दूषितोऽपि चरेद्धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः । समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ।

यदि संन्यासी को मूर्ख संसारी लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमान भी करें तथापि धर्म ही का आचरण करे ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्याश्रमादि के मनुष्यों को करना उचित है सब प्राणियों में पक्षपात रहित होकर समबुद्धि, रखे, इत्यादि उत्तम काम करने ही के लिये संन्यासाश्रम का विधि है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही धर्म का कारण नहीं है ।

(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)

‘‘कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो भी जिस किसी आश्रम में वर्तता हुआ पुरूष अर्थात् संन्यासी सब प्राणियों में पक्षपात रहित होकर स्वयं धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे । और यह अपने मन में निश्चित जानें कि दण्ड, कमण्डलु और कषायवस्त्र आदि चिन्हधारण धर्म का कारण नहीं है, सब मनुष्यादि प्राणियों के सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है ।’’

(स० प्र० पंच्चम समु०)

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