वह सन्ंयासी आहवनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर भी न बांधे और अन्न – वस्त्र आदि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करता और स्थिरबुद्धि मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)