प्रशासितारं सर्वेषां अणीयांसं अणोरपि । रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् । ।

जो सबको शिक्षा देने हारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाश स्वरूप, समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, उसको परम पुरुष जानना चाहिए । (स. प्र. प्रथम समु.)

महर्षि द्वारा अपने ग्रन्थों में यह श्लोक निम्न स्थानों पर प्रमाण या पदांश के रूप में उद्धत किया गया है-

  • द. शा. 53 (2) उपदेश-मञ्जरी 52, (3) द. ल. वेदांक 126, (4) ऋ. प. वि. 13, (5) द. ल. भ्रा. नि. 196 (6) ऋ. भा. भू. 111 ।

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