ध्यायत्यनिष्टं यत्किं चित्पाणिग्राहस्य चेतसा । तस्यैष व्यभिचारस्य निह्नवः सम्यगुच्यते

क्योंकि (ये + अक्षेत्रिणः बीजवन्तः) जो क्षेत्ररहित है और बीज वाले हैं (परक्षेत्रेप्रवापिणः) तथा दूसरे के क्षेत्र में उस बीज को बोते है (ते वै) निश्चय से (क्वचित्) कहीं भी (जातस्य सस्यस्य फलं न लभन्ते) उत्पन्न हुये अन्न के फल को नहीं प्राप्त करते ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *