न कस्यचित् + उच्छिष्टं दद्यात् न किसी को अपना झूठा पदार्थ दे च और तथा एव न अन्तरा अद्यात् उसी प्रकार न किसी भोजन के बीच आप खावे न चैव अति – अशनं कुर्यात् न अधिक भोजन करे च और न उच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत् न भोजन किये पश्चात् हाथ मुख धोये बिना कहीं इधर – उधर जाये ।
(स० प्र० दशम समु०)
‘‘(प्रश्न) एक साथ खाने में कुछ दोष है वा नहीं ?’’
(उत्तर) दोष है । क्यों कि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती । जैसे कुष्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का रूधिर बिगड़ जाता है । वैसे दूसरे के साथ खाने में भी कुछ बिगाड़ ही होता है; सुधार नहीं ।
(प्रश्न) ‘‘गुरोरूच्छिष्टभोजनम्’’ इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
(उत्तर) इसका यह अर्थ है कि गुरू के भोजन किये पश्चात् जो पृथक् अन्न शुद्ध स्थित है उसका भोजन करना अर्थात् गुरू को प्रथम भोजन कराके शिष्य को भोजन करना चाहिये ।
(प्रश्न) जो उच्छिष्ट मात्र का निषेध है तो मक्खियों का उच्छिष्ट सहत, बछड़े का उच्छिष्ट दूध और एक ग्रास खाने के पश्चात् अपना भी उच्छिष्ट होता है; पुनः उनको भी न खाना चाहिये ।
(उत्तर) सहत कथन मात्र ही उच्छिष्ट होता है परन्तु वह बहुत ही औषधियों का सार ग्राह्य; बछड़ा अपनी माँ के बाहर का दूध पीता है भीतर के दूध को नहीं पी सकता इसलिये उच्छिष्ट नहीं परन्तु बछड़े के पिये पश्चात् जल से उसकी माँ का स्तन धोकर शुद्ध पात्र में दोहना चाहिये । और अपना उच्छिष्ट अपने को विकारकारक नहीं होता । देखो! स्वभाव से यह सिद्ध है कि किसी का उच्छिष्ट का कोई भी न खाये । जैसे अपने मुख, नाक, आँख, उपस्थ और गुह्येन्द्रियों के मल मूत्रादि के स्पर्श में घृणा नहीं होती वैसे किसी दूसरे के मलमूत्र के स्पर्श में होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि यह व्यवहार सृष्टिक्रम से विपरीत नहीं है । इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि किसी का उच्छिष्ट अर्थात् झूठा न खाये ।
(प्रश्न) भला स्त्री – पुरूष भी परस्पर उच्छिष्ट न खावें ?
(उत्तर) नहीं क्यों कि उनके भी शरीरों का स्वभाव भिन्न – भिन्न है ।
(स० प्र० दशमसमुल्लास)