. राजा और राजसभा के सभासद् तब हो सकते हैं कि जब वे चारों वेदों की कर्म, उपासना, ज्ञान विद्याओं के जानने वालों से तीनों विद्या सनातन दण्डनीति न्यायविद्या आत्मविद्या अर्थात् परमात्मा के गुण – कर्म – स्वभावरूप को यथावत् जानने रूप ब्रह्मविद्या और लोक से वात्र्ताओं का आरम्भ (कहना और सुनना) सीखकर – सभासद् या सभापति हो सकें ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)