विद्या – दान किसे न दें –
यत्र धर्माथौ न स्याताम् जहां धर्मभावना और अर्थ प्राप्ति न हो वा और तद्विधा शुश्रूषा अपि गुरू के अनूरूप सेवाभावना भी न हो तत्र विद्या न वक्तव्या ऐसे को विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्यों कि ऊषरे शुभं बीजम् इव वह ऊसर भूमि में श्रेष्ठ बीज बोने के समान है और जैसे बंजर भूमि में बोया हुआ बीज व्यर्थ होता है उसी प्रकार उक्त व्यक्ति को दी गई विद्या भी व्यर्थ जाती है ।