एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थं असहायवान् । सिद्धिं एकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते । ।

. यह जानकर कि अकेले की ही मुक्ति होती है मोक्षसिद्धि के लिए किसी के सहारे या आश्रय की इच्छा से रहित होकर सर्वदा एकाकी ही विचरण करे अर्थात् किसी पुत्र – पौत्र, सम्बन्धी, मित्र आदि का आश्रय न ले और न उनका साथ करे, इस प्रकार रहने से न वह किसी को छोड़ता है, न उसे कोई छोड़ता है अर्थात् मृत्यु के समय बिछुड़ने के दुःख की भावना समाप्त हो जाती है ।

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