तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः । संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च

. अठारह मार्ग ये हैं – उनमें १-किसी से ऋण लेने – देने का विवाद, २- धरोहर अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना, ३- दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे, ४- मिल – मिला के किसी पर अत्याचार करना, ५- दिये हुए पदार्थ का न होना, ६- वेतन अर्थात् किसी की ‘नौकरी’ में से ले लेना या कम देना, ७- प्रतिज्ञा से विरूद्ध वर्तना, ८- क्रय – विक्रयानुशय अर्थात् लेन – देन में झगड़ा होना, ९- पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा, १० – सीमा का विवाद, ११-१२- किसी को कठोर दण्ड देना, कठोर वाणी का बोलना, १३- चोरी – डाका मारना, १४- किसी काम को बलात्कार से करना, १५- किसी की स्त्री वा पुरूष का व्यभिचार होना, १६- स्त्री और पुरूष के धर्म में व्यतिक्रम होना, १७- विभाग अर्थात् दायभाग में वाद उठाना, १८- द्यूत अर्थात् जड़ पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जूआ खेलना, ये अठारह प्रकार के परस्परविरूद्ध व्यवहार के स्थान हैं  ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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