अनन्तरं अरिं विद्यादरिसेविनं एव च । अरेरनन्तरं मित्रं उदासीनं तयोः परम् ।

अपने राज्य के समीपवर्ती राजा को और शत्रु राजा की सेवा – सहायता करने वाले राजा को ‘शत्रु’ ही समझे अरि से भिन्न अर्थात् शत्रु से विपरीत आचरण करने वाले अर्थात् सेवा – सहायता करने वाले राजा को ‘मित्र’ और इन दोनों से भिन्न को जो न सहायता करे न विरोध करे, उसे ‘उदासीन’ राजा समझना चाहिए ।

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