैः सह पार्थिवः । मन्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिश्चैव विनीतः प्रविशेत्सभाम्
- व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टं उच्यते । व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः
- व्याधाञ् शाकुनिकान्गोपान्कैवर्तान्मूलखानकान् । व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः । ।
- व्रतवद्देवदैवत्ये पित्र्ये कर्मण्यथ र्षिवत् । कामं अभ्यर्थितोऽश्नीयाद्व्रतं अस्य न लुप्यते ।
- व्रतस्थं अपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत् । कुतपं चासनं दद्यात्तिलैश्च विकिरेन्महीम्
- व्रात्यता बान्धवत्यागो भृत्याध्यापनं एव च । भृत्या चाध्ययनादानं अपण्यानां च विक्रयः
- व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टकः । आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधः शैख एव च । ।
- व्रात्यानां याजनं कृत्वा परेषां अन्त्यकर्म च । अभिचारं अहीनं च त्रिभिः कृच्छ्रैर्व्यपोहति ।
- व्रीहयः शालयो मुद्गास्तिला माषास्तथा यवाः । यथाबीजं प्ररोहन्ति लशुनानीक्षवस्तथा ।
- शक्तः परजने दाता स्वजने दुःखजीविनि । मध्वापातो विषास्वादः स धर्मप्रतिरूपकः
- शक्तितोऽपचमानेभ्यो दातव्यं गृहमेधिना । संविभागश्च भूतेभ्यः कर्तव्योऽनुपरोधतः
- शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो धनसंचयः । शूद्रो हि धनं आसाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।
- शतं ब्राह्मणं आक्रुश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति । वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शूद्रस्तु वधं अर्हति ।
- शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत् । गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः
- शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ।
- शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः । वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूतिर्गुणकर्मतः । ।
- शयानः प्रौढपादश्च कृत्वा चैवावसक्थिकाम् । नाधीयीतामिषं जग्ध्वा सूतकान्नाद्यं एव च । ।
- शय्यां गृहान्कुशान्गन्धानपः पुष्पं मणीन्दधि । धाना मत्स्यान्पयो मांसं शाकं चैव न निर्णुदेत्
- शय्यासनं अलङ्कारं कामं क्रोधं अनार्जवं ंःअनार्यताम्] । द्रोहभावं कुचर्यां च स्त्रीभ्यो मनुरकल्पयत् ।
- शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत् । शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ।
- शरः क्षत्रियया ग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया । वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदने ।
- शरणागतं परित्यज्य वेदं विप्लाव्य च द्विजः । संवत्सरं यवाहारस्तत्पापं अपसेधति ।
- शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च । नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ।
- शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा । तथा राज्ञां अपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्
- शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् । ।
- शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् । वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्
- शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते । द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ।
- शस्त्रास्त्रभृत्त्वं क्षत्रस्य वणिक्पशुकृषिर्विषः । आजीवनार्थं धर्मस्तु दानं अध्ययनं यजिः
- शाल्मलीफलके श्लक्ष्णे नेनिज्यान्नेजकः शनैः । न च वासांसि वासोभिर्निर्हरेन्न च वासयेत् ।
- शासनाद्वा विमोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद्विमुच्यते । अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम्
- शिरोभिस्ते गृहीत्वोर्वीं स्रग्विणो रक्तवाससः । सुकृतैः शापिथाः स्वैः स्वैर्नयेयुस्ते समञ्जसम्
- शिलानप्युञ्छतो नित्यं पञ्चाग्नीनपि जुह्वतः । सर्वं सुकृतं आदत्ते ब्राह्मणोऽनर्चितो वसन् ।
- शिलोञ्छं अप्याददीत विप्रोऽजीवन्यतस्ततः । प्रतिग्रहाच्छिलः श्रेयांस्ततोऽप्युञ्छः प्रशस्यते
- शिल्पेन व्यवहारेण शूद्रापत्यैश्च केवलैः । गोभिरश्वैश्च यानैश्च कृष्या राजोपसेवया
- शिष्ट्वा वा भूमिदेवानां नरदेवसमागमे । स्वं एनोऽवभृथस्नातो हयमेधे विमुच्यते ।
- शुक्तानि च कषायांश्च पीत्वा मेध्यान्यपि द्विजः । तावद्भवत्यप्रयतो यावत्तन्न व्रजत्यधः ।
- शुचिं देशं विविक्तं च गोमयेनोपलेपयेत् । दक्षिनाप्रवणं चैव प्रयत्नेनोपपादयेत् ।
- शुचिना सत्यसंधेन यथाशास्त्रानुसारिणा । प्रणेतुं शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता
- शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहंकृतः । ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यं उत्कृष्टां जातिं अश्नुते
- शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति
- शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम् । कर्मजा गतयो नॄणां उत्तमाधममध्यमः ।
- शुल्कस्थानं परिहरन्नकाले क्रयविक्रयी । मिथ्यावादी च संख्याने दाप्योऽष्टगुणं अत्ययम् ।
- शुल्कस्थानेषु कुशलाः सर्वपण्यविचक्षणाः । कुर्युरर्घं यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत्
- शुष्काणि भुक्त्वा मांसानि भौमानि कवकानि च । अज्ञातं चैव सूनास्थं एतदेव व्रतं चरेत् । ।
- शूद्रं तु कारयेद्दास्यं क्रीतं अक्रीतं एव वा । दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा
- शूद्रविट्क्षत्रविप्राणां यत्र र्तोक्तौ भवेद्वधः । तत्र वक्तव्यं अनृतं तद्धि सत्याद्विशिष्यते
- शूद्रस्तु वृत्तिं आकाङ्क्षन्क्षत्रं आराधयेद्यदि । धनिनं वाप्युपाराध्य वैश्यं शूद्रो जिजीविषेत् ।
- शूद्रस्य तु सवर्णैव नान्या भार्या विधीयते । तस्यां जाताः समांशाः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत् ।
- शूद्रां शयनं आरोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम् । जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेव हीयते ।
- शूद्राणां मासिकं कार्यं वपनं न्यायवर्तिनाम् । वैश्यवच्छौचकल्पश्च द्विजोच्छिष्टं च भोजनम्
- शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालश्चाधमो नृणाम् । वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसंकराः ।
- शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः श्रेयसा चेत्प्रजायते । अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्या सप्तमाद्युगात्
- शूद्रावेदी पतत्यत्रेरुतथ्यतनयस्य च । शौनकस्य सुतोत्पत्त्या तदपत्यतया भृगोः
- शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते । ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः ।
- शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् । अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते । ।
- शूद्रो ब्राह्मणतां एति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् । क्षत्रियाज्जातं एवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च
- शूनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम् । वयसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद्भुवि । ।
- शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।
- शोणितं यावतः पांसून्संगृह्णाति महीतलात् । तावतोऽब्दानमुत्रान्यैः शोणितोत्पादकोऽद्यते
- शोणितं यावतः पांसून्संगृह्णाति महीतले । तावन्त्यब्दसहस्राणि तत्कर्ता नरके वसेत्
- श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति । हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते
- श्रद्दधानः शुभां विद्यां आददीतावरादपि । अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ।
- श्रद्धयेष्टं च पूर्तं च नित्यं कुर्यादतन्द्रितः । श्रद्धाकृते ह्यक्षये ते भवतः स्वागतैर्धनैः । ।
- श्राद्धं भुक्त्वा य उच्छिष्टं वृषलाय प्रयच्छति । स मूढो नरकं याति कालसूत्रं अवाक्शिराः
- श्राद्धभुग्वृषलीतल्पं तदहर्योऽधिगच्छति । तस्याः पुरीषे तं मासं पितरस्तस्य शेरते ।
- श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि । युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्धपञ्चमान्
- श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शरीरं एव च । वितथेन ब्रुवन्दर्पाद्दाप्यः स्याद्द्विशतं दमम्
- श्रुतवृत्ते विदित्वास्य वृत्तिं धर्म्यां प्रकल्पयेत् । संरक्षेत्सर्वतश्चैनं पिता पुत्रं इवाउरसम् ।
- श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ । उभावपि हि तौ धर्मौ सम्यगुक्तौ मनीषिभिः
- श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ।
- श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः । इह कीर्तिं अवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्
- श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ्निबद्धं स्वेषु कर्मसु । धर्ममूलं निषेवेत सदाचारं अतन्द्रितः । ।
- श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीः कुर्यादित्यविचारयन् । वाक्शस्त्रं वै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन्द्विजः
- श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः
- श्रुत्वैतानृषयो धर्मान्स्नातकस्य यथोदितान् । इदं ऊचुर्महात्मानं अनलप्रभवं भृगुम् ।
- श्रेयसः श्रेयसोऽलाभे पापीयान्रिक्थं अर्हति । बहवश्चेत्तु सदृशाः सर्वे रिक्थस्य भागिनः
- श्रेयःसु गुरुवद्वृत्तिं नित्यं एव समाचरेत् । गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव स्वबन्धुषु । ।
- श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी । पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता ।
- श्रोत्रियं व्याधितार्तौ च बालवृद्धावकिंचनम् । महाकुलीनं आर्यं च राजा संपूजयेत्सदा
- श्रोत्रियः श्रोत्रियं साधुं भूतिकृत्येष्वभोजयन् । तदन्नं द्विगुणं दाप्यो हिरण्यं चैव माषकम्
- श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वार्धुषेः । मीमांसित्वोभयं देवाः समं अन्नं अकल्पयन् ।
- श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दातृभिः । अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम् ।
- श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् । मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च ।
- श्वक्रीडी श्येनजीवी च कन्यादूषक एव च । हिंस्रो वृषलवृत्तिश्च गणानां चैव याजकः
- श्वभिर्हतस्य यन्मांसं शुचि तन्मनुरब्रवीत् । क्रव्याद्भिश्च हतस्यान्यैश्चण्डालाद्यैश्च दस्युभिः
- श्वमांसं इच्छनार्तोऽत्तुं धर्माधर्मविचक्षणः । प्राणानां परिरक्षार्थं वामदेवो न लिप्तवान्
- श्ववतां शौण्डिकानां च चैलनिर्णेजकस्य च । रञ्जकस्य नृशंसस्य यस्य चोपपतिर्गृहे ।
- श्वशृगालखरैर्दष्टो ग्राम्यैः क्रव्याद्भिरेव च । नराश्वोष्ट्रवराहैश्च प्राणायामेन शुध्यति ।
- श्वसूकरखरोष्ट्राणां गोऽजाविमृगपक्षिणाम् । चण्डालपुक्कसानां च ब्रह्महा योनिं ऋच्छति
- श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा । भक्ष्यान्पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतह्
- षट्कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्यः प्रवर्तते । द्वाभ्यां एकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्त्रेण जीवति । ।
- षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम् । तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकं एव वा ।
- षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोऽवरान् । विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धर्म्यानराक्षसान् ।
- षण्णां एषां तु सर्वेषां कर्मणां प्रेत्य चेह च । श्रेयस्करतरं ज्ञेयं सर्वदा कर्म वैदिकम् ।
- षण्णां तु कर्मणां अस्य त्रीणि कर्माणि जीविका । याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः
- षण्मासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै । अष्टावेनस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु
- षष्ठं तु क्षेत्रजस्यांशं प्रदद्यात्पैतृकाद्धनात् । औरसो विभजन्दायं पित्र्यं पञ्चमं एव वा ।
- षष्ठान्नकालता मासं संहिताजप एव वा । होमाश्च सकला नित्यं अपाङ्क्त्यानां विशोधनम् ।
- स चेत्तु पथि संरुद्धः पशुभिर्वा रथेन वा । प्रमापयेत्प्राणभृतस्तत्र दण्डोऽविचारितः
- स ताननुपरिक्रामेत्सर्वानेव सदा स्वयम् । तेषां वृत्तं परिणयेत्सम्यग्राष्ट्रेषु तच्चरैः । ।
- स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः । अस्य सर्वस्य शृणुत कर्मयोगस्य निर्णयम्
- स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः । श्रूयतां येन दोषेण मृत्युर्विप्रान्जिघांसति
- स तैः पृष्टस्तथा सम्यगमितौजा महात्मभिः । प्रत्युवाचार्च्य तान्सर्वान्महर्षीञ् श्रूयतां इति ।
- स त्वप्सु तं घटं प्रास्य प्रविश्य भवनं स्वकम् । सर्वाणि ज्ञातिकार्याणि यथापूर्वं समाचरेत्
- स महीं अखिलां भुञ्जन्राजर्षिप्रवरः पुरा । वर्णानां संकरं चक्रे कामोपहतचेतनः । ।
- स यदि प्रतिपद्येत यथान्यस्तं यथाकृतम् । न तत्र विद्यते किं चिद्यत्परैरभियुज्यते ।
- स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः । चतुर्णां आश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः
- स विद्यादस्य कृत्येषु निर्गूढेङ्गितचेष्टितैः । आकारं इङ्गितं चेष्टां भृत्येषु च चिकीर्षितम्
- स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षयं इच्छता । सुखं चेहेच्छतात्यन्तं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः
- संकरापात्रकृत्यासु मासं शोधनं ऐन्दवम् । मलिनीकरणीयेषु तप्तः स्याद्यावकैस्त्र्यहम्
- संकरे जातयस्त्वेताः पितृमातृप्रदर्शिताः । प्रछन्ना वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः ।
- संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः । व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः
- सकामां दूषयंस्तुल्यो नाङ्गुलिच्छेदं आप्नुयात् । द्विशतं तु दमं दाप्यः प्रसङ्गविनिवृत्तये
- संकीर्णयोनयो ये तु प्रतिलोमानुलोमजाः । अन्योन्यव्यतिषक्ताश्च तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः
- सकृज्जप्त्वास्यवामीयं शिवसंकल्पं एव च । अपहृत्य सुवर्णं तु क्षणाद्भवति निर्मलः
- सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते । सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत्
- संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः । प्रतिकुर्याच्च तत्सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च
- संग्रामेष्वनिवर्तित्वं प्रजानां चैव पालनम् । शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञां श्रेयस्करं परम्
- संजीवनं महावीचिं तपनं संप्रतापनम् । संहातं च सकाकोलं कुड्मलं प्रतिमूर्तिकम्
- संतुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च । यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्
- संतोषं परं आस्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् । संतोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः
- सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसंपदः । पञ्चैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम् ।
- सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम् । एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः ।
- सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्विद्यादात्मनो गुणान् । यैर्व्याप्येमान्स्थितो भावान्महान्सर्वानशेषतः ।
- सत्यं अर्थं च संपश्येदात्मानं अथ साक्षिणः । देशं रूपं च कालं च व्यवहारविधौ स्थितः ।
- सत्यं उक्त्वा तु विप्रेषु विकिरेद्यवसं गवाम् । गोभिः प्रवर्तिते तीर्थे कुर्युस्तस्य परिग्रहम्
- सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यं अप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।
- सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन्साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान् । इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता ।
- संत्यज्य ग्राम्यं आहारं सर्वं चैव परिच्छदम् । पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा ।
- सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा । शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः ।
- सत्या न भाषा भवति यद्यपि स्यात्प्रतिष्ठिता । बहिश्चेद्भाष्यते धर्मान्नियताद्व्यवहारिकात्
- सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते । सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्
- सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते । तस्मात्सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः
- सत्येन शापयेद्विप्रं क्षत्रियं वाहनायुधैः । गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः ।
- सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्ये च दक्षया । सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया
- सदृशं तु प्रकुर्याद्यं गुणदोषविचक्षणम् । पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं स विज्ञेयश्च कृत्रिमः
- सदृशस्त्रीषु जातानां पुत्राणां अविशेषतः । न मातृतो ज्यैष्ठ्यं अस्ति जन्मतो ज्यैष्ठ्यं उच्यते
- सद्भिराचरितं यत्स्याद्धार्मिकैश्च द्विजातिभिः । तद्देशकुलजातीनां अविरुद्धं प्रकल्पयेत् । ।
- सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च । त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणः क्षीरविक्रयात् ।
- सद्यः प्रक्षालको वा स्यान्माससंचयिकोऽपि वा । षण्मासनिचयो वा स्यात्समानिचय एव वा
- संधिं च विग्रहं चैव यानं आसनं एव च । द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा
- संधिं छित्त्वा तु ये चौर्यं रात्रौ कुर्वन्ति तस्कराः । तेषां छित्त्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे शूले निवेशयेत् ।
- संधिं तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहं एव च । उभे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः
- संध्यां चोपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत् । रहस्याख्यायिनां चैव प्रणिधीनां च चेष्टितम् ।
- संनिधावेष वै कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः । असंनिधावयं ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः
- संन्यस्य सर्वकर्माणि कर्मदोषानपानुदन् । नियतो वेदं अभ्यस्य पुत्रैश्वर्ये सुखं वसेत् ।
- सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते । समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने
- सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभः क्रयो जयः । प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव च ।
- सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः । पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद्व्यसनं आत्मवान् ।
- सप्ताङ्गस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत् । अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किं चिदतिरिच्यते ।
- सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम् । पूर्वं पूर्वं गुरुतरं जानीयाद्व्यसनं महत् । ।
- संप्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके । अन्नं चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम् । ।
- संप्रीत्या भुज्यमानानि न नश्यन्ति कदा चन । धेनुरुष्ट्रो वहन्नश्वो यश्च दम्यः प्रयुज्यते
- सब्रह्मचारिण्येकाहं अतीते क्षपणं स्मृतम् । जन्मन्येकोदकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते
- संभवांश्च वियोनीषु दुःखप्रायासु नित्यशः । शीतातपाभिघातांश्च विविधानि भयानि च ।
- सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम् । अब्रुवन्विब्रुवन्वापि नरो भवति किल्बिषी ।
- सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसंनिधौ । प्राड्विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनानेन सान्त्वयन् ।
- सभाप्रपापूपशाला वेशमद्यान्नविक्रयाः । चतुष्पथांश्चैत्यवृक्षाः समाजाः प्रेक्षणानि च
- संभूय स्वानि कर्माणि कुर्वद्भिरिह मानवैः । अनेन विधियोगेन कर्तव्यांशप्रकल्पना । ।
- संभोगो दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्व चित् । आगमः कारणं तत्र न संभोग इति स्थितिः
- संभोजानि साभिहिता पैशाची दक्षिणा द्विजैः । इहैवास्ते तु सा लोके गौरन्धेवैकवेश्मनि
- समं अब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे । प्राधीते शतसाहस्रं अनन्तं वेदपारगे ।
- समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति । तत्र सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते ।
- समवर्णासु वा जाताः सर्वे पुत्रा द्विजन्मनाम् । उद्धारं ज्यायसे दत्त्वा भजेरन्नितरे समम्
- समवर्णे द्विजातीनां द्वादशैव व्यतिक्रमे । वादेष्ववचनीयेषु तदेव द्विगुणं भवेत् ।
- समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च । तदा त्वायतिसंयुक्तः संधिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः
- संमार्जनोपाञ्जनेन सेकेनोल्लेखनेन च । गवां च परिवासेन भूमिः शुध्यति पञ्चभिः
- समाहृत्य तु तद्भैक्षं यावदन्नं अमायया । निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः
- समीक्ष्य स धृतः सम्यक्सर्वा रञ्जयति प्रजाः । असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः
- समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् । प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ।
- समुत्सृजेद्राजमार्गे यस्त्वमेध्यं अनापदि । स द्वौ कार्षापणौ दद्यादमेध्यं चाशु शोधयेत्
- समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः । स्थापयन्ति तु यां वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति ।
- समैर्हि विषमं यस्तु चरेद्वै मूल्यतोऽपि वा । समाप्नुयाद्दमं पूर्वं नरो मध्यमं एव वा ।
- समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन्प्रजाः । न निवर्तेत संग्रामात्क्षात्रं धर्मं अनुस्मरन् ।
- सम्मानाद्ब्राह्मणो नित्यं उद्विजेत विषादिव । अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा
- सम्यग्दर्शनसंपन्नः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ।
- सम्यङ्निविष्टदेशस्तु कृतदुर्गश्च शास्त्रतः । कण्टकोद्धरणे नित्यं आतिष्ठेद्यत्नं उत्तमम् ।
- संयोगं पतितैर्गत्वा परस्यैव च योषितम् । अपहृत्य च विप्रस्वं भवति ब्रह्मराक्षसः
- संरक्षणार्थं जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा । शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसुधां चरेत् ।
- संरक्ष्यमाणो राज्ञा यं] कुरुते धर्मं अन्वहम् । तेनायुर्वर्धते राज्ञो द्रविणं राष्ट्रं एव च ।
- सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते
- सर्वं आत्मनि संपश्येत्सच्चासच्च समाहितः । सर्वं ह्यात्मनि संपश्यन्नाधर्मे कुरुते मनः
- सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम् । न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकम्
- सर्वं कर्मेदं आयत्तं विधाने दैवमानुषे । तयोर्दैवं अचिन्त्यं तु मानुषे विद्यते क्रिया । ।
- सर्वं च तान्तवं रक्तं शाणक्षौमाविकानि च । अपि चेत्स्युररक्तानि फलमूले तथौषधीः ।
- सर्वं च तिलसंबद्धं नाद्यादस्तं इते रवौ । न च नग्नः शयीतेह न चोच्छिष्टः क्व चिद्व्रजेत्
- सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा । श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ।
- सर्वं परवशं दुःखं सर्वं आत्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः
- सर्वं वा रिक्थजातं तद्दशधा परिकल्प्य च । धर्म्यं विभागं कुर्वीत विधिनानेन धर्मवित्
- सर्वं वापि चरेद्ग्रामं पूर्वोक्तानां असंभवे । नियम्य प्रयतो वाचं अभिशस्तांस्तु वर्जयेत्
- सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किं चिज्जगतीगतम् । श्रैष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति ।
- सर्वकण्टकपापिष्ठं हेमकारं तु पार्थिवः । प्रवर्तमानं अन्याये छेदयेल्लवशः क्षुरैः ।
- सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद्ब्राह्मणस्त्वनयं गतः । पवित्रं दुष्यतीत्येतद्धर्मतो नोपपद्यते । ।
- सर्वतो धर्मषड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः । अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य ह्यरक्षतः
- सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । समं पश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यं अधिगच्छति
- सर्वरत्नानि राजा तु यथार्हं प्रतिपादयेत् । ब्राह्मणान्वेदविदुषो यज्ञार्थं चैव दक्षिणाम्
- सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः । श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति
- सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षतयोनिषु । आनुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञेयास्त एव ते ।
- सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः । मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्
- सर्वस्वं वेदविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत् । धनं हि जीवनायालं गृहं वा सपरिच्छदम् । ।
- सर्वाकारेष्वधीकारो महायन्त्रप्रवर्तनम् । हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च ।
- सर्वान्परित्यजेदर्थान्स्वाध्यायस्य विरोधिनः । यथा तथाध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता ।
- सर्वान्रसानपोहेत कृतान्नं च तिलैः सह । अश्मनो लवणं चैव पशवो ये च मानुषाः ।
- सर्वासां एकपत्नीनां एका चेत्पुत्रिणी भवेत् । सर्वास्तास्तेन पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनुः
- सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः । अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः
- सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत् । एषां हि बाहुगुण्येन गिरिदुर्गं विशिष्यते ।
- सर्वेषां अपि चैतेषां आत्मज्ञानं परं स्मृतम् । तद्ध्यग्र्यं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः
- सर्वेषां अपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः । गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्बिभर्ति हि ।
- सर्वेषां अपि चैतेषां शुभानां इह कर्मणाम् । किं चिच्छ्रेयस्करतरं कर्मोक्तं पुरुषं प्रति
- सर्वेषां अपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा । ग्रासाच्छादनं अत्यन्तं पतितो ह्यददद्भवेत् । ।
- सर्वेषां अप्यभावे तु ब्राह्मणा रिक्थभागिनः । त्रैविद्याः शुचयो दान्तास्तथा धर्मो न हीयते ।
- सर्वेषां अर्धिनो मुख्यास्तदर्धेनार्धिनोऽपरे । तृतीयिनस्तृतीयांशाश्चतुर्थांशाश्च पादिनः ।
- सर्वेषां एव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते । वार्यन्नगोमहीवासस् तिलकाञ्चनसर्पिषाम्
- सर्वेषां एव शौचानां अर्थशौचं परं स्मृतम् । योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः
- सर्वेषां तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम् । स्थापयेत्तत्र तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम् ।
- सर्वेषां तु विशिष्टेन ब्राह्मणेन विपश्चिता । मन्त्रयेत्परमं मन्त्रं राजा षाड्गुण्यसंयुतम्
- सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक् । वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे ।
- सर्वेषां धनजातानां आददीताग्र्यं अग्रजः । यच्च सातिशयं किं चिद्दशतश्चाप्नुयाद्वरम् ।
- सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि । प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् ।
- सर्वेषां शावं आशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् । सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ।
- सर्वेऽपि क्रमशस्त्वेते यथाशास्त्रं निषेविताः । यथोक्तकारिणं विप्रं नयन्ति परमां गतिम् ।
- सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः । दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते ।
- सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः । यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः ।
- सर्षपाः षड्यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् । पञ्चकृष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश ।
- संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन च । वार्ध्रीणसस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी ।
- संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः । ऊर्ध्वं संवत्सरात्त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत्
- संवत्सरस्यैकं अपि चरेत्कृच्छ्रं द्विजोत्तमः । अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विषेशतः
- संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो दमः । व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु ।
- संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् । याजनाध्यापनाद्यौनान्न तु यानासनाशनात् ।
- सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि । कामतस्तु प्रवृत्तानां इमाः स्युः क्रमशोऽवराः
- सव्याहृतिप्रणवकाः प्राणायामास्तु षोडश । अपि भ्रूणहनं मासात्पुनन्त्यहरहः कृताः
- संशोध्य त्रिविधं मार्गं षड्विधं च बलं स्वकम् । सांपरायिककल्पेन यायादरिपुरं प्रति ।
- संसारगमनं चैव त्रिविधं कर्मसंभवम् । निःश्रेयसं कर्मणां च गुणदोषपरीक्षणम्
- संस्थितस्यानपत्यस्य सगोत्रात्पुत्रं आहरेत् । तत्र यद्रिक्थजातं स्यात्तत्तस्मिन्प्रतिपादयेत्
- सस्यान्ते नवसस्येष्ट्या तथा र्त्वन्ते द्विजोऽध्वरैः । पशुना त्वयनस्यादौ समान्ते सौमिकैर्मखैः । ।
- सह वापि व्रजेद्युक्तः संधिं कृत्वा प्रयत्नतः । मित्रं हिरण्यं भूमिं वा संपश्यंस्त्रिविधं फलम् ।
- सह सर्वाः समुत्पन्नाः प्रसमीक्ष्यापदो भृशम् । संयुक्तांश्च वियुक्तांश्च सर्वोपायान्सृजेद्बुधः
- संहतान्योधयेदल्पान्कामं विस्तारयेद्बहून् । सूच्या वज्रेण चैवैतान्व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्
- सहपिण्डक्रियायां तु कृतायां अस्य धर्मतः । अनयैवावृता कार्यं पिण्डनिर्वपनं सुतैः । ।
- सहस्रं ब्राह्मणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन् । शूद्रायां क्षत्रियविशोः साहस्रो वै भवेद्दमः
- सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्यो गुप्तां विप्रां बलाद्व्रजन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह संगतः
- सहस्रं हि सहस्राणां अनृचां यत्र भुञ्जते । एकस्तान्मन्त्रवित्प्रीतः सर्वानर्हति धर्मतः
- सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्त्रिकं द्विजः । महतोऽप्येनसो मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते । ।
- सहासनं अभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः । कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वास्यावकर्तयेत्
- सहोभौ चरतां धर्मं इति वाचानुभाष्य च । कन्याप्रदानं अभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः
- सा चेत्पुनः प्रदुष्येत्तु सदृशेनोपमन्त्रिता । कृच्छ्रं चान्द्रायणं चैव तदस्याः पावनं स्मृतम् ।
- सा चेदक्षतयोनिः स्याद्गतप्रत्यागतापि वा । पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारं अर्हति
- साक्षिणः सन्ति मेत्युक्त्वा दिशेत्युक्तो दिशेन्न यः । धर्मस्थः कारणैरेतैर्हीनं तं अपि निर्दिशेत्
- साक्षिप्रश्नविधानं च धर्मं स्त्रीपुंसयोरपि । विभागधर्मं द्यूतं च कण्टकानां च शोधनम् ।
- साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद्विब्रुवन्नार्यसंसदि । अवाङ्नरकं अभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते
- साक्ष्यभावे तु चत्वारो ग्रामाः सामन्तवासिनः । सीमाविनिर्णयं कुर्युः प्रयता राजसंनिधौ ।
- साक्ष्यभावे प्रणिधिभिर्वयोरूपसमन्वितैः । अपदेशैश्च संन्यस्य हिरण्यं तस्य तत्त्वतः । ।
- साक्ष्येऽनृतं वदन्पाशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम् । विवशः शतं आजातीस्तस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम्
- सान्तानिकं यक्ष्यमाणं अध्वगं सार्ववेदसम् । गुर्वर्थं पितृमात्रर्थं स्वाध्यायार्थ्युपतापिनः
- सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदा चन । वेदस्याधीत्य वाप्यन्तं आरण्यकं अधीत्य च ।
- सामन्तानां अभावे तु मौलानां सीम्नि साक्षिणाम् । इमानप्यनुयुञ्जीत पुरुषान्वनगोचरान्
- सामन्ताश्चेन्मृषा ब्रूयुः सेतौ विवादतां नृणाम् । सर्वे पृथक्पृथग्दण्ड्या राज्ञा मध्यमसाहसम् ।
- सामादीनां उपायानां चतुर्णां अपि पण्डिताः । सामदण्डौ प्रशंसन्ति नित्यं राष्ट्राभिवृद्धये ।
- साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरथ वा पृथक् । विजेतुं प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदा चन । ।
- सायं त्वन्नस्य सिद्धस्य पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत् । वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातर्विधीयते । ।
- सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् । लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्
- सार्ववर्णिकं अन्नाद्यं संनीयाप्लाव्य वारिणा । समुत्सृजेद्भुक्तवतां अग्रतो विकिरन्भुवि । ।
- सांवत्सरिकं आप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद्बलिम् । स्याच्चाम्नायपरो लोके वर्तेत पितृवन्नृषु
- सावित्राञ् शान्तिहोमांश्च कुर्यात्पर्वसु नित्यशः । पितॄंश्चैवाष्टकास्वर्चेन्नित्यं अन्वष्टकासु च ।
- सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः । सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थं आदृतः
- सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः । नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ।
- साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः । स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति
- साहसेषु च सर्वेषु स्तेयसंग्रहणेषु च । वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः
- सींआवृक्षांश्च कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकान् । शाल्मलीन्सालतालांश्च क्षीरिणश्चैव पादपान्
- सीताद्रव्यापहरणे शस्त्राणां औषधस्य च । कालं आसाद्य कार्यं च राजा दण्डं प्रकल्पयेत् ।
- सीदद्भिः कुप्यं इच्छद्भिर्धने वा पृथिवीपतिः । याच्यः स्यात्स्नातकैर्विप्रैरदित्संस्त्यागं अर्हति ।
- सीमां प्रति समुत्पन्ने विवादे ग्रामयोर्द्वयोः । ज्येष्ठे मासि नयेत्सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु । ।
- सीमायां अविषह्यायां स्वयं राजैव धर्मवित् । प्रदिशेद्भूमिं एकेषां उपकारादिति स्थितिः ।
- सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके । स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च ।
- सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते । सुखं चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति
- सुखाभ्युदयिकं चैव नैःश्रेयसिकं एव च । प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम् ।
- सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति । स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः
- सुप्त्वा क्षुत्वा च भुक्त्वा च निष्ठीव्योक्त्वानृतानि च । पीत्वापोऽध्येष्यमाणश्च आचामेत्प्रयतोऽपि सन्
- सुबीजं चैव सुक्षेत्रे जातं संपद्यते यथा । तथार्याज्जात आर्यायां सर्वं संस्कारं अर्हति ।
- सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् । तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्बिषात्ततः ।
- सुरा वै मलं अन्नानां पाप्मा च मलं उच्यते । तस्माद्ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ।
- सुवर्णचौरः कौनख्यं सुरापः श्यावदन्तताम् । ब्रह्महा क्षयरोगित्वं दौश्चर्म्यं गुरुतल्पगः ।
- सुवर्णस्तेयकृद्विप्रो राजानं अभिगम्य तु । स्वकर्म ख्यापयन्ब्रूयान्मां भवाननुशास्त्विति ।
- सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणो गर्भिणीः स्त्रियः । अतिथिभ्योऽग्र एवैतान्भोजयेदविचारयन् । ।
- सूक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मनः । देहेषु च समुत्पत्तिं उत्तमेष्वधमेषु च । ।
- सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः । द्वयोर्हि कुलयोः शोकं आवहेयुररक्षिताः
- सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् । वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः ।
- सूतो वैदेहकश्चैव चण्डालश्च नराधमः । मागधः तथायोगव एव च क्षत्रजातिश्च ।
- सूत्रकार्पासकिण्वानां गोमयस्य गुडस्य च । दध्नः क्षीरस्य तक्रस्य पानीयस्य तृणस्य च
- सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोऽभ्युदितश्च यः । प्रायश्चित्तं अकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा । ।
- सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत् । यतश्च भयं आशङ्केत्प्राचीं तां कल्पयेद्दिशम्
- सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वं एव च । सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ।
- सेवेतेमांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ वसन् । सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थं आत्मनः
- सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम् । भ्रातरो ये च संसृष्टा भागिन्यश्च सनाभयः ।
- सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः । वैश्यानां आज्यपा नाम शूद्राणां तु सुकालिनः
- सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोऽङ्गिरःसुताः । पुलस्त्यस्याज्यपाः पुत्रा वसिष्ठस्य सुकालिनः । ।
- सोमविक्रयिणे विष्ठा भिषजे पूयशोणितम् । नष्टं देवलके दत्तं अप्रतिष्ठं तु वार्धुषौ
- सोमाग्न्यर्कानिलेन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च । अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः ।
- सोमारौद्रं तु बह्वेनाः मासं अभ्यस्य शुध्यति । स्रवन्त्यां आचरन्स्नानं अर्यम्णां इति च तृचम्
- सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट् । स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः ।
- सोऽनुभूयासुखोदर्कान्दोषान्विषयसङ्गजान् । व्यपेतकल्मषोऽभ्येति तावेवोभौ महौजसौ
- सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात्सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यं अवासृजत् ।
- सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना । न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च ।
- सोऽस्य कार्याणि संपश्येत्सभ्यैरेव त्रिभिर्वृतः । सभां एव प्रविश्याग्र्यां आसीनः स्थित एव वा ।
- स्कन्धेनादाय मुसलं लगुडं वापि खादिरम् । शक्तिं चोभयतस्तीक्ष्णां आयसं दण्डं एव वा ।
- स्तेनगायनयोश्चान्नं तक्ष्णो वार्धुषिकस्य च । दीक्षितस्य कदर्यस्य बद्धस्य निगडस्य च
- स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टो वा मर्षयेत्तया । परस्परस्यानुमते सर्वं संग्रहणं स्मृतम् ।
- स्त्रियां तु यद्भवेद्वित्तं पित्रा दत्तं कथं चन । ब्राह्मणी तद्धरेत्कन्या तदपत्यस्य वा भवेत्
- स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम् । तस्यां त्वरोचमानायां सर्वं एव न रोचते ।
- स्त्रियाप्यसंभावे कार्यं बालेन स्थविरेण वा । शिष्येण बन्धुना वापि दासेन भृतकेन वा ।
- स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम् । विविधानि च शील्पानि समादेयानि सर्वतः ।
- स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन हृत्वा दोषं अवाप्नुयुः । एतेषां एव जन्तूनां भार्यात्वं उपयान्ति ताः ।
- स्त्रीणां असंस्कृतानां तु त्र्यहाच्छुध्यन्ति बान्धवाः । यथोक्तेनैव कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः ।
- स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः । शूद्राश्च सन्तः शूद्राणां अन्त्यानां अन्त्ययोनयः ।
- स्त्रीणां सुखोद्यं अक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम् । मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तं आशीर्वादाभिधानवत् ।
- स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवाः । नारी यानानि वस्त्रं वा ते पापा यान्त्यधोगतिम् ।
- स्त्रीधर्मयोगं तापस्यं मोक्षं संन्यासं एव च । राज्ञश्च धर्मं अखिलं कार्याणां च विनिर्णयम् ।
- स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च । पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह ।
- स्त्रीबालोन्मत्तवृद्धानां दरिद्राणां च रोगिणाम् । शिफाविदलरज्ज्वाद्यैर्विदध्यान्नृपतिर्दमम् ।
- स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान्सुतान् । सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान् ।
- स्थलजाउदकशाकानि पुष्पमूलफलानि च । मेध्यवृक्षोद्भवान्यद्यात्स्नेहांश्च फलसंभवान् ।
- स्थानासनाभ्यां विहरेदशक्तोऽधः शयीत वा । ब्रह्मचारी व्रती च स्याद्गुरुदेवद्विजार्चकः
- स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाः सकच्छपाः । पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः ।
- स्पृशन्ति बिन्दवः पादौ य आचामयतः परान् । भौमिकैस्ते समा ज्ञेया न तैराप्रयतो भवेत्
- स्पृष्ट्व दत्त्वा च मदिरां विधिवत्प्रतिगृह्य च । शूद्रोच्छिष्टाश्च पीत्वापः कुशवारि पिबेत्त्र्यहम् ।
- स्पृष्ट्वैतानशुचिर्नित्यं अद्भिः प्राणानुपस्पृशेत् । गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितलेन तु । ।
- स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौ द्विपैस्तथा । वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले ।
- स्यात्साहसं त्वन्वयवत्प्रसभं कर्म यत्कृतम् । निरन्वयं भवेत्स्तेयं हृत्वापव्ययते च यत् । ।
- स्रोतसां भेदको यश्च तेषां चावरणे रतः । गृहसंवेशको दूतो वृक्षारोपक एव च । ।
- स्वं एव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः ।
- स्वक्षेत्रे संस्कृतायां तु स्वयं उत्पादयेद्धि यम् । तं औरसं विजानीयात्पुत्रं प्राथमकल्पिकम्
- स्वजातिजानन्तरजाः षट्सुता द्विजधर्मिणः । शूद्राणां तु सधर्माणः सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः
- स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात्पराङ्मुखः । शस्त्रेण वैश्यान्रक्षित्वा धर्म्यं आहारयेद्बलिम् ।
- स्वधास्त्वित्येव तं ब्रूयुर्ब्राह्मणास्तदनन्तरम् । स्वधाकारः परा ह्याषीः सर्वेषु पितृकर्मसु ।
- स्वप्ने सिक्त्वा ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रं अकामतः । स्नात्वार्कं अर्चयित्वा त्रिः पुनर्मां इत्यृचं जपेत् ।
- स्वभाव एष नारीणां नराणां इह दूषणम् । अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः
- स्वभावेनैव यद्ब्रूयुस्तद्ग्राह्यं व्यावहारिकम् । अतो यदन्यद्विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्
- स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुं इच्छति । अनभ्यर्च्य पितॄन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत्
- स्वयं एव तु यौ दद्यान्मृतस्य प्रत्यनन्तरे । न स राज्ञाभियोक्तव्यो न निक्षेप्तुश्च बन्धुभिः ।
- स्वयं वा शिष्णवृषणावुत्कृत्याधाय चाञ्जलौ । नैरृतीं दिशं आतिष्ठेदा निपातादजिह्मगः ।
- स्वयंकृतश्च कार्यार्थं अकाले काल एव वा । मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः । ।
- स्वराष्ट्रे न्यायवृत्तः स्याद्भृशदण्डश्च शत्रुषु । सुहृत्स्वजिह्मः स्निग्धेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः
- स्वर्गार्थं उभयार्थं वा विप्रानाराधयेत्तु सः । जातब्राह्मणशब्दस्य सा ह्यस्य कृतकृत्यता
- स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तरम् । तस्मात्स्वेनैव वीर्येण निगृह्णीयादरीन्द्विजः ।
- स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलं आत्मानं एव च । स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन्हि रक्षति
- स्वादानाद्वर्णसंसर्गात्त्वबलानां च रक्षणात् । बलं संजायते राज्ञः स प्रेत्येह च वर्धते
- स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि । आख्यानानीतिहासांश्च पुराणानि खिलानि च । ।
- स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः । दाता नित्यं अनादाता सर्वभूतानुकम्पकः
- स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि । दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम् । ।
- स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ।
- स्वाध्यायेनार्चयेत र्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि । पितॄञ् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा
- स्वानि कर्माणि कुर्वाणा दूरे सन्तोऽपि मानवाः । प्रिया भवन्ति लोकस्य स्वे स्वे कर्मण्यवस्थिताः ।
- स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा । सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यं उच्यते ।
- स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे । सृष्टवन्तः प्रजाः स्वाः स्वा महात्मानो महौजसः ।
- स्वायंभुवाद्याः सप्तैते मनवो भूरितेजसः । स्वे स्वेऽन्तरे सर्वं इदं उत्पाद्यापुश्चराचरम् ।
- स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा । चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च
- स्वे स्वे धर्मे निविष्टानां सर्वेषां अनुपूर्वशः । वर्णानां आश्रमाणां च राजा सृष्टोऽभिरक्षिता
- स्वेदजं दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम् । ऊष्मणश्चोपजायन्ते यच्चान्यत्किं चिदीदृषम् ।
- स्वेभ्यः स्वेभ्यस्तु कर्मभ्यश्च्युता वर्णा ह्यनापदि । पापान्संसृत्य संसारान्प्रेष्यतां यान्ति शत्रुषु ।
- स्वेभ्योऽंशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भ्रातरः पृथक् । स्वात्स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः
- हत्वा गर्भं अविज्ञातं एतदेव व्रतं चरेत् । राजन्यवैश्यौ चेजानावात्रेयीं एव च स्त्रियम् ।
- हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते
- हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः । ऋग्वेदं धारयन्विप्रो नैनः प्राप्नोति किं चन
- हत्वा हंसं बलाकां च बकं बर्हिणं एव च । वानरं श्येनभासौ च स्पर्शयेद्ब्राह्मणाय गाम्
- हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् । सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदीः
- हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथाउरसः । क्षेत्रिकस्य तु तद्बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः
- हर्षयेद्ब्राह्मणांस्तुष्टो भोजयेच्च शनैःशनैः । अन्नाद्येनासकृच्चैतान्गुणैश्च परिचोदयेत्
- हविर्यच्चिररात्राय यच्चानन्त्याय कल्पते । पितृभ्यो विधिवद्दत्तं तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।
- हविष्पान्तीयं अभ्यस्य न तमं ह इतीति च । जपित्वा पौरुषं सूक्तं मुच्यते गुरुतल्पगः । ।
- हविष्यभुग्वानुसरेत्प्रतिस्रोतः सरस्वतीम् । जपेद्वा नियताहारस्त्रिर्वै वेदस्य संहिताम् । ।
- हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमको नक्षत्रैर्यश्च जीवति । पक्षिणां पोषको यश्च युद्धाचार्यस्तथैव च । ।
- हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः । सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः
- हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि । प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः
- हिरण्यं आयुरन्नं च भूर्गौश्चाप्योषतस्तनुम् । अश्वश्चक्षुस्त्वचं वासो घृतं तेजस्तिलाह्प्रजाः
- हिरण्यं भूमिं अश्वं गां अन्नं वासस्तिलान्घृतम् । प्रतिगृह्णन्नविद्वांस्तु भस्मीभवति दारुवत् । ।
- हिरण्यभूमिसंप्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते । यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशं अप्यायतिक्षमम् ।
- हिंस्रा भवन्ति क्रव्यादाः कृमयोऽमेध्यभक्षिणः । परस्परादिनः स्तेनाः प्रेत्यान्त्यस्त्रीनिषेविणः ।
- हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते । यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् । ।
- हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम् । क्षयामयाव्यपस्मारि श्वित्रिकुष्ठिकुलानि च
- हीनजातिस्त्रियं मोहादुद्वहन्तो द्विजातयः । कुलान्येव नयन्त्याशु ससन्तानानि शूद्रताम् ।
- हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोऽधिकान् । रूपद्रविणहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत् । ।
- हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ । उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशेत् ।
- हुङ्कारं ब्राह्मणस्योक्त्वा त्वम्कारं च गरीयसः । स्नात्वानश्नन्नहः शेषं अभिवाद्य प्रसादयेत्
- हुत्वाग्नौ विधिवद्धोमानन्ततश्च समेत्यृचा । वातेन्द्रगुरुवह्नीनां जुहुयात्सर्पिषाहुतीः
- हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः । वैश्योऽद्भिः प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ।
- होमे प्रदाने भोज्ये च यदेभिरभिवीक्ष्यते । दैवे हविषि पित्र्ये वा तद्गच्छत्ययथातथम्
Vedic Books
- aastikavad
- aatma balidaan by bhai parmanand
- arya dharm shiksha
- arya jivan (bhag 1)
- chaudahvi ka chand
- Ek Sath Ucchar Karen
- Vishuddh Manu Smriti विशुद्ध मनु स्मृति
- अनुभ्रमोच्छेदान : ऋषि दयानन्द
- आर्य उद्देश्य रत्नमाला ऋषि दयानन्द
- आर्य समाज के नियम : ऋषि दयानन्द
- आर्याभिविनय : ऋषि दयानन्द
- उपदेश मन्जरी ऋषि दयानन्द
- ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ऋषि दयानन्द
- कलकत्ता शाश्त्रार्थ ऋषि दयानन्द
- काशी शाश्त्रर्थ ऋषि दयानन्द
- गौकरुणानिधि : ऋषि दयानन्द
- जन्म चरित्र ऋषि दयानन्द
- पञ्च महायग्य विधि : ऋषि दयानन्द
- भागवत खंडन: ऋषि दयानन्द
- भ्रमोछेदन: ऋषि दयानन्द
- भ्रान्ति निवारण : ऋषि दयानन्द
- वर्ण ध्वनि विज्ञान डॉ ब्रह्मदेव विद्यालंकार
- वेद विरुद्ध मत खण्डन : ऋषि दयानन्द
- वेदांती ध्वान्ति निवारण ऋषि दयानन्द
- व्यवहारभानु : ऋषि दयानन्द
- शाश्त्रार्थ उदयपुर : ऋषि दयानन्द
- शाश्त्रार्थ जालंधर : ऋषि दयानन्द
- शाश्त्रार्थ मसूदा : ऋषि दयानन्द
- सत्यासत्य विचार : ऋषि दयानन्द
- सत्यासत्य विवेक शाश्त्रार्थ बरेली : ऋषि दयानन्द
- संस्कृत वाक्य प्रबोध : ऋषि दयानन्द
- स्वामी नारायण मत खण्डन : ऋषि दयानन्द
- स्वीकार पत्र ; ऋषि दयानन्द
- हुगली शाश्त्रार्थ : ऋषि दयानन्द
Shanka Samadhan
- . क्या वर्तमान में अपने देश भारत या अन्यत्र कहीं भी पृथ्वी पर अध्ययन-अध्यापन की ऐसी व्यवस्था है, जहाँ पर चारों वेदों का ज्ञान कराया जाता हो। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ पर ऐसी व्यवस्था है। 4. आर्य समाज के धुंआधार प्रचार से और वेदों का डंका पीटने या बजाने से पौराणिक भी जाग्रत हो गए, तो अब आर्य सामाज के कितने केन्द्र चारों वेद पढ़ा रहे हैं और पौराणिकों के कितने केन्द्र हैं।
- ‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन। जैसा पिये पानी, वैसी बने वाणी। जैसा करे संग, वैसा चढ़े रंग।” तो मित्रों के, रिश्तेदारों आदि के घर में भ्रष्टाचार का धन आता है और वहाँ जाना ही होता है। वहाँ का अन्न, पानी ग्रहण न करने पर संबंध बिगड़ते हैं। और यदि स्वीकार करेंगे, तो मन बिगड़ेगा। बताइये क्या करना चाहिये?
- ‘ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते” अर्थात् वेद के ज्ञान प्राप्ति का साधन ज्योतिष नेत्र (आँख) रूप से है, और ज्योतिष वेद का अंग है, तो ज्योतिष का उपयोग आधिदैविक,आधिभौतिक, आध्यात्मिक पापों से छुड़ाने में क्या हो सकता है? वेद के ज्योतिष को कृपया समझाएँ।
- ‘दण्ड देते समय वाणी में क्रोध लाना पड़े तो लाएँ, किन्तु मन में क्रोध न लाएँ”-ऐसा करना अहिंसा है, ऐसा आपने बतलाया, किन्तु ये असत्य है, क्योंकि मन और वचन की एकरूपता नहीं रही?
- ‘शंका-समाधान’ क्या है, इससे क्या लाभ होते हैं। कृपया इसके नियम बताइए?
- (आत्माराम जी पूज लुधियाना से पत्र—व्यवहार द्वारा प्रश्नोत्तर नवम्बर, १८८० से जनवरी, १८८१)
- (क) सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णानुसार सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है परन्तु ऋग्वेद में इसका निषेध है- नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ। अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।। – ऋ. ७-४-८ इस स्थिति में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महर्षि जी ने किस आधार पर सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है तथा अब समाधान कैसे होगा? २. यजुर्वेद के ‘सत्याःसन्तु यजमानस्य कामाः’ मन्त्रांश को बदलकर कुछ पुरोहित आशीर्वाद रूप में सत्याः सन्तु यजमानायोः अथवा यजमानानां बोलते हैं। मन्त्रों में परिवर्तन का अधिकार उन्हें हैं या नहीं? ३. सन्ध्या के अन्तर्गत मार्जन मन्त्रों में प्रथम कहा है- ओं भूः पुनातु शिरसि अर्थात् हे ईश! आप प्राणों के भी प्राण हैं। मेरा शिर पवित्र करें। इस में शंका है कि प्राणों का सम्बन्ध नासिका से है। भूः का सम्बन्ध नासिकाओं से उचित प्रतीत होता है- ‘ओं भूः पुनातु प्राणयोः’ अथवा ‘ओं भूः पुनातु नासिक्योः।’ कृपया ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ में से भूः व शिरसि की संगति स्पष्ट कीजिएगा। ४. इसी प्रकार मार्जन मन्त्रों के अन्तर्गत तृतीय मन्त्र पर शंका है- ओं स्वः पुनातु कण्ठे। अर्थात् हे सुखस्वरूप प्रभो! अपने उपासकों को सुख प्रदान करने हारे हो। मेरे कण्ठ को सुख प्रदान करो ….। यदि यह मन्त्र ऐसे होते तो अच्छा होवे- ओं स्वः पुनातु शिरसि। शिर में शुद्धि हो, विचारों में शुद्धि हो तो सारी शुद्धि स्वतः होगी। मनुष्य विचारों को अपवित्र बनाता है तो शेष सब अशुद्ध व अपवित्र बनता है। शिर पवित्र बने बिना सुख नहीं आएगा। उपरोक्त दोनों वेद मन्त्रांश नहीं जान पड़ते। अतः इन में परिवर्तन करना वेद में परिवर्तन नहीं माना जाएगा परन्तु ऐसा तब प्रश्न उत्पन्न होगा, जब मेरा विचार संगत माना जाएगा। समाधान दीजिएगा। – इन्द्रजित् देव चूना भट्ठिया, सिटी सैन्टर के निकट, यमुनानगर-१३५००१ (उ.प्र.)
- (कबीर पन्थी साधु के साथ मसूदा में धर्मचर्चाअगस्त, १८८१)
- (ख) यदि आत्मा अर्थात् मैं या मेरा आत्मा स्थान बदलता है तो मुझे पता क्यों नहीं चलता। किसके बदलने से बदलता है, संचालन कौन करता है?
- (ग) आत्मा निराकार है या साकार? आपने लिखा है कि निराकार है, तो क्या आप किसी आर्ष ग्रन्थ या वेद का प्रमाण इस बारे में दे सकते हैं, जैसे कि परमात्मा के बारे में अनेक दिए जा सकते हैं (वेद, उपनिषद, अन्य आर्ष ग्र्रन्थ)।
- (घ) ईश्वर अनन्त, असीम है परन्तु आत्मा ससीम है, इसलिए अणुस्वरूप होने के कारण उसकी कुछ न कुछ लबाई-चौड़ाई तो होगी ही। इसलिए क्या उसे हम साकार नहीं कह सकते, क्योंकि उसकी सीमाएँ हैं? निराकार-साकार की परिभाषा क्या है?
- (ङ) पंच भौतिक तत्वों में से एक आकाश भी है और भौतिक तत्व प्रकृति के परमाणुओं से बनते हैं, जिनसे पृथ्वी, सूर्यादि पूरा जगत् बनता है। यदि आकाश को निराकार कहा जाए, तो अभाव से भाव कैसे बनेगा। यदि आकाश साकार है तो ‘ओ3म् खम् ब्रह्म’ क्यों कहते हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करें।
- (जैन साधु सिद्धकरण जी से मसूदा में शास्त्रार्थ ६ जौलाई से १६ जौलाई, १८८१ तक)
- (धर्मसभा से फर्रुखाबाद में प्रश्नोत्तरअक्तूबर, १८७८)
- (मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य ला० जगन्नाथदास की बनाई आर्य—प्रश्नोत्तरी की समालोचनाअप्रैल, १८८२)
- (मौलवी मुहम्मद मुराद अली साहब प्रोप्राइटर राजपूताना गजट’ अजमेर से वार्तालाप का वृत्तान्तनवम्बर १८७८ ई०)
- (राधास्वामी मत के साधुओं से आगरा में प्रश्नोत्तरनवम्बर, १८८०)
- (शाहपुरा में रामस्नेहियों से प्रश्नोत्तरमार्च, १८८२)
- 2. यदि चारों वेद संहिताएं विदेश से मंगवाए गए तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने 2 वर्ष 10 महीने में अपने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेदों का अध्ययन किया और शंकाओं का समाधान किया। जब वेद मंगवाए ही बाद में हैं तो अपने गुरु जी से कैसे पढ़े? और यदि वेद पहले ही उपलध थे तो मंगवाने की क्या जरूरत थी। इससे यह भी प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द जी ने भी अपने गुरु जी के पास से शिक्षा पूरी करने के बाद ही चारों वेद पढ़े। गुरु जी के पास तो जो आधे अधूरे उपलध थे वे ही पढ़ पाए। फिर पूरे वेद बाद में पढ़े हैं तो स्वामी जी को पढ़ाने वाले अन्य कौन गुरु मिले जो स्वामी विरजानन्द जी से भी भली प्रकार पढ़ा सकते थे।
- 5. सन् 1875 के बाद अर्थात् 140 साल व्यतीत हो जाने के बाद भी विवाहदि संस्कार 90/95 प्रतिशत पौराणिक रीति से हो रहे हैं। यदि लग्न पत्रिका आदि की जरुरत पड़े तो वही हाथी की सूण्ड वाले गणेश की छपी मिलती है। क्या आर्य समाज कोई ऐसी योजना बना रहा है कि कम से कम जिला स्तर पर ऐसी पत्रिका या वैदिक कलेण्डर या पुरोहित उपलध हो जाए।
- 98. शंका- जब मनुष्य अच्छे कर्म करता है, ईश्वर की भक्ति करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष के समय के बाद वो फिर जन्म लेता है और अच्छे कर्म करता है तो भगवान का मनुष्य को बार-बार जीवन देने का क्या उद्देश्य है?
- अकाल मृत्यु हो जाती है, तो उसका जन्म कब होता है, और किस योनि में होता है?
- अगर पशु योनि में बु(ि नहीं है, तो उनकी क्रिया जैसे कि लागणी, प्रेम, स्वरक्षण जैसे गुण कहाँ स्थित होते हैं?
- अग्नि, वायु…….इनको वेदों का ज्ञान किसने दिया। : आचार्य सोमदेव जी
- अच्छे या बुरे कर्मों का फल अगले जन्म में ही मिलता है, इसी जन्म में क्यों नहीं मिलता?
- अनेकता में एकता कैसे हो सकती है?
- अन्यायपूर्वक मिले दुःख या हानि की ईश्वर क्षतिपूर्ति करता है। जैसे सेठ के यहाँ चोर ने चोरी की, इस अन्याय की क्षतिपूर्ति ईश्वर सेठ को किस प्रकार करेगा?
- अपने देश-धर्म के लिये झूठ बोलना पाप है या नहीं?
- अब तक कितने मनु हुए हैं, उनके क्या नाम हैं, उनमें से प्रत्येक ने किस प्रकार का ज्ञान दिया? श्रीमद् भगवद्गीता में योगीराज श्रीकृष्ण ने चौदह मनु को रेफर किया है, परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं कहा।
- आचार्य सोमदेव समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम। जिज्ञासा- श्रद्धास्पद आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ। प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें। – रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम
- आज वैज्ञानिकों ने जो ‘क्लोन’ बनाया है, क्या वो वैदिक-सि(ांत के अनुकूल है?
- आज सुबह हम ध्यान में मन नहीं लगा पाए। जब गुरुजी ने कहा कि – अपनी हथेलियाँ घर्षण करके आँखों में लगाओ, उसी समय मैंने कल्पना में देखा कि हम हवन में बैठे हैं और एक लड़की आई और रखा हुआ दीपक बुझा दिया। तब से मेरा मन परेशान है?
- आत्मा का क्या परिमाण है?
- आत्मा के संयोग से ‘जड़-शरीर’ चेतन लगता है। ‘चेतन-ईश्वर’ जड़ पदार्थों, जैसे कि- दीवार, पत्थर आदि में है, तो ये चेतन क्यों नहीं दिखते?
- आत्मा हर समय सुविचारों को ही क्यों नहीं उठाता, क्योंकि आत्मा को पवित्र बताया गया है? मन में अशु( विचार जैसे – चोरी-व्यभिचार, हिंसा, असत्य आदि अनुचित विचार क्यों आते हैं?
- आत्मा हाड़-मांस से बने इस शरीर में रहना क्यों पसंद करती है?
- आत्मा ही मन में विचार उठाती है और जीवात्मा शु(-स्वरूप होती है, तो फिर मन में चोरी-व्यभिचार, हिंसा, असत्य आदि अनुचित अशु( विचार क्यों आते हैं?
- आत्मा’ अणु के बराबर होती है जबकि चेतना हमारे सारे शरीर में व्याप्त है?
- आत्मा’ और ‘शरीर’ बुरी तरह एक दूसरे में घुले-मिले हैं, इनको अलग-अलग कैसे मानें?
- आदम हव्वा का वियोग
- आदिकाल से सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय होता चला आ रहा है, तो क्या इससे यह मान सकते हैं कि उत्पत्ति व प्रलय का जो क्रम है, कभी उसकी शुरूआत हुई होगी, और इसका अन्त भी आएगा, क्योंकि हर कार्य की शुरूआत और अन्त होता है?
- आप कहते हैं, कि क्रोध नहीं आना चाहिए। परशुराम, द्रोणाचार्य जैसे तपस्वी लोग क्रोधी थे फिर भी दुनिया उनकी पूजा क्यों करती है?
- आप मूर्तिपूजा का क्यों और कैसे खण्डन करते हैं?
- आपके अनुसार हमें परमात्मा का साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए, परंतु शहीद भगत सिंह और अन्य स्वतंत्रता सेनानी अगर वैराग्य वाले रास्ते पर चलते, तो क्या हमें स्वतंत्रता मिलती?
- आपने कहा कि मोक्ष से लौटने पर पहला जन्म शूद्र का होता है, परंतु मोक्ष फल तो अति उत्तम कर्मों से मिलता है। और ऐसी आत्माएं यदि फिर जन्म लें, तो उच्च कोटि के मनुष्य के रूप में ही होनी चाहिए?
- आपने कहा था कि ईश्वर का रंग, रुप आकार कुछ नहीं है। तो ध्यान करते समय निराकार ईश्वर का ध्यान कैसे करें?
- आपने कहा था कि पचास प्रतिशत पाप और पचास प्रतिशत पुण्य हैं, तो साधारण मनुष्य का जन्म मिलता है। लेकिन यदि चपरासी, मजदूर आदि के यहाँ जन्म लेने के बाद चपरासी को एक करोड़ की लॉटरी लग जाए तो, इसे क्या समझना?
- आपने कहा था, हम लोग मोक्ष से धरती पर आए हैं। अगर हमें फिर मोक्ष मिले तो हमें मोक्ष में भी इस बात का भय, दुःख, चिंता लगी रहेगी कि हम कहीं वापस धरती पर न चले जाएं?
- आपने कहा, ईश्वर निराकार है। परछाई (प्रतिबिंब( का आकार दिखता तो है, लेकिन परछाई, (प्रतिबिंब( पकड़ नहीं सकते? फिर हम निराकार ईश्वर को कैसे पकड़ेंगे?
- आयुर्वेद में लिखा है, कि ‘मांस खिलाओ और वह वैद्य माँस खिलाये, तो क्या उसको पाप नहीं लगेगा।’
- आर्य पत्रों की समाचार शैली कैसी थी?-
- इन्द्रियों के सुखों को भोगकर उनसे तृप्त होना अच्छा है, दमन (सप्रेशन) करना अच्छा नहीं, ओशो, फ्रायड ने ऐसी बातें कही हैं। क्या सही है?
- इस जन्म में मांस और शराब बुरा समझते हुऐ हम नहीं खाते हैं या इन्हें बुरा मानकर खाना छोड़ दिया है। अगले जन्म में खाना-पीना नहीं चाहते, क्या ऐसा होगा?
- इसी प्रकार गृहाश्रमविधि में या दुर्हार्दो युवतयो…… मन्त्र के अर्थ करते हुए अन्त में लिखते हैं- ‘…..वृद्ध स्त्रियाँ हों, वे इस वधू को शीघ्र तेज देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जावें, और फिर इसके पास कभी न आवें।’ यहाँ कभी न आवें का भाव समझ में नहीं आया।
- ईश्वर और जीव का भेद
- ईश्वर और जीव दोनों चेतन हैं। जीव में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, क्रिया, सुख-दुःख आदि गुण हैं, क्या ईश्वर में भी ये गुण होते हैं?
- ईश्वर कब और क्या-क्या सहायता देता है, और क्या-क्या नहीं देता?
- ईश्वर की आत्मा कबूतर के रूप में एक मनुष्य पर उतरी
- ईश्वर के ज्ञान में केवल आवृत्ति होती रहती है, सर्वज्ञ ईश्वर को इसकी क्या आवश्यकता है?
- ईश्वर के द्वारा संसार बनाने से पूर्व जीव ने कर्म कहाँ किए, कर्मफल के लिये जगत् कैसे बनाया?
- ईश्वर को ज्ञान से जानते हैं। और यह ईश्वर-ज्ञान सबके बस की बात नहीं है, तो क्या ईश्वर को जाने बिना केवल अच्छे कर्म करने से ‘मोक्ष’ की प्राप्ति की जा सकती है?
- ईश्वर को पाने के लिए क्या यह आवश्यक है कि संध्या, उपासना आदि संस्कृत में बोलकर की जाये। अब अगर वेद हिन्दी में लिखे गये हैं, तो मंत्र भी हिन्दी में होंगे। इसलिए संध्या उपासना भी क्या हिन्दी में की जा सकती है?
- ईश्वर निराकार है, तो योग द्वारा ईश्वर का किस रूप में साक्षात्कार होता है?
- ईश्वर ने मनुष्य को कैसा रूप धारण करके ज्ञान दिया, मनुष्य रूप से या आकाशवाणी से। कृपया समाधान किया जाए?
- ईश्वर ने मनुष्यों और अन्य प्राणियों को सुख- दुःख भोगने के लिए जन्म दिया है। ऐसा क्यों है?
- ईश्वर ने मांसाहारी योनियाँ क्यों बनाई? उन्हें इतना बलवान भी क्यों बनाया? उन्हें बलवान बनाकर क्या ईश्वर ने अत्याचारी का साथ देने के बराबर काम नहीं किया?
- ईश्वर ने सृष्टि बनाई, यह कैसे सि( करें?
- ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, फिर ईश्वर ने ऐसा संसार क्यों नहीं बनाया, जिसमें केवल सुख ही होता, दुःख बिल्कुल न होता। भौतिक सुखों में दुःख क्यों है?
- ईश्वर साकार नहीं
- ईश्वर, उपासना करना कठिन लगता है। जबकि हम दिनभर मन में सांसारिक बातें खूब सोचते हैं। वह सरल लगता है। ऐसा क्यों है?
- ईश्वर, मनुष्य जीवन का निर्माण क्यों करता है?
- ईश्वर’ पहले से है।’आत्मा’ को किसने बनाया ?
- ईश्वरीय ज्ञान अनादि है
- ईसाइयों का ईश्वर चौंक पड़ा
- उत्तम कर्म कौन से हैं ?
- उपनिषद् ग्यारह हैं, उनके नाम मेरे पास हैं, लेकिन प्रत्येक उपनिषद् में किस-किस प्रकार का ज्ञान है, वह नहीं मिलता या प्राप्त है।
- एक कसाई गाय को ले जा रहा है। गाय दौड़ गई और एक साधक ने देख लिया। अब गाय की जान बचानी है, तो साधक सच बोले या झूठ बोले?
- एक की जमीन पर दूसरा ताकतवर होने के नाते कब्जा कर ले। तो क्या साधक वही तीन शब्द कहकर छोड़ दें कि ‘कोई बात नहीं’, अथवा फिर क्या करें?
- एक महिला ने अपने पति की क्रूरता एवं अत्याचार से लाचार होकर एक रात मौका देखकर उसकी हत्या कर दी। उसके अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था। क्या उसे परमात्मा दंड देगा, जो सजा यहाँ काट ली, क्या वह कम हो जाएगी?
- एक वाक्य लिखा है कि मेरी आत्मा नहीं मानती। यह वाक्य कौन कहता है-मेरी आत्मा नहीं मानती। इसका मतलब, मैं आत्मा से भी अलग चीज हूँ?
- एक विदेशी महिला भारत में रहते हुए अपने जीवन-काल में दूसरों की सेवा करती रहीं। उन्होंने शायद ईश्वर उपासना नहीं की। यम, नियम का पालन नहीं किया। तो क्या वे मोक्ष की अधिकारी थीं?
- एक समय में एक ही प्रकार का प्राणायाम करना चाहिए। जैसे बाह्य प्राणायाम या आभ्यन्तर-प्राणायाम। दो या तीन प्रकार के प्राणायाम एक साथ क्यों नहीं करना चाहिए। क्या ऐसा करने से कोई हानि है?
- ऐसा हम सुनते हैं, कि- सत्य आचरण करने वालों से ईश्वर प्रसन्न होता है। किन्तु देखा गया है कि असामाजिक तत्त्व, असत्य आचरण करने वाले लोग ज्यादा सुखी हैं। आध्यात्मिक सत्य आचरण करने वाले लोगों को कष्ट अधिक सहन करना पड़ता है। ऐसे समय में ईश्वर के अस्तित्त्व पर संदेह हो जाता है। मोक्ष मिलेगा, जब मिलेगा, तब मिलेगा। लेकिन आज तो भगवान के न्याय कार्य के ऊपर से विश्वास उठ जाता है। कृपया इस स्थिति पर मार्गदर्शन करें?
- ओ३म््’ का उच्चारण किस जगह और कितने समय पर किया जाना चाहिए। इसमें दिन और रात देखे जाते हैं या नहीं?
- कई श्रेष्ठ व्यक्ति अपने सेवाभावी कार्यों के लिए जाने जाते हैं। परंतु उन्होंने कभी वेद के अनुसार ईश्वर की उपासना नहीं की। ईश्वर इन्हें दण्ड देगा या पुरस्कार?
- कठोर’ शब्द का क्या अर्थ है? कठोर शब्द का प्रयोग कब करना चाहिए?
- कर्म का फल भोगने के बाद संस्कार नष्ट हो जाते हैं या बने रहते हैं?
- कर्म का फल भोगने के बाद संस्कार नष्ट हो जाते हैं या बने रहते हैं?
- कहते हैं ”’सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम” ? अर्थात् सत्य बोलें, मीठा बोलें, कड़वा सत्य न बोलें। तो शंका यह है, कि क्या अपवाद रूप में ‘झूठ बोलना’ भी धर्म हो सकता है? ख् समाधान- वेदों में कहा है ”सत्यं वक्ष्यामि नानृतम्” और मनु महाराज कहते हैं ”’सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम” ? अर्थात् सत्य बोलें, मीठा बोलें, कड़वा सत्य न बोलें। तो शंका यह है, कि मनुजी के अनुसार- सत्य न बोलें। अर्थात् क्या अपवाद रूप में ‘झूठ बोलना’ भी धर्म हो सकता है?
- काफी समय से यह पढ़ते और सुनते आए हैं कि पौराणिक लोग कहते थे कि वेदों को शंखासुर पाताल में लेकर घुस गए हैं, इसलिए अब शेष बचे 18 पुराणों से ही काम चलाओ। ऐसी स्थिति में स्वामी दयानन्द जी ने जर्मनी से चारों वेदों को मंगवा कर पण्डितों को दिखाया और सब को बताया। इससे पता चलता है कि स्वामी जी के आने, से पहले चारों वेद भारत में उपलध ही नहीं रह गए थे। इसीलिए तो विदेश से मंगवाने पड़े। अर्थात् आर्ष ग्रन्थों और इतिहास आदि में वेदों के नाम चर्चा ही थी और वे संहिताओं के रूप में उपलध नहीं थे। यह हमारी हालत हो चुकी थी। क्या यह बात ठीक है।
- कारण-शरीर’ और ‘सूक्ष्म-शरीर’ कैसे बनते हैं। और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है?
- काशी—शास्त्रार्थ
- कि वहां तो पत्थर है, महादेव नहीं
- किस प्रकार के कर्मों के आधार पर स्त्री या पुरुष का जन्म मिलता है?
- किस प्रकार के कर्मों के आधार पर स्त्री या पुरूष का जन्म मिलता है?
- किस मन्त्र से मूर्तिपूजा का विधान है
- किसी को मारना जीव-हत्या कहलाती है। कीड़े, मच्छर, मक्खियाँ जानबूझकर या अनजाने में मारे जाते हैं, तो क्या ये भी जीव-हत्या कही जाएगी?
- किसी ने चोरी की और भगवान ने नहीं देखा। क्या यह हो सकता है?
- किसी ने वृक्ष को योनि माना है और किसी ने नहीं माना है, इसमें से कौन सा पक्ष सत्य है?
- कीट, पतंग, मच्छर को लार्बा-ट्रीटमेन्ट से विनिष्ट करते हैं। यह कर्म करना चाहिये या नहीं, और इस कर्म का फल क्या होगा?
- कुरान ईश्वरीय वचन नहीं
- कृपया उपासना शब्द के अर्थ को ठीक से स्पष्ट करके समझाइये?
- कृपया गुणकर्म स्वभाव की परिभाषाएँं बतलाइए। तीनों में क्या भेद है? ईश्वर के गुण-कर्म स्वभाव अलग-अलग बताइए। क्योंकि इनके ओवरलेपिंग होने के कारण कन्फ्यूजन रहता है?
- कृपया द्वेष के पर्यायवाची बतलायें। द्वेष का अर्थ, बुरा लगना, अच्छा न लगना, घृणा करना, विरोधी समझना, गलत भावना बना लेना, क्या ठीक है?
- कृपया बु(ि, मन के बारे में विश्लेषण कीजिये?
- कृषि करने के दौरान केंचुआ आदि छोटे जीवों की मृत्यु हो जाती है। फिर हम हिंसावादी हुए कि नहीं?
- कैसी लज्जा की बात है कि तुम लिंग की पूजा करते हो
- कोई कर्म करना चाहिए या नहीं ?
- कोई धनी व्यक्ति जो कि गरीबों का खून चूसकर धन एकत्र करता है, यदि कोई व्यक्ति उसे लूटकर वोधन गरीबों में बाँट देता है तो क्या उसे भी ईश्वर के द्वारा दंड मिलेगा? इन दोनों में से अधिक दंड किसको मिलेगा?
- कोई व्यक्ति शादी करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है या नहीं? श्री राम और कृष्ण जी भी तो गृहस्थ ही थे। फिर उनको योगी क्यों कहा गया है?
- क्या ‘मन’ पर पड़े ‘संस्कारों’ के विरू( भी ‘आत्मा’ कार्य कर सकता है?
- क्या अपनी योगशक्ति के द्वारा योगी शक्तिपात का प्रयोग कर वेदार्थ संबंधी ज्ञान संक्रमित कर सकता है?
- क्या आप मेरा भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल बता सकते हैं? अगर नहीं बता सकते, तो क्या आप ऐसे महानुभाव को जानते हैं, जो ऐसा करने में सक्षम है?
- क्या ईश्वर दयालु है और हम सबका भला चाहता है, तो उसने जीव को काम करने में स्वतंत्र क्यों बनाया? उसने सभी को सुबु(ि क्यों नहीं दी, ताकि कोई बुरा काम कर ही न सके?
- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी
- क्या कभी चर-अचर जीव जब मनुष्य योनि में थे, एक से अधिक बार मोक्ष भोग चुके हैं?
- क्या कर्म करना चाहिए ?
- क्या कार्य में ‘भावना’ महत्वपूर्ण होती है, इससे ‘फल’ में अंतर आता है?
- क्या किसी भी धर्म, पंथ या देवी-देवता का मजाक उड़ाकर हम अपने आपको श्रेष्ठ कहलवा सकते हैं?
- क्या किसी मंत्र के जाप से या यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? जबकि सुना यह जाता है – ”अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।”
- क्या किसी मंत्र के जाप से या यज्ञ करने से कष्ट दूर हो सकते हैं? जबकि सुना यह जाता है- अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।
- क्या कीट-पतंग, सर्प, जीव-जंतु आदि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, यदि हाँ तो कैसे?
- क्या कुसंस्कार से आत्मा दबता है?
- क्या कोई आत्मा अन्य आत्मा में प्रवेश कर उस जीवात्मा को प्रभावित करके सता सकता है। क्या मृत शरीर में अन्य आत्मा घुस सकता है?
- क्या कोई व्यक्ति दूसरे के मन को नियंत्रित करके चला सकता है? यदि हाँ, तो बिना आत्मा के प्रवेश के यह कैसे संभव है?
- क्या कोई हमारा भविष्यफल बता सकता है?
- क्या गंगा आदि नदियों मृत व्यक्ति की अस्थियाँ विसर्जन करने में जाना उचित नहीं है? यदि नहीं, तो फिर उन अस्थियाँ का क्या करें?
- क्या गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण का है। यदि है, तो यु( स्थल में इतना अठारह अध्यायों का उपदेश कैसे संभव है?
- क्या घर में धर्मपत्नी के साथ किया गया हवन ही ”सम्पूर्ण-यज्ञ” कहलाता है। ‘यज्ञ’ करने से क्या ‘लाभ’ होता है?
- क्या जन्म-दिवस (बर्थ डे( मनाना चाहिये?
- क्या जब हम समाधि अवस्था प्राप्त करें तब ही ईश्वर का अनुभव होगा?
- क्या जाति, आयु, भोग निश्चित हैं, या इन्हें घटाया- बढ़ाया जा सकता है। इसकी सीमा क्या होगी?
- क्या जादूगरी आँखों का धोखा होता है?
- क्या ज्यादा धन कमाना ठीक नहीं है? यदि सच्चाई के साथ यम-नियमों के पालन का पूर्ण प्रयास करते हुए कमाया जाए तो?
- क्या झाड़-फूँक करने वाले बाबाजी अथवा टोटके आदि करने वाले बाबाजी सब कोरा ढोंग मात्र हैं। तो फिर झाडू मारने से मिर्गी कैसे भाग गई?
- क्या पूर्व जन्म के संस्कार से कोई चार-पांच साल का बच्चा, पच्चीस-तीस साल के साधक जितनी योग्यता प्राप्त कर सकता है?
- क्या ब्रह्माण्ड में इस दुनिया के अलावा कहीं और भी ऐसी दुनिया है, जैसी इस पृथ्वी पर है?
- क्या ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से और क्षत्रिय भुजा से उत्पन्न हुए हैं ?
- क्या मन जड़ है, उसका आकार कितना है?
- क्या मनुष्यों के अतिरिक्त कुत्ते आदि पशु-पक्षियों को भी कर्म करने की स्वतंत्रता है? क्या इन्हें पुण्य-पाप लगता है?
- क्या मनुष्यों के अतिरिक्त कुत्ते आदि पशु-पक्षियों को भी कर्म करने की स्वतंत्रता है ? क्या इन्हें पुण्य पाप लगता है ?
- क्या मुक्ति के लिए मनुष्य योनि ही अनिवार्य है? अन्य योनियों में मुक्ति नहीं हो सकती?
- क्या मोक्ष के बाद जन्म होता है? यदि हाँ, तो जब हमें फिर से सांसारिक दुःख उठाने पड़ेंगे तो फिर मोक्ष का लाभ ही क्या रहा?
- क्या मौहम्मद पैगम्बर है ?
- क्या यह बात सत्य है कि अभिमन्यु माँ के पेट में ही चक्रव्यूह के अंदर जाना सीख गया था?
- क्या योगी व्यक्ति भविष्य की बातों का ज्ञान कर सकता है?
- क्या योनियों की संख्या 84 लाख है?
- क्या वृक्षों में ज्ञान भी होता है?
- क्या वेदों में नाचने (डांस) का विधान है? अगर है, तो किसलिए?
- क्या व्यक्ति को बुरे कर्म करने के पश्चात अन्य सभी योनियों को भोगना पड़ेगा अथवा कुछ योनियों के पश्चात् वापस मानव जन्म मिलेगा?
- क्या व्यक्ति को बुरे कर्म करने के पश्चात अन्य सभी योनियों को भोगना पड़ेगा अथवा कुछ योनियों के पश्चात् वापस मानव जन्म मिलेगा?
- क्या समाधि काल में, योगी के पूर्वकृत कर्म नष्ट हो जाते हैं या बचे रहते हैं? क्या समाधि लगाने से, पूर्वकृत कर्म, बिना फल दिए भी नष्ट हो सकते हैं?
- क्या संसार में कहीं सुरक्षा नहीं है। माँ की गोद में भी नहीं?
- क्या सूक्ष्म-इच्छाएँ ‘सब-कांशियस-माइंड’ में उत्पन्न होती हैं?
- क्या सृष्टि के आदि में जितनी आत्मायें थी, उतनी ही आज हैं अथवा कम या ज्यादा होती रहती हैं?
- क्या सृष्टि में जीवों की जनसंख्या निश्चित है। संसार में मानव, पशुओं, पक्षियों, जीव-जंतुओं की संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही है तो एक बार संख्या निश्चित होती है तो बढ़ती कैसे है?
- क्या सोचने में दोष होने से, व्यक्ति सुख से जीना चाहने पर भी, सुख से नहीं जी सकता?
- क्या सौ प्रतिशत अच्छे कर्म करने के लिये संन्यास लेना अनिवार्य है या गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति सौ प्रतिशत अच्छे कर्म करके मोक्ष में जा सकता है?
- क्या हजारों वैज्ञानिकों की तुलना में एक ब्रह्मवेत्ता द्वारा संसार का उपकार अधिक होता है?
- क्या हम किसी को अपने वश में कर सकते हैं?
- क्रियात्मक-योगाभ्यास नामक पुस्तक में आया है कि बिना ‘ईश्वर दर्शन’ के ‘अज्ञान’ का नाश नहीं होगा। योगाभ्यास तथा ज्ञान के बिना ईश्वर-दर्शन संभव नहीं है। लेकिन ईश्वर के ज्ञान के पश्चात् भी कोई सूक्ष्म-अज्ञान आत्मा से लिपटा रहता है। ऐेसा क्यों?
- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरू( मन की इन पांच अवस्थाओं को समझाने की कृपा करें?
- खराब काम करने वाले को खराब योनि मिलती है। आज पचहत्तर प्रतिशत व्यक्ति खराब काम करते हैं, फिर भी संसार में मनुष्यों की संख्या क्यों बढ़ती ही जा रही है? क्या सभी अधिकारी जीवों का मुक्ति-काल समाप्त हो गया है, क्या वे मुक्ति से लौटकर आ रहे हैं?
- गीता के श्लोक का अर्थ
- घर के बच्चे कैसे बिगड़ते हैं?
- चारों युग की गणना कीजिए?
- चिंतन क्या है और यह कैसे किया जाता है। उसके लिये क्या-क्या चीजें आवश्यक हैं?
- चित्त परिवर्तनशील है। कभी सत्त्व गुण, कभी तमोगुण, कभी रजोगुण प्रधान होता रहता है। क्या खान-पान से ऐसा होता है? कहते हैं- ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन’।
- छोटी बच्ची के साथ दुष्कर्म करना, छोटे बच्चों को पकड़कर अंग काटना, भीख मँगवाना आदि करने वालों के विरु( भगवान अपनी शक्ति क्यों नहीं दिखाता? उन बच्चों ने क्या अपराध किया?
- जब तक हम स्थूल (शारीरिक, वाचनिक) रूप से किसी पर प्रभाव नहीं डालते, तब तक गुनाह नहीं हो सकता। मन में एक पल के लिए बुरा विचार आया और अगले ही पल विचार बदल गया। तो विचार मात्र से पाप क्यों माना जाए अर्थात् बिना क्रिया के परिणाम या फल कैसे ?
- जब ध्यान में बैठा जाये, तो क्या देखने का प्रयत्न किया जाये। अंधकार, प्रकाश, ओम, प्रतीक या कुछ और?
- जब प्रारब्ध से किसी कर्म का फल रोग के रूप में मिलना ही है, कर्म का दंड मिला है तो उसे भोगें, रोगी बने रहें, इलाज क्यों करवाते हैं?
- जब मैं ‘ध्यान’ में बैठता हूँ तो स्तुति,प्रार्थना,उपासना करते समय ‘रोना’ आता है? ऐसा क्यों होता है?
- जब शरीर जड़ है, तो इसकी पीड़ा हमें क्यों होती है?
- जब संसार प्रलय-अवस्था में चला जाता है, तब परमात्मा कुछ करता है या निठल्ला बैठा रहता है?
- जब हम वैदिक गणना के अनुसार इस संसार की आयु एक अरब 96 करोड़, इतना वर्ष कहते हैं, तो यह गणना हमारी पृथ्वी अर्थात् सौरमंडल की है अथवा समस्त दृश्य-अदृश्य ब्रह्माण्ड की?
- जब हम शिविर इत्यादि में आते हैं। तब सब कुछ अच्छा लगता है। क्रोध कम हो जाता है। लेकिन जब हम वापस सांसारिक-जीवन में जाते हैं, तो ऐसे नहीं जी पाते, क्या करें?
- जहाँ अपना अनुभव काम नहीं कर पा रहा हो, स्थिति डावाँडोल हो रही हो, तब योगाभ्यासी किसके आधार पर दृढ होता है?
- जातिपांति और ईश्वर—विषयक
- जिज्ञासा – मेरे मन में एक छोटी-सी शंका है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आगे स्वामी और बाद में सरस्वती क्यों लगाते थे स्वामी जी! उस का अर्थ क्या है? हमें बताईएगा। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना
- जिज्ञासा- कुछ जिज्ञासायें मन में हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करेंः- 1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5- प्रत्याद्वार, 6-धारणा, 7-ध्यान एवं 8-समाधि। यह क्रम महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में दिया है। क्या यम-नियम का पालन करने वाला व्यक्ति भी सीधे ध्यान (7) अवस्था में पहुँचकर ध्यान का अयास कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर यम- नियम आदि की क्या आवश्यकता है? आखिर यह ‘‘ध्यान प्रशिक्षण योजना’’ जो परोपकारी पत्रिका मार्च (प्रथम) 2015 में प्रकाशित है व पहलेाी कई बार प्रकाशित/प्रचारित हुई है, क्या है?
- जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’ पं. गभीर राई अग्निहोत्री, कोलाखाम, पोस्ट लावा बाजार- 734319, कालिपोङ
- जिज्ञासा- यह पत्र मैं मन्त्रों में ‘‘स्वाहा’’ शद के अर्थ में शंका समाधान हेतु लिख रहा हूँ। प्रायः स्वाहा शद आहुति देते समय बोला जाता है किन्तु कुछ मन्त्रों में स्वभाविक रूप से स्वाहा शद का प्रयोग भी देखा है। अतः आप कृपया यथाशीघ्र स्वाहा शद की सभी प्रकार के विभिन्न अर्थ लिखने बताने की कृपा करें। धन्यवाद। – सुरेन्द्र कुमार आर्य।
- जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना क्या निश्चित होती है? पूर्वजन्म के कर्म फलित होते हैं, ऐसा कहते हैं? कृपया मार्गदर्शन कीजिए?
- जीवात्मा एक शरीर को छोड़ दे, तो दूसरे शरीर में जाने के लिए उसको कितना समय लगता है?
- जीवात्मा का स्वरूप क्या है? क्या जीवात्मा निराकार है?
- जीवात्मा को जीने की उत्कट इच्छा क्यों होती है? अथवा जीवात्मा को जीने के लिये कौन सा तत्त्व प्रेरित करता है?
- जीवात्मा निराकार है या साकार? इस प्रश्न के उत्तर में आपने जीवात्मा को निराकार बतलाया था और कहा था कि वो चेतन है। जो चेतन होता है, वो निराकार होता है और जो जड़ होता है वो साकार होता है। अब प्रश्न बना कि ईश्वर निराकार होने से एक है, परंतु जीवात्मा निराकार होने से अनेक क्यों है? क्या कठोपनिषद् के आचार्य ने जीवात्मा को आकारवान माना है?
- जीवात्मा भविष्य में जो विचार करेंगे, उसका ज्ञान ईश्वर को पहले से हो सकता है या नहीं?
- जीवात्मा शरीर छोड़ने के वक्त कहाँ जाता है? और शरीर छोड़ने के बाद उसकी स्थिति, पुर्नजन्म कैसे होता है?
- जीवात्मा शरीर छोड़ने के वक्त कहाँ जाता है? और शरीर छोड़ने के बाद उसकी स्थिति, पुर्नजन्म कैसे होता है?
- जीवात्मा’ का स्थान मनुष्य ‘शरीर’ के अंदर कहाँ है?
- जैसा स्वामी नारायण है वैसा मैं नहीं हूं
- जैसे कार आदि जड़ वस्तु और आँख, हाथ आदि अपने जड़ अंगों को एक बार नियंत्रित करने पर, वो पर्याप्त समय तक नियंत्रित रहते हैं। परंतु मन, जो कि जड़ है, उसको एक बार नियंत्रित करने पर भी वो बार-बार अनियंत्रित होकर हमारे ध्यान में बाधा डालता ही रहता है, ऐसा क्यों? कृपा करके समझा दें?
- जो अवतार हुए हैं ये कौन हैं और उनका बनाने वाला कौन है
- जो मनुष्य जन्म से ही अपाहिज होता है, मंद-बु(ि होता है। जिसका दुःख पैदा होने वाली संतान और माता-पिता दोनों को मिलता है। तो यह किसका कर्मफल है?
- जो संन्यासी होते हैं, उनका मुख्य लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना अथवा समाधि प्राप्त करना होता है। एक योगाभ्यासी बनने के लिये हमें लोभ, मोह, लालच नहीं करना चाहिये। सवाल उठता है, कि क्या ईश्वर को प्राप्त करना लोभ, मोह, लालच नहीं है?
- जो हम चाहते हैं, वो हमें नहीं मिलता। जो हम नहीं चाहते, वो हमें मिल जाता है। ऐसा क्यों?
- ज्ञान बिना कर्म नहीं, तो मोक्ष के लिए पतंजलि निर्दिष्ट अष्टांग योग पढ़ना, समझना, आचरण में लाना क्यों काफी नहीं है? हर एक दर्शन, वेद पढ़ना क्यों जरूरी है? इसमें तो काफी समय लगेगा?
- डिस्कवरी चैनल में भूत-प्रेत की कथाएं और कथित घटनाओं का ब्यौरा दे रहे हैं। सारे घटित दृश्य भी दिखाते हैं। क्या यह असत्य है?
- तेजो असि तेजो महि घेही’। इस मंत्र में हमने ईश्वर से क्रोध की और सहन-शक्ति की भी प्रार्थना की है। जो दोनों मुझे विरू(ार्थी लगते हैं?
- तौरेत इञ्जील की अशुद्धियाँ
- दक्षिण में प्रथम आर्य सत्याग्रहीः
- दस वर्ष के लड़के-लड़की ठीक से भोजन नहीं करते। इस तरह के बच्चों का मन ईश्वर में लगाने के लिये उन्हें कैसी शिक्षा दी जाये?
- दुष्ट-प्रकृति के लोग हमारे साथ हिंसा कर दें, तो किस-किस अवस्था में हम कैसा-कैसा व्यवहार करें?
- दूसरे को प्रसन्न करने के लिये असत्य न बोलें। किन्तु असत्य बोलने से यदि दर्द ठीक हो जाता है, तो डॉक्टर को असत्य बोलने में क्या आपत्ति है?
- द्रोपदी का चीरहरण चुपचाप देखते रहना, क्या भीष्मपितामह जैसे महान व्यक्ति की कमजोरी नहीं दर्शाता? कहते है, कि कौरवों का अन्न खाने से उनकी बु(ि मलीन हो गई थी। हम भी इतना दूषित भोजन खाते हैं, तो क्या हमारी बु(ि भी मलीन हो गई है। फिर योग धर्म कैसे असर करेगा?
- धन का उपयोग ‘सत्कर्म’ में भी तो कर सकते हैं?
- धर्म क्या है ?
- ध्यान करते समय किस चीज या आकृति का मन में ध्यान किया जाये? उस चीज को या नाम को या भगवान का कहाँ पर ध्यान लगाया जाये। उसका स्थान और उसका स्वरूप बताने की कृपा करें तथा किस आसन में तथा किस समय ध्यान किया जाये?
- नमस्ते पर
- नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव
- नास्तिक दयानन्द से धर्म की रक्षा कीजिये
- पं० लेखराम जी के स्वामी दयानन्द जी से प्रश्न
- पंचांग-पत्रा, ज्योतिष विद्या को मानने से क्या हानियाँ होती हैं? क्या यह वेद अनुसार है?
- पन्द्रह साल का लड़का यदि दुष्ट व्यसन में पड़ जाये तो उसे कैसे सुधारा जा सकता है? कृपया विस्तार से बतलायें?
- परमात्मा और जीव को पदार्थ क्यों कहा है, जबकि ये दोनों चेतन स्वरूप हैं, जड़ नहीं?
- परमेश्वर का कोई और रूप है या नहीं ?
- परोपकारी जुलाई प्रथम में जिज्ञासा नं. 2 का समाधान करते हुए यह तो बता दिया गया है कि आत्मा का शरीर में मुय निवास स्थान हृदय प्रदेश में ही है, परन्तु जिज्ञासु की इस जिज्ञासा का समाधान नहीं बताया गया कि सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत अवस्था में शरीर में आत्मा एक ही स्थान पर रहती है या स्थान बदलती रहती है। यदि स्थान बदलती है तो क्यों?
- पाकिस्तानी हमारे जवानों को बार-बार धोखे से मारते हैं, क्या हमें उनको नहीं मारना चाहिए? मारना हिंसा है, तो क्या करे?
- पादरी ग्रे साहब आदि से अजमेर में शास्त्रार्थजून १८६६
- पुनर्जन्म एवं चमत्कार
- पुराण किसने बनाये ?
- पुरुषार्थ-चतुष्ट्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। इसमें ‘काम’ से क्या अभिप्राय है। क्या मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रारंभ के तीन पुरूषार्थ साधने आवश्यक हैं?
- पुर्नजन्म के सि(ान्तों के व्यावहारिक-प्रमाण क्या हैं?
- पूरा प्रयास करने पर कितने सालों में या एक जन्म में मोक्ष पा सकते हैं?
- पैगम्बर को पृथ्वी पर भेजना
- प्रणव’ का अर्थ क्या है?
- प्रतिमा—पूजन विचार
- प्रभु कैसे ज्ञान देता है
- प्राणी-मात्र को कर्म के अनुसार दुःख मिलना लिखा ही है तो फिर उनको दुःख भोगने देना चाहिए। तो शास्त्रों में क्यों लिखा है कि प्राणी-मात्र की सेवा, सहायता करनी चाहिए?
- बहुत जन्मों के बाद अच्छे कर्म करने से मनुष्य जन्म मिलता है। धरती पर अब बहुत कम मात्रा में अच्छे कर्म हो रहे हैं, बुरे कर्म ज्यादा हो रहे हैं, इस हिसाब से मनुष्यों की बस्ती (संख्या) कम होनी चाहिए, लेकिन मानव बस्ती तो बढ़ती जा रही है?
- बहुतायत आर्य समाजों में यज्ञ के पश्चात् ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन…..’’का पाठ किय जाता है। शंका संया 1- यह श्लोक है या कि मन्त्र है? किसी आर्ष ग्रन्थ से उद्घृत किया गया है?
- बार बार या प्रत्येक बार मन्त्र जपना या परमेश्वर का नाम लेना चाहिए या नहीं और जैसे ब्राह्मण लाख दो लाख मन्त्र या परमेश्वर के नाम का जाप और पुरश्चरण करते हैं यह ठीक है या नहीं है ?
- बेटा अपने पिता पर न्यायपूर्वक क्रोध करता है, वह हिंसा है या अहिंसा है?
- बौ(िक स्तर पर किसी भी जीव का या आकृति का पोस्टमार्टम कैसे किया जाता है, ताकि आकर्षण खत्म हो जाये?
- ब्रह्म और जीव की एकता
- ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके क्या नाम हैं, उनके रचयिता/लेखक कौन हैं, प्रत्येक ग्रन्थ में क्या ज्ञान है?
- ब्राह्मण यज्ञोपवीत किस लिए रखते हैं ?
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किस प्रकार हैं, कब से हैं और किसके बनाये हैं ?
- भारत में महिला और पुरुष दोनों को समान दर्जा प्राप्त है। लेकिन विवाह के बाद महिलाओं के पास मंगलसूत्र और सिंदूर रहता है। वो उनकी विवाहित होने की पहचान है। लेकिन विवाहित पुरूषों की क्या पहचान है?
- मन एक जड़ पदार्थ है । तो मन, शरीर में किस जगह पर रहता है, और मन को कैसे पकड़ा जाए?
- मन जड़ है। इसमें क्षण-क्षण में अलग-अलग स्मृति व विचार उठते हैं और वह इधर-उधर दौड़ता है, यह कैसे?
- मन में आते हुए विचारों को कैसे रोकें? संध्या, ध्यान आदि में अनेक विचारों से एकाग्रता टूट जाती है। क्या करें?
- मन, बु(ि और अहंकार क्या काम करते हैं?
- मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम-कृति है। वह इस संसार में रहते हुए मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करता है। तब ‘यह संसार मूढ़ व्यक्ति के लिए है’ यह बात कैसे उचित हुई?
- मनुष्य का जन्म पहला है कि अन्य प्राणियों का?
- मनुष्य की आयु निश्चित है या नहीं? है तो कितनी?
- मनुष्य ने इतने अविष्कार किये हैं। क्या ईश्वर यह पहले से जानता था, या वह आश्चर्य करता है?
- मनुष्य श्रेष्ठ है, ऐसा शास्त्र कहता है पर जो हिंसा चोरी आदि बुरे काम करते हैं, उन्हें अच्छे-बुरे का पता नहीं चलता। उनके लिए क्या उपाय है?
- मरने के बाद कहानी खत्म नहीं होती। ऐसा क्यों कहा जाता है?
- मसीह मूर्तिपूजा की शिक्षा देता था
- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अन्त समय में यह किस आशय से पूछा था कि ‘आज कौन-सा पक्ष, क्या तिथि और क्या वार है?’ अन्यत्र संस्कार विधि में भी तिथि व नक्षत्रादि का उल्लेख मिलता है। हमने एक वैद्य से सुना है कि ‘वैद्यक शास्त्रों’ में लिखा है कि औषिधियों का प्रभाव तिथि, नक्षत्र, पक्ष तथा उत्तरायण व दक्षिणायन में अलग-अलग पड़ता है?
- महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार-विधि के सामान्य प्रकरण में आघारावाज्याहुति व आज्याभागाहुति देने से पूर्व लिखा है कि ‘स्रुवा को भर अँगूठा मध्यमा अनामिका से स्रुवा को पकड़ के…..’ कृपया बताएँ कि स्रुवा को इन तीन से ही क्यों पकड़ा जाए?
- मानव जीवन की सबसे बड़ी भूल कौन सी है?
- मानव तो उन्नाति कर रहा है, अतः भगवान को तो खुश होना चाहिए?
- माँसाहार पाप है और लाश खाने के समान है। आजकल दुनिया में अधिकांश लोगों को ऐसा करते देखते हैं, तो क्या उनको मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती?
- मिश्रित कर्म’ क्या है?
- मुक्ति किसे मिलेगी?
- मुझे गुस्सा बहुत आता है। कृपया उपाय बतलायें?
- मुझे पता है कि ईश्वर सर्वव्यापक और निराकार हैं और वही हमारे वास्तविक माता-पिता, पालक-पोषक और रक्षक हैं। फिर भी मैं ईश्वर को अपने माता-पिता की तरह प्रेम नहीं कर सकती। मुझे क्या करना चाहिये, जिससे मैं परमपिता परमात्मा को माता-पिता की तरह प्रेम कर सकूँ?
- मूर्ति नहीं तो मुख कहां से आया
- मूर्ति पूजना कैसा है ?
- मूर्तिपूजा (लिखित शास्त्रार्थ) (जयपुर की संस्कृत पाठशाला के पण्डितों के साथ)
- मूर्तिपूजा अवैदिक और त्याज्य है
- मूर्तिपूजा का शास्त्रों में निषेध है
- मूर्तिपूजा वेदविहित है वा नहीं
- मूर्तिपूजा वेदों से निषिद्ध है
- मूर्तिपूजा हमारे शास्त्रों के अनुकूल है
- मृत शरीर को वैदिक धर्मानुसार जलाते हैं। कुछ वैज्ञानिक कहते है कि शरीर को गाड़ने से जमीन में अच्छी फसल तैयार होती है, और लकड़ी जो आजकल महंगी है, वो बच जाती है। कृपया इसकी विस्तृत जानकारी दें?
- मृत्यु के उपरांत मस्तिष्क भस्म हो जाता है, हृदय भी भस्म हो जाता है, फिर इसमें संस्कार कैसे संचित रह सकते हैं?
- मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या? यह सारा विवरण परोपकारी में बताने का कष्ट करें। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना
- मृत्यु से भय क्यों लगता है?
- मेरा पड़ोसी प्रायः हर रोज बच्चों को भेजकर साइकिल, प्रेस, पंप, तेल, हल्दी, जीरा, कुकर आदि हमारे घर से मंगवाता है? अब मना करें, तो संबंध खराब होने का डरऋ और झूठ बोलकर मना करें, तो ईश्वर का डरऋ और दे दें, तो अंदर मन में दुःखऋ बताइये क्या करें?
- मेरा प्रश्न है कि ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार शरीर की चार अवस्था मानी गई हैं। सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत व तुरीय। हम सामान्य पुरुषों की तुरिय न होकर अन्य तीन अवस्थाएँ मैं समझती हूँ। इन तीन अवस्थाओं में आत्मा का निवास कहाँ होता है। ये मेरी शंका है क्योंकि मैंने स्वाध्याय में पाया है- प्रथम आत्मा का ज्ञान होगा तो तभी ईश्वर का ज्ञान होगा, अन्यथा नहीं। त्रैतवाद का दूसरा अंग आत्मा ही है। अतः मैं आत्मा के विषय मैं पूरा-पूरा ज्ञान जानना चाहती हूँ। कृपया मुझे बताईये। – सुमित्रा आर्या, 961/10, आदर्श नगर, सोनीपत, हरियाणा।
- मेरे कुल का काम विष देना नहीं
- मेला चांदापुर सत्यधर्मविचार (अनेक विषयों पर विचार)
- मैं इन देवमूर्तियों को दयानन्द के हाथ से भोग लगवाकर उठूंगा
- मैं तो ब्रह्म हूं
- मैं नेत्रहीन हूँ, पर स्वप्न क्यों आते हैं?
- मोक्ष एवम् ईसा पर विश्वास
- मोक्ष की अवस्था में जीवात्मा को देखने, सुनने आदि के लिए, नेत्र, श्रोत्र बिना शरीर कैसे मिलते हैं?
- मोक्ष की इच्छा एक कामना है, मोक्ष की कामना से किया हुआ निष्काम कर्म सकाम हो सकता है?
- मोक्ष में आत्मा के साथ में मन, बु(ि, चित्त, कारण शरीर आदि रहते हैं या नहीं?
- मोक्ष में जीवात्मा आनंद का अनुभव कैसे करता है। क्या वह समझता है, कि आनंद प्राप्त कर रहा है?
- मोक्ष से लौटने के बाद पहला जन्म शूद्र परिवार में क्यों मिलेगा?
- यज्ञ करने से योगाभ्यास में क्या सहायता मिलती है?
- यदि आप ब्रह्म हैं
- यदि मन जड़ है, तो ‘मन’ बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे है?
- यदि मनुष्य पुरुषार्थ करता है और उसका फल नहीं मिला अथवा न्यून मिला तो दोषी कौन है, भाग्य या हम?
- यदि मांसाहार का निषेध कर दिया जाये, तो मांस पर निर्भर लोगों की रोजी-रोटी का क्या प्रबंध है। वो क्या करेंगे?
- यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?
- यह कैसे साबित हो कि अच्छे कार्य करने से व्यक्ति मोक्ष में जाता है? क्या अभी तक कोई भी व्यक्ति मोक्ष में गया है? अगर हाँ तो आपको कैसे ज्ञान हुआ कि वो व्यक्ति मोक्ष में गया है?
- यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?
- योग में मन के सभी विचारों को पूरी तरह से नहीं रोक पाते हैं तो क्या उन विचारों को रोककर दूसरी ओर लगाना है। मार्गदर्शन कीजिए?
- योगदर्शन में’अहिंसा’ का क्या अर्थ है?
- योगाभ्यास को कष्ट न समझकर करें, तो क्या उसमें सफलता मिल सकती है?
- रजोगुण से चंचलता होती है, तमोगुण से मूढ़ता होती है, तो विक्षिप्त अवस्था किस गुण से होती है?
- राजनीतिज्ञों की अहिंसा किस कोटि में रखनी चाहिए?
- रात्रि को केवल ढ़ाई-तीन घंटे नींद आती है। खाना, बिस्तर ठीक है। क्या तीन घंटे की नींद काफी है?
- रेलगाड़ी और शरीर दोनों ही जड़ पदार्थ हैं। शरीर की वृ(ि होती है, गाड़ी की वृ(ि क्यों नहीं होती?
- रोग दूर करने के लिए और स्वच्छता के लिए आज कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है, क्या ऐसा करना भी हिंसा करना होगा?
- लिखित शास्त्रार्थ (जैनमत) (जयपुर के जैनगुरु के साथ)
- लूत पैगम्बर का अनाचार
- लोग कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। और वही लोग कहते हैं, कि ईश्वर एक है। तो जब ईश्वर एक है, तो आत्मा में कैसे आ सकता है? आत्मा तो अनेक हैं। तो आत्मा, परमात्मा कैसे हैं, क्या परमात्मा खंडित-खंडित है?
- वन्य पशु-पक्षी अपना जीवन स्वच्छन्दता से जीते हैं। इसके बावजूद क्या वे दुःखी हैं अथवा क्या ईश्वर ने इन्हें सृष्टि-नियमन के लिए बनाया है?
- वरदान या श्राप देना क्या संभव है? नहीं, तो फिर वह क्या है?
- वास्तविक मृत्यु ईश्वर द्वारा लिखी जाती है, जो कि सौ वर्ष से कम नहीं है। क्या इससे कम जीवन देकर ईश्वर जीव को संसार में नहीं भेजता?
- विना मूर्ति के किस का ध्यान करें और किस प्रकार?
- विषयपुनर्जन्म
- वृक्ष में भी आत्मा है तो वनस्पति खाना, प्रयोग में लाना ठीक नहीं है, उसे हम किस अधिकार से दण्डित करें?
- वृक्षों’ के अंदर ‘जीवात्मा’ कहाँ रहता है?
- वेद और गंगा —यमुना
- वेद की उत्पत्ति कैसे हुई?
- वेद के होते हुए भी ‘गीता’ का उपदेश देने का क्या प्रयोजन है?
- वेद में प्रतिमा की आज्ञा नहीं है तो निषेध कहां है ?
- वेद में विज्ञान है। लेकिन वेद पढ़े बिना कुछ देश या लोग वैज्ञानिक उन्नति कर रहे हैं, तो वेद पढ़ने की वैज्ञानिक दृष्टि से क्या आवश्यकता है?
- वेद शास्त्र के अनुसार हिन्दुओं को किस किस की उपासना करनी चाहिए और जन्मदिवस से लेकर मृत्यु पर्यन्त क्या—क्या काम करने चाहिए।
- वेद’ ईश्वर की वाणी है। ईश्वर ने इसके निर्माण में कैसे सहायता की?
- वेदों से उससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है
- वैदिकधर्म तथा ईसाई मत: (फादर कानरीड साहब आगरा से धर्मचर्चा१२ दिसम्बर, १८८०)
- व्यक्ति किसी डेढ़ साल की बच्ची के साथ बलात्कार कर जान से मार देता है। वो पकड़ा जाता है। जज उसकी सजा फांसी के रूप में देता है। यह हिंसा है या अहिंसा?
- व्यक्ति के साथ कब तक संयमित व्यवहार करें? वह भी घर का ही सदस्य हो तो?
- व्याकरण एवं नियोग
- व्याप्य-व्यापक संबंध का अर्थ समझने में आया। पर उसकी अनुभूति नहीं होती। इसके लिए क्या करना चाहिए?
- शंका- सृष्टि (जगत्) में सभी जीव, परमात्मा के लिए संतानवत् हैं तो परमात्मा प्राकृतिक प्रकोप के द्वारा क्या दर्शाना चाहता है-दयालुता या न्यायकारिता? कई जीव पृथ्वी पर पैर रखते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसा क्यों?
- शंका- मोक्ष की इच्छा एक कामना है, ‘मोक्ष की कामना’ से किया हुआ निष्काम-कर्म सकाम हो सकता है?
- शंका- वृक्ष में जीवन है या नहीं है? क्या वनस्पति में आत्मा होती है?
- शंका-प्रकृति तीन तत्त्वों का समुदाय है? इनमें सत्त्व प्रकाशशील, सुखस्वरूप, रजोगुण क्रियाशील, तमोगुण स्थितिशील है। प्रकृति से बने संसार अर्थात् विकृति में ये तीनों गुणों को देखकर ऐसा संदेह होता है कि ये गुण ही स्वयं विकृति करते हैं। फिर सृष्टि निर्माण में ईश्वर की क्या और क्यों आवश्यकता है?
- शरीर, आत्मा और मन इनमें क्या संबंध है?
- शालिग्राम की मूर्ति गंगा में डाल दी
- शास्त्रार्थ का बहाना
- शास्त्रों के आधार पर प्रेम का अर्थ क्या होता है, क्या प्रेम और राग एक ही हैं या उसमें अंतर है?
- शिवपुराण खण्डन
- शुभ कर्म निष्काम भावना से किस प्रकार किए जाते हैं? किराने का व्यापारी अपनी दुकानदारी निष्काम-भावना से किस प्रकार कर सकता है?
- श्रीराम ने बाली का वध छुपकर के किया, और छुपकर के दुश्मन को मारना या किसी को मारना, यह तो गद्दारी है। ऐसा कुछ लोग कहते हैं?
- श्रुतियाँ कितनी हैं, उनके क्या-क्या नाम हैं, उनके लेखक/सृजन कर्ता कौन हैं, उनमें किस विषय का ज्ञान है?
- श्रेष्ठ पुरूषों की संकट से ईश्वर तत्काल रक्षा करता है, या कुछ और है?
- श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है।
- सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा।।” (योग.2/13) इस सूत्र में आए भोग के विषय में जानना चाहता हूँ?
- सत्य किसे कहते हैं ?
- सत्यासत्यविवेक की भूमिका
- सद्धर्मप्रचारक उर्दू हिन्दी का जन्म-भ्रान्ति निवारण-
- सन्ध्या दो समय करनी चाहिए या तीन समय ?
- संन्यासी को किसी ग्राम में तीन दिन से अधिक न रहना चाहिए
- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व-हितकारी नियम पालन में स्वतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें। इस नियम का क्या अर्थ है?
- समाधि अवस्था क्या है? हमने सुना है बहुत सारे संत ‘समाधि अवस्था’ में भगवान के पास गए। यह कैसे संभव है?
- समाधि की प्राप्ति में गुरू का कितना सहयोग चाहिये?
- समाधि लगने पर अर्न्तज्ञान प्राप्त होता है। )षि-काल में )षि लोग अर्न्तज्ञान से कैसा जानते थे?
- सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु: प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु आज देश में मन्नत माँगने व मन्नतों को पूरा करवाने का बहुत अच्छा धन्धा चल रहा है I पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासों की दलदल में फंसकर नदी सरोवर के स्नान पेड़ पूजा कबर पूजा कुत्ते बिल्ली के आगे पीछे घूमकर अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए धक्के खा रहे हैं I जो सैकड़ों वर्ष पूर्व कबरों में दबाये गए उनको अल्लाह मियाँ ने मनुष्यों के दुःख निवारण करने का मुख्तार बना दिया है I मनुष्यों की इस दुर्बलता का शिकार आर्य समाजी भी हो रहे हैं I ऐसे अटार्नी जनरल आर्यसमाज में मनोकामनायें पूरी करवाने के नए नए जाल फैला रहे हैं I कुछ सज्जनों का प्रश्न है की किसी से कोई यज्ञ अनुष्ठान करवाने से मन्नत पूरी हो जाती हैं ? कामनाएं पूरी करने के लिए वेदानुसार क्या कर्म करने चाहिए ?
- सर्वार्न्तयामी’ का अर्थ क्या है?
- संसार की घटनाओं से हमें कैसे और क्या सीखना चाहिए? क्या संसार में प्राप्त होने वाले सुख-दुःख को हमें याद रखना चाहिए या भूल जाना चाहिए?
- संस्कार-दोष और इन्द्रिय-दोष में क्या अंतर है?
- संस्कार-विधि में बालक के जात-कर्म संस्कार के समय, तिथि और तिथि के देवता, नक्षत्र और नक्षत्र के देवता की आहुति का विधान किया गया है। उन्होंने लिखा है-गृहस्थ व्यक्ति यदि दैनिक यज्ञ नहीं कर सकता है, तो कम से कम पूर्णिमा व अमावस्या के दिन यज्ञ अवश्य करे। इन दो विशेष दिनों का क्या महत्व है? क्या चंद्रमा का घटना और बढ़ना हमारे जीवन पर प्रभाव डालता है?
- साठ वर्ष का पिता रिटायर्ड फौजी है। शराब की आदत है। सारी पेन्शन शराब में उड़ा देता है। क्या शराब छुड़ाने का कोई उपाय है?
- सारे लोग हमारी इच्छा के अनुकूल व्यवहार करें, क्या ऐसा हो सकता है?
- सुंदर शरीर, कपड़े, गाड़ी, सुंदर काले बाल, पूरी लंबाई का क्या महत्व है?
- सुरा शब्द से अच्छे फल की रसरूप औषधि का वर्णन है, मघ का नहीं
- सूक्ष्म-इच्छाओं से मुक्त कैसे हुआ जाए। क्या संसार में रहते हुए यह संभव है?
- सूक्ष्म-इच्छाओं’ से आपका क्या तात्पर्य है?
- सृष्टि उत्पति : आचार्य सोमदेव जी
- सृष्टि का प्रयोजन जीवात्माओं को लौकिक सुख और मोक्ष का सुख देने के लिए है। किन्तु योग-दर्शन में कहा गया है कि लौकिक सुख, दुःख से मिश्रित है, इसलिए लौकिक सुख हेय-कोटि में आते हैं। इस विरोधाभास को सुलझाने का प्रयत्न करें?
- सृष्टि की शुरुआत में लोगों की भाषा कौन सी थी?
- सृष्टि केवल एक है या बहुत सारी हैं?
- स्व-स्वामी संबंध अर्थात् मैं इस शरीर का स्वामी नहीं हूँ। यह बात तो ठीक है, लेकिन मैं अपने मन का स्वामी हूँ, यह कैसे ठीक हुआ?
- स्वाभाविक आयु कितनी है?
- स्वामी सत्यपति जी ने इतने अच्छे कर्म किए, फिर भी उन्हें रोगों से क्यों पीड़ित होना पड़ रहा है?
- स्वार्थ की व्याख्या करें? कृपया तीन-चार व्यावहारिक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए?
- हम अध्यापक हैं, और हमारे विद्यार्थी बार-बार कहने पर भी मानते नहीं, तो हमें गुस्सा आता है। क्या यह सही है?
- हम पर जो अन्याय हुआ, किसी की भी वजह से हमको जो नुकसान उठाना पड़ा, तो जो हमारा नुकसान हुआ, उसका क्या हुआ?
- हम लोग बेल्ट, जूता, चप्पल आदि चमड़े से बनी वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, तो क्या ये अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा है?
- हमने सुना है, मुक्त आत्मायें आपस में बातें करती हैं। लेकिन वे स्थूल शरीर के बिना कैसे बातें कर सकती हैं?
- हमारा ज्ञान सत्य है, या नहीं। यह जानने के लिये अपने ज्ञान की तुलना किसके ज्ञान के साथ करनी चाहिये?
- हमारे चार वेद हैं और वे चारों ज्ञान के भण्डार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता में सामवेद को ही अपनी विभूति क्यों कहा है?
- हमारे देश में मूर्ति-पूजा कब से शुरू हुई? हम यदि मूर्ति-पूजा नहीं करते है लेकिन साथ के अन्य लोग कर रहे हैं, तो उनके साथ कैसे रहें?
- हमारे निवास स्थान पर मुण्डकोपनिषद् का एक श्लोक लिखा है, जिसमें ओ३म् को धनुष, आत्मा को तीर और ब्रह्म को लक्ष्य बताया गया है। कृपया इसे स्पष्ट करें?
- हमें किस सीमा तक सहनशील होना चाहिऐ और कब प्रतिकार करना चाहिए? यदि कोई माता-पिता का अपमान करे तो क्या सहन करना उचित होगा?
- हर नया कर्म करते समय मन में पहले शंका उत्पन्न होती है और उसके साथ बाद में भय भी उत्पन्न होता है। ऐसा क्यों?
- हिन्दू मुसलमानों के तीर्थ
- हिंसक प्राणियों साँप, बिच्छु, चींटी, काकरोच आदि के साथ कैसा व्यवहार करें?
- हुगली—शास्त्रार्थ
Introduction to Vedas
- 1. INTRODUCTION LE COMMENTAIRE D’ LA RIG & AUTRES VEDAS
- 1. Introductory stanzas.
- 10. La revolución y la rotación de las esferas, la tierra, etc.
- 10. La Révolution et la rotation des sphères, la Terre, etc.
- 11. Gravitation et activité
- 11.Gravitación y atracción
- 12. El Illuminer y los iluminados
- 12. Sur l’illuminer et Illuminés
- 13. La science des mathématiques
- 14, Louange, prière et l’adoration de Dieu, Supplique à Lui et à Sa Volonté Démission
- 14. Alabanza, Oración y Adoración de Dios Página
- 15. aphorismes de yoga sur l’émancipation.
- 15.Emancipación
- 16. L’art des navires et aéronefs de construction, etc.
- 16. El arte de la construcción de barcos y aviones, etc.
- 17. Sur la Science de télégraphie
- 17.La ciencia de la Telegrafía Página
- 18. La ciencia médica
- 18. Sur la science médicale
- 19. Renacimiento
- 19. Sur Rebirth
- 2. ORACIONES VÉDICAS
- 2. VEDIC PRIÈRES
- 20. Matrimonio
- 20. Sur le mariage.
- 21. Sur niyoga (Nomination)
- 21.Niyoga (Cita)
- 22. Les Fonctions du gouvernant et le gouverné.
- 22. Los deberes del gobernante y los gobernados
- 23. La Página Varnas y Ashramas
- 23. Sur Le Varnas et Ashramas
- 24. Sobre los deberes de un cabeza de familia
- 24. Sur les fonctions de chefs de ménage
- 25. Sur les fonctions d’un Dweller dans la forêt.
- 25.Los deberes de un habitante de la Página Bosque
- 26. Los deberes de un renunciante Página
- 26. Sur les devoirs d’un Sanyasi
- 27. En los cinco grandes Debere
- 27. Sur les cinq grands devoirs
- 28. El authoritativeness o lo contrario de los Libros.
- 28. L’autorité morale ou non des Livres.
- 29. En Cualificación y la descalificación.
- 29. Sur qualification et de disqualification.
- 3. L’origine des Védas
- 3. La eternidad de los Vedas
- 30. En el método de enseñanza de la lectura y de la lectura.
- 30. Sur la méthode d’enseignement de la lecture et de la lecture.
- 31. Sur certains griefs répondit et doutes supprimés sur le Commentaire Présent.
- 31.En algunas objeciones y dudas respondidas removidas en el Comentario Presente.
- 32. En Pratijna (Principios Generales).
- 32. Sur Pratijna (Principes généraux).
- 33. Algunas preguntas y respuestas relacionadas con los Vedas.
- 33. Quelques questions et réponses concernant la Védas.
- 34. En las normas especiales de las palabras védicas mencionados por el autor del Nirukta.
- 34. En las normas especiales de las palabras védicas mencionados por el autor del Nirukta.
- 34. Sur les règles spéciales des mots védiques mentionnés par l’auteur de la Nirukta.
- 35. Reglas y Svaras que también son de uso en la interpretación de los mantras védicos
- 35. Règles et Svaras qui sont également utiles dans l’interprétation des mantras védiques.
- 4. L’éternité du Vedas
- 4. La eternidad de los Vedas
- 5. El Asunto de los Vedas.
- 5. L’objet de la Védas.
- 6. EL NOMBRE DE LA VEDA.
- 6. SUR LE NOM DE LA VEDA.
- 7. Teosofía (Brahmavidya)
- 7. Théosophie (Brahmavidya)
- 8. Dharma comme enseigné dans les Védas
- 8. Dharma como se enseña en los Vedas
- 9. Cosmogonía
- 9. Cosmogonie
- Chapter – 33, Some Questions and Answers Relating to the Vedas.
- Chapter – 34, The special rules of the Vedic words mentioned by the author of the Nirukta.
- Chapter – 35 Rules which are also of Use in the interpretation of the Vedic mantras
- Chapter 1,INTRODUCTORY STANZAS.
- Chapter 10, The Revolution and Rotation of the Spheres, the Earth, etc.
- Chapter 11,Gravitation and Attraction
- Chapter 12, The Illuminer and the Illumined
- Chapter 13, The Science of Mathematics
- Chapter 15, Emancipation
- Chapter 16, The Art of Building Ships and Aircrafts, etc.
- Chapter 17,The Science of Telegraphy
- Chapter 18, The Medical Science
- Chapter 19,Rebirth
- Chapter 2,VEDIC PRAYERS
- Chapter 20,Marriage
- Chapter 21,Niyoga (Appointment)
- Chapter 22, The Duties of the Ruler and the Ruled
- Chapter 23, The Varnas and Ashramas
- Chapter 24, On The Duties of a Householder
- Chapter 25,The Duties of a Dweller in the Forest
- Chapter 26,The Duties of a Sanyasi
- Chapter 27, The Five Great Duties
- Chapter 28, The Authoritativeness or Otherwise of the Books.
- Chapter 29, Qualification and Disqualification.
- Chapter 3,The Origin Of The Vedas
- Chapter 30, The Method of Teaching How to Read and of Reading.
- Chapter 31, Some Objections Answered and Doubts Removed on the Present Commentary.
- Chapter 32, Pratijna (General Principles).
- Chapter 4,The Eternity of the Vedas
- Chapter 5,The Subject Matter of the Vedas
- Chapter 6, The Name Of The Vedas
- Chapter 7, Theosophy (Brahmavidya)
- Chapter 8, Dharma as taught in the Vedas
- Chapter 9, Cosmogony
- Chapter” 14, Praise, Prayer and Worship of God