जब संन्यासी सब पदार्थों में अपने भाव से निःस्पृह होता है तभी इस लोक – इस जन्म और मरण पाकर – परलोक और मुक्ति में परमात्मा को प्राप्त होके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
‘‘जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थों में निस्पृह, कांक्षारहित और सब बाहर – भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)