प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्मान्यथोदितान् । रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह ।

. उन विजित प्रदेश की प्रजाओं या नियुक्त राजपुरूषों द्वारा कही हुई उनकी न्यायोचित बातों को प्रमाणित कर दे अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार कर ले । अभिप्राय यह है कि उनकी जो न्यायोचित बातों को मान लेवे और जो अमान्य बातें हों उनको न माने और प्रधान राजपुरूषों के साथ बन्दीकृत इस राजा का उत्तम वस्तुयें प्रदान करते हुए यथायोग्य सत्कार रखे ।

‘‘जीतकर उनके साथ प्रमाण अर्थात् प्रतिज्ञा आदि लिखा लेवे और जो उचित समय समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरूष को राजा कर दे और उससे लिखा लेवे कि तुमको हमारी आज्ञा के अनुकूल अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है, उसके अनुसार चल के न्याय से प्रजा का पालन करना होगा; ऐसे उपदेश करे । और ऐसे पुरूष उनके पास रखे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो । और जो हार जाये, उसका सत्कार प्रधान पुरूषों के साथ मिलकर रत्न आदि उत्तम पदार्थों के दान से करे और ऐसा न करे कि जिससे उसको योगक्षेप भी न हो । जो उसको बन्दीगृह करे तो भी उसका सत्कार यथायोग्य रखे, जिससे वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे ।’’

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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