आसनं चैव यानं च संधिं विग्रहं एव च । कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयं एव च । ।

. सब राजादि राजपुरूषों को यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है जो आसन – स्थिरता यान – शत्रु से लड़ने के लिए जाना संधि – उनसे मेल कर लेना दुष्ट शत्रुओं से लड़ाई करना द्वैध – दो प्रकार की सेना करके स्वविजय कर लेना और संश्रय – निर्बलता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना, ये छः प्रकार के कम्र यथायोग्य कार्य को विचारकर उसमें युक्त करना चाहिए ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *