संस्कृत वाङ्ग्मय में यमों के अंतर्गत अहिंसा का स्वरूप

संस्कृत वाङ्ग्मय में यमों  के अंतर्गत अहिंसा का स्वरूप

संदीप कुमार उपाध्याय[1]

 

मानव जीवन के साथ ही दैवी और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष सर्गारंभ से चला आ रहा है | जीवन -संग्राम में आसुरी वृत्तियों के विजय होने पर क्लेशों का समुद्र उमड़ पड़ता है | यह क्लेश मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि विविध रूपों में व्यथित करते हैं | इन के वशीभूत होकर मनुष्य जब अन्य प्राणियों को कष्ट देने के लिए संनद्ध होता है तो उस वृत्ति का ही नाम हिंसा है | परंतु साधक जब आसुरी वृतियों की प्रबल विरोधिनी सेनाओं के द्वारा दैवी वृत्तियों को विजयी बना लेता है , तो देवी वृत्तियों के विशाल साम्राज्य में सात्विकता, शांति, श्रद्धा, प्रेम, उत्साह आदि आध्यात्मिक सुखद राज्यों की स्वतः  स्थापना हो जाती है | इन्हीं दैवी वृत्तियों की जननी एवं कोशिका वृत्ति का नाम है अहिंसा |

आसुरी (हिंसात्मक) वृत्तियां साधक को विविध कष्टों से दुखित करने के साथ ही अध्यात्म- प्रसाद से वंचित रखती हैं , अतः श्रुति भगवती  को कल्याण भावना से शिक्षा देती है कि सोम स्वरूप परमेश्वर को चाहने वाले साधकों  तुम किसी की हिंसा मत करो |[2] हिंसा न करने का हेतु बताते हुए आगे कहा है- हिंसक वृत्ति वाला व्यक्ति मोक्ष रूपी अनुपम संपदा को कदापि पा नहीं सकता |[3] इसके विपरीत जो अन्याय अनीति से स्वार्थवश किसी की हिंसा नहीं करते, वही धर्मात्मा, शक्तिशाली होकर निर्भयता से विजय पाते हैं ,[4] अतः वेद का संदेश है कि योगाभिलाषी अहिंसा का पालन करें, अन्य राजपुरुष आदि उनकी रक्षा करते हुए अहिंसा-वृति का आचरण करें |[5]

हिंसा का निषेध

वेदों में हिंसा न करने  तथा अहिंसा का  परिपालन करने के विषय को  अतिसूक्ष्मता  एवं  व्यापकता से प्रस्तुत किया गया है | साधना के लिए उद्यत  साधक जब गंभीरता से दृष्टिपात करता है तो उसे सारा प्राणि-जगत हिंसा से परिपूर्ण, जीव ही जीव का घातक दिखाई देता है | ऐसी स्थिति में जीव, जीव का भोजन बना हुआ है, सबल निर्बल को ही खा रहा है, पीड़ा दे रहा है, दुखित कर रहा है |  ये दुखित करने की भावनाएं गुण-कर्म तथा स्वभाव में आ चुकी हैं |  इनसे मानव स्वयं दुखी है और दूसरों को भी कष्ट देने के लिए तैयार रहता है| इस अवस्था में सुख कहां ? साधक यह विचार कर सर्वप्रथम इन दुरितों को दूर करने की प्रार्थनाएं करता है कि- हे सविता देव ! हमारे संपूर्ण दुर्गुण दुर्व्यसन और दुखों को दूर कर दीजिए| [6] हे इंद्र हिंसा कराने वाले काम, क्रोध द्वेष आदि  के अधीन हमें ना होने दीजिए | [7] द्वेष  की भावना ही सब प्रकार की हिंसा की मूल है, इनके विनष्ट हुए बिना साधक आगे बढ़ नहीं सकता, इसलिए विनम्र हो पुनः निवेदन करता है- प्रभु आप संपूर्ण देश युक्त कर्मों को हम से पृथक कर दीजिए |[8] हिंसा से पृथक रहने की अवस्था तभी आती है जब मनुष्य हिंसा के दुष्परिणामों को भली-भांति जान लेता है | क्योंकि पहले अज्ञान एवं कुसंगवश दुष्कर्मों में फंस जाता है, पुनः उनसे छुटकारा पाना कठिन समझकर परमेश्वर से विनय करता है, साथ ही लोक में अपने से वरिष्ठ विद्वानों से प्रार्थना करता है कि- विद्वान पुरुषों ! अत्याचार करनेवाले, दान ना देने वाले तथा दुख देने वाले देषभावों को हमसे दूर करके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करो |[9] हिंसा करना तो दूर रहा, वैदिक साधक  तो हिंसक का संसर्ग भी नहीं चाहता| उसकी सदा यह भावना रहती है कि जैसे विद्वान लोग हिंसा रहित मित्र के घर जाते रहते हैं, उन्हीं का अनुसरण मैं करूं |[10] द्वेष ही हिंसा का जनक है, द्वेषी व्यक्ति योग मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता| अद्वेषि  होना योगी की प्रथम पहचान है| वेद का दृढ  सिद्धांत है कि अद्वेषि ही परमात्म प्रसाद को पा सकता है | [11] अतः वेदों में द्वेष युक्त कर्म तथा द्वेष   त्याग की भावना से ओतप्रोत अनेक ऋचाए मिलती हैं |[12] ऐश्वर्याभिलाषी साधक मोह, क्रोध, मत्सर, काम, मद  एवं लोभ  इन छह राक्षसी वृतियों को क्रमसः  उल्लू, भेड़िया, कुत्ता, चकवा या कबूतर, गरुण और गिद्ध की दुर्वृतियों  वाला जानकर पत्थर से पीसने के समान समूल मसल दे | [13] अर्थात आगे से, पीछे से, नीचे से, ऊपर से, सब ओर से ऐसे राक्षसी भावों को सर्वथा समाप्त कर दे| [14]

हिंसा से बचने के उपाय

वैदिक संहिताओं में हिंसा, अहिंसा विषय के विधि और निषेध  पर मंत्र मिलते हैं | वेद के रहस्य में गुढ  तत्वों को विद्वान योगी ही भली भांति हृदयंगम कर सकता है| वैदिक अहिंसा के मूल में सदा प्राणियों के अवैध व्याघात का अभाव जन कल्याण की भावना तथा ईश्वरीय न्याय व्यवस्था विद्यमान हैं | वेद का संकेत है कि- ऐसा साधक, ईश्वर के सर्वोकारक मार्ग से कभी पृथक न हो| हिंसा रहित श्रेष्ठ कर्म योग यज्ञ का अनुष्ठान करता रहे तथा अपने अंदर शत्रुता की भावनाओं को तथा दान न  देने की भावनाओं को ठहरने ना दे  | [15]

राजा तथा राज पुरुषों का कर्तव्य है कि अहिंसा व्रत सेवी योगी पुरुषों की सब प्रकार से रक्षा करें| यदि कोई नराधम उन्हें कष्ट दे तो राजा उसे विविध कष्ट दे | संतप्त करें|[16] हिंसक से प्रेम न करें |[17] उसकी अधोगति कर दे |[18] पुनरपि वह हिंसा के स्वभाव को नहीं त्यागे तो  देश से बाहर निकाल दे[19] या मार दे |[20]

 

दंड विधान हिंसा नहीं

वेद में जहां प्राणी मात्र को मित्र की[21] दृष्टि से देखने के बार बार निर्देश दिए गए हैं ,वहां वेद[22] विद्वान-द्वेषी, मांस भक्षी, क्रूर प्रकृतिवाले ,प्रत्येक कार्य में कुतर्क करने वाले-कुकर्मी एवं पाप की प्रशंसा करने वालों को विशेष मन्यु बल से संतप्त करने, बाण से बीन देने, बंधन में डाल दंड देने तथा अंग भंग करने या मार देने तक के आदेश मिलते हैं | [23] जो वीर पुरुष क्रूर हिंसक ओं को मारता है उसके लिए प्रतापी(शुक्रशोचिः)[24] अमर, पवित्र, शुद्ध करने वाला ,स्तुति करने योग्य, अग्नि के समान तेजस्वी, मित्र, विप्र, सखा आदि विशेषण का प्रयोग किया गया है| शत्रुनाशन प्रसंग[25] में यदि कोई गौ,अश्व या प्रिय पुरुष को मारता है तो उसे शीशे की गोली से बीन्धने  का विधान है|  इस प्रकार हिंसको  के नाश का अन्यत्र[26] भी स्पष्ट विधान किया गया है| वस्तुतः आसुरी वृतियों से उत्पन्न हिंसक कर्मों के विनाश के लिए किया गया दंड विधान अहिंसा के परम उत्तम सिद्धांत की रक्षा के लिए ही है| इसीलिए शत्रु नाशक पुरुषों को मित्र =सखा कहा गया है|

वेद की अहिंसा की रक्षिका हिंसा के सूक्ष्म रहस्य को ना समझ कर मध्यवर्ती काल में पशु पक्षियों की हिंसा को वेद सम्मत मानने का प्रयास किया गया जिससे वेद के प्रति जन साधारण को गिलानी तक हो गई| परंतु वेद का स्पष्ट मत यही है कि अधार्मिक पाप वृतियों के जनक दुर्गुणों तथा घातक मनुष्यों का मानव कल्याण के लिए अवश्य वध करने योग्य है, अर्थात पापियों को दंड देना हिंसा नहीं ; वेद में किया गया दंड विधान अहिंसा की रक्षा के लिए है|[27]

 

अहिंसा पालन के प्रकार

वैदिक उपासना के मार्ग पर अग्रसर उपासक विविध प्रकार से व्यवहार में अहिंसा का पालन करने को उद्यत रहता है| वह अहिंसा सेवी अन्य उपासक बंधुओं के साथ सूर्य चंद्रमा के समान सदैव  कल्याण तथा अहिंसा के पथ पर चलने की कामना करता है|[28] अहिंसा के पालन का संकुचित क्षेत्र नहीं होना चाहिए| इसलिए वेद  अहिंसा का पालन, प्राणी मात्र को मित्र की दृष्टि से देखकर, करने का निर्देश करता है|[29] अहिंसा धर्म का पालन सत्य वक्ता, अहिंसा सेवी विद्वान के संसर्ग में ही हो सकता है |[30] अतः अहिंसा का पालक ऐसे विद्वानों का अपने यहां आह्वान करता है[31]

अहिंसा का पालन किसी समय विशेष में करने से सिद्धि नहीं होती, इसलिए महर्षि दयानंद सरस्वती मंत्र के भावार्थ में स्पष्ट करते हैं कि जो म नियमों से युक्त होकर कार्य सिद्धि के लिए दिन रात प्रयत्न करते हैं वह उत्तम होते हैं दैनिक व्यवहार में दिन रात अहिंसा का पालन करते हुए साधक आत्मिक साहस को प्राप्त कर सकता है| अहिंसनीय[32] व्यवहारों में परमात्मा विशेष रूप से प्रोत्साहित करता है| परमात्मा[33] हिंसा रहित योग यज्ञों का सम्राट है| वह अहिंसा[34] से परिपूर्ण स्तुति प्रार्थना को ही स्वीकार करता है|  साधक अहिंसा का पालन करते करते जब अपनी इंद्रियों को अहिंसा में अभ्यस्त बना लेता है तब परमात्मा प्राप्ति का मार्ग उसके लिए प्रशस्त हो जाता है साधक इंद्रियों की हिंसक अग्नि का सयम करके प्रभु प्रेम को प्राप्त करते हैं |[35]

वेदों में प्रयुक्त अध्वर:[36] अथर्वा[37] अदभा[38] अनेहस्[39]  अघ्नता[40] अघ्न्या आदि  पद अहिंसा पालन का स्पष्ट संकेत करते हैं|  वेदों में अहिंसा विषयक पर्याप्त निरूपण होते हुए भी पाश्चात्य विद्वानों ने तथा उनके अनुयाई भारतीय विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में यह मत प्रकट किया है कि भारत में आर्य लोग गौ मांस भक्षण करते थे|

मैकडानल  और कीथ अपनी पुस्तक वैदिक इंडेक्स में लिखते हैं कि वैदिक काल के भारतीयों का मांस के संबंध में भोजन का पता उन जानवरों की सूची से चलता है जो यज्ञ में मारे जाते थे ,जो मनुष्य खाते हैं वहीं देवताओं को बलि देते हैं, भेड़ बकरी और बैल पुस्तक में दूसरे स्थान पर लिखा है कि वैदिक काल में मांस सर्वसाधारण का भोजन था| वेद पर लगाए गए इस प्रकार के अनेक आरोपों का मुख्य कारण है वेदों को प्रकरणशः  समझने की योग्यता का अभाव वेदों को स्वयं न पढ़कर अन्यों के भाष्यो पर विश्वास करना तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा वेद की निंदा कर भारतीयों को वैदिक धर्म के प्रति ग्लानि उत्पन्न करने की व्यापक योजना|  अहिंसा के विरुद्ध लिखने वाले इन पश्चिमी विद्वानों का कई वैदिक विद्वानों ने युक्ति एवं प्रमाण पूर्वक निराकरण किया है |

इस प्रसंग में इतना अवश्य विचारणीय  है कि जब वेदों में सर्व साधारण के लिए सामान्य रूप से अहिंसा लिखी है पुनः हिंसा के लिए वेदो को समर्थक मानना नितांत अज्ञता  एवं धृष्टता है इस प्रकार जब जनसाधारण के लिए वेद अहिंसाव्रत के पालन का विधान करता है तो सात्विक गुण अभिलाषी साधक के लिए हिंसा का प्रश्न हि नहीं होता |

 

अहिंसा के भेद

वैदिक संहिताओं में अहिंसा तथा हिंसा के अनेक स्वरूप हैं उनको प्रमुख रुप से 3 भेदों में विभक्त कर सकते हैं शारीरिक अंगों से हिंसा ना करना ,वाणी से असत्य और कटु वचन ना बोलना तथा मन से विद्वेष ना करना, अहिंसा है | इस तरह वेदों में मन, वाणी एवं शरीर तीनो से ही अहिंसा पालन के निर्देश मिलते हैं संक्षेप से यहां अनुशीलन किया गया है

मानसिक अहिंसा  – मननात्मक शक्ति, बुद्धि के विकृत होने पर तामसिक गुण की अधिकता से मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है और शस्त्र आघात या अन्य साधनों से मनुष्य तथा पशुओं को नष्ट करना चाहता है|[41] ऐसे अनिष्ट चिंतक को श्रुति  में दुर्मति:[42] दुहार्द अर्थात दुष्ट मति वाला दुष्ट हृदय वाला दुरात्मा कहा गया है|  इसी प्रकार ज्ञान के द्वेषी  को ब्रह्मद्विषः  विचार एवं द्रोही के लिए द्रुह पद का प्रयोग है| इन शब्दों का संबंध मानसिक हिंसा से है मानसिक हिंसा में संलग्न मनुष्य निश्चिंत शांत नहीं रह सकता इसीलिए उपासक वेद के शब्दों में प्रार्थना करता है कि हे प्रभु सुमनस्कता  और दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए हम सदैव विद्वानों की संगति करते रहें | विद्वानों का कर्तव्य है कि वह अहिंसा से पूर्ण कार्यों की रक्षा करें एवं परस्पर प्रीति बढ़ाकर अहिंसा धर्म की वृद्धि करें| विद्वानों के लिए वेद का आदेश है कि विद्वान ऐसी बुद्धि को उत्पन्न करें जिससे समाज में बल की वृद्धि तथा योग कर्मों में प्रगति हो सके| अहिंसा व्रत के पालन से साधक मोक्ष मार्ग का पथिक तभी बन सकता है जबकि वह योगाभ्यास के द्वारा प्राणी मात्र में परमात्मा की अनुभूति करता है| वह परमात्मा में सब जड़ चेतन आदि को समझता है ऐसे सम्यक दर्शन में उसे किसी प्रकार का संदेह नहीं रहता वह सुख दुख हानि लाभ में अपने आत्मा के समान सब प्राणियों को देखता हुआ धार्मिक वृत्ति से मोक्ष को प्राप्त होता है मानसिक अहिंसा का पालन सर्वोपरी कठिन है अतः वैदिक साधना से भी मानसिक अहिंसा के अनुकूल व्यवहार करें, इसका पालन बड़ी गंभीरता से व्यवहार को शुद्ध करने से होता है |

 

वाचिक अहिंसा-  जो व्यक्ति कठोर भाषण के द्वारा दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं या वाणी द्वारा द्रोह प्रकट करते हैं वेद में उन्हें द्रोघवाच:[43] कहा गया है | इसे हम वाचिक हिंसा कह सकते हैं | जो असत्य वचनों से दूसरे को धमकाता, झिड़कता है और अहिंसक को हिंसक कहता है अपने को सत्यवादी एवं धर्मात्मा सिद्ध करता है सर्वज्ञ परमात्मा उसकी आत्मा को निर्बल करता है| असत्य बोलने या गाली देने वालों के लिए प्रजा रक्षक राजा दंड विधान करें| वाचिक अहिंसा के साधक को आवश्यक है की स्तुति करने वाली उपदेश द्वारा ज्ञान प्रदान करने वाली तथा ईड़ा सरस्वती और महि तीन अहिंसानिय वाणियों को सदा प्राप्त करें |

अहिंसा व्रत के पालक ऐसा संयम करें जिससे दिव्य गुणयुक्त महात्माओं के सम्मुख प्रतिज्ञा पूर्वक घोषणा कर सके कि भगवान ना तो हम हिंसा करते ना घात पात करते हैं ना ही वाग्व्यवहार से परस्पर विरोध करते हैं | मंत्र के अनुसार आचरण करते हुए तिनकों के समान तुच्छ निर्बल साथियों के साथ भी एकमत होकर मिलकर वेगपूर्वक कार्य करते हैं[44] उपासना काल में किसी की हिंसा करने वाली प्रार्थना भी ना करें | परमेश्वर के समीप उपस्थित होकर उन्हें अहिंसा जनक स्तुति प्रार्थना तथा क्रियाओं द्वारा व्रत पालन का संकल्प लें जो सत्य सिद्ध हो|[45]

उपासक परिवार में रहकर किस प्रकार वाचिक अहिंसा का आचरण करें इसका सुंदर परिशीलन अथर्ववेद में किया गया है| पति पत्नी पारस्परिक संभाषण में मधु के समान मधुर और शांतिदायक वाणी बोलें |[46] पुत्र माता पिता के साथ अनुकूल मन वाले होकर वर्तनी वाले हो| भाई भाई आपस में द्वेष  न करें|[47] बहन बहन आपस में द्वेष न करें  |इसी प्रकार बहन भाई भी अहिंसा व्रत के पालक होकर सदैव मीठी एवं कल्याणकारिणी वाणी बोलें  |जिस प्रकार विद्वान योगी पुरुष आपस में विद्वेष नहीं करते उसी प्रकार घर के सभी सदस्यों का

प्रेम- पूर्ण व्यवहार हो |[48] सभी अपने से बड़ों का आदर करें, ए मन होकर रहें, कभी पृथक न हो, मिलकर संसिद्धि अर्थात कार्यो को पूरा करने का यत्न करें, एक आधार बनाकर आचरण करें, एक दूसरों के प्रति सरल, मीठा, प्रेम पूर्वक बोले इस तरह साथ-साथ  उद्योग करने वालों को परमात्मा एकमन वाले तथा पवित्र मन की शक्ति से युक्त करता है |[49]

शारीरिक अहिंसा–   जो मन और वाणी से हिंसा के भाव निकाल देगा वह शारीरिक हिंसा नहीं कर सकता | वेदों में मन वाणी से अहिंसा व्रत के साथ ही शारीरिक अहिंसा पालन के विशेष निर्देश उपलब्ध होते हैं| ईर्ष्या, द्वेष, लोभ आदि के वशीभूत हो किसी को शारीरिक कष्ट देना, अंग-भंग करना या प्राण हरण कर लेना शारीरिक हिंसा का क्षेत्र है; इसके त्याग को शारीरिक अहिंसा कहा गया है| यथा- शारीरिक हिंसा को के लिए वेद मंत्रों में अत्रिणः[50] रिपुः[51] एवं हस्तघ्न[52]  आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं| ऐसे शारीरिक हिंसाको को  दंड देने तथा शरीर से दुर्बल कर देने का विधान वेदों में किया गया है | शारीरिक अहिंसा-व्रत की पालना के लिए शारीरिक हिंसा का निषेध किया है कि प्रजाओं को शरीर के द्वारा कोई न मारे| साधक स्वयं शारीरिक कष्ट नहीं देता वर्ण कष्ट देने वालों के प्रति प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे परमेश्वर यह सभी हिंसक मनुष्य हमारे शत्रु बनकर वैर  भाव ना रखें तथा हमारे शरीरों का नाश न करें अपितु हम परस्पर मैत्री का व्यवहार करते रहें| अहिंसा दोनों पक्षों से स्थिर होती है |वेद का स्पष्ट आदेश है कि साधक न कभी दूसरों से हिंसित  हो न स्वयं दूसरों की हिंसा करें| किसी स्थान विशेष पर भी हिंसा ना करें, अहिंसा के कार्यों में ही विद्वानों का सहयोग मांगे\[53]

अहिंसा पूर्वक धन संचय-

                          साधक जीविकोपार्जन के लिए जो भी कार्य करता है उस में हिंसा का आश्रय लेकर दूसरों को कष्ट पहुंचा कर, झूठी प्रशंसा से या छल कपट से धोखा देकर धन संचय करता है| तो वह धन मोक्षधन की प्राप्ति नहीं कराता| हिंसा से प्राप्त धन राज्यश्री और उत्तम सामर्थ्य प्राप्त नहीं करा सकता| अतः साधक परमेश्वर से याचना करता है कि मुझे तो वह धन प्राप्त कराइए जिससे मैं भवसागर से पार जा सकूं और आपके  दिव्य स्वरुप में विद्यमान अनासक्ति, परोपकार तथा मोक्षधन पा सकूँ | उसे  पता है कि अहिंसक ही उत्तम धन और पुत्रों को प्राप्त करता है| [54] नचिकेता तथा मैत्रेयी  ने इस सांसारिक धन्नो को नश्वर समझ कर अविनश्वर मोक्ष धन के कामना की थी| नारद को समझाते हुए सनत कुमार ने इस परम धन को भूमा कहा है| अतः सुख चाहने वाला उपासक अहिंसा से उपार्जित वित्त पर संतोष करें |

सार्वभौम अहिंसा

वैदिक संघिता ओं में अहिंसा की शिक्षा ग्रहण करने का क्षेत्र विशाल है| चेतन मात्र से अहिंसा जन्य सुख शांति की कामना के साथ साथ प्रकृतिस्थ अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, विद्युत, पर्वत, समुद्र , दिशा, दिन-रात, ऋतु, क्षेत्र, अन्नादि औषधी, वनस्पति, मन, बुद्धि, प्राण आदि  से सुख तथा शांति की कामना की गई है| यह तभी संभव है जब साधक परमाणु से लेकर परमात्मा तक के सूक्ष्म तथा महान तत्वों का ज्ञान वेदादिशास्त्र के अध्ययन से प्राप्त करें |साधक प्रकृति के पदार्थों, मनुष्य, गौ  आदि पशुओं से सुख एवं उनकी कामना करता है|  विज्ञ साधक इस ज्ञान से संपन्न हो विचारता है कि प्रकृति का प्रत्येक तत्व अहिंसक होकर परोपकार में तल्लीन हैं| पुनः मैं भी क्यों ना इन से शिक्षा ग्रहण कर अहिंसा व्रत का पालन करूं| मैं किसी प्राणी विशेष को किसी स्थान विशेष में क्यों मारूं यह तो मेरे लिए हितकारी है, प्रजापति की प्रजा हैं ,जब मैं इन्हें जीवनदान नहीं  दे सकता तो इन्हें विनष्ट करने का भी तो मुझे अधिकार नहीं ,अतः सर्वथा  ही  अहिंसा पालनीय हैं |

अहिंसा का फल

सामवेदीय ऋचा में कहा गया है कि अहिंसनीय योगयज्ञ के द्वारा भक्ति रस का पान करता हुआ साधक विश्व बंधुत्व की भावना को प्राप्त कर लेता है उसे ब्रह्मांड में किसी से भय नहीं रहता| साधक वेद के शब्दों में प्रार्थना करता है कि अंतरिक्ष से. द्युलोक से, पृथ्वी लोक से, आगे, पीछे, ऊपर, नीचे से, हमें अभय प्राप्त हो| उसकी कामना होती है कि मुझे मित्र से, शत्रु से, परिचित से, अपरिचित से, रात में और दिन में अभय प्राप्त हो, सारी दिशाएं मेरी मित्र बन जाएं[55]  साधक अभय प्राप्ति की कामना करता हुआ जब अहिंसा व्रत को सिद्ध कर लेता है तो शचीपति परमात्मा उसे आगे, पीछे से ,शत्रुओं से अभय कर देता है, अहिंसा सिद्ध साधक के लोक परलोक दोनों कल्याणकारी हो जाते हैं| अहिंसा वृत्ति ही धर्म पूर्वक राज्य करते हैं उत्तम सदगृहस्थ भी जीवन को क्रोध रहित होकर अहिंसा सेवी  होकर भगा सकता है अहिंसा व्रत के आधार पर ही धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चारों को प्राप्त किया जा सकता है| परमात्मा का यह व्रत है कि वह  हिंसा रहित को ही प्रथम अंगीकार करता है, अन्य पुरुषों द्वारा भी वही सत्कार के योग्य है, योग दर्शन में कहा है कि अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर उपासक के पास रहने वाले सब प्राणियों का पारस्परिक वैर -भाव समाप्त हो जाता है| शेष योग- अंगो की आधारशिला अहिंसा है इसका परिपालन अपरिहार्य एवं सर्व प्राथमिक है,इसी हेतु महर्षि पतंजलि ने अहिंसा को प्रथम स्थान दिया है वस्तुतः सत्यवादी यम तथा नियमों का अनुष्ठान अहिंसा की सिद्धि के लिए होता है, यदि कोई असत्यभाषण, चौर-कर्म, व्यभिचार आदि करता है तो मानो वह हिंसा करता है और यदि सत्यादी  का दृढ़ता  से अनुष्ठान करता है तो समझो वह अहिंसा व्रत का ही पालन कर रहा है|

[1] शोध छात्र गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार उत्तराखंड ,९८९९८७५१३०

[2] मा स्त्रेध सोमिनः | ऋग्वेद ७ /३२/९

[3] न स्रेधन्तं रयिर्नशत् |  ऋग्वेद ७ /३२/९ , सामवेद  ८६८

 

[4] तरणिरिज्जयति क्षेति पुण्यति न देवासः कवत्नवे || ऋग्वेद ७ /३२/९

 

[5] मा हिंसी: पुरुषः जगत् | यजुर्वेद १६/३

[6] ओम विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव | ऋग्वेद ५ /८२/५  यजुर्वेद ३०/३

 

[7] मा न इन्द्र पीयत्नवे मा शर्धते परादा| सामवेद १८०६

[8] विश्वा द्वेषासि प्रमुमुग्ध्यस्मत्  | ऋग्वेद ४/०१ /४

 

 

[9] अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं —–स्वस्तये || ऋग्वेद १० /६३ /१२

 

[10] ऋग्वेद ५ /६४ /३

 

[11] अद्वेषो हस्तयोर्दधे | ऋग्वेद १ /२४ /४

 

[12] ऋग्वेद ५ /८७  /८

 

[13] उलूकयातुं ———रक्ष इंद्र | ऋग्वेद ७ /१०४ /२२

 

[14] प्राक्तो अपाक्तो अधरादुदाक्तोभि जहि रक्षसः पर्वतेन | अथर्ववेद  8/4/11

[15] मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः |

मान्तः स्थुर्नो अरातयः                                              ऋग्वेद १० /५७  /१

 

[16] तप्तं रक्ष उब्जतम् | अथर्ववेद   8/4/1

[17]  ब्रह्मद्विषे ——द्वेषो धत्तम् | अथर्ववेद   8/4/1

 

[18] अथर्ववेद   8/4/15

 

[19] अथर्ववेद   8/4/21

 

[20] अथर्ववेद   8/4/13

 

[21] मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे| यजुर्वेद ३६/१८

[22] ब्रह्मद्विषे क्रव्यादे घोरचक्षसे द्वेषो …….किमीदिने | अथर्ववेद   8/4/2

 

[23] अथर्ववेद   8/4/1-15

 

[24] अथर्ववेद   8/3/20,२२,२६

 

[25] यदि नो गां हंसियद्यश्वं यदि पूरुषम् |

तं त्वा सीसेन विध्यामा यथा नोऽसो अवीरहा || अथर्ववेद   1 /16/4

 

[26] अथर्ववेद   2/14/

 

[27] अथर्ववेद   8/3/12

 

[28] स्वस्ति पन्था मनुचरेम ——–| ऋग्वेद 5/५१/15

[29] यजुर्वेद ३६/१८

[30] ऋग्वेद ०३/०९/०१

[31]  यजुर्वेद ३३/७३

[32]  ऋग्वेद ८/१०२/०७

[33] सामवेद १७

[34] सामवेद ३२

[35] सामवेद ३८

[36] यजुर्वेद 2/८

[37] ऋग्वेद १/८०/16

[38] ऋग्वेद ५/८६/५

[39] ऋग्वेद 1/१८५/3

 

[40] ऋग्वेद ५/५१ /15

 

[41] अथर्ववेद 3/२८/१

[42] ऋग्वेद १/१३१/7

[43] अथर्ववेद  ८/४/१४

[44] ऋग्वेद 1/13/9

[45] अस्मे ता त इन्द्र सन्तु सत्या हिन्सन्तीरूप्स्प्रिशः || ऋग्वेद 10/२२/13

[46] अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमना 😐 अथर्ववेद 3/३०/2

[47]  मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा | अथर्ववेद 3/३०/3

[48] अथर्ववेद 3/३०/४

[49] अथर्ववेद 3/३०/५

[50]अथर्ववेद ८/४/१

[51] अथर्ववेद ८/४/१0

 

[52] यजुर्वेद १८/७३

[53] ऋग्वेद 6/५४/७

[54] सामवेद ८६८

[55] अथर्ववेद १९/15/५-6

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *