नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । शनैरावर्त्यमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति

अधर्म – निन्दा एवं फल –

मनुष्य निश्चिय करके जाने कि इस संसार में जैसे गाय की सेवा का फल दूध आदि शीघ्र प्राप्त नहीं होता वैसे ही किये हुए अधर्म का फल भी शीघ्र नहीं होता किन्तु धीरे – धीरे अधर्मकत्र्ता के सुखों को रोकता हुआ सुख के मूलों को काट देता है, पश्चात् अधर्मी दुःख ही दुःख भोगता है ।

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

‘‘किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है, उसी समय फल भी नहीं होता; इसलिए अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे – धीरे तुम्हारे सुख के मूलों को काटता चला जाता है ।’’

(स० प्र० चतुर्थ प्र०)

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