Right path & Falsehood

right and wrong path

Right path & Falsehood 

AV4.36 

1.तान्त्सत्यौजाः प्र दहत्वग्निर्वैश्वानरो वृषा  ।

यो नो दुरस्याद्दिप्साच्चाथो यो नो अरातियात् । ।AV4.36.1

(वैश्वानराग्नि) सब जनों का हितकारी बल और (तान्त्सत्यौर्जा) उन की सत्य से उत्पन्न हो कर  बरसने वाली शक्ति  की अग्नि ,(तान्‌ प्रदहतु) उन को जला डाले,  जो (न: )  हमें –सत्य पर चलने वालों को -(दुरस्यात्‌) दुरवस्था में फैंकें (च दिप्सात्‌ ) और हमें हानि पहुंचाएं (अथ य: वरातीयात्‌) और जो हम से शत्रुता का व्यवहार करते हैं.

2. यो नो दिप्साददिप्सतो दिप्सतो यश्च दिप्सति  ।

वैश्वानरस्य दंष्ट्रयोरग्नेरपि दधामि तं  । । AV4.36.2

जो बिना हिंसा किए अहिंसक ढन्ग से  और जो हिंसा से हमें  नष्ट करना चाहते हैं, उन्हें सब जनों के हितकारी बल की दाढ़ों में चबाने के लिए देते हैं .

3. य आगरे मृगयन्ते प्रतिक्रोशेऽमावास्ये  ।

क्रव्यादो अन्यान्दिप्सतः सर्वांस्तान्त्सहसा सहे  । । AV4.36.3

जो अमावस्या जैसे अन्धेरे में छिप कर गाली गलोज  दुष्प्रचार द्वारा हमें हानि  पहुंचाना चाहते हैं, उन मांसभक्षियों – राक्षसों को हम अपने साहस से दबा दें-  निष्क्रिय करें.

4. सहे पिशाचान्त्सहसैषां द्रविणं ददे ।

सर्वान्दुरस्यतो हन्मि सं म आकूतिरृध्यतां  । । AV4.36.4

(पिशाचान्‌) इन पिशाचों को (सहसा सहे) अपने बल से जीतता हूं , (एषां द्रविणं ददे) इन के धन को छीनता हूं, (दुरस्यत: सर्वान्‌ हन्मि) दुर्गति करने वाले सब विरोधियों को मारता हूं.   ( मे आकूति:  सनृध्यताम्‌ ) वह मेरा सत्सन्कल्प पूर्ण हो.

5. ये देवास्तेन हासन्ते सूर्येण मिमते जवं ।

नदीषु पर्वतेषु ये सं तैः पशुभिर्विदे  । । AV4.36.5

ये लोग जो देवताओं के समान हंसते हैं, अपने जीवन शैलि का मापदण्ड   सूर्य के समान  उच्च और सब को चकाचोंध करने का बनाते हैं, प्राकृतिक साधनों नदियों, पर्वतो, सब पशुओं जलचर इत्यादि  का शोषण करते हैं

6. तपनो अस्मि पिशाचानां व्याघ्रो गोमतां इव ।

श्वानः सिंहं इव दृष्ट्वा ते न विन्दन्ते न्यञ्चनं  । । AV4.36.6

जैसे गौओं के पालन करने वालों को व्याघ्र का भय होता है, वैसे ही इन (पिशाचों) रक्त पीने वालों को में तपाने वाला हूं. जैसे कुत्ते सिन्ह से घबढाते हैं , वैसे ही मेरे प्रभाव से वे दुष्ट लोग अपनी रक्षा का कोइ स्थान प्राप्त  नहीं कर सकते.

7. न पिशाचैः सं शक्नोमि न स्तेनैः न वनर्गुभिः ।

पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यं अहं ग्रामं आविशे  । । AV4.36.7

मैं जिस ग्राम में प्रवेष करता हूं, उस ग्राम से रक्त पीने वाले, चोर , जंगल मे रहने वाले डाकु, सब का नाश हो जाता है.

8. यं ग्रामं आविशत इदं उग्रं सहो मम ।

पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पापं उप जानते  । । AV4.36.8

मेरे उग्र प्रभाव से पिशाचादि उस ग्राम से निकल जाते हैं. वहां लोगों के आचरण में पाप भावनाएं उत्पन्न नहीं होती.

9. ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव ।

तानहं मन्ये दुर्हितान्जने अल्पशयूनिव  । । AV4.36.9

जो लोग व्यर्थ की झूट मूट बातों से क्रोध दिलाते हैं, वे एक हाथी को मच्छर जैसे तंग करते हैं. वे अहितकारी लोग जन समुदाय का क्षणिक जीवन वाले  अल्प कीड़ों की तरह से दुख बढ़ाते हैं .

10. अभि तं निरृतिर्धत्तां अश्वं इव अश्वाभिधान्या ।

मल्वो यो मह्यं क्रुध्यति स उ पाशान्न मुच्यते  । । AV4.36.10

(य: मल्व: ) जो मलिनात्मा व्यक्ति (मह्यं क्रुध्यति) मुझे क्रोध दिलाता है, (तं) उस को (निरृति: अभिधताम्‌) पापाधिष्ठात्री देवी सब ओर से जकड़ ले ( अश्वाभिधान्या अश्वम्‌ इव ) जैसे घोड़े बांधने की रस्सी  से घोड़े को.

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