पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च

‘‘पशुरक्षा गाय आदि पशुओं का पालन वर्धन करना, दान विद्याधर्म की वृद्धि करने कराने के लिए धनादि का व्यय करना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना अध्ययन वेदादि शास्त्रों का वणिक्पथ सब प्रकार के व्यापार करना कुसीद एक सैंकड़े में चार, छः, आठ, बारह , सोलह वा बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रूपये से अधिक न लेना और न देना कृषि खेती करना वैश्यस्य ये वैश्य के कर्म हैं ।’’

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘अध्ययनम् वेदादि शास्त्रों का पढ़ना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना दानम् अन्नादि का दान देना, ये तीन धर्म के लक्षण और पशूनां रक्षणम् गाय आदि पशुओं का पालन करना उनसे दुग्धादि का बेचना वणिक् पथम् नाना देशों की भाषा, हिसाब, भूगर्भविद्या, भूमि, बीज आदि के गुण जानना और सब पदार्थों के भावाभाव समझना कुसीदम् ब्याज का लेना कृषिमेव च खेती की विद्या का जानना, अन्न आदि की रक्षा, खात और भूमि की परीक्षा, जोतना, बोना , आदि व्यवहार का जानना, ये चार कर्म वैश्य की जीविका ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्रक०)

‘‘सवा रूपये सैंकड़े से अधिक, चार आने से न्यून ब्याज न लेवें न देवें । जब दूना धन आ जाये, उससे आगे कौड़ी न लेवे, न देवे । जितना न्यून ब्याज लेवेगा उतना ही उसका धन बढ़ेगा और कभी धन का नाश और कुसन्तान उसके कुल में न होंगे ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्रक० में ऋ० दया० की टिप्पणी)

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