फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् । न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति ।

‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस के गदले जल में डालने से जल का शोधक होता है तदपि बिना डाले उसके नाम कथन वा श्रवणमात्र से उसका जल शुद्ध नहीं हो सकता ।’’

(स० प्र० पंच्चम समु०)

‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करने वाला है तथापि उसके नाम ग्रहणमात्र से जल शुद्धि नहीं होता किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से उस मनुष्य का जल शुद्ध होता है, वैसे नाम मात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता किन्तु अपने – अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रम धारण सफल होता है, अन्यथा नहीं ।’’

(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)

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