अधर्म – निन्दा एवं फल
(यदि पापों से उनकी उन्नति और समृद्धि हो गई हैं तो भी) शीघ्र ही उलटा विनाश होता है यह समझते हुए धर्माचरण से कष्ट उठाता हुआ भी अधर्म में मन को न लगावे अर्थात् धर्म का ही पालन करता रहे ।
अधर्म – निन्दा एवं फल
(यदि पापों से उनकी उन्नति और समृद्धि हो गई हैं तो भी) शीघ्र ही उलटा विनाश होता है यह समझते हुए धर्माचरण से कष्ट उठाता हुआ भी अधर्म में मन को न लगावे अर्थात् धर्म का ही पालन करता रहे ।