देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां आत्मनश्च यः । न निर्वपति पञ्चानां उच्छ्वसन्न स जीवति

. जो गृहस्थी व्यक्ति अग्नि आदि देवताओं (हवन रूप में), अतिथियों, भरण – पोषण की अपेक्षा रखने वाले या दूसरों की सहायता पर आश्रित कुष्ठी, भृत्य आदि के लिए माता – पिता, पितामह आदि के लिए (पितृयज्ञ रूप में) और अपनी आत्मा के लिए (ब्रह्म यज्ञ के रूप में) इन पांचों के लिए उनके भागों को नहीं देता है अर्थात् पांच दैनिक महायज्ञों को नहीं करता है वह सांस लेते हुए भी वास्तव में नहीं जीता किन्तु मरे हुए व्यक्ति के समान है ।

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