अलब्धं इच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया । रक्षितं वर्धयेद्वृद्ध्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ।

दण्ड से अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा नित्य देखने से प्राप्त की रक्षा रक्षित की वृद्धि अर्थात् ब्याजादि से बढ़ावे और बढ़े हुए धन को पूर्वोक्त (९९) मार्ग में नित्य व्यय करे ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

अर्थात् सुपात्रों एवं योग्य कर्मों में व्यय करे ।

‘‘राजाधिराजपुरूष अलब्ध राज्य की प्राप्ति की इच्छा दण्ड से, और प्राप्त राज्य की रक्षा देखभाल करके, रक्षित राज्य और धन को व्यापार और ब्याज से बढ़ा और सुपात्रों के द्वारा सत्यविद्या और सत्यधर्म के प्रचार आदि उत्तम व्यवहारों में बढ़े हुए धन आदि पदार्थों का व्यय करके सबकी उन्नति सदा किया करें ।’’

(स० वि० गृहाश्रम प्र०)

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