न जान, न पहचान-फिर भी

न जान, न पहचान-फिर भी

एक बार पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने भज़्त वैद्य तिलकराम जी ब्रह्मचारी के औषधालय उन्हें मिलने गये। तब वैद्य जी भीतर रोगियों को देखने में व्यस्त थे। कुछ रोगी बाहर के कमरे में अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं एक बैंच पर लेटा हुआ एक रोगी शिर दर्द से हाय हाय कर रहा था। दर्द के मारे आँखें भी नहीं खोल सकता था। स्वामी जी उसके पास ही बैठे थे।

उसकी व्याकुलता देखकर आपने उसका सिर दबाना आरज़्भ कर दिया। कुछ ही मिनटों में उसे कुछ चैन आया। उसने आँखें खोलीं।

एक प्रतापी साधु को सिर दबाते देखकर बोला, महात्मन! यह ज़्या कर रहे हैं? मुझ साधारण व्यज़्ति का सिर……। महाराज बोले, ‘‘जो बड़े छोटों की सेवा नहीं करेंगे तो छोटों को सेवा करना कैसे आएगा?’’

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