प्राणायमैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् । प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्

इसलिए संन्यासी लोग प्राणायामों से दोषों की धारणाओं से अन्तःकरण के मैल को प्रत्याहार से संग से हुए दोषों और ध्यान से अविद्या, पक्षपात आदि अनीश्वरता के दोषों को छुड़ाके पक्षपात रहित आदि ईश्वर के गुणों को धारण कर सब दोषों को भस्म कर देवे ।

(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)

‘‘इसलिए संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोष, धारणाओं से पाप, प्रत्याहार से संगदोष, ध्यान से अनीश्वर के गुणों अर्थात् हर्ष, शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करें ।’’

(स० प्र० पंच्चम समु०)

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