अतिलोभ से अपने दूसरों के सुख के मूल को उच्छिन्न अर्थात् नष्ट कदापि न करे क्यों कि जो व्यवहार और सुख के मूल का छेदन करता है वह अपने और उन को पीड़ा ही देता है ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
अतिलोभ से अपने दूसरों के सुख के मूल को उच्छिन्न अर्थात् नष्ट कदापि न करे क्यों कि जो व्यवहार और सुख के मूल का छेदन करता है वह अपने और उन को पीड़ा ही देता है ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)