गृहस्थस्तु यथा पश्येद्वलीपलितं आत्मनः । अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्

गृहस्थ लोग जब अपनी देह का चमड़ा ढीला और श्वेत केश होते हुए देखें और पुत्र का भी पुत्र हो जाये तब वन का आश्रय लेवे ।

(सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)

‘‘परन्तु जब गृहस्थ शिर के केश श्वेत और त्वचा ढीली हो जाये और लड़के का लड़का भी हो गया हो तब वन में जाके बसें ।’’

(स० प्र० पंच्चमसमु०)

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