यस्य विद्वान्हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते । तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः

. जिस बोलते हुए पुरूष का विद्वान् क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीर का जानने हारा आत्मा भीतर शंका को प्राप्त नहीं होता उससे भिन्न विद्वान् लोग किसी को उत्तम पुरूष नहीं जानते ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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