इदं शरणं अज्ञानां इदं एव विजानताम् । इदं अन्विच्छतां स्वर्गं इदं आनन्त्यं इच्छताम् ।

जो विविदिषा अर्थात् जानने की इच्छा करके गौण संन्यास लेवे, वह भी विद्या आ अभ्यास, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास और ओंकार का जप और उसके अर्थ परमेश्वर का विचार भी किया करे ।

यही अज्ञानियों का शरण अर्थात् गौणसंन्यासियों और यही विद्वान् संन्यासियों का यही सुख का खोज करने हारे, और यही अनन्त सुख की इच्छा करने हारे मनुष्यों का आश्रय है ।’’

(स० वि० संन्यासाश्रम सं०)

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