अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः । आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ।

इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित सर्वथा अपेक्षारहित मांस, मद्य आदि का त्यागी आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचार करे और सबको सत्योपदेश करता रहे ।

(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)

‘‘अपने आत्मा और परमात्मा में स्थिर, अपेक्षारहित, मद्यमांसादिवर्जित होकर, आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर, इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिए सदा विचरता रहे ।’’

(स० प्र० पंच्चम समु०५)

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