जो एकत्व भाव से सभी को देखता है, उसको मोह तथा शोक नहीं होता है- यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।। यजु. 40-7 पदार्थ – (यस्मिन्) जिसमें-जिसके हृदय में। (सर्वाणि भूतानि) सभी प्राणी (आत्मा एव) आत्मा ही (अभूत) हैं (विजानतः) जानते हैं (तत्र) उसके हृदय में (कः मोहः) कैसा मोह (कः शोकः) कैसा शोक (एकत्वम्) एकता को (अनुपश्यतः) देखने वाले को। अर्थ- जो सभी प्राणियों को आत्मा ही समझकर सब में एक जैसा अनुभव करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी कोई मोह तथा शोक नहीं होता है। इन दोनों मन्त्रों में एक क्रम का वर्णन किया हैं। मनुष्य और अन्य प्राणियों में तीन प्रकार के रोग होते हैं। पहले का नाम है विचिकित्सा, दूसरे का नाम है मोह … Continue reading अज्ञान से ज्ञान की ओर – आचार्य शिवकुमार आर्य→
मुन्नी अपनी नयी गुड़िया से बहुत खुश थी। वह अपनी गुड़िया को नए-नए कपड़े पहनाती, उसके बाल बनाती और उसे अपने पास सुलाती। इतना ही नहीं उसने अपनी सहेली के गुड्डे के साथ उसका याह ही रचा डाला। अपने सुख-दुःख की बातें गुड़िया से करती। कभी गुस्सा आता तो वह गुड़िया को डांट भी देती, हाँ, बाद में उसे सॉरी बोल देती। एक दिन गजब हो गया। छोटे भाई बबलू ने नाराज होकर उसकी गुड़िया तोड़ दी। मुन्नी के दुःख और क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। वह बबलू पर चिल्लाई। इतने से उसका मन शान्त नहीं हुआ तो एक चांटा बबलू को रसीद कर दिया। बबलू रोते-रोते माँ के पास गया। माँ ने मुन्नी को धमकाया और उसके कान खींचे। … Continue reading टूटे पुतले-एक कहानी – महेन्द्र आर्य→
जर्मनी में ‘बच्चों का केटलॉग’ छापकर बच्चे बेचने का धंधा किया जाता है। उसमें छपा रहता है कि तीन सप्ताह में ‘बच्चा’ लिया जा सकता है। वैसे जर्मनी में किसी बच्चे को गोद लेने में दो-ढाई साल तक का समय लगता है। जर्मन माता-पिता की निःसंतान बने रहने की समस्या को दूर करने में बच्चों का व्यापार करने वाली हॉलैण्ड की संस्थाएँ अग्रणी हैं। बच्चे पैदा करके बेचने वाली एक फर्म के बारे में कोलबो का समाचार छाप कर ‘‘बाल साहित्य समीक्षा’’ (पृष्ठ 9, जून 1987) ने एक महत्त्वपूर्ण बात बतायी है कि किस प्रकार ‘शिशु फार्म’ पर छापा मार कर पुलिस ने 26 बच्चे और बारह र्गावती महिलाएँ बरामद कीं। स्वीडन की महिला लुदरस्ट्राम श्रीलंका से बच्चों का व्यापार … Continue reading बच्चों का व्यापार – आचार्य अखिल विनय→
ईश्वर की दया और न्यायः– सहस्रों वर्षों के पश्चात् संसार में पहला विचारक, दार्शनिक, ऋषि महर्षि दयानन्द ही ऐसा धर्माचार्य आया, जिसने यह जटिल गुत्थी सुलझाई कि ईश्वर की दया तथा न्याय पर्याय हैं। दोनों का प्रयोजन एक ही है। आस्तिक लोग ईश्वर को दयालु तो मानते ही हैं, परन्तु अन्यायी न मानते हुए भी मतवादी ईश्वर के दया व न्याय इन दो गुणों की संगति नहीं लगा पाते थे। पूर्व व पश्चिम में तार्किक लोगों ने एक प्रश्न उठाया कि संसार में सबसे बड़ा दुःख मौत है। यदि ईश्वर है तो उसके संसार में मृत्यु रूपी दुःख का होना उसकी क्रूरता को दर्शाता है। वह दयालु परमात्मा नहीं हो सकता। यही प्रश्न इन दिनों किसी ने महाराष्ट्र यात्रा में … Continue reading ईश्वर की दया और न्यायः – राजेन्द्र जिज्ञासु→
रामपाल देव बना बैठा था। उसको देश ने दानव के रूप में जान लिया, देख लिया। आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द के विरुद्ध विष वमन करते हुए उसने असीम धन विज्ञापनों पर फूँ का। उसके पीछे कौन-कौन सी बाहरी शक्तियाँ थीं, यह भी पता लगना चाहिये। देश विरोधी शक्तियों ने ही हिन्दू समाज के नाश के लिए आर्य समाज के विरोध में उसे खड़ा किया। कबीर जी के नाम की आड़ में उसने आर्यसमाज के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उसने यह प्रचार किया कि कुरान की एक आयत में कबीर जी का नाम आता है। परोपकारी में मैंने उसे हिसार में शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। कुरान में ‘कबीर’ शद तो है, परन्तु वहाँ ‘अजीम’ शद कबीर का विशेषण है, जिसका … Continue reading रामपाल का पतनः – राजेन्द्र जिज्ञासु→
।। ओ३म ।। अयं त इध्म आत्मा जातवेदः। “हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।” वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए : क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ। सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं। उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः। ये अन्तः क्रिमयो गवि।। (अथर्ववेद २।३२।१) “उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।” सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच … Continue reading वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए→
।। ओ३म ।। अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा। हव्यवावाड्जुह्वास्यः।। (ऋग्वेद 1.12.6) प्रथमाश्रम में अपने में ज्ञान को समिद्ध करते हुए हम द्वितीयाश्रम में उत्तम गृहपति बने। वानप्रस्थ बनकर यज्ञो का वहन करते हुए तुरियाश्रम में ज्ञान का प्रसार करने वाले बने। नमस्ते मित्रो – आज का विषय कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन। वेदो में प्रयुक्त कवि शब्द एक अलंकार है – किसी प्राणी का नाम नहीं, क्योंकि विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों के दृष्टा, को कवि कहते हैं – इस कारण ये अलंकार ऋषियों के लिए भी प्रयुक्त होता है और समस्त विद्या (वेदो का ज्ञान) देने वाला ईश्वर भी अलंकार रूप से कवि नाम पुकारा जा सकता है। क्योंकि ये एक अलंकार है इससे किसी व्यक्ति … Continue reading कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।→
।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं : यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं- `इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्ठ 107) (17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा? इससे यह … Continue reading अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :→
भूख से तड़प रहा इन्सान, तू पूजे पत्थर का भगवान। गरीबों में बसता है ईश, अरे, तू क्यों होता हैरान? लुटाकर लाखों रुपये व्यर्थ, बनाया मन्दिर एक विशाल। न दीनों का है कोई याल, बन गए वे सारे कंगाल। नहीं पत्थर में है भगवान, अरे, वह खुद ही है इन्सान। खा रहा लोभी ब्राह्मण खूब, नहीं छोड़े मुर्दे का माल। गपोड़ों के बल पर ही आज बन गया देखो मालामाल। बाँचता रहता रोज पुराण, कथाओं की है जिसमें खान। वेद है सत्य, ओम् है ब्रहम, ज्ञान की गंगा निर्मल धार। खोल पट अन्दर के ऐ मूर्ख! चढ़ेगा तुझ पर तभी खुमार। मंत्र ऋषि दयानन्द का जान, ध्यान से मिलता है भगवान। –मलेशिया
प्रस्तुत सूत्र में ‘कर्माशयः’ शद आया है, इसका अभिप्राय है – कर्मों का संस्कार, जिन्हें धर्माधर्म अथवा पुण्यापुण्य शदों से कथन किया जाता है और इसे अदृष्ट शद से भी बोला जाता है। कर्माशय शद में ‘कर्म’ का अभिप्राय हम जानते ही हैं और ‘आशय’ का अभिप्राय संस्कार है। कर्माशय अर्थात् कर्मसंस्कार। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य कर्म करता है, वह कर्म क्रिया होने से कर्म करने के उपरान्त समाप्त होता है। यह सर्वविदित है कि क्रिया,क्रिया काल में ही विद्यमान रहती है और क्रिया के बाद समाप्त होती है, इसलिए क्रिया के काल में क्रिया की छाप मन में पड़ती है, उस छाप को संस्कार कहते हैं। वह संस्कार धर्म-पुण्य अथवा अधर्म-अपुण्य के रूप में दो प्रकार का … Continue reading क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः-स्वामी विष्वङ्→