आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वं आत्मन्यवस्थितम् । आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम् ।

आत्मा अर्थात् परमेश्वर ही सब व्यवहार के पूर्वोक्त देवताओं को रचनेंवाला, और जिसमें सब जगत स्थित है, वही सब मनुष्यों का उपास्देव तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फलों का देनेहारा है ।

महर्षि द्वारा आशिंक या केवल प्रमाण रूप में यह श्लोक निम्न अन्य स्थानों पर उद्धत है-

  • द. ल. भ्रा. नि. 172, (2) द. ल. वे. ख. 24, (3) द. शा. 53, (4) ऋ. प. वि. 13, (5) ल. वे. अंक 125 ।

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