धर्मं शनैः संचिनुयाद्वल्मीकं इव पुत्तिकाः । परलोकसहायार्थं सर्वभूतान्यपीडयन् ।

धर्मसंचय का विधान एवं धर्मप्रशंसा –

जैसे पुत्तिका अर्थात् दीमक वल्मीक अर्थात् बांबी को बनाती है वैसे सब भूतों को पीड़ा न देकर परलोक अर्थात् परजन्म के सुखार्थ धीरे – धीरे धर्म का संचय करे ।

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘जैसे दीमक धीरे – धीरे बड़े भारी घर को बना लेती हैं, वैसे मनुष्य परजन्म के सहाय के लिए सब प्राणियों को पीड़ा न देकर धर्म का संचय धीरे – धीरे किया करे ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

यहाँ ‘धीरे – धीरे’ से अभिप्राय सावधानी पूर्वक धर्म पालन करने से है । जैसे दीमक अपनी बांबी को बनाते हुए सावधानी बरतती है और उसे गिरने नहीं देती इसी प्रकार मनुष्य भी अपने को कभी धर्म से गिरने न दे । कहीं कोई अधर्म न हो जाये, इस बात की सावधानी रखें ।

(स०)

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