अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् । प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः ।

शास्त्र में विहित कर्मों (यज्ञोपवीत संस्कार वेदाभ्यास, संध्योपासन, यज्ञ आदि) को न करने पर, शास्त्र में निन्दित माने गये कार्यो (बुरे कर्मों से धनसंग्रह मद्यपान, हिंसा आदि) को करने पर और इन्द्रिय-विषयों में अत्यन्त आसक्त होने (काम, क्रोध, मोह में आसक्त होने) पर मनुष्य प्रायश्चित के योग्य होता है ।

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