नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासं आत्यन्तिकं वसेत् । ब्राह्मणे वाननूचाने काङ्क्षन्गतिं अनुत्तमाम् । ।

अनुत्तमां गतिं कांक्षन् शिष्यः उत्तम गति चाहने वाले शिष्य को चाहिए कि वह अब्राह्मणे गुरौ अब्राह्मण गुरू के यहाँ च और अन् + अनूचाने ब्राह्मणे सांगोपांग वेदों को न जानने वाले ब्राह्मण गुरू के समीप भी आत्यन्तिकं वासं न वसेत् आजीवनपर्यन्त निवास न करे क्यों कि इनके पास शिष्य की उन्नति रूक जाती है, सांगोपांग वेदों के ज्ञाता विद्वान् के पास रहकर ही उन्नति की उत्तम गति तक पहुंच सकता है ।

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