एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः । वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः

पूर्वोक्त प्रकार विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या पढ़के समावत्र्तन के समय स्नानविधि करने हारा द्विज – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जितेन्द्रिय, जितात्मा होके, यथावत् गृहाश्रम करके वन में बसे ।

(सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)

‘‘इस प्रकार स्नातक अर्थात् ब्रह्मचर्यपूर्वक गृहाश्रम का कत्र्ता द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, गृहाश्रम में ठहर कर, निश्चितात्मा और यथावत् इन्द्रियों को जीत के वन में बसे ।’’

(स० प्र० पंच्चम समु०)

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