दानधर्मं निषेवेत नित्यं ऐष्टिकपौर्तिकम् । परितुष्टेन भावेन पात्रं आसाद्य शक्तितः

दानधर्म के पालन का कथन –

द्विज सुपात्र को देखकर प्रसन्न मन से शक्ति के अनुसार सदैव यज्ञों के आयोजन सम्बन्धी और उपकारार्थ कूआ, तालाब आदि निर्माणसम्बन्धी दानधर्म का पान करे अर्थात् दान दिया करे ।

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