जैसे सब बड़े – बड़े नद और नदी सागर में जाकर स्थिर होते हैं वैसे ही सब आश्रमी गृहस्थ ही को प्राप्त होके स्थिर होते हैं ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
‘‘जैसे नदी और बड़े – बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते; वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं । बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता ।’’
(स० प्र० चतुर्थ समु०)